बचपन में सुना करता था कि डा0 एस.पी. शुक्ला हृदय रोग का लक्षण दिखते ही तत्काल मारफिया या पेथीडीन इन्जेक्शन लगा देने के बाद मरीज को हृदय रोग संस्थान रिफर किया करते थे, परन्तु चिकित्सकीय लापरवाही की बढ़ती शिकायतों के कारण अब वे ऐसा नही करते बल्कि कोई दवा दिये बिना उसे नर्सिग होम ले जाने की सलाह देते है जबकि उन्हें मालुम है कि हृदय के मामलों में तत्काल इलाज मिलना बेहद जरूरी है। उन्हें भय रहता है कि यदि उन्होंने तात्कालिक आवश्यकता को दृष्टिगत रखकर इन्जेक्शन लगा दिया और अस्पताल पहुँचने के पहले रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गई तो उनके विरूद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 ए के तहत मुकदमा पंजीकृत हो जायेगा और कई लाख रूपये की क्षतिपूर्ति के लिए उपभोक्ता अदालत के समक्ष परिवाद का भी उन्हें सामना करना पडेगा। इसी प्रकार मार्ग दुर्घटना में हेड इन्जरी की स्थिति में तत्काल खून के बहाव को रोकना आवश्यक होता है, परन्तु अब कोई डाक्टर ऐसे मरीजो का प्राथमिक उपचार नही करता और उसके कारण अस्पताल पहुँचने तक कई बार इन्जर्ड अन्य कई प्रकार के चिकित्सकीय परेशानियों का शिकार बना जाता है जो उसकी मृत्यु का कारण बनते है।
चिकित्सकीय व्यवसाय को उपभोक्ता संरक्षण फोरम की परिधि में ले लिये जाने के बाद चिकित्सको के विरूद्ध लापरवाही के आरोपों में इजाफा हुआ है। आये दिन इलाज में लापरवाही के नाम पर अस्पतालो और नर्सिग होम में तोड़ फोड़ की घटनाऐ होती रहती है। चिकित्सको के विरूद्ध आपराधिक धाराओं में मुकदमें या उपभोक्ता अदालतो में परिवाद आम बात हो गई है। मरीज और डाक्टर के बीच आपसी सद्भाव एवं विश्वास निरन्तर कम होता जा रहा है। जिसका सबसे ज्यादा नुकशान तत्काल इलाज की आवश्यकता वाले मरीजो को उठाना पड रहा है। गम्भीर मामलो में भी चिकित्सक अब मरीजो को प्राथमिक इलाज देने की अपेक्षा उसे किसी बडे अस्पताल या नर्सिग होम में रिफर करने को प्राथमिकता देने लगे है।
इण्डियन मेडिकल एसोसियेशन बनाम वी.पी. सन्था (1995-6-एस.सी.सी.-पेज 651) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया था कि चिकित्सकीय व्यवसाय अन्य व्यवसायो की तुलना में एकदम अलग तरीके का व्यवसाय है। इस व्यवसाय में प्रत्येक केस में सफलता सुनिश्चित नही होती। सफलता या असफलता का दारोमदार कई बार चिकित्सक के नियन्त्रण के बाहर होता है। उसकी कुशलता ज्ञान और बुद्धि एक सीमा के बाद प्रभावहीन हो जाती है। वास्तव में किसी चिकित्सक को केवल इस कारण मेडिकल नेगलीजेन्स का दोषी नही माना जाना चाहिये कि उसने किसी परिस्थिति विशेष में कोई एक निर्णय लिया जो बाद में गलत साबित हुआ। ऐसे किसी चिकित्सक या अन्य किसी क्षेत्र के विशेषज्ञ को खोज पाना लगभग असम्भव है जिससे कभी कोई गलती होती ही न हो। गम्भीर परिस्थितियों मे अपने सामने पडे मरीज के जीवन को बचाने या उसकी पीड़ा को कम करने के लिए चिकित्सक को तत्काल कोई न कोई निर्णय लेना ही होता है। इस प्रक्रिया के दौरान यदि उसके मन में कोई भय होगा तो वह अपनी कुशलता और विवेक के सहारे स्वतन्त्र निर्णय नही ले सकेगा और फिर वह विशेषज्ञ राय की प्रतीक्षा करेगा जो मरीज के इलाज की तात्कालिक आवश्यकता के हित में नही है।
रेस इप्सा लोक्यूटर स्वयं प्रमाण का सिद्धान्त चिकित्सकीय लापरवाही सिद्ध करने के लिए लागू नही हो सकता। कोई चिकित्सक या संवदेनशील व्यक्ति जानबूझकर किसी मरीज को छति पहुँचाने के दुराशय से गलत इलाज की सलाह नही दे सकते। इस प्रकार का आचरण सामान्य मानवीय स्वभाव के प्रतिकूल है। कथित झोला छाप डाक्टर भी अपने मरीजो का इलाज अपने सर्वोत्तम अनुभव और वर्षो की अर्जित कुशलता के बल पर पूरी जिम्मेदारी के साथ करते है। ग्रामीण अंचलों मे इलाज का सारा दारोमदार कथित झोलाछाप डाक्टरों पर निर्भर है और वे जानबूझकर कभी कोई लापरवाही नही करते। नामी गिरामी विशेषज्ञो का निर्णय भी कई बार गलत साबित हुआ है।
मरीज के इलाज में जानबूझकर लापरवाही करने वाले चिकित्सक किसी भी दशा में सहानुभूति या दया के पात्र नही है। उन्हें हर हालत में दण्डित किया जाना चाहिये परन्तु गम्भीर परिस्थितियों में अपनी कुशलता एवं ज्ञान के सहारे मरीज का इलाज करने वाले चिकित्सको के विरूद्ध निहित स्वार्थवश प्रस्तुत शिकायतो को हतोत्साहित किये जाने की जरूरत है। सदा याद रखना चाहिये कि अन्य किसी क्षेत्र के विशेषज्ञ की तरह चिकित्सक का तात्कालिक निर्णय गलत हो सकता है, परन्तु यदि इसी कारण उसे दण्डित किया जाने लगा तो फिर कड़ी मेहनत करके मानवता की सेवा करने के लिए इस व्यवसाय की तरफ आने का आकर्षण खत्म हो जायेगा। मेडिकल प्रोफेशन आदर्श व्यवसाय है। इसे चिकित्सा सेवा बेचने खरीदने का व्यवसाय मानना एकदम गलत है। यह सच है कि आज कुछ चिकित्सक मानवता की सेवा करने की अपनी शपथ को भुलाकर केवल मनी माइण्डेड (धन लोलुप) हो गये है और अपने स्तर से नीचे जाकर प्रापर्टी खरीदने बेचने का व्यवसाय करने लगे है, जो दुःखद है, परन्तु ऐसे कुछ लोगों के कारण सम्पूर्ण मेडिकल प्रोफेशन में दोष खोजना या सभी को आदतन लापरवाही का दोषी मान लेना किसी भी दशा में न्यायसंगत नही है।
सर्वोच्च न्यायालय ने मारटिन एफ.डी. सोजा बनाम मोहम्मद इसफाक (2009-3-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज 1) में न्यायमूर्ति श्री मार्केण्डेय काटजू एवं श्री आर.एम. लोढा की खण्ड पीठ ने प्रतिपादित किया है कि किसी चिकित्सक को मिसचान्स या मिसएडवेन्चर के कारण कुछ चीजों के गलत हो जाने या इलाज के लिए किसी अन्य तरीके की तुलना में किसी अन्य तरीके को प्राथमिकात दिये जाने के कारण चिकित्सकीय लापरवाही का दोषी नही माना जा सकता। उसे केवल उसी स्थिति मे दोषी माना जा सकता है जब उसने एक सक्षम डाक्टर के आचरण के प्रतिकूल निम्न स्तर का व्यवहार किया है मसलन उसने मरीज का आपरेशन करने के बाद सर्जिकल रूई उसके शरीर में छोड दी हो या खराब अंग की जगह किसी दूसरे अंग का आपरेशन किया हो।
आपात स्थितियों में तत्काल सटीक इलाज के दौरान निर्णय मे गलती की सम्भावनाये ज्यादा होती है। ऐसे अवसरो पर चिकित्सक को डेविल और डीप. सी के बीच किसी एक का चुनाव करना होता है। उच्च स्तरीय जोखिम आवश्यक होता है परन्तु उसके असफल होने की सम्भावनायें ज्यादा होती होती है जबकि निम्नस्तरीय जोखिम सुरक्षित होता है, परन्तु उसमें असफलता की आशंका बनी रहती है। इसलिए मरीज के जीवन को बचाने या उसकी पीढ़ा को कम करने के लिए चिकित्सक प्रायः उच्च स्तरीय जोखिम की प्रक्रिया अपनाते है और इन परिस्थितियों मे उनसे ऐसी ही अपेक्षा की जाती है। इसलिए निर्णय में गलती हो जाने पर चिकित्सक को जानबूझकर चिकित्सकीय लापरवाही का दोषी बताना न्यायसंगत नही है। किसी चिकित्सक को अपनी कुशलता के प्रतिकूल लापरवाही से किसी मरीज का इलाज करने से कुछ भी प्राप्त नही होता इसलिए चिकित्सक द्वारा जानबूझकर इलाज के द्वारा किसी के जीवन को खतरे में डाल देने या उसे गम्भीर छति पहुँचाने का तर्क सामान्य समझ से परे है।
सर्वोच्च न्यायालय ने जाकोब मैथ्यू बनाम स्टेट आफ पंजाब (2005-6-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज 1) में प्रतिपादित किया था कि किसी चिकित्सक के विरूद्ध इलाज में लापरवाही के आरोप में किसी विशेषज्ञ डाक्टर की ओपीनियन और विश्वसनीय साक्ष्य के अभाव में कोई प्रायवेट कम्प्लेन्ट विचारण के लिए स्वीकार नही की जायेगी। कोई विवेचक किसी चिकित्सक के विरूद्ध कार्यवाही किये जाने के पूर्व सम्बन्धित रोग के विशेषज्ञ की राय अवश्य लेगे और केवल शिकायत में नामजद होने के कारण उसे गिरफ्तार नही करेगे।
सर्वोच्च न्यायालय ने मार्टिन एफ0डी0 सोजा बनाम मोहम्मद इशफाक (2009-3-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज 1) में स्पष्ट रूप से कहा है कि न्यायालय और उपभोक्ता फोरम चिकित्सा विज्ञान के विशेषज्ञ नही होते इसलिए उन्हें रोग विशेष के विशेषज्ञ चिकित्सक की राय पर अपनी राय थोपनी नही चाहिये। माना जाना चाहिये कि अलग अलग चिकित्सको की एप्रोच भी अलग अलग होती है। कोई बहुत रेडिकल तेज होता है और कोई कन्जरवेटिव। किसी बने बनाये चिकित्सकीय फार्मूले में उन्हें फिट नही किया जा सकता। यदि कोई चिकित्सक किसी नई एप्रोच के साथ काम करता है और उसमें कभी असफलता हाथ लगी तो उसे उसके लिए दण्डित किया जाना उचित नही है।
सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया है कि चिकित्सको के विरूद्ध इलाज में लापरवाही के आरोप मे शिकायत पाये जाने के बाद आपराधिक न्यायालय या उपभोक्ता अदालते नोटिस जारी करने के पूर्व अन्य किसी सक्षम डाक्टर या डाक्टर्स के पैनल को विशेषज्ञ राय के लिए मामले को संदर्भित करें और यदि विशेषज्ञ राय में प्रथम दृष्टया लापरवाही प्रतीत होती है तभी चिकित्सक नर्सिंग होम या अस्पताल को नोटिस जारी करनी चाहिये। चिकित्सको को उत्पीड़न से बचाने के लिए ऐसा करना आवश्यक है।