Sunday, 3 November 2013

प्रशासन में राजनैतिक दखल, नौकरशाह खुद जिम्मेदार


सर्वोच्च न्यायालय के न्यायामूर्ति श्री के0 एस0 राधाकृष्णन एवं श्री पी0 सी0 घोष की खण्डपीठ ने आई0ए0एस0, आई0पी0एस0, आदि प्रशासनिक अधिकारियों के मनमाने तबादलों पर रोक और उन्हें एक पद पर निश्चित कार्यकाल देने का आदेश जारी करके नौकरशाहों को राजनैतिक आकाओं की गुलामी से मुक्त होने का एक अवसर दिया है। पिछले 25-30 वर्षों में नौकरशाहों ने निहित स्वार्थवश अपने स्वाभिमान से समझौता करके खुद राजनेताओं की गुलामी का मार्ग चुना है। राजनेताओं के मौखिक आदेशों, सुझावों और प्रस्तावों को लागू कराने की निजी प्रतिबद्धता के कारण ही प्रदीप शुक्ला और बन्जारा जैसे वरिष्ठ अधिकारी आज जेल की हवा खा रहे हैं और उनके राजनैतिक आकाओं ने उनसे अपनी दूरी बना ली है।
अपने देश में अधिकांश नौकरशाह एरोगेन्ट हैं। उनका आम लोगों और देश की ज़मीनी हकीकत से कोई वास्ता नही है। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे आम लोगों की समस्याओं पर संवेदनशील रवैया अपनाकर सुरक्षा और विकास का माहौल बनायेंगे ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हो सकें। सबसे ज्यादा वेतन और भरपूर सुविधायें पाने के बावजूद किसी पद विशेष पर तैनाती के लिये निहित स्वार्थी तत्वों के साथ सांठ-गांठ करना उनकी आदत में शुमार है। जाति-धर्म और राजनैतिक आधार पर उनके बीच गुटबाजी तेजी से बढ़ी है। नौकरशाहों में राजनैतिक तटस्थता एकदम विलुप्त हो गयी है। हर नौकरशाह किसी न किसी राजनेता का समर्थक, अनुयायी और प्रशंसक है। इसीलिये सत्ता-परिवर्तन के साथ नौकरशाहों का बड़े पैमाने पर तबादला होता है। एक जाति विशेष के लोगों को हटाकर दूसरी जाति विशेष के लोगों को तैनात करना एक सामान्य प्रशासनिक कार्यवाही है।
सेवानिवृत्त अधिकारियों, कैबिनेट सचिव श्री टी0एस0आर0 सुब्रमणियम, पूर्व सी0बी0आई0 निदेशक श्री जोगिन्दर सिंह, पूर्व चुनाव आयुक्त श्री टी0एस0 कृष्णमूर्ति, श्री एन0 गोपालस्वामी, अमेरिका में भारत के राजदूत रहे श्री आबिद हुसैन, पूर्व राज्यपाल श्री वेद प्रकाश मरवाह आदि ने हरियाणा के श्री अशोक खेमका और उत्तर प्रदेश में श्रीमती दुर्गा नागपाल के प्रति राज्य सरकारों के दुर्भावनापूर्ण व्यवहार से व्यथित होकर सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष जनहित याचिका दाखिल की हैं, परन्तु इन सभी अधिकारियों ने अपने सेवाकाल के दौरान अधीनस्थ अधिकारियों को राजनेताओं के चंगुल में फँसने से रोकने का कभी कोई प्रयास नही किया है। उत्तर प्रदेश में आई0ए0एस0 एसोसियेशन ने कुछ वर्ष पूर्व अपने बीच के भ्रष्ट अधिकारियों को चिन्हित करने के लिये मतदान कराया था। अधिकारी चिन्हित भी किये गये परन्तु, मायावती के मुख्यमन्त्रित्व काल में पूरी एसोसियेशन ने मौनव्रत लेकर मायावती को मनमानी करने की पूरी छूट दे रखी थी।
आई0ए0एस0 के लिये साक्षात्कार के दौरान एक अभ्यर्थी से पूँछा गया कि यदि आप मुख्य सचिव होते और मुख्यमन्त्री राज्यनिधि से अपने राजनैतिक ऐजेण्डे की पूर्ति के लिये धनराशि व्यय करना चाहते तो आप क्या करते? अभ्यर्थी ने उत्तर दिया कि मैं उन्हें नियमों का सहारा लेकर रोकता, फिर भी वे न मानते तो ? प्रश्न के उत्तर में अभ्यर्थी द्वारा कहे जाने पर कि वह उन्हें उनके अनुसार कार्य करने देता, की बात सुनकर साक्षात्कार बोर्ड ने उसके नम्बर कम कर दिये। इस अभ्यर्थी का उदाहरण देकर बताना चाहता हूँ कि उच्च पदस्थ अधिकारी अपने अधीनस्थों से हर हालत में ईमानदार रहने और आदर्श स्थापित करने की अपेक्षा करते हैं परन्तु व्यावहारिक स्तर पर खुद राजनेताओं की चाटुकारिता का कोई अवसर गँवाना नही चाहते हैं। वरिष्ठ आई0ए0एस0 अधिकारी श्री अनिल सागर ने कानपुर नगर में जिलाधिकारी रहने के दौरान जिला शासकीय अधिवक्ता (दीवानी) की मृत्यु के तत्काल बाद न्यायालय के कार्यो के लिये तदर्थ व्यवस्था के तहत व्यापक विचार-विमर्श करके अपने स्तर पर एक अधिवक्ता को कार्यभार सौंप दिया परन्तु स्थानीय मन्त्री जी के दबाव में तीसरे ही दिन अपना आदेश निरस्त कर दिया और फिर मन्त्री जी की संतुष्टि के लिये दीवानी विधि से सर्वथा अपरिचित व्यक्ति की नियुक्ति की जिसकी अकुशलता के कारण राज्य सरकार को गम्भीर क्षति का शिकार होना पड़ा।
नौकरशाहों ने खुद अपने-अपने कारणों से दिन प्रतिदिन की प्रशासनिक व्यवस्था में राजनैतिक दखल को आमंत्रित किया है। केन्द्रीय मन्त्री श्री जयराम रमेश ने एकदम सही कहा है कि सेवानिवृत्ति के बाद ही अधिकारियों को ज्ञान प्राप्त होता है। सेवाकाल के दौरान इनकी आत्मा कुम्भकरणीय नींद में सोई रहती है। केन्द्र सरकार ने सन् 2004 में श्री पी0सी0होता की अध्यक्षता में सिविल सर्विस रिफार्मस कमेटी का गठन किया था। इससे पूर्व सुरेन्द्र नाथ कमेटी और श्री बी0एन0 युगन्धर कमेटी का भी गठन किया गया है। सभी कमेटियों ने अपनी-अपनी रिपोर्टे केन्द्र सरकार को दी हैं परन्तु उनपर किसी प्रकार की कार्यवाही का कोई अता-पता नही है। जनहित याचिका दाखिल करने वाले वरिष्ठ नौकरशाहों ने अपने सेवाकाल के दौरान प्रशासनिक सुधार आयोगों की किसी रिपोर्ट को लागू कराने की कभी कोई पहल नही की है जबकि वे सब के सब नीतिनिर्धारक पदों पर तैनात रहे हैं और चाहते तो प्रशासनिक सुधार का मार्ग प्रशस्त कर सकते थे।
अपने देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में मन्त्री और अधिकारी एक सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों पूरी व्यवस्था के कस्टोडियन हैं। संविधान में दोनों की सीमाओं, अधिकारों और दायित्वों का स्पष्ट निर्धारण किया गया है। संविधान अपेक्षा करता है कि दोनो एक-दूसरे के क्षेत्राधिकार का सम्मान करेंगे। अधिकारियों को मानना चाहिये कि नीतिनिर्धारण जनप्रतिनिधियों के अधिकार क्षेत्र का विषय है और नीतियों का समयबद्ध क्रियान्वयन सुनिश्चित कराना उनकी पदीय प्रतिबद्धता है। संसदीय लोकतन्त्र में ईमानदार, निर्भीक, स्वतंत्र और पारदर्शी अधिकारियों की ज़रूरत है। नीतिनिर्धारण की प्रक्रिया के दौरान अधिकारियों के निष्पक्ष विचारों/सुझावों का महत्वपूर्ण योगदान होता है; परन्तु रोज-रोज के मनमाने तबादलों के कारण नीतिनिर्धारण में ईमानदार अधिकारियों के अनुभव का लाभ शासन को नही मिलता और चाटुकार अधिकारियों के प्रभाव में व्यापक विचार विमर्श हुये बिना नीतियाँ बन जाती हैं जो क्रियान्वयन के समय अप्रासंगिक सिद्ध होती हैं और उससे सार्वजनिक हित कुप्रभावित होते हैं और सार्वजनिक व्यवस्थाओं के प्रति आम जनता का विश्वास टूटता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने हालिया फैसलों में व्यवस्था दी है कि केन्द्र और राज्य सरकारें नौकरशाहों के लिये निश्चित कार्यकाल की तैनाती सुनिश्चित करायें और उनकी पदोन्नति और तबादलों के लिये एक स्वतन्त्र निकाय का गठन करें। राजनैतिक हलकों में इस फैसले को क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण बताया जा रहा है। केन्द्रीय मन्त्री श्री जयराम रमेश ने सार्वजनिक रूप से आलोचना करते हुये कहा है कि अदालतों को अफसरों एवं सरकार का काम अपने हांथ में नही लेना चाहिये। केन्द्रीय मन्त्री की आलोचना अपनी जगह है पर देश का आम आदमी सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण नही मानता। केन्द्र सरकार ने खुद अपने द्वारा प्रशासनिक सुधारों के लिये गठित आयोगों की अनुशंसाओं को फाइलों में कैद कर रखा है। राजनैतिक नेतृत्व, प्रशासनिक सुधार के लिये आयोगों की संस्तुतियों को लागू करने में असफल रहा है। ऐसी दशा में सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प भी नही है। जनान्दोलन एक सशक्त विकल्प हो सकता है, परन्तु आज की सरकारें अब उनका सम्मान नही करती हैं।
दिनांक 24 मई 1997 को राज्यों के मुख्यमन्त्रियों ने एक सम्मेलन के दौरान स्वीकार किया था कि रोज-रोज के तबादलों से ईमानदार अधिकारियों का मनोबल गिरता है और उसका कुप्रभाव पड़ता है। महाराष्ट्र सरकार ने वर्ष 2003 में अखिल भारतीय सेवा के अपने कैडर के अधिकारियों के लिये एक पद पर तीन वर्ष का कार्यकाल निर्धारित किया था जो आज तक लागू नही हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने हालिया फैसले के पूर्व प्रकाश सिंह बनाम यूनियन आफ इण्डिया के मामले में पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिये दिशा-निर्देश जारी किये थे परन्तु सात बिन्दुओं वाले दिशा-निर्देशों को लागू करने के प्रति केन्द्र और राज्य सरकारों की अरूचि एक समान है। जनपद स्तर पर वरिष्ठ अधिकारी खुद भी अपने मातहतों को एक पद पर निश्चित कार्यकाल देने के लिये तैयार नही हैं। थाना प्रभारियों का आये दिन तबादला पुलिस अधीक्षकों का प्रिय शगल है। ऐसी दशा में अब सर्वोच्च न्यायालय को ही सुनिश्चित करना होगा कि उसके द्वारा जारी दिशा-निर्देशों में कोई अड़ंगा न लगा पाये उनके आदेशों के अनुरूप सुशासन का मार्ग प्रशस्त हो।

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