उत्पीडन का कारण बनी धारा 138
नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट की धारा 138 के बढ़ते दुरूपयोग और विभिन्न जनपदों के अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष चालिस लाख से ज्यादा मुकदमों के लम्बित हो जाने, नये मुकदमों के दाखिले की तेज गति को केन्द्र सरकार ने गम्भीरता से लिया है और नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में संशोधन करके सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 89 की तर्ज पर सुलह समझौते और लोक अदालतों के माध्यम से मुकदमों को निस्तारित कराने की अनिवार्यता लागू करने का निर्णय लिया है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री के0एस0 राधाकृष्णन और दीपक मिश्रा की खण्ड पीठ ने इण्डियन बैंक एसोशियेसन द्वारा दाखिल जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान धारा 138 के बढ़ते मुकदमोें को बोझ को अधीनस्थ न्यायालयों के लिए गम्भीर समस्या बताया है और इससे निपटने के लिए केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों से सुझाव माँगे है।
आज के युग में व्यवसायिक संव्यवहारों मेें चेक का प्रयोग एक आम बात है और इसीलिए केन्द्र सरकार ने चेक की विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में संशोध्न करके चेक अनादरण को अपराध बनाया है। व्यापारिक लेनदेन से सम्बन्धित चेक अनादरण के मुकदमें अदालतों में काफी कम संख्या में है परन्तु सम्पूर्ण देश में वित्तीय संस्थानों ने इस धारा का बड़े पैमाने पर दुरूपयोग किया और इसे अपनी बकाया राशि की वसूली के लिए बारोबर पर अनुचित दबाव का माध्यम बना लिया है।
बारोबर को उत्पीडित करने के लिए वित्तीय संस्थानों की तरफ से फतेहपुर, छिबरामऊ, देवरिया, हरदोइर्, सीतापुर जैसे छोटे शहरों में निर्गत चेक को मुम्बई, कोलकता, गुड़गाँव, चेन्नई आदि शहरों मे ंअनादृत कराके वही मुकदमा दाखिल किये जाते है और वहाँ से गैर जमानती वारण्ट दस्ती लाकर आम लोगों को उत्पीडित किया जाता है।
इण्डिया बुल्स फायनेन्सियल सर्विसेस लिमिटेड ने कानपुर की श्रीमती रागिनी सिंह के विरूद्ध चेक अनादरण के तीन अलग अलग मुकदमें गुडगाँव में दाखिल किये है जबकि कथित अनादृत तीनों चेको का नगद भुगतान उन्होंने कम्पनी को कर दिया है और उनके विरूद्ध चेक अनादरण का अपराध नही बनता फिर भी कम्पनी ने अदालत से गैर जमानती वारण्ट प्राप्त कर लिया जिसके कारण रागिनी सिंह को गुडगाँव जाकर जमानत करानी पड़ी। गुडगाँव में जमानत के लिए दो व्यक्तियों को खोजने में उन्हें अनेको दिक्कतों का सामना करना पड़ा। कम्पनी का यह आचरण विधिक प्रक्रिया के दुरूपयोग और अपराध की परिधि में आता है परन्तु एन.आई.एक्ट में कोई प्रावधान न होने के कारण रागिनी सिंह और उनके जैसे बहुत से लोग उत्पीडि़त होने को अभिशप्त है।
धारा 138 के दुरूपयोग को रोकने और जुर्माना आदि में एकरूपता बनाये रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने दामोदर एस प्रभु बनाम सय्यद बाबा लाल एच (2010-5- सुप्रीम कोर्ट केसेज पेज 663) के द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों के लिए दिशा निर्देश जारी किये है। इन निर्देशों के तहत अभियुक्त को प्रेषित किये जाने वाले सम्मनों को संशोधित करके उसमें लिखा जाना है कि यदि अभियुक्त सुनवाई के लिए नियत प्रथम या द्वितीय तिथि पर उपस्थित होकर कम्पाउण्डिंग के लिए आवदेन करेगा तो उसका प्रार्थनापत्र उसके विरूद्ध कोई जुर्माना अधिरोपित किये बिना स्वीकार किया जायेगा और यदि आवेदन इसके बाद करेगा तो चेक पर अंकित राशि का दस प्रतिशत विधिक सेवा प्राधिकरण में जमा कराने के बाद स्वीकार किया जायेगा अर्थात किसी भी दशा में बैंकिंग संस्थान को चेक में अंकित राशि से ज्यादा राशि वसूलने का अवसर नही दिया जायेगा। परन्तु सर्वोच्च नयायालय के दिशा निर्देशों के अनुरूप सम्मन में कोई संशोधन नही किया गया है।
मुकदमों के त्वरित निपटारे के लिए केन्द्र सरकार ने वर्ष 2002 में नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में संशोधन करके मुकदमों को छः माह के अन्दर निस्तारित करने शपथपत्र पर साक्ष्य लेने और बैंक रिटर्न स्लिप को सुसंगत साक्ष्य मानने का कानून बना दिया है। संशोधन के द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता से पृथक सम्मन की तामीली के लिए स्पीड और प्रायवेट कोरियर कम्पनी की सेवायें लेने की अनुमति भी प्रदान की गई है। धारा 138 के मुकदमों में सम्मन की तामीली के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 61 से 90 में वर्णित प्रक्रिया के अनुपालन में शिथिलता दी गई है परन्तु संशोधन अधिनियम 2002 मुकदमों के त्वरित निस्तारण का माध्यम नही बन सका बल्कि इन प्रावधानों का अनुचित लाभ उठाकर वित्तीय संस्थानों ने एक ही दिन में सौ दो सौ मुकदमें एक साथ दाखिल करके सम्बन्धित अधीनस्थ न्यायालय की पेन्डेन्सी बढ़ा दी। अदालतों में स्टाप की कमी का भी इन संस्थानों ने अनुचित लाभ उठाया और अदालत के कार्यालय में अपना कर्मचारी बैठाकर अपनी पत्रावलियों का रख रखाव कराते है।
इस अधिनियम के दुरूपयोग पर अंकुश लगाने के लिए केन्द्र सरकार ने नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में संशोधन करने का निर्णय लिया और अपेक्षित सुझावों के लिए मन्त्रिमण्डलीय समूह का गठन किया है जो विधि मन्त्रालय और वित्त मन्त्रालय के साथ विचार विमर्श करके नीति निर्धारित करेगा। शुरूआती विचार विमर्श में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 89 की तर्ज पर नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में भी सुलह समझौते से मुकदमों के निपटारे की अनिवार्यता लागू करने पर सहमति बनी है। सरकार लोक अदालतों के माध्यम से भी इन मुकदमों को निपटाने पर जोर देगी। प्रस्तावित संशोधन के द्वारा चेक में अंकित राशि पर दो प्रतिशत न्याय शुल्क लेने पर भी सहमति बनी है। महाराष्ट्र में बाम्बे कोर्ट फीस अधिनियम में राज्य स्तरीय संशोधन करके दस हजार रूपये तक की चेको पर दो सौ रूपये और फिर प्रत्येक दस हजार पर दो सौ रूपये अतिरिक्त अधिकतम 1.50 लाख रूपये तक कोर्ट फीस लेने का प्रावधान पहले ही लागू किया जा चुका है। अन्य राज्यों में अभी किसी भी राशि की अनादृत चेक पर केवल एक रूपये पचास पैसे का न्याय शुल्क देय है।
आज के युग में व्यवसायिक संव्यवहारों मेें चेक का प्रयोग एक आम बात है और इसीलिए केन्द्र सरकार ने चेक की विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में संशोध्न करके चेक अनादरण को अपराध बनाया है। व्यापारिक लेनदेन से सम्बन्धित चेक अनादरण के मुकदमें अदालतों में काफी कम संख्या में है परन्तु सम्पूर्ण देश में वित्तीय संस्थानों ने इस धारा का बड़े पैमाने पर दुरूपयोग किया और इसे अपनी बकाया राशि की वसूली के लिए बारोबर पर अनुचित दबाव का माध्यम बना लिया है।
बारोबर को उत्पीडित करने के लिए वित्तीय संस्थानों की तरफ से फतेहपुर, छिबरामऊ, देवरिया, हरदोइर्, सीतापुर जैसे छोटे शहरों में निर्गत चेक को मुम्बई, कोलकता, गुड़गाँव, चेन्नई आदि शहरों मे ंअनादृत कराके वही मुकदमा दाखिल किये जाते है और वहाँ से गैर जमानती वारण्ट दस्ती लाकर आम लोगों को उत्पीडित किया जाता है।
इण्डिया बुल्स फायनेन्सियल सर्विसेस लिमिटेड ने कानपुर की श्रीमती रागिनी सिंह के विरूद्ध चेक अनादरण के तीन अलग अलग मुकदमें गुडगाँव में दाखिल किये है जबकि कथित अनादृत तीनों चेको का नगद भुगतान उन्होंने कम्पनी को कर दिया है और उनके विरूद्ध चेक अनादरण का अपराध नही बनता फिर भी कम्पनी ने अदालत से गैर जमानती वारण्ट प्राप्त कर लिया जिसके कारण रागिनी सिंह को गुडगाँव जाकर जमानत करानी पड़ी। गुडगाँव में जमानत के लिए दो व्यक्तियों को खोजने में उन्हें अनेको दिक्कतों का सामना करना पड़ा। कम्पनी का यह आचरण विधिक प्रक्रिया के दुरूपयोग और अपराध की परिधि में आता है परन्तु एन.आई.एक्ट में कोई प्रावधान न होने के कारण रागिनी सिंह और उनके जैसे बहुत से लोग उत्पीडि़त होने को अभिशप्त है।
धारा 138 के दुरूपयोग को रोकने और जुर्माना आदि में एकरूपता बनाये रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने दामोदर एस प्रभु बनाम सय्यद बाबा लाल एच (2010-5- सुप्रीम कोर्ट केसेज पेज 663) के द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों के लिए दिशा निर्देश जारी किये है। इन निर्देशों के तहत अभियुक्त को प्रेषित किये जाने वाले सम्मनों को संशोधित करके उसमें लिखा जाना है कि यदि अभियुक्त सुनवाई के लिए नियत प्रथम या द्वितीय तिथि पर उपस्थित होकर कम्पाउण्डिंग के लिए आवदेन करेगा तो उसका प्रार्थनापत्र उसके विरूद्ध कोई जुर्माना अधिरोपित किये बिना स्वीकार किया जायेगा और यदि आवेदन इसके बाद करेगा तो चेक पर अंकित राशि का दस प्रतिशत विधिक सेवा प्राधिकरण में जमा कराने के बाद स्वीकार किया जायेगा अर्थात किसी भी दशा में बैंकिंग संस्थान को चेक में अंकित राशि से ज्यादा राशि वसूलने का अवसर नही दिया जायेगा। परन्तु सर्वोच्च नयायालय के दिशा निर्देशों के अनुरूप सम्मन में कोई संशोधन नही किया गया है।
मुकदमों के त्वरित निपटारे के लिए केन्द्र सरकार ने वर्ष 2002 में नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में संशोधन करके मुकदमों को छः माह के अन्दर निस्तारित करने शपथपत्र पर साक्ष्य लेने और बैंक रिटर्न स्लिप को सुसंगत साक्ष्य मानने का कानून बना दिया है। संशोधन के द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता से पृथक सम्मन की तामीली के लिए स्पीड और प्रायवेट कोरियर कम्पनी की सेवायें लेने की अनुमति भी प्रदान की गई है। धारा 138 के मुकदमों में सम्मन की तामीली के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 61 से 90 में वर्णित प्रक्रिया के अनुपालन में शिथिलता दी गई है परन्तु संशोधन अधिनियम 2002 मुकदमों के त्वरित निस्तारण का माध्यम नही बन सका बल्कि इन प्रावधानों का अनुचित लाभ उठाकर वित्तीय संस्थानों ने एक ही दिन में सौ दो सौ मुकदमें एक साथ दाखिल करके सम्बन्धित अधीनस्थ न्यायालय की पेन्डेन्सी बढ़ा दी। अदालतों में स्टाप की कमी का भी इन संस्थानों ने अनुचित लाभ उठाया और अदालत के कार्यालय में अपना कर्मचारी बैठाकर अपनी पत्रावलियों का रख रखाव कराते है।
इस अधिनियम के दुरूपयोग पर अंकुश लगाने के लिए केन्द्र सरकार ने नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में संशोधन करने का निर्णय लिया और अपेक्षित सुझावों के लिए मन्त्रिमण्डलीय समूह का गठन किया है जो विधि मन्त्रालय और वित्त मन्त्रालय के साथ विचार विमर्श करके नीति निर्धारित करेगा। शुरूआती विचार विमर्श में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 89 की तर्ज पर नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में भी सुलह समझौते से मुकदमों के निपटारे की अनिवार्यता लागू करने पर सहमति बनी है। सरकार लोक अदालतों के माध्यम से भी इन मुकदमों को निपटाने पर जोर देगी। प्रस्तावित संशोधन के द्वारा चेक में अंकित राशि पर दो प्रतिशत न्याय शुल्क लेने पर भी सहमति बनी है। महाराष्ट्र में बाम्बे कोर्ट फीस अधिनियम में राज्य स्तरीय संशोधन करके दस हजार रूपये तक की चेको पर दो सौ रूपये और फिर प्रत्येक दस हजार पर दो सौ रूपये अतिरिक्त अधिकतम 1.50 लाख रूपये तक कोर्ट फीस लेने का प्रावधान पहले ही लागू किया जा चुका है। अन्य राज्यों में अभी किसी भी राशि की अनादृत चेक पर केवल एक रूपये पचास पैसे का न्याय शुल्क देय है।
उपरोक्त चेक के राषि का भुगतान सचिव एवं अध्यक्ष द्वारा किया जाना था, इस लिये चेक की आधी राषि का भुगतान सचिव करने को तैयार है। एवं आधी राषि का भुगतान अध्यक्ष द्वारा कराया जावे। इसके बारे मे जानकारी दवें
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