Saturday, 26 October 2013

जमानत की स्वीकृति नियम है अस्वीकृति अपवाद ...........


इलाहाबाद उच्च न्यायालय की सात सदस्यीय खण्ड पीठ ने अमरावती एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ यू.पी. में अपने निर्णय दिनांक 15 अक्टूबर 2004 के द्वारा प्रतिपादित किया है कि  दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 की परिधि में आने वाले अपराधों में जमानत प्रार्थनापत्रों का निस्तारण उसी दिन किया जाना चाहिये। धारा 439 की परिधि में आने वाले अपराधों में जमानत प्रार्थनापत्रों का निस्तारण उसे प्रस्तुत किये जाने की तिथि पर करने या न करने और अन्तरिम जमानत देने का सम्पूर्ण विवेकाधिकार अधीनस्थ न्यायालयों में निहित है। इसी निर्णय में यह भी कहा गया है कि समान्यतः उच्च न्यायालय को जमानत प्रार्थनापत्रों को उसी दिन निस्तारित करने का आदेश अधीनस्थ न्यायालयों को नही देना चाहिये। 
अपने आपराधिक न्याय प्रशासन मे जमानत स्वीकार करने या खारिज करने का सम्पूर्ण विवेकाधिकार सम्बन्धित न्यायिक अधिकारी में निहित है और दिन प्रतिदिन की गतिविधियों में उच्च न्यायालय द्वारा इस व्यवस्था में हस्तक्षेप करने का कोई विधिक औचित्य भी नही है परन्तु अमरावती के मामले में पारित निर्णय की भावना को दृष्टिगत रखकर अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष उनके स्तर पर जमानत प्रार्थनापत्रों के उसी दिन निस्तारण और निस्तारण न होने की दशा में अभियुक्त को अन्तरिम जमानत पर रिहा करने की गति काफी धीमी है। उसी दिन निस्तारण या अन्तरिम जमानत के लिए प्रत्येक मामले में उच्च न्यायालय द्वारा आदेश लाना आवश्यक बना लिया गया है, जो अमरावती और बाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लाल कमलेन्द्र प्रताप सिंह बनाम स्टेट आफ यू.पी. के मामलों मे प्रतिपादित सिद्धान्तों के अनुकूल नही है। आर्थिक कारणो से उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल करने में असमर्थ लोगों को युक्तियुक्त आधार होने के बावजूद अन्तरिम जमानत नही मिल पाती और वे जेल जाने को  विवश होते है।
अपने देश में हजारो विचाराधीन बन्दी विचारण के समाप्त होने की प्रतीक्षा में वर्षों से जेल में है। किसी युक्तियुक्त कारण के बिना उनकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार का हनन हो रहा है। अमरावती के मामले में स्वीकार किया गया है कि उत्तर प्रदेश में आपराधिक विचारण के निस्तारण में औसतन 5 वर्ष का समय लगता है। अदालतो के स्तर पर दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 309 प्रभावी नही हो सकी हैं। माह दर माह अभियोजन साक्ष्य के लिए नियत तिथियाँ स्थगित होती रहती है। कई बार तो गलत पता लिखा होने के कारण साक्षी पर सम्मन भी तामील नही हो पाता। इन स्थितियों में भी अभियोजन साक्ष्य क्लोज नही हो पाती और न अभियुक्त को जमानत पर रिहा किया जाता है। अभियोजन के अपने कारणो से विचारण में विलम्ब होने के बावजूद अभियुक्त को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों के तहत जमानत पर रिहा नही किया जाता। 
दण्ड प्रक्रिया संहिता या अन्य किसी अधिनियम में जमानत को परिभाषित नही किया गया है। हाल्सवरी ला आफ इंग्लैण्ड के अनुसार जमानत रिहाई की एक प्रक्रिया है जिसमें आरोपी को उसके श्योरटीज की अभिरक्षा मे इस शर्त के साथ दिया जाता है कि न्यायालय की अपेक्षा पर वे उसे विचारण के समक्ष प्रस्तुत करेंगे। जमानत की स्वीकृति या अस्वीकृति का सिद्धान्त न्यायालयों के निर्णय के तहत विकसित हुआ है। इसमें विधायिका की भूमिका नगण्य है। जमानत की अवधारणा पुलिस की शक्तियों और किसी व्यक्ति विशेष की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के मध्य विरोधाभाष पैदा करती है। अपने देश में दोष सिद्ध न होने तक किसी भी आरोपी को निर्दोष माना जाता है। उसे दोषी मानकर दण्डित करने के आशय से जमानत अस्वीकृत नही की जा सकती है। वास्तव में किसी की भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता उसका मौलिक अधिकार है और उसे विधि सम्मत कारणों के बिना प्रतिबन्धित नही किया जा सकता।
विभिन्न उच्च न्यायालयो और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णयो के तहत किसी भी अपराध में अभियुक्त को उसके विचारण के पूर्व और उसके दौरान अपवाद स्वरूप विशेष परिस्थितियों में ही जमानत देने से इन्कार किया जाना चाहिये। अपने देश में अदालत द्वारा दोष सिद्ध घोषित न किये जाने तक अभियुक्त को निर्दोष माना जाता है परन्तु जमानत न मिलने की दशा में सर्वस्वीकृत निर्दोषिता की अवधारणा का उल्लंघन होता है। 
स्टेट आफ केरल बनाम रनीफ (2011-1-एस.सी.सी.-पेज-784 में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार किया है कि आपराधिक विचारण के दौरान अभियुक्तो को जमानत न मिल पाने के कारण उनकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार का हनन होता है। जमानत न मिलने के बाद दोषमुक्त हो जाने की दशा में जेल में बिताये गये उसके समय को क्या कोई वापस दे सकता है ? जेल में निरूद्ध रहने के कारण उसके और उसके परिवार को गम्भीर आर्थिक संकट का शिकार होना पड़ता है और अभियुक्त अपने बचाव के समान अवसरो से भी वंचित हो जाता है जो अनुच्छेद 14 एवं 21 के प्रतिकूल है। यह सच है कि विचाराधीन बन्दियों को सरकार के व्यय पर उनका बचाव करने के लिए न्यायमित्र दिये जाते है। इन न्यायमित्रों की नियुक्ति में निष्पक्षता और पारदर्शिता का अभाव रहता है जिसके कारण न्यायमित्रों की व्यवसायिक कुशलता का पक्ष नगण्य हो जाता है। 
संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक नागरिक को जीवन और स्वतन्त्रता का अधिकार देता है। जमानत की अवधारणा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार से सम्बन्धित है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालय को जमानत अस्वीकृत करते समय काँशश और केयरफुल रहने के लिए निर्देशित किया है। माना गया है कि आरोपियों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता किसी युक्तियुक्त कारण के बिना प्रतिबन्धित नही की जानी चाहिये। विचारण के समय न्यायालय के समक्ष अभियुक्त की उपस्थिति को सुनिश्चित कराना जमानत का उद्देश्य होता है ऐसी दशा में यदि न्यायालय को विश्वास हो जाता है कि विचारण के समय अभियुक्त न्यायालय के समक्ष उपस्थित रहेगा और उसके फरार होने या उसके द्वारा साक्ष्य को कुप्रभावित करने की सम्भावना नही है तो उसे जमानत दी जानी चाहिये। अपराध की जाँच विवेचना और विचारण के दौरान केवल अभियोजन की संतुष्टि के लिए किसी को भी जेल में बनाये रखकर उसे अपने जीवन की रक्षा और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से वंचित नही किया जा सकता उसे संविधान के तहत प्राप्त अधिकारों का उसी तरह प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त है, जिस तरह देश के अन्य नागरिक अनुच्छेद 14 एवं 21 के द्वारा प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते है। वास्तव में जमानत मिलने के बाद केवल 1 प्रतिशत अभियुक्त न्यायालय के समक्ष विचारण के लिए उपस्थित नही होते परन्तु इसके लिए केवल जमानत को दोषी बताना उचित नही है। विवेचना के दौरान अभियुक्त या साक्षियों का जो पता लिखा जाता है, कई बार वो बस्ती ऊजाड़ दी जाती है और उसके कारण विचारण प्रारम्भ होने की सूचना ही अभियुक्त तक नही पहुँच पाती।
स्वतन्त्र भारत में संविधान लागू होने के पूर्व वर्ष 1950 में सर्वोच्च न्यायालय ने ए.के. गोपालन बनाम स्टेट आफ मद्रास (ए.आइ.आर.-1950-एस.सी.-पेज-27) के द्वारा प्रतिपादित किया था कि किसी की भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता उसका मौलिक अधिकार है और उसे विधि सम्मत कारणों के बिना प्रतिबन्धित नही किया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय के इसी सिद्धान्त को दृष्टिगत रखकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की सात सदस्यीय खण्ड पीठ ने अमरावती के मामले में पुनः इसी सिद्धान्त को दोहराया है। अपनी न्यायिक व्यवस्था में जमानत चाहने वाले व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष जमानत प्रार्थनापत्र प्रस्तुत करने के समय स्वयं आत्मसमर्पण भी करना पड़ता है। जमानत प्रार्थनापत्र की प्रति न्यायालय के शासकीय अधिवक्ता को दी जाती है। प्रायः प्रति पाने के बाद सम्बन्धित थाने से आख्या मँगाने के लिए समय माँगा जाता है जिसके कारण प्रार्थनापत्र को निस्तारण के लिए अगले कार्य दिवस या अन्य किसी कार्य दिवस की तिथि नियत की जाती है और इस दौरान अभियुक्त को जेल भेज दिया जाता है। नित्य प्रति देखा जाता है कि अभियोजन की तर से प्रत्येक प्रार्थनापत्र का विरोध किया जाता है। प्रायः किसी सुसंगत आधार के बिना भी जमानत प्रार्थनापत्रों का विरोध अभियोजन की आदत है। करीसराज बनाम स्टेट आफ पंजाब (2000-क्रिमिनल ला जनरल-पेज-2993-पेरा-5) में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि वैवाहिक विवादों में सभी पारिवारिक सदस्यों को दोषी बताने की प्रवृति इन दिनों तेजी से बढ़ी है। ऐसे मामलों में अभियोजन की आख्या की प्रतीक्षा मे अभियुक्त के जमानत प्रार्थनापत्र का निस्तारण नही हो पाता और वह जेल में निरूद्ध रहने को विवश होता है। बाद में उसे जमानत मिल जाती है, परन्तु इस दौरान उसका मान सम्मान उसकी व्यक्तिगत गरिमा प्रतिष्ठा नष्ट हो जाती है। इसीलिये अमरावती के मामले में कहा गया है कि जमानत प्रार्थनापत्रों के निस्तारण के लिए अभियोजन को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर देने और अवसर देने के कारण अभियुक्त को जेल भेजते समय अधीनस्थ न्यायालयों को संविधान के अनुच्छेद 21 के द्वारा सभी नागरिकों को प्रदत्त व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार को दृष्टिगत रखना चाहिये। 
अमरावती और लाल कमलेन्द्र प्रताप सिंह के मामलों में पारित निर्णयों के पूर्व लतीफ बनाम स्टेट आफ उत्तर प्रदेश (1990-ए.सी.सी.-पेज-440) आदि अन्य कई मामलों में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया है कि यदि किन्ही कारणों से अभियुक्त द्वारा प्रस्तुत जमानत प्रार्थनापत्र का निस्तारण उसी दिन नही हो सकता तो अभियुक्त को व्यक्तिगत बन्धपत्र लेकर जमानत प्रार्थनापत्र के निस्तारण तक  अन्तरिम जमानत दे देनी चाहिये। जमानत किसी व्यक्ति का प्रक्रियागत अधिकार नही है बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त मौलिक अधिकार है। विचारण के दौरान अभियुक्त के फरार रहने की कोई आशंका न होने की स्थिति में जमानत दी जानी चाहियें। 

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