Sunday, 17 November 2013

सपना ही लगता है एफ.आई.आर. का अनिवार्य पंजीयन.........

कानून व्यवस्था के प्रश्न पर सत्तारूढ़ नेताओं मे पूर्ववर्ती सरकारों से बेहतर दिखने की होड़ के कारण विश्वास नही होता कि थानो पर सर्वोच्च न्यायालय की पाँच सदस्यीय खण्डपीठ द्वारा दिनांक 12 नवम्बर 2013 को पारित निर्णय का अनुपालन किया जायेगा और अब कोई पुलिसकर्मी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने से इन्कार का साहस नही करेगा। अपराधों के पंजीयन से सम्बन्धित दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 की प्रकृति शुरूआत से ही आदेशात्मक रही है और उसकी उपधारा (3) में प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति जो किसी थाने के भारसाधक अधिकारी के उपधारा (1) में निर्दिष्ट सूचना को अभिलिखित करने से इन्कार करने से व्यथित है, ऐसी सूचना का सार लिखित रूप में और डाक द्वारा सम्बद्ध पुलिस अधीक्षक को भेज सकता है जो, यदि उनका यह समाधान हो जाता कि ऐसी सूचना से किसी संज्ञेय अपराध का किया जाना प्रकट होता है तो या तो स्वयं मामले का अन्वेषण करेगा या अपने अधीनस्थ किसी पुलिस अधिकारी को विवेचना करने का निर्देश देगा। सम्पूर्ण देश में मजिस्टेªट के न्यायालयों के समक्ष प्रथम सूचना रिपार्ट दर्ज कराने के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के तहत दाखिल प्रार्थना पत्रों की बढ़ती संख्या से स्पष्ट होता है कि थाना स्तरों पर या पुलिस अधीक्षक के स्तर पर संज्ञेय अपराधों के कारित होने की सूचना पाने के बावजूद प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज नही की जाती।
सर्वोच्च न्यायालय की पाँच सदस्यीय खण्ड पीठ ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 का मंतव्य स्पष्ट करते हुये सबको जता दिया है कि संज्ञेय अपराध की सूचना प्राप्त होते ही उसे दर्ज करना थाना प्रभारी के लिए आवश्यक है। प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने से इन्कार करना उसकी पदीय प्रतिबद्धता के प्रतिकूल है। हालिया निर्णय के तहत रिपोर्ट दर्ज करने से इन्कार करने वाले पुलिस कर्मियों को दण्डित करने का भी सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है। इस निर्णय के पूर्व विभिन्न उच्च न्यायालयों ने इस आशय के निर्णय पारित किये थे, परन्तु थाना स्तरो पर कभी उनका पालन नही किया गया और सदैव रिपोर्ट लिखने में आना कानी की गई है। थानों पर पुलिस कर्मियों की अपनी कार्यशैली है। मनमानी करना उनकी आदत और आम लोगों को उत्पीडि़त करना उनका शौक है। इसे कैसे नियन्त्रित किया जाये इस दिशा में सरकार के स्तर पर कभी कोई पहल नही की गई और न अपनी पदीय प्रतिबद्धताओं के प्रतिकूल कार्य करने वाले पुलिस कर्मियों को कभी दण्डित किया जाता है। थाना हरवंश मोहाल कानपुर में एक कम्प्यूटर व्यवसायी की शिकायत पर सम्बन्धित मजिस्ट्रेट के आदेश पर प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत की गई। रिपोर्ट में फर्जी कागजात बनाने और उनके फर्जी होने की जानकारी के बावजूद सही कागज के रूप में उन्हें प्रयोग करने का अपराध प्रश्नगत था। चूँकि दरोगा जी पहले रिपोर्ट लिखने से इन्कार कर चुके थे इसलिए उन्होंने फर्जी कागजातों को अभिरक्षा में लिये बिना कुछ वर्ष पूर्व स्वर्ग सिधार गये लोगो के बयान लिखकर मामला खत्म कर दिया और मुकदमा वादी के विरूद्ध फर्जी रिपोर्ट लिखाने का अभियोग संस्थित करने की अनुशंशा कर दी। स्थानीय समाचार पत्रों में प्रमुखता से यह समाचार प्रकाशित हुआ परन्तु सम्बन्धित विवेचक के विरूद्ध आज तक काई कार्यवाही नही की गई है और वह आज भी उसी थाने में बैठकर पूरी व्यवस्था को ठेंगा दिखा रहा है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता में प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत किये बिना विवेचना करने का कोई प्रावधान नही है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया फैसले में वैवाहिक विवादों, व्यवसायिक अपराधो और चिकित्सकीय लापरवाही जैसे मसलो पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के पूर्व प्रारम्भिक जाँच करने की छूट दी है परन्तु इस प्रकार की जाँच को एक सप्ताह के अन्दर पूरा करने और उसके परिणामों से वादी को अवगत कराने का भी निर्देश जारी किया है। अन्य सभी मामलों में संज्ञेय अपराध की सूचना प्राप्त होते ही प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत करना अनिवार्य बना दिया है। संज्ञेय अपराध के मामलों में प्रारम्भिक जाँच की अनुमति नही है। निर्णय में कहा गया है कि रिपोर्ट दर्ज करते समय सूचना की सत्यता या असत्यता को जानना महत्वपूर्ण नही है। सूचना सही है या गलत? उस पर विश्वास किया जा सकता है या नही? इन सबकी जाँच रिपोर्ट पंजीकृत करने के बाद विवेचना के दौरान साक्ष्य संकलित करते समय की जायेगी। विधि में व्यवस्था है कि यदि विवेचना के दौरान शिकायत असत्य पायी जाये तो शिकायतकर्ता के विरूद्ध झूठी प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत कराने का मुकदमा चलाया जा सकता है, परन्तु पहले से ही पीडि़त को झूठा मानकर प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत करने से इन्कार नही किया जा सकता।
कानपुर में पिछले दिनों कुछ लोगों द्वारा किय गये स्टिंग आपरेशन की सी.डी. को आधार बनाकर ज्येष्ठ पुलिस अधीक्षक के निर्देश पर कई डाक्टरों, नर्सिग होमो और पासपोर्ट विभाग के अधिकारियों के विरूद्ध सी.डी. की सत्यता परखे बिना प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत की गई है और कथित अभियुक्तों की गिरफ्तारी भी की गई है। इन मामलों में प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत किये जाने के पूर्व पुलिस के स्तर पर स्टिंग आपरेशन करने वालों की पृष्ठभूमि एवं उनके आशय को जानने का कोई प्रयास नही किया गया जबकि दूसरी ओर निजी क्षेत्र की एक बैंक के साथ विदेशी मुद्रा में किये गये संव्यवहार में पचास लाख रूपये की धोखाधड़ी के द्वारा किये गये अपराध की रिपोर्ट दर्ज नही की गई और फिर न्यायालय के आदेश से प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत करने के बाद उसमें फाइनल रिपोर्ट लगा दी गई। पुलिस ने यह जानने का प्रयास नही किया कि बैंक के समक्ष फर्जी विदेशी मुद्रा प्रस्तुत करने वाले लोगों के पास मुद्रा कहाँ से आई ? और जब मुद्रा आई और बैंक के खाते से 50 लाख रूपये निकल भी गये, तब मुद्रा प्रस्तुत करने वाले लोग निर्दोष कैसे हो गये ?
अपने थाना क्षेत्र में कारित अपराधों को छिपाना थानाध्यक्षों की मजबूरी भी है। थानाध्यक्षों की कुशलता का आकलन अपराधों को नियन्त्रित रखने के लिए उनके द्वारा किये गये प्रयासो के आधार पर नही किया जाता बल्कि दर्ज मुकदमों की संख्या के आधार पर किया जाता है। अब विवेचक अपराध के कारणो को जानने विवेचना मे वैज्ञानिक तरीको को अपनाने या परिस्थितिजन्य साक्ष्य एकत्र मे महारथ हासिल करने का प्रयास नही करता। उसका पूरा ध्यान अपने क्षेत्र के आर्थिक अपराधियों को ज्यादा से ज्यादा संरक्षण देने और उससे होने वाली कमाई पर केन्द्रित रहता है। कमाऊ थानों की पोस्टिंग के लिए उसे भारी रकम चुकानी पड़ती है। प्रत्येक अपराध की सूचना दर्ज करने से उनकी कमाई कुप्रभावित हो जाती है। थानों पर रिपोर्ट दर्ज न करने का यह भी एक बड़ा कारण है। केन्द्र सरकार ने आन लाइन प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के लिए पहल की थी। इस पर व्यय के लिए समुचित धनराशि भी निर्मुक्त की गई है, परन्तु राज्य सरकारों की अरूचि के कारण आम लोगो को राहत पहुँचाने वाली यह योजना क्रियान्वयन के पहले ही दम तोड़ चुकी है।
प्रथम सूचना रिपोर्ट के अनिवार्य पंजीयन से आपराधिक न्याय प्रशासन में पारदर्शिता का मार्ग प्रशस्त होगा और इससे आम लोगों की न्याय तक पहुँच सुगम हो जाती है। सभी मानते है कि थाने में रिपोर्ट दर्ज नही हो सकती इसीलिए प्रायः स्थानीय दबंग सीधे साधे सम्भ्रान्त व्यक्तियों को आतंकित करने मे सफल हो जाते है। प्रापर्टी डीलिंग का बढ़ता कारोबार और जबरन मकान खाली कराने की बढ़ती घटनायें प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत न करने का प्रतिफल है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में बताया गया है कि प्रतिवर्ष लगभग साठ लाख मुकदमें पंजीकृत नही किये जाते है। रिपोर्ट दर्ज न करने से कानून व्यवस्था के प्रति आम लोगो का विश्वास घटता है। अपराध की विवेचना और अपराधियों को दण्डित कराना राज्य की जिम्मेदारी है और इसके निर्वहन के लिए थानों में अपराध की सूचना पंजीकृत करना पहला कदम है। प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करने से आम पीडि़तो के मौलिक अधिकारों का हनन होता है।
आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम 2013 में भी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने की अनिवार्यता का प्रावधान है। पुलिसकर्मी अपनी शक्तियों के प्रति सचेष्ट और अपनी पदीय प्रतिबद्धताओ के प्रति सदैव उदासीन रहते है। राज्य सरकारे अपने राजनैतिक स्वार्थ पूर्ति के लिए प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करती है। सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले का क्रियान्वयन राज्य सरकरो के रवैये पर निर्भर है। राज्य सरकारों को खुद पहल करके दर्ज मुकदमो की संख्या पर पूर्ववर्ती सरकारों से अपना तुलनात्मक आकलन बन्द करना होगा और अघोषित आदेशों को वापस लेकर थानों पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने की अनिवार्यता लागू करनी होगी। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के तहत प्रार्थनापत्र प्रस्तुत होने की दशा में सम्बन्धित थानाध्यक्ष के आचरण की अनिवार्य जाँच कराके दोषी पाये जाने पर उनके विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही सुनिश्चित कराये बिना प्रथम सूचना रिपोर्ट का पंजीयन सपना ही बना रहेगा। 

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