Sunday, 8 November 2015

बिहार का जनादेश राष्ट्रीय राजनीति के लिए एक नया संदेश


डा0 मनोहर लोहिया कहा करते थे कि असल संघर्ष हिन्दू मुस्लिम के बीच नही उदारमना हिन्दुओं और साम्प्रदायिक हिन्दुआंे के बीच है। भारत की बहुसंख्या आबादी उदारमना हिन्दुओ की है और वे आदतन सभी धर्मो का आदर करते है। बिहार चुनाव प्रचार के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने उदारमना हिन्दुओ और साम्प्रदायिक हिन्दुओ के इस संघर्ष को पुरजोर हवा देने का काम किया है। भाजपा की हार पर पाकिस्तान में पटाखे दगाने या असहिष्णुता के सवाल पर शाहरूख खान को पाकिस्तानी एजेण्ट बताने की घटनायंे इसी बात की ओर इशारा करती है परन्तु बिहार के जनादेश ने सम्पूर्ण देश में साम्प्रदायिक हिन्दुओ की हार और उदारमना हिन्दुओं की जीत का मार्ग प्रशस्त किया है। असहिष्णुता भारत के मूल चरित्र के खिलाफ है। बिहार की जनता ने अपने प्रदेश से श्री जार्ज फर्नाडीज और स्व0 मधु लिमये को लोकसभा के लिए जिताकर अपने जातिवादी या साम्प्रदायिक न होने का परिचय काफी पहले दे दिया था और आज उन्होंने उसकी पुनरावृत्ति की है। 
2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की अभूतपूर्व सफलता सबका साथ सबका विकास के उद्घोष की जीत थी। आम लोगों ने काँग्रेसी कुशासन से त्रस्त होकर जीवन यापन में रोजमर्रा की समस्याओं से निजात पाने के लिए श्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री बनाने के लिए मतदान किया था। किसी ने भी हिन्दू होने के नाते मुसलमानों के विरोध में नकारात्मक मतदान नही किया था। मतदान सकारात्मक था और किसी भी दशा में उसका उद्देश्य पाकिस्तान के मुस्लिम राष्ट्र की प्रतिक्रिया में हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए नही था परन्तु साक्षी योगी और साध्यवियांे ने आम लोगो के जनादेश की अपने तरीके से व्याख्या करके आम लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है जो निश्चित रूप से व्यापाक राष्ट्रीय हितो के प्रतिकूल है।
विभिन्नता में एकता भारत की विशेषता है और इसी विशेषता के बल पर हमारे पास ऐसा कुछ ह,ै जिसने हमारी हस्ती को मिटने नही दिया। विश्व की अनेकों सभ्यताएं विलुप्त हो गई परन्तु वर्षो की गुलामी के बावजूद भारतीय सभ्यता, संस्कार और संस्कृति अक्षुण्य बनी हुई है। यह कहना गलत होगा कि इन संस्कारों और संस्कृति को नष्ट करने का कोई सुनियोजित प्रयास किया जा रहा है परन्तु यह भी सच है कि असहमति के प्रति घृणा का वातावरण बनाया जा रहा है। किसी को भी पाकिस्तानी बता देना एक आम बात हो गई है। प्रख्यात शायर मुनव्वर राणा ने सार्वजनिक रूप से अपने इस दर्द का इजहार किया है।
साम्प्रदायिक उन्माद और दंगे काँग्रेसी शासनकाल में भी होते रहे है। अटल बिहारी बाजपेयी के समय ईसाई प्रचारक ग्राहृम स्टेन और उनके दो बच्चों की हत्या की गई परन्तु उस समय के सत्तारूढ़ नेताओं ने इन घटनाओं का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष समर्थन नही किया था। दादरी में अखलाक की हत्या के बाद स्थानीय सांसद और केन्द्रीय मन्त्री महेश शर्मा के बयान ने संवेदनहीनता का परिचय दिया है। योगी आदित्यनाथ और साध्वीप्राची और साक्षी महाराज के बयानों ने असहिष्णुता की आग में घी डालने का काम किया है। साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार लोटाये जाने की घटनाआंे पर साहित्यकारों की निष्ठा पर सवाल उठाना किसी भी दशा में जायज नहीं है परन्तु बेधड़क ऊल जलूल सवाल उठाये जा रहे है। बिहार आन्दोलन के दौरान फणीश्वर नाथ रेणू और 1984 के आपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में खुशवन्त सिंह द्वारा पुरस्कार लौटाये जाने पर काँग्रेसी नेताओं की प्रतिक्रिया आज के भाजपा नेताओं की प्रतिक्रिया से मिलती जुलती है। कोई अन्तर नहीं दिखता।
पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष भारतीय दण्ड संहिता की धारा 153ए की संवैधानिक वैधता को लेकर वन मैन आर्मी के स्वयंभू सेनापति डा0 सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका का केन्द्र सरकार ने शपथपत्र देकर विरोध किया है। इस शपथपत्र में केन्द्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 19(2) के सन्दर्भ में कानून व्यवस्था के हित का हवाला देते हुए धारा 153ए को सही बताया है जबकि डा0 स्वामी ने इस धारा को अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के खिलाफ बताया था और उसे अवैध घोषित करने की माँग की हैं। डा0 स्वामी पर असम के काजीरंगा विश्वविद्यालय में भड़काऊ भाषण देने के आरोप में धारा 153ए के तहत मुकदमा दर्ज किया गया है। केन्द्र सरकार ने उनके खिलाफ चल रहे मुकदमे को सही बताया है। परन्तु जानबूझकर साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने वाले किसी साध्वी, योगी, महन्त, ओवैशी या अपने मन्त्री पर अभी तक कोई कार्यवाही नही की और इसी कारण विपक्षी दलोें को पूरे देश में असहिष्णुता के नाम पर मोदी सरकार के विरुद्ध वातावरण बनाने का अवसर प्राप्त हुआ है।
भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओ के असंयमित बयानो के कारण असहिष्णुता के आरोपो को हवा मिली है। शाहरूख खान पर भाजपा नेताओं के बयान ने सभी लोगों को चिन्तित किया है। समझना कठिन है कि भाजपा से वैचारिक असहमति रखने वाले किसी भी व्यक्ति को पाकिस्तान का एजेण्ट बता देने या उसे पाकिस्तान भेज देने की सलाह देने का क्या औचित्य है। भाजपा नेताओं ने नितीश को पाकिस्तान और लालू यादव को बांग्लादेश भेजने की बात कहकर स्वयं अपने आपको शर्मिन्दा किया है। आपातकाल के दौरान जेलों में निरुद्ध राजनैतिक बन्दी कहा करते थे कि हम आपके विचारो से कतई सहमत नही हैं परन्तु आपको हम से असहमति रखने का अधिकार है और आपके इस अधिकार की रक्षा के लिए हम अपने प्राण न्यौछावर कर सकते है। लोकतान्त्रिक विश्वास और सद्भाव की यह परम्परा आज विलुप्त होती जा रही है।
आजकल भाजपा नेता ”तब आप कहाँ थे“ पूँछकर अपने वैचारिक विरोधी को अपमानित करने का प्रयास करते रहते है। लोगों से पूछते है कि इमरजेन्सी के दौरान आप कहाँ थे? 1984 के सिख नरसंहार के समय आप क्या कर रहे थे? 1995 के बाद जन्मी आज की युवा पीढ़ी उस समय नहीं थी। उसने इतिहास के पन्नो में इन घटनाओं को पढ़ा है और उसके आधार पर इन घटनाओं को समझने की कोशिश की है परन्तु इतिहास आज की युवा पीढ़ी को ”तब आप कहाँ थे“ पूँछने वालो से पूँछने के लिए प्रेरित करना चाहता है कि आजादी की लड़ाई के दौरान आप या आपके पूर्वज कहाँ थे? आजादी की लड़ाई मे आपका क्या योगदान है? आजादी की लड़ाई में अपना कोई योगदान न होने के कारण ऐसे लोग स्वतन्त्रता आन्दोलन की विरासत को नेस्तनाबूत करने के लिए गाँधी नेहरू का चरित्र हनन और गोडसे को महिमामण्डित करने का प्रयास करते रहते है। बिहार की जनता ने इन साजिश को समझा है और शायद इसी कारण उसने नितीश और लालू यादव के पक्ष में जबरदस्त जनादेश देकर पूरे देश को एक नया संदेश दिया है। सभी को इस संदेश की इबारत पढ़नी ही चाहिए ताकि लोकतन्त्र जिन्दा रहे और कोई शासक इन्दिरा गाँधी की तरह तानाशाही थोपने का दुस्साहस न कर सके।