कोई माने या न माने लेकिन गरीबी रेखा के स्तर पर जीवन यापन करने वाले लोगों के बीच रहने वाले सभी लोग जानते है कि आर्थिक विपन्नता के कारण अदालत द्वारा निर्धारित जमानत राशि के जमानतगीरो का बन्दोबस्त न कर पाने से अनेको विचाराधीन बन्दी कारागार में निरूद्ध रहने को अभिशप्त है। अमेरिका सहित विश्व के अनेक देश इस समस्या से रूबरू हुये है। अमेरिकी राष्ट्रपति लिन्डन बी जानसन ने अपने देश के लिए बेल रिफार्मस एक्ट 1966 पर हस्ताक्षर करने के अवसर पर धनराशि आधारित जमानत की प्रचलित व्यवस्था को गरीब विरोधी बताया था। इस व्यवस्था के तहत जमानत खरीदनी पड़ती है। गरीब आदमी अपनी गरीबी के कारण जमानत के लिए अपेक्षित कीमत अदा नही कर पाता और उसके कारण उसे विचारण प्रारम्भ होने के पहले सप्ताहों, महीनों और कई बार वर्षों जेल में रहना पड़ता है। राष्ट्रपति जानसन ने कहा था कि विचाराधीन बन्दी दोषी होने के कारण जेल में नही होते, उनके विरूद्ध अदालत में कोई दण्डादेश पारित नही किया, विचारण के समय उनके फरार होने की कोई सम्भावना नही है वह केवल और केवल गरीब होने के कारण जेल में है। वास्तव में यदि हम आपराधिक न्याय प्रशासन में सभी के साथ एक समान न्यायसंगत व्यवहार करना चाहते है तो हमे बेल सिस्टम में आधारभूत परिवर्तन करने होंगे ताकि अमीरों की तरह गरीब आदमी भी विचारण प्रारम्भ होने के पूर्व बिना किसी कठिनाई के अपनी रिहाई के लिए जमानतगीरो का बन्दोबस्त कर सकें।
अपने देश में भी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री आर.एस. पाठक ने केन्द्र सरकार को प्रतिभू सहित या रहित बन्धपत्रों के बिना केवल व्यक्तिगत बन्ध पत्र के आधार पर जमानत देने के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता में अपेक्षित संशोधन करने की सलाह दी थी। उन्होंने भी माना था कि बड़ी संख्या में विचाराधीन बन्दी विचारण के समय अपनी उपस्थिति सुनिश्चित रखने का विश्वास दिलाने के लिए अधीनस्थ न्यायालयों की संतुष्टि के लिए निर्धारित की जाने वाली फाइनेन्सियल गारण्टी का बन्दोबस्त न कर पाने के कारण कारागार में निरूद्ध है। दण्ड प्रक्रिया संहिता में इस आशय का कोई प्रावधान न होने के कारण अदालते चाहकर भी किसी को प्रतिभू सहित बन्धपत्रों के बिना केवल उसके व्यक्तिगत बन्धपत्र के आधार पर जमानत नही दे सकती। अपने देश में सभी को समान रूप से सामाजिक न्याय और समानता का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। केवल आर्थिक विपन्नता के कारण किसी को भी उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से वंचित रखना स्पष्ट रूप से भेदभाव की परिधि में आता है। केवल गरीबी के कारण अपेक्षित धनराशि के जमानतगीरो का प्रबन्ध न कर पाने वाले विचाराधीन बन्दियों की स्वतन्त्रता के अधिकार की रक्षा के लिए सुस्पष्ट विधि की जरूरत है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय मोतीराम बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश (ए.आई.आर.-1978-एस.सी.-पेज 1549) में धनराशि आधारित जमानत के प्रचलित सिद्धान्त को गरीबो के प्रतिकूल बताया था। न्यायमूर्ति श्री वी.आर. कृष्णा अय्यर ने अभियुक्त की आर्थिक पृष्ठभूमि को दृष्टिगत रखे बिना जमानत राशि के निर्धारण को संविधान के प्रतिकूल घोषित किया है। मोती लाल एक साधारण व्यक्ति था और किसी मामले में गिरफ्तार के बाद जमानत पर उसकी रिहाई के लिए मुख्य न्यायिक मजिस्टेªट ने दस हजार रूपये की दो श्योरिटीज और इतनी ही राशि के एक व्यक्तिगत बन्धपत्र प्रस्तुत करने का आदेश पारित किया। मोतीराम इस राशि की श्योरिटीज का प्रबन्ध नही कर सका। मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत हुआ। न्यायमूर्ति श्री अय्यर ने उसकी आर्थिक पृष्ठभूमि को दृष्टिगत रखकर जमानत राशि घटाकर एक हजार रूपये कर दी। इसी प्रकार एक अन्य मामले में विचारण न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 के तहत गिरफ्तार एस.डी. मदान को तीन करोड़ रूपये की दो श्योरिटीज और इसी राशि का एक बन्धपत्र जमानत के लिए प्रस्तुत करने हेतु आदेशित किया। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत के लिए निर्धारित इस राशि को जमानत से इन्कार करने के समान बताया।
न्यायमूर्ति श्री पी.एन. भगवती ने भी हुसैन आरा खातून बनाम स्टेट आफ बिहार (1979-ए0आई0आर0-एस0सी0 - पेज 1369) में प्रतिपादित किया था कि धनराशि आधारित श्योरिटीज की व्यवस्था के कारण गरीबो के साथ अन्याय होता है। आर्थिक कारणो से अपने स्तर पर श्योरिटीज का बन्दोबस्त न कर पाने के कारण अभियुक्त या उसके परिजन पेशेवर जमानतगीरो का सहारा लेने को विवश होते है और कई बार कर्ज लेकर अपनी रिहाई का मार्ग प्रशस्त करते है। इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी स्पष्ट दिशा निर्देशो के बावजूद केन्द्र सरकार ने अपने स्तर पर कोई सकारात्मक पहल नही की है और उसके कारण जमानत स्वीकृत हो जाने के बावजूद अभियुक्त जेल से बाहर नही आ पाता और विचारण प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा में कई बार उसे विधि में निर्धारित सजा से ज्यादा अवधि का कारावास झेलना पड़ता है।
विचारण के समय अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित कराना धनराशि आधारित जमानत का प्रमुख उद्देश्य है। माना जाता है कि जमानत राशि जब्त हो जाने के भय से जमानत पर रिहा हो जाने के बाद अभियुक्त विचारण के समय फरार नही होगा। जमानत के मूल उद्देश्य को ध्यान में रखकर अमेरिका आदि कई देशों में धनराशि आधारित जमानत की व्यवस्था में सुधार किये गये है। इन देशों मे मानेटरी श्योरिटीज प्रस्तुत करने का आदेश पारित करने के पूर्व अन्य तरीको पर विचार किया जाता है और यदि मामले की परिस्थितियों और उसकी प्रकृति के अनुरूप अन्य साधारण तरीकों से अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित हो सकती है तो मानेटरी श्योरिटीज प्रस्तुत करने के लिए नही कहा जाता है। विचारण न्यायालय अपनी संतुष्टि के लिए अभियुक्त की पृष्टभूमि की जाँच कराते है और यदि अपने समाज में अभियुक्त की गहरी पहचान है और उसके फरार होने की सम्भावना नही है तो अभियुक्त को उसकी अपनी जमानत (रिकगनिजैन्स) पर रिहा कर दिया जाता है। न्यायमूर्ति श्री कृष्णा अय्यर ने भी मोतीराम के मामले में पारित अपने निर्णय के द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को सलाह दी है कि आपराधिक विधि में धनराशि आधारित जमानत महत्वपूर्ण तत्व नही है। सामाजिक न्याय के इस युग में अब मानेटरी बेल का सिद्धान्त निष्प्रयोज्य हो चुका है और अनुभव बताता है कि इससे व्यक्ति और समाज दोनों को नुकसान हो रहा है।
न्यायमूर्ति श्री अय्यर मानते है कि विचारण के समय उपस्थिति की गारण्टी समाज में कानून की पकड़ और आम जनता में उसके विश्वास में निहित है। धनराशि आधारित जमानत उपस्थिति की गारण्टी नही है। आदतन अपराधी किसी भी राशि की जमानत का प्रबन्ध कर लेते है और उन्ही के फरार होने की ज्यादा सम्भावना होती है। ऐसे अपराधियों के जमानतगीर बाद में खोजने पर भी नही मिलते। सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार दो लाख तीन लाख रूपये की श्योरिटीज प्रस्तुत किये जाने के आदेशों को निरस्त किया है। जमानत राशि को कम कराने के लिए गरीब आदमी के लिए उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल कर पाना सम्भव नही है इसलिए गरीब विचाराधीन बन्दियो से धनराशि आधारित श्योरिटीज के स्थान पर उनकी आर्थिक सामाजिक पृष्ठभूमि को दृष्टिगत रखकर उन्हें जमानत पर रिहा करने के लिए अन्य तरीको पर विचार करना होगा। अन्य तरीको के लिए समाज में अभियुक्त की पहचान, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, प्रतिष्ठित सामाजिक संघटनों में उसकी सहभागिता और पूर्व में उसका सामाजिक आचरण विचार के लिए सुसंगत आधार हो सकते है। निश्चित मानिये कि इन आधारो पर जमानत देने की स्थिति में अभियुक्तो के फरार होने की सम्भावना बिल्कुल नही है। आम आदमी अपने समाज परिवार और सामाजिक परिवेश से पलायन करने की हिम्मत नही जुटा सकता और समाज में रहकर हर प्रकार के परिणामों को अपना भाग्य मानकर झेलने के लिए सदा तैयार रहता है।
गुजरात उच्च न्यायालय के तत्कालीन चीफ जस्टिस श्री पी.एन. भगवती की अध्यक्षता में गठित लीगत एड कमेटी ने धनराशि आधारित जमानत के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया है। गुजरात कमेटी के नाम से चर्चित इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में जमानत की प्रचलित व्यवस्था को असन्तोषजनक बताया और उसमें मूलभूत परिवर्तन का सुझाव दिया है। आर्थिक क्षति के भय से अभियुक्त के फरार न होने की मान्यता प्रमाणिक नही है। विचारण के समय अभियुक्त की अनुपस्थिति या फरार हो जाने के कई कारण है, परन्तु किसी भी दशा में आर्थिक क्षति महत्वपूर्ण कारण नही है। मानेटरी बेल के अतिरिक्त अन्य तरीको से भी विचारण के समय अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करायी जा सकती है। समिति ने माना है कि प्रचलित बेल सिस्टम में गरीब आदमी अपनी गरीबी के कारण जमानत नही दे पाता, जबकि उसी स्थिति में अमीर लोग अपनी जमानत का प्रबन्ध कर लेते है और रिहा हो जाते है। इस प्रकार आम आदमी के साथ उनकी गरीबी के कारण भेदभाव होता है। इस भेदभाव को समाप्त करने के लिए आवश्यक है कि अधीनस्थ न्यायालय जमानत राशि निर्धारित करते समय अभियुक्त की आर्थिक सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि को भी सुसंगत आधार बनाये ताकि गरीबी के कारण किसी को भी अपनी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के संवैधानिक अधिकार से वंचित न होना पड़े।
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