प्राथमिक स्तर पर एक समान शिक्षा अदालती आदेश कारगर नही
डाक्टर राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि लोग मेरी बात सुनेंगे, शायद मेरे मरने के बाद। उनकी इस बात को एक समान शिक्षा के सवाल पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के हालिया फैसले ने चरितार्थ किया है। वे मानते थे कि संसदीय लोकतन्त्र की सफलता और उसके स्थायित्व के लिए आवश्यक है कि देश के सभी बच्चों के लिए एक जैसी शिक्षा अनिवार्य की जाये। 1974 के जे.पी. मूवमेन्ट के दौरान भी दोहरी शिक्षा व्यवस्था एक महत्वपूर्ण मुद्दा था लेकिन इस आन्दोलन की लहर पर सवार होकर सत्ता सुख पाने वाले तत्कालीन छात्र नेताओं ने राजनेता बनने के सफर के दौरान इस मुद्दे को भुला दिया और दोहरी शिक्षा के जंजाल को पहले से ज्यादा मजबूत करने का काम तेजी से किया है।
इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति श्री सुधीर अग्रवाल ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि मन्त्रियों, नेताओं, आई.ए.एस. अफसरों, जजो और सरकारी कर्मचारियों निगम अर्धसरकारी संस्थानों या जो कोई भी राज्य के खजाने से वेतन ले रहा है उनके बच्चों को सरकारी प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य किया जाये। उन्होनंे अपने इस निर्णय के अनुपालन के लिए मुख्य सचिव से अन्य अधिकारियों के साथ विचार विमर्श करके नीति बनाने और अगले शैक्षिक सत्र से इसे लागू करने का निर्देश दिया है।
संविधान के नीति निदेशक तत्व में भी कहा गया है कि राज्य छः वर्ष तक की आयु के छोटे बच्चों की देखभाल करने और उन्हंे शिक्षा देने का प्रयास करे। 42 वे संविधान संशोधन अधिनियम 1976 में अनुच्छेद 39(च) के माध्यम से नीति निदेशक तत्वों मंे बच्चों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावारण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधायें दिये जाने का प्रावधान किया गया है। और इसी को दृष्टिगत रखकर मनमोहन सिंह सरकार ने निःशुल्क एवं अनिवार्य बात शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू किया जो उत्तर प्रदेश में दिनांक 27 जुलाई 2011 से प्रभावी है परन्तु धरातल पर यह अधिनियम केवल और केवल कानूनी विशेषज्ञों के बीच चर्चा तक सीमित है। अपने नौनिहालों को उनके उज्जवल भविष्य के लिए एक समान शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराना राज्य का दायित्व है परन्तु उनको अपने इस दायित्व की सुध नही है इसीलिए न्यायपालिका को हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। विधायिका के मामलो में न्यायपालिका का प्रत्यक्ष हस्तक्षेप संविधान सम्मत नहीं है परन्तु अपने कर्तव्यों के प्रति राज्य सरकारों की उदासीनता के कारण आम आदमी न्यायपालिका के हस्तक्षेप को उचित मानता है।
आजादी के तत्काल बाद से प्रारम्भिक शिक्षा में सुधार और उसे अनिवार्य बनाने की चर्चा की जा रही है परन्तु उसे सुधारने या उसे अनिवार्य बनाने के लिए कभी किसी सरकार ने ईमानदार प्रयास नहीं किये है और उसी कारण सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में विद्यार्थियों को आजादी के अड़सठ साल बाद भी अनिवार्य बुनियाादी सुविधाओं के लिए तरसना पड़ता है।
शिक्षा के निजीकरण ने दोहरी शिक्षा व्यवस्था को और ज्यादा मजबूत किया है। निजी क्षेत्र के स्कूलों की आँधी ने सरकारी शिक्षा व्यवस्था की जड़े हिला दी है। सरकारी स्कूलों के अध्यापक भी अब अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहते है। आज से पचास साल पहले डाक्टर, वकील, इंजीनियर और अधिकारियों के बच्चे अपने घर के पास सरकारी स्कूल में ही पढ़ते थे और वहीं के विद्यार्थियों में से कई आई.ए.एस. ,पी.सी.एस. हुए है जबकि उस समय प्राथमिक विद्यालायों में हाईस्कूल पास और माध्यमिक विद्यालयों में सामान्य स्नातक अध्यापन करते थे। अब तो प्राथमिक विद्यालयों में भी प्रथम श्रेणी के परास्नातकांे की नियुिक्त की जा रही है और उन्हें शासकीय कर्मचारियों की तरह आकर्षक वेतन, भत्ते और सुविधायें दी जा रही है। लेकिन इनके विद्यार्थी शुद्ध हिन्दी लिखने में भी निपुण नहीं हो पा रहे है सच कहा जाये तो उन्हे निपुण करने का प्रयास भी नहीं किया जाता। अधिकांश नव नियुक्त आध्यापक केवल हाजिरी लगाने के लिए विद्यालय जाते हैं। विद्यार्थियों को पढ़ाने से उनका कोई वास्ता नहीं है।
मुलायम सिंह, कल्याण सिंह और मायावती के अन्धभक्त और कट्टर अनुयायी आर्थिक विपन्नता के कारण बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों या कारपोरेट स्कूलों में पढ़ा पाने में अपने आपको असमर्थ पाते है। स्थानीय सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाना उनकी मजबूरी है। उनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं है परन्तु इन लोगों ने अपने मुख्य मन्त्रित्व काल में स्थानीय सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधायें उपलब्ध करा कर उनकी शैक्षिक गुणवत्ता को सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया। अपने विद्यार्थी जीवन में इन लोगों ने दोहरी शिक्षा व्यवस्था के लिए काँग्रेसी सरकारों को जमकर कोसा है और उसके विरूद्ध आन्दोलन किये है। कल्याण सिंह ने अपने कार्यकाल में प्राथमिक स्कूलों में उच्च शिक्षित अध्यापको की नियुक्ति की थी और उसके बाद कमोबेश सभी सरकारों ने अध्यापको की नियुक्ति में शैक्षिक मापदण्डों के साथ समझौता नहीं किया परन्तु स्कूलों में अध्ययन अध्यापन लायक गरिमामय रचनात्मक माहौल बनाने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया। सैकड़ो स्कूलों में केवल एक अध्यापक कक्षा एक से पाँच तक के विद्यार्थियों को पढ़ा रहे है। भारी कमी के बावजूद अध्यापकों से गैर शैक्षणिक कार्य लिया जाना आम बात हो गयी है। प्राथमिक स्कूलों में दो और उच्च प्राथमिक स्कूलों में विज्ञान गणित और भाषा के कम से कम तीन अध्यापकों की नियुक्ति का प्रावधान है। अखिलेश सरकार को स्वयं संज्ञान लेकर न्यायपालिका के हस्तक्षेप की प्रतीक्षा किये बिना आर्थिक दृष्टि से विपन्न परिवारों के नौनिहालों के उज्जवल भविष्य के लिए सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में बुनियादी शैक्षिक सुविधाये उपलब्ध करानी चाहिए।
पचास साठ के दशक में जिला पंचायत, नगर पालिकाओं, रेलवे आदि के प्राथमिक विद्यालय हुआ करते थे और वहां अच्छी पढ़ाई भी होती थी समय के साथ इन स्कूलों के भवनों का व्यवसायिक महत्व बढ़ गया इसलिए इन स्कूलों की जमीनों को बेचने के लिए जानबूझकर प्रचार किया गया कि अब कोई अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना ही नही चाहता जबकि सच इसके प्रतिकूल है। आज भी जिन सरकारी स्कूलों का शैक्षिक स्तर ठीक है, वहां आम लोगो के बच्चों को प्रवेश नहीं मिल पाता। सार्वजनिक धन से स्थापित दिल्ली का संस्कृति स्कूल इसका जीता जागता उदाहरण है। इस स्कूल में आला नौकरशाहों और उच्च स्तरीय राजनेताओं के बच्चों को प्रवेश मिल पाता हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत इस स्कूल में एक भी निर्धन विद्यार्थी को प्रवेश नहीं मिल पाता। केन्द्र सरकार की नाक के नीचे उसके व्यय पर चल रहे इस स्कूल में शिक्षा के अधिकार अधिनियम को लागू करने की चिन्ता किसी को नहीं है। प्राथमिक स्तर पर एक समान शिक्षा नीति लागू करने के लिए अदालती आदेश कारगर नहीं है परन्तु यह भी सच है कि यदि न्यायमूर्ति श्री सुधीर अग्रवाल द्वारा पारित आदेश का अनुपालन प्रदेश सरकार सुनिश्चित कराये और सरकारी, अर्द्धसरकारी कर्मचारियों, जनप्रतिनिधियों, न्यायाधीशों आदि सरकारी खजाने से वेतन या पारिश्रमिक पाने वाले विशिष्ट लोगों के बच्चे जब सरकारी स्कूलोें में पढ़ने लगेंगे तो निश्चित रूप से दोहरी शिक्षा व्यवस्था के अभिशाप से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा।
डाक्टर राम मनोहर लोहिया कहा करते थे कि लोग मेरी बात सुनेंगे, शायद मेरे मरने के बाद। उनकी इस बात को एक समान शिक्षा के सवाल पर इलाहाबाद हाई कोर्ट के हालिया फैसले ने चरितार्थ किया है। वे मानते थे कि संसदीय लोकतन्त्र की सफलता और उसके स्थायित्व के लिए आवश्यक है कि देश के सभी बच्चों के लिए एक जैसी शिक्षा अनिवार्य की जाये। 1974 के जे.पी. मूवमेन्ट के दौरान भी दोहरी शिक्षा व्यवस्था एक महत्वपूर्ण मुद्दा था लेकिन इस आन्दोलन की लहर पर सवार होकर सत्ता सुख पाने वाले तत्कालीन छात्र नेताओं ने राजनेता बनने के सफर के दौरान इस मुद्दे को भुला दिया और दोहरी शिक्षा के जंजाल को पहले से ज्यादा मजबूत करने का काम तेजी से किया है।
इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति श्री सुधीर अग्रवाल ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि मन्त्रियों, नेताओं, आई.ए.एस. अफसरों, जजो और सरकारी कर्मचारियों निगम अर्धसरकारी संस्थानों या जो कोई भी राज्य के खजाने से वेतन ले रहा है उनके बच्चों को सरकारी प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य किया जाये। उन्होनंे अपने इस निर्णय के अनुपालन के लिए मुख्य सचिव से अन्य अधिकारियों के साथ विचार विमर्श करके नीति बनाने और अगले शैक्षिक सत्र से इसे लागू करने का निर्देश दिया है।
संविधान के नीति निदेशक तत्व में भी कहा गया है कि राज्य छः वर्ष तक की आयु के छोटे बच्चों की देखभाल करने और उन्हंे शिक्षा देने का प्रयास करे। 42 वे संविधान संशोधन अधिनियम 1976 में अनुच्छेद 39(च) के माध्यम से नीति निदेशक तत्वों मंे बच्चों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावारण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधायें दिये जाने का प्रावधान किया गया है। और इसी को दृष्टिगत रखकर मनमोहन सिंह सरकार ने निःशुल्क एवं अनिवार्य बात शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू किया जो उत्तर प्रदेश में दिनांक 27 जुलाई 2011 से प्रभावी है परन्तु धरातल पर यह अधिनियम केवल और केवल कानूनी विशेषज्ञों के बीच चर्चा तक सीमित है। अपने नौनिहालों को उनके उज्जवल भविष्य के लिए एक समान शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराना राज्य का दायित्व है परन्तु उनको अपने इस दायित्व की सुध नही है इसीलिए न्यायपालिका को हस्तक्षेप करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। विधायिका के मामलो में न्यायपालिका का प्रत्यक्ष हस्तक्षेप संविधान सम्मत नहीं है परन्तु अपने कर्तव्यों के प्रति राज्य सरकारों की उदासीनता के कारण आम आदमी न्यायपालिका के हस्तक्षेप को उचित मानता है।
आजादी के तत्काल बाद से प्रारम्भिक शिक्षा में सुधार और उसे अनिवार्य बनाने की चर्चा की जा रही है परन्तु उसे सुधारने या उसे अनिवार्य बनाने के लिए कभी किसी सरकार ने ईमानदार प्रयास नहीं किये है और उसी कारण सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में विद्यार्थियों को आजादी के अड़सठ साल बाद भी अनिवार्य बुनियाादी सुविधाओं के लिए तरसना पड़ता है।
शिक्षा के निजीकरण ने दोहरी शिक्षा व्यवस्था को और ज्यादा मजबूत किया है। निजी क्षेत्र के स्कूलों की आँधी ने सरकारी शिक्षा व्यवस्था की जड़े हिला दी है। सरकारी स्कूलों के अध्यापक भी अब अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहते है। आज से पचास साल पहले डाक्टर, वकील, इंजीनियर और अधिकारियों के बच्चे अपने घर के पास सरकारी स्कूल में ही पढ़ते थे और वहीं के विद्यार्थियों में से कई आई.ए.एस. ,पी.सी.एस. हुए है जबकि उस समय प्राथमिक विद्यालायों में हाईस्कूल पास और माध्यमिक विद्यालयों में सामान्य स्नातक अध्यापन करते थे। अब तो प्राथमिक विद्यालयों में भी प्रथम श्रेणी के परास्नातकांे की नियुिक्त की जा रही है और उन्हें शासकीय कर्मचारियों की तरह आकर्षक वेतन, भत्ते और सुविधायें दी जा रही है। लेकिन इनके विद्यार्थी शुद्ध हिन्दी लिखने में भी निपुण नहीं हो पा रहे है सच कहा जाये तो उन्हे निपुण करने का प्रयास भी नहीं किया जाता। अधिकांश नव नियुक्त आध्यापक केवल हाजिरी लगाने के लिए विद्यालय जाते हैं। विद्यार्थियों को पढ़ाने से उनका कोई वास्ता नहीं है।
मुलायम सिंह, कल्याण सिंह और मायावती के अन्धभक्त और कट्टर अनुयायी आर्थिक विपन्नता के कारण बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों या कारपोरेट स्कूलों में पढ़ा पाने में अपने आपको असमर्थ पाते है। स्थानीय सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढ़ाना उनकी मजबूरी है। उनके पास अन्य कोई विकल्प नहीं है परन्तु इन लोगों ने अपने मुख्य मन्त्रित्व काल में स्थानीय सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधायें उपलब्ध करा कर उनकी शैक्षिक गुणवत्ता को सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया। अपने विद्यार्थी जीवन में इन लोगों ने दोहरी शिक्षा व्यवस्था के लिए काँग्रेसी सरकारों को जमकर कोसा है और उसके विरूद्ध आन्दोलन किये है। कल्याण सिंह ने अपने कार्यकाल में प्राथमिक स्कूलों में उच्च शिक्षित अध्यापको की नियुक्ति की थी और उसके बाद कमोबेश सभी सरकारों ने अध्यापको की नियुक्ति में शैक्षिक मापदण्डों के साथ समझौता नहीं किया परन्तु स्कूलों में अध्ययन अध्यापन लायक गरिमामय रचनात्मक माहौल बनाने की दिशा में कोई प्रयास नहीं किया। सैकड़ो स्कूलों में केवल एक अध्यापक कक्षा एक से पाँच तक के विद्यार्थियों को पढ़ा रहे है। भारी कमी के बावजूद अध्यापकों से गैर शैक्षणिक कार्य लिया जाना आम बात हो गयी है। प्राथमिक स्कूलों में दो और उच्च प्राथमिक स्कूलों में विज्ञान गणित और भाषा के कम से कम तीन अध्यापकों की नियुक्ति का प्रावधान है। अखिलेश सरकार को स्वयं संज्ञान लेकर न्यायपालिका के हस्तक्षेप की प्रतीक्षा किये बिना आर्थिक दृष्टि से विपन्न परिवारों के नौनिहालों के उज्जवल भविष्य के लिए सरकारी प्राथमिक विद्यालयों में बुनियादी शैक्षिक सुविधाये उपलब्ध करानी चाहिए।
पचास साठ के दशक में जिला पंचायत, नगर पालिकाओं, रेलवे आदि के प्राथमिक विद्यालय हुआ करते थे और वहां अच्छी पढ़ाई भी होती थी समय के साथ इन स्कूलों के भवनों का व्यवसायिक महत्व बढ़ गया इसलिए इन स्कूलों की जमीनों को बेचने के लिए जानबूझकर प्रचार किया गया कि अब कोई अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाना ही नही चाहता जबकि सच इसके प्रतिकूल है। आज भी जिन सरकारी स्कूलों का शैक्षिक स्तर ठीक है, वहां आम लोगो के बच्चों को प्रवेश नहीं मिल पाता। सार्वजनिक धन से स्थापित दिल्ली का संस्कृति स्कूल इसका जीता जागता उदाहरण है। इस स्कूल में आला नौकरशाहों और उच्च स्तरीय राजनेताओं के बच्चों को प्रवेश मिल पाता हैं। शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत इस स्कूल में एक भी निर्धन विद्यार्थी को प्रवेश नहीं मिल पाता। केन्द्र सरकार की नाक के नीचे उसके व्यय पर चल रहे इस स्कूल में शिक्षा के अधिकार अधिनियम को लागू करने की चिन्ता किसी को नहीं है। प्राथमिक स्तर पर एक समान शिक्षा नीति लागू करने के लिए अदालती आदेश कारगर नहीं है परन्तु यह भी सच है कि यदि न्यायमूर्ति श्री सुधीर अग्रवाल द्वारा पारित आदेश का अनुपालन प्रदेश सरकार सुनिश्चित कराये और सरकारी, अर्द्धसरकारी कर्मचारियों, जनप्रतिनिधियों, न्यायाधीशों आदि सरकारी खजाने से वेतन या पारिश्रमिक पाने वाले विशिष्ट लोगों के बच्चे जब सरकारी स्कूलोें में पढ़ने लगेंगे तो निश्चित रूप से दोहरी शिक्षा व्यवस्था के अभिशाप से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा।