Monday, 7 October 2013

तय करनी होगी मुकदमा दाखिले के दिन निर्णय की तिथि.....

सिविल लिटिगेशन के त्वरित और समयबद्ध निस्तारण के लिए मुकदमा दाखिल होने के दिन ही निर्णय की तिथि निर्धारित किया जाना आवश्यक हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने राम रामेश्वरी देवी एण्ड अदर्स बनाम निर्मला देवी एण्ड अदर्स (2011-3-जे.सी.एल.आर.-पेज 518-एस.सी) के द्वारा निर्देश जारी किया है कि अधीनस्थ न्यायालय दाखिले के समय विचारण का सम्पूर्ण शिडयूल्ड निर्धारित करे और लिखित कथन से लेकर निर्णय पारित होने की अवधि में प्रत्येक प्रक्रम के लिए तिथियाँ नियत कर दे। आवश्यक प्रकीर्ण प्रार्थनापत्रों का निस्तारण इसी अवधि में ही किया जाये और मूल कार्यो के लिए निर्धारित तिथियों पर नियत कार्यवाही अपवाद स्वरूप ही स्थगित की जाये, परन्तु निर्णय की तिथि में किसी भी दशा में परिवर्तन न किया जाये।
अदालतों के द्वारा लम्बे समय तक फैसले न हो पाने के कारण अब मकान मालिक अपना घर या फ्लेट किसी को रहने के लिए किराये पर नही देते और ताला बन्द रखना पसन्द करते है, जबकि बड़े शहरो और महानगरों में खाली पड़े इन आवासो से लाखों लोगों की तात्कालिक आवासीय जरूरतो को पूरा किया जा सकता है। किसी सामान्य व्यक्ति को विश्वास ही नही होता कि लीज या लायसेन्स की अवधि समाप्त हो जाने के बाद उनको अपनी जरूरत के लिए अपने मकान का शान्तिपूर्ण कब्जा एवं दखल वापस मिल जायेगा।
प्रायः देखा जाता है कि लीज या लायसेन्स अपनी अवधि समाप्त होने के बाद लिटिगेशन का कारण बन जाती है। अपनी अदालतंे लीज या लायसेन्स से सम्बन्धित मुकदमों से भरी पड़ी है। प्रत्येक दिन आधे से ज्यादा मुकदमें लीज या लायसेन्स से सम्बन्धित विवादों में निषेधाज्ञा हेतु दाखिल किये जाते है। घरेलू नौकर, माली, वाचमैन, केयर टेकर, सुरक्षागार्ड जिन्हें भवन में कर्मचारी होने के नाते रहने की अनुमति दी जाती है। अनुमति समाप्त हो जाने के बाद स्वेच्छा से अपने अध्यासन वाला भाग खाली नही करते बल्कि किरायेदारी के फर्जी कागजात बनाकर निषेधाज्ञा वाद दाखिल कर देते है और कई बार उनके पक्ष में निषेधाज्ञा आदेश भी पारित हो जाता है। अदालतों की लम्बी काजलिस्ट और प्रकीर्ण प्रार्थनापत्रों के निस्तारण में समय व्यय हो जाने के कारण ऐसे मुकदमों का निस्तारण टलता रहता है। वर्षों बाद मुकदमें के निर्णीत होने पर ऐसे अवैध कब्जेदारों या आदतन वादकारी को अवैध अध्यासन बनाये रखने के लिए दण्डित नही किया जाता और कई बार तो उन्हें अवैध कब्जा छोड़ने के एवज में अच्छी खासी धनराशि मिल जाती है और उसी कारण अवैध कब्जेदारों का मनोबल बढ़ा हुआ है।
वर्ष 2003 में कानपुर के कैन्टूमेन्ट बोर्ड ने भारत सेल्स कारपोरेशन नाम की फर्म को कान्ट्रेक्ट पर सिविल कार्य का आदेश दिया। काम की जरूरतो के लिए सामान रखने हेतु भारतीय सेना की जमीन पर एक कमरा भी दे दिया। इस कान्टेªक्टर को उसी प्रकृति के कई और काम भी आंवटित हो गये, जिसके कारण कान्ट्रेक्ट समाप्त होते ही कमरा खाली नही कराया गया। इस अवधि में सम्बन्धित अधिकारी स्थानान्तरित हो गये और फिर उसने कमरा खाली नही किया। नोटिस दी गई और नोटिस को वाद कारण बनाकर कान्ट्रेक्टर ने सिविल न्यायालय के समक्ष निषेधाज्ञा वाद दाखिल कर दिया और उसके पक्ष में एक पक्षीय निषेधाज्ञा आदेश पारित हो जाने के कारण सेना की भूमि पर उसका अवैध कब्जा बना हुआ है और दस वर्ष की लम्बी अवधि बीत जाने के बावजूद वाद में अभी तक वाद बिन्दु भी निर्धारित नही हो सके है।
अपने पक्ष में एक पक्षीय निषेधाज्ञा आदेश पा लेने में सफल हो जाने के बाद वादकारी उसे किसी न किसी बहाने अनन्त काल तक लम्बित बनाये रखने का प्रयास करता है। अदालतों में प्रत्येक दिन सौ पचास मुकदमों की लम्बी काज लिस्ट होने और प्रत्येक स्तर पर न्यायिक अधिकारियों की कमी के कारण गुणदोष के आधार पर सुनवाई नही हो पाती और एक दो महीने बाद की कोई नई तिथि नियत हो जाती है। गुणदोष के आधार पर मुकदमों के निस्तारण के लिए प्रतिदिन कम से कम पाँच गवाहों का परीक्षण सुनिश्चित कराया जाना जरूरी है। साक्ष्य के प्रक्रम पर प्रकीर्ण प्रार्थनापत्र प्रस्तुत किये जाते है। गवाही टल जाती है और उसके कारण साक्षी हतोत्साहित होता है। गुणदोष के आधार पर मुकदमों के निस्तारण में अवरोध उत्पन्न करने के आशय से प्रस्तुत प्रार्थनापत्रों पर समुचित अवसर और प्राकृतिक न्याय के हित मे हैवी कास्ट अधिरोपित नही हो पाती। सौ रूपये पचास रूपये की कास्ट का आदतन वादकारी पर कोई असर नही पड़ता। इस प्रकार की स्थितियों में वास्तविक पीडि़त और सही पक्षकार हतोत्साहित होता है और फिर वह अपने विधिपूर्ण अधिकारों से समझौता करने को विवश हो जाता है।
असत्य कथनों और फर्जी कागजातों के आधार पर दाखिल निषेधाज्ञा वादों की बढ़ती संख्या सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में है और उसने कई अवसरों पर स्पष्ट दिशा निर्देश जारी किये है परन्तु अधीनस्थ न्यायालयों के स्तर पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देश लम्बे समय से लागू होने की प्रतीक्षा में दम तोड़ने लगे है। कामन काज और राजदेव शर्मा के मामलों में जारी दिशा निर्देशों की अब चर्चा भी बन्द हो गई है जबकि वे आज भी उतने ही सुसंगत और प्रासंगिक है। सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः (2011-3-जे.सी.एल.आर.-पेज 518-एस.सी.) के द्वारा स्पष्ट किया है कि प्लीडिंग और डाक्यूमेन्ट सिविल वादों का आधार होते है। मुकदमा दाखिल होने के समय इनका बेरीफिकेशन गहनता से किया जाना चाहियें। कोई भी आदेश करने के पूर्व डाक्यूमेन्ट की डिस्कवरी और प्रोडक्शन पर जोर देना चाहिये। इस प्रक्रिया से वास्तविक वाद बिन्दु के निर्धारण और फिर विवाद के न्यायपूर्ण समाधान मे सहायता मिलती है। किसी भी प्रकृति का सिविल वाद दाखिल होने के समय सामान्य नियमावली (सिविल) के तहत न्यायालय के मुन्सरिम समस्त प्रपत्रों की जाँच करके उस पर अपनी आख्या प्रस्तुत करते है और उसी आधार पर मुकदमा दर्ज रजिस्टर होता है। वाद संख्या आवंटित होती है। अपने स्तर पर कुशलता आर्जित करके मुन्सरिम बनने वाले लिपिक सेवानिवृत्त हो चुके है। पदोन्नति में पक्षपात और प्रशासनिक कारणों से आये दिन के स्थानान्तरण से व्यथित कर्मचारी अब अपने स्तर पर मुन्सरिम के लिए अपेक्षित कुशलता अर्जित करने का प्रयास नही करते और उसके कारण कमोवेश सभी जनपदो मे इस पद की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का निर्वहन काम चलाऊ व्यवस्था के तहत किया जा रहा है। मुन्सरिम को सभी विधियों के प्रक्रियागत नियमों की जानकारी होनी चाहिये। उसके नियमित प्रशिक्षण की कोई एकीकृत व्यवस्था न होने के कारण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रक्रियागत सुधारों के लिए जारी दिशा निर्देशों का अनुपालन नही हो पा रहा है। मुन्सरिम की अकुशलता के कारण सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में आरबीट्रेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट 1996 के तहत पारित माध्यस्थम पंचाटों के प्रवर्तन के लिए इजरा वादों के दाखिले के समय स्टाम्प डयूटी के भुगतान को लेकर अलग अलग जनपदों मे अलग अलग नियम लागू है। कही स्टाम्प डयूटी देय है और कही देय नही है।
सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों के अनुकूल दाखिले के समय समस्त प्रपत्रों का बेरीफिकेशन न होने के कारण अनावश्यक मुकदमेबाजी बढ़ती है। भारत सरकार के एक प्रतिष्ठान में नौकरी के लिए प्रेषित आवेदन के रिजेक्शन को उपभोक्ता विवाद बताकर उपभोक्ता फोरम शाहजहाँपुर के समक्ष परिवाद दाखिल किया गया है। नौकरी के आवेदन पर विचार करने या न करने का विवाद उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की परिधि में नही आता। परिवाद की ग्राहृता के विरूद्ध भारत सरकार की आपत्ति का निस्तारण पविादी के स्थगन प्रार्थनापत्र के कारण नही हो पा रहा है। प्रारम्भिक स्तर पर मुन्सरिम आख्या के समय खारिज होने वाला परिवाद पिछले एक वर्ष से ज्यादा समय से लम्बित है। जनपद कानपुर के धार्मिक महत्व वाले बिठूर में ध्रुवटीला की जमीन को अपनी पैतृक सम्पत्ति बताकर किसी मधुकर राव मोघे ने अदालत में निषोधाज्ञा वाद दाखिल कर दिया जबकि ध्रुव टीला और उसके आसपास की 4 एकड़ जमीन सड़क और लगे 39 पोलो को तत्कालीन संयुक्त प्रांत सरकार के लेफ्टिनेन्ट गवर्नर ने  नोटिफिकेशन संख्या यू.पी.-213/एम 357/ दिनांक 01 फरवरी 1912 के द्वारा संरक्षित स्मारक घोषित किया है और उस समय वहाँ मधुकर राव मोघे का कोई पूर्वज या अन्य कोई नही रहता था। हलाँकि अदालत ने मुकदमा खारिज कर दिया है परन्तु इन उदाहरणों से इतना तो तय है कि अपनी अदालतों में आदतन वादकारी असत्य तथ्यों और फर्जी कागजातों के आधार पर किसी के भी विधिपूर्ण अधिकारों का हनन करके मुकदमा दाखिल करने और फिर अपने पक्ष में एक पक्षीय निषेधाज्ञा आदेश पारित करा लेने मे सफल हो जाते है। ऐसे वाद कारियों पर प्रभावी अंकुश लगाने और उन्हें दण्डित करके अपनी न्यायिक व्यवस्था के प्रति आम लोगों के विश्वास को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए अधीनस्थ न्यायालयों के स्तर पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों का अनुपालन आवश्यक है। न्यायिक सुधारों के लिए और ज्यादा प्रतीक्षा देश और समाज के व्यापक हितो के प्रतिकूल है।

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