Thursday, 24 July 2014

चिकित्सकीय लापरवाही आरोप ज्यादा हकीकत कम.............

बचपन में सुना करता था कि डा0 एस.पी. शुक्ला हृदय रोग का लक्षण दिखते ही तत्काल मारफिया या पेथीडीन इन्जेक्शन लगा देने के बाद मरीज को हृदय रोग संस्थान रिफर किया करते थे, परन्तु चिकित्सकीय लापरवाही की बढ़ती शिकायतों के कारण अब वे ऐसा नही करते बल्कि कोई दवा दिये बिना उसे नर्सिग होम ले जाने की सलाह देते है जबकि उन्हें मालुम है कि हृदय के मामलों में तत्काल इलाज मिलना बेहद जरूरी है। उन्हें भय रहता है कि यदि उन्होंने तात्कालिक आवश्यकता को दृष्टिगत रखकर इन्जेक्शन लगा दिया और अस्पताल पहुँचने के पहले रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गई तो उनके विरूद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304 ए के तहत मुकदमा पंजीकृत हो जायेगा और कई लाख रूपये की क्षतिपूर्ति के लिए उपभोक्ता अदालत के समक्ष परिवाद का भी उन्हें सामना करना पडेगा। इसी प्रकार मार्ग दुर्घटना में हेड इन्जरी की स्थिति में तत्काल खून के बहाव को रोकना आवश्यक होता है, परन्तु अब कोई डाक्टर ऐसे मरीजो का प्राथमिक उपचार नही करता और उसके कारण अस्पताल पहुँचने तक कई बार इन्जर्ड अन्य कई प्रकार के चिकित्सकीय परेशानियों का शिकार बना जाता है जो उसकी मृत्यु का कारण बनते है।
चिकित्सकीय व्यवसाय को उपभोक्ता संरक्षण फोरम की परिधि में ले लिये जाने के बाद चिकित्सको के विरूद्ध लापरवाही के आरोपों में इजाफा हुआ है। आये दिन इलाज में लापरवाही के नाम पर अस्पतालो और नर्सिग होम में तोड़ फोड़ की घटनाऐ होती रहती है। चिकित्सको के विरूद्ध आपराधिक धाराओं में मुकदमें या उपभोक्ता अदालतो में परिवाद आम बात हो गई है। मरीज और डाक्टर के बीच आपसी सद्भाव एवं विश्वास निरन्तर कम होता जा रहा है। जिसका सबसे ज्यादा नुकशान तत्काल इलाज की आवश्यकता वाले मरीजो को उठाना पड रहा है। गम्भीर मामलो में भी चिकित्सक अब मरीजो को प्राथमिक इलाज देने की अपेक्षा उसे किसी बडे अस्पताल या नर्सिग होम में रिफर करने को प्राथमिकता देने लगे है।
इण्डियन मेडिकल एसोसियेशन बनाम वी.पी. सन्था (1995-6-एस.सी.सी.-पेज 651) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया था कि चिकित्सकीय व्यवसाय अन्य व्यवसायो की तुलना में एकदम अलग तरीके का व्यवसाय है। इस व्यवसाय में प्रत्येक केस में सफलता सुनिश्चित नही होती। सफलता या असफलता का दारोमदार कई बार चिकित्सक के नियन्त्रण के बाहर होता है। उसकी कुशलता ज्ञान और बुद्धि एक सीमा के बाद प्रभावहीन हो जाती है। वास्तव में किसी चिकित्सक को केवल इस कारण मेडिकल नेगलीजेन्स का दोषी नही माना जाना चाहिये कि उसने किसी परिस्थिति विशेष में कोई एक निर्णय लिया जो बाद में गलत साबित हुआ। ऐसे किसी चिकित्सक या अन्य किसी क्षेत्र के विशेषज्ञ को खोज पाना लगभग असम्भव है जिससे कभी कोई गलती होती ही न हो। गम्भीर परिस्थितियों मे अपने सामने पडे मरीज के जीवन को बचाने या उसकी पीड़ा को कम करने के लिए चिकित्सक को तत्काल कोई न कोई निर्णय लेना ही होता है। इस प्रक्रिया के दौरान यदि उसके मन में कोई भय होगा तो वह अपनी कुशलता और विवेक के सहारे स्वतन्त्र निर्णय नही ले सकेगा और फिर वह विशेषज्ञ राय की प्रतीक्षा करेगा जो मरीज के इलाज की तात्कालिक आवश्यकता के हित में नही है।
रेस इप्सा लोक्यूटर स्वयं प्रमाण का सिद्धान्त चिकित्सकीय लापरवाही सिद्ध करने के लिए लागू नही हो सकता। कोई चिकित्सक या संवदेनशील व्यक्ति जानबूझकर किसी मरीज को छति पहुँचाने के दुराशय से गलत इलाज की सलाह नही दे सकते। इस प्रकार का आचरण सामान्य मानवीय स्वभाव के प्रतिकूल है। कथित झोला छाप डाक्टर भी अपने मरीजो का इलाज अपने सर्वोत्तम अनुभव और वर्षो की अर्जित कुशलता के बल पर पूरी जिम्मेदारी के साथ करते है। ग्रामीण अंचलों मे इलाज का सारा दारोमदार कथित झोलाछाप डाक्टरों पर निर्भर है और वे जानबूझकर कभी कोई लापरवाही नही करते। नामी गिरामी विशेषज्ञो का निर्णय भी कई बार गलत साबित हुआ है। 
मरीज के इलाज में जानबूझकर लापरवाही करने वाले चिकित्सक किसी भी दशा में सहानुभूति या दया के पात्र नही है। उन्हें हर हालत में दण्डित किया जाना चाहिये परन्तु गम्भीर परिस्थितियों में अपनी कुशलता एवं ज्ञान के सहारे मरीज का इलाज करने वाले चिकित्सको के विरूद्ध निहित स्वार्थवश प्रस्तुत शिकायतो को हतोत्साहित किये जाने की जरूरत है। सदा याद रखना चाहिये कि अन्य किसी क्षेत्र के विशेषज्ञ की तरह चिकित्सक का तात्कालिक निर्णय गलत हो सकता है, परन्तु यदि इसी कारण उसे दण्डित किया जाने लगा तो फिर कड़ी मेहनत करके मानवता की सेवा करने के लिए इस व्यवसाय की तरफ आने का आकर्षण खत्म हो जायेगा। मेडिकल प्रोफेशन आदर्श व्यवसाय है। इसे चिकित्सा सेवा बेचने खरीदने का व्यवसाय मानना एकदम गलत है। यह सच है कि आज कुछ चिकित्सक मानवता की सेवा करने की अपनी शपथ को भुलाकर केवल मनी माइण्डेड (धन लोलुप) हो गये है और अपने स्तर से नीचे जाकर प्रापर्टी खरीदने बेचने का व्यवसाय करने लगे है, जो दुःखद है, परन्तु ऐसे कुछ लोगों के कारण सम्पूर्ण मेडिकल प्रोफेशन में दोष खोजना या सभी को आदतन लापरवाही का दोषी मान लेना किसी भी दशा में न्यायसंगत नही है।
सर्वोच्च न्यायालय ने मारटिन एफ.डी. सोजा बनाम मोहम्मद इसफाक (2009-3-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज 1) में न्यायमूर्ति श्री मार्केण्डेय काटजू एवं श्री आर.एम. लोढा की खण्ड पीठ ने प्रतिपादित किया है कि किसी चिकित्सक को मिसचान्स या मिसएडवेन्चर के कारण कुछ चीजों के गलत हो जाने या इलाज के लिए किसी अन्य तरीके की तुलना में किसी अन्य तरीके को प्राथमिकात दिये जाने के कारण चिकित्सकीय लापरवाही का दोषी नही माना जा सकता। उसे केवल उसी स्थिति मे दोषी माना जा सकता है जब उसने एक सक्षम डाक्टर के आचरण के प्रतिकूल निम्न स्तर का व्यवहार किया है मसलन उसने मरीज का आपरेशन करने के बाद सर्जिकल रूई उसके शरीर में छोड दी हो या खराब अंग की जगह किसी दूसरे अंग का आपरेशन किया हो। 
आपात स्थितियों में तत्काल सटीक इलाज के दौरान निर्णय मे गलती की सम्भावनाये ज्यादा होती है। ऐसे अवसरो पर चिकित्सक को डेविल और डीप. सी के बीच किसी एक का चुनाव करना होता है। उच्च स्तरीय जोखिम आवश्यक होता है परन्तु उसके असफल होने की सम्भावनायें  ज्यादा होती होती है जबकि निम्नस्तरीय जोखिम सुरक्षित होता है, परन्तु उसमें असफलता की आशंका बनी रहती है। इसलिए मरीज के जीवन को बचाने या उसकी पीढ़ा को कम करने के लिए चिकित्सक प्रायः उच्च स्तरीय जोखिम की प्रक्रिया अपनाते है और इन परिस्थितियों मे उनसे ऐसी ही अपेक्षा की जाती है। इसलिए निर्णय में गलती हो जाने पर चिकित्सक को जानबूझकर चिकित्सकीय लापरवाही का दोषी बताना न्यायसंगत नही है। किसी चिकित्सक को अपनी कुशलता के प्रतिकूल लापरवाही से किसी मरीज का इलाज करने से कुछ भी प्राप्त नही होता इसलिए चिकित्सक द्वारा जानबूझकर इलाज के द्वारा किसी के जीवन को खतरे में डाल देने या उसे गम्भीर छति पहुँचाने का तर्क सामान्य समझ से परे है।
सर्वोच्च न्यायालय ने जाकोब मैथ्यू बनाम स्टेट आफ पंजाब (2005-6-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज 1) में प्रतिपादित किया था कि किसी चिकित्सक के विरूद्ध इलाज में लापरवाही के आरोप में किसी विशेषज्ञ डाक्टर की ओपीनियन और विश्वसनीय साक्ष्य के अभाव में कोई प्रायवेट कम्प्लेन्ट विचारण के लिए स्वीकार नही की जायेगी। कोई विवेचक किसी चिकित्सक के विरूद्ध कार्यवाही किये जाने के पूर्व सम्बन्धित रोग के विशेषज्ञ की राय अवश्य लेगे और केवल शिकायत में नामजद होने के कारण उसे गिरफ्तार नही करेगे।
सर्वोच्च न्यायालय ने मार्टिन एफ0डी0 सोजा बनाम मोहम्मद इशफाक (2009-3-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज 1) में स्पष्ट रूप से कहा है कि न्यायालय और उपभोक्ता फोरम चिकित्सा विज्ञान के विशेषज्ञ नही होते इसलिए उन्हें रोग विशेष के विशेषज्ञ चिकित्सक की राय पर अपनी राय थोपनी नही चाहिये। माना जाना चाहिये कि अलग अलग चिकित्सको की एप्रोच भी अलग अलग होती है। कोई बहुत रेडिकल तेज होता है और कोई कन्जरवेटिव। किसी बने बनाये चिकित्सकीय फार्मूले में उन्हें फिट नही किया जा सकता। यदि कोई चिकित्सक किसी नई एप्रोच के साथ काम करता है और उसमें कभी असफलता हाथ लगी तो उसे उसके लिए दण्डित किया जाना उचित नही है।
सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया है कि चिकित्सको के विरूद्ध इलाज में लापरवाही के आरोप मे शिकायत पाये जाने के बाद आपराधिक न्यायालय या उपभोक्ता अदालते नोटिस जारी करने के पूर्व अन्य किसी सक्षम डाक्टर या डाक्टर्स के पैनल को विशेषज्ञ राय के लिए मामले को संदर्भित करें और यदि विशेषज्ञ राय में प्रथम दृष्टया लापरवाही प्रतीत होती है तभी चिकित्सक नर्सिंग होम या अस्पताल को नोटिस जारी करनी चाहिये। चिकित्सको को उत्पीड़न से बचाने के लिए ऐसा करना आवश्यक है। 

Sunday, 13 July 2014

लैंगिक हिंसा विरोधी कानूनों में बंध्याकरण की जरूरत ............

आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम 2013 के लागू हो जाने के बावजूद जमीनी स्तर पर इन कानूनों के माध्यम से महिलाओं के प्रति लैंगिक हिंसा में कोई कमी नही आई है। इन अपराधों में महिलाओं के प्रति समाज पुलिस और अभियोजन के रवैये में कोई परिवर्तन नही आया है। संशोधन अधिनियम के द्वारा विद्यमान कानूनों में समयानुसार संशोधन किय गये, सजा के प्रावधानों को ज्यादा कठोर बनाया गया, आरोप पत्र दाखिल होने के बाद दो माह के अन्दर विचारण पूरा करके मामले को निपटाने का नियम बनाया गया परन्तु प्रक्रियागत शिथिलताओं के कारण ये सभी कानून दोषियो पर अपना प्रभाव छोड़ने में नाकाम सिद्ध हुये है और उसके कारण बालात्कार की घटनाओं में इजाफा हुआ है।
‘सहमति’ का प्रश्न उठाकर बालात्कार के दोषी प्रायः अपनी दोषमुक्ति आसान बना लिया करते थे परन्तु इस नये अधिनियम में सहमति को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है। कहा गया है कि सहमति से कोई स्पष्ट स्वेच्छिक सहमति अभिपे्रत है, जब स्त्री शब्दों संकेतो, या किसी प्रकार की मौखिक या अमौखित संसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट लैगिक कृत्य में शामिल होन की इच्छा व्यक्त करती है। परन्तु ऐसी स्त्री के बारे में जो प्रवेशन के कृत्य का भौतिक रूप से विरोध नही करती है, मात्र इस तथ्य के कारण यह नही समझा जायेगा कि उसने लैगिक संसर्ग के लिए अपनी सहमति दी है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम में भी संशोधन करके प्रावधान किया गया है कि बालात्कार के किसी अभियोजन में, जहाँ अभियुक्त द्वारा मैथुन किया जाता साबित हो जाता है और प्रश्न यह है कि क्या वह उस स्त्री की सहमति के बिना किया गया है और ऐसी स्त्री यदि अपनी साक्ष्य में  अदालत के समक्ष यह कथन करती है कि उसने सहमति नही दी थी, तो अदालत यह उपधारणा करेगी कि उसने सहमति नही दी है। सहमति सिद्ध करने का भार पूरी तरह अभियुक्त पर है स्त्री द्वारा सहमति से इन्कार किया जाना असहमति की उपधारणा के लिए पर्याप्त है।
नये अधिनियम में बालात्कार की नई धाराये भी जोडी गई है। इनमें सम्बन्धी, अभिभावक, शिक्षक या विश्वस्त व्यक्ति द्वारा बालात्कार धारा 376(2) (एफ), साम्प्रदायिक या वर्ग हिंसा के दौरान महिला के साथ बालात्कार 376 (2) (जी), सहमति जताने में असमर्थ महिला के साथ बालात्कार धारा 376 (2) (जे) अधिपत्य या नियन्त्रण में रहने वाली महिला के साथ बालात्कार धारा 376 (2) (के), जब एक महिला शारीरिक या मानिसिक रूप से लाचार हो धारा 376 (2) (आई), जब बालात्कार के लिए गम्भीर रूप से चोट पहुँचाई जाये, या महिला को घायल कर दिया जाये या उसे शारीरिक रूप से विकृत कर दिया जाये या उसका जीवन खतरे में पड जाये 376 (2) (एम), उस स्त्री से बार बार बालात्कार धारा 376 (2) (एन) को गम्भीर अपराध माना गया है और उसके लिए न्यून्तम दस वर्षो के कठोर कारावास और अधिकतम आजीवन कारावास एवं जुर्माने से दण्डित करने का प्रावधान किया गया है। बालात्कार के दौरान यदि कोई महिला को ऐसी कोई क्षति पहुँचाता है जिससे उसकी मृत्यु जो जाती है या स्त्री की दशा लगातार विकृतशील हो जाती है तो वह ऐसी अवधि के कठोर कारावास से जिसकी अवधि बीस वर्ष से कम की नही होगी। इस प्रकार के अपराधों में दोषी को मृत्युदण्ड से भी दण्डित किया जा सकेगा।
इस अधिनियम में लैंगिक उत्पीडन, विवस्त्र करने के आशय से स्त्री पर हमला या आपराधिक बल का प्रयोग प्राइवेट कृत्य में लगी स्त्री को एकटक देखने या उसकी फोटो लेने, किसी स्त्री का पीछा करने को भी अपराध माना गया है। धारा 354 के अपराध की सजा को एक वर्ष से बढ़ाकर पाँच वर्ष कर दिया गया है। इसी प्रकार धारा 326 ए और 326 बी जोडकर तेजाब आदि का प्रयोग करके स्वेच्छया गम्भीर चोट पहुँचाने या इसका प्रयत्न करने के अपराधों में न्यूनतम दस वर्ष या आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान किया गया है। इस अपराध में दण्ड स्वरूप ऐसे जुर्माने का भी प्रावधान है जो पीडि़ता के उपचार के चिकित्सकीय खर्चों को पूरा करने के लिए युक्ति युक्त हो। जुर्माने की राशि पीडि़ता को देने का नियम बना दिया गया है। 
बालात्कार के मामलों में बालात्कार के बाद महिला को टू फिंगर जाँच के दौरान पुनः एक बार उत्पीडन और शर्मिन्दगी का शिकार होना पड़ता है। जाँच के दौरान पीडित के जननांग में दो उंगलियाँ डालकर जाना जाता है कि उसकी योनि में फैलाव हुआ है या नही। इससे विचारण के दौरान अदालत के समक्ष पीडि़ता के यौन इतिहास और शारीरिक सम्बन्धों की आदी होने या न होने के बारे में चिकित्सक अपनी साक्ष्य प्रस्तुत करते है। विधि में विचारण के दौरान पीडि़ता के यौन इतिहास को प्रस्तुत करने की इजाजत नही है। परन्तु टू फिंगर परीक्षण के द्वारा मेडिकल रिपोर्ट में पीडि़ता को बालात्कार का आदी बताने की कुप्रथा आज भी जारी है।
हृयूमन राइट वाच रिपोर्ट डिग्निटी आन ट्रायल के द्वारा केन्द्र सरकार से अनुशंशा की गई है कि टू फिंगर को तत्काल प्रभाव से रोक दिया जाये। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इस प्रकार की जाँच का कोई वैज्ञानिक आधार नही है क्योंकि इस परीक्षण के आधार पर कोई चिकित्सक किसी पीडि़ता के यौन इतिहास के बारे में कुछ भी नही बता सकता। टू फिंगर परीक्षण की प्रक्रिया पीडि़ता का नये सिरे से शर्मिन्दगी का शिकार बनाती है और फिर न्यायालय के समक्ष विचारण के समय प्रतिपरीक्षा के दौरानय इन शब्दों के सहारे उसे जानबूझकर अपमानित किया जाता है। वास्तव में आदी है या नही ? का तथ्य बालात्कार के अपराध की गम्भीरता को कम नही कर सकता। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा टू फिंगर परीक्षण को अवैधानिक घोषित किये जाने के बावजूद राज्य सरकारों ने इसे अभी तक प्रतिबन्धित नही किया है। 
बालात्कार के दोषियों की रिहाई में साक्षियों की पक्षद्रोहिता एक बड़ा कारण है परन्तु संशोधित अधिनियम इस बडी समस्या के प्रति पूरी तरह मौन है। नई विधि में न्यायालय के बाहर के समझौतो और उसके कारण साक्षियों की पक्ष द्रोहिता पर विचार नही किया गया है। पीडि़ता पर न्यायालय के समक्ष गवाही न देने का जबर्दस्त दबाव होता है। पुलिस सी.बी.आई. अभियुक्त के वकील अदालत के शासकीय अधिवक्ता अपने अपने स्तरों पर कोई न काई भय दिखाकर पीडि़ता और उसके साक्षियों को पक्षद्रोही होने के लिए मजबूर करते है। इसकी वजह से दोषियों के दोष मुक्त होने की घटनायें बढ़ी है और दूसरी और नित्य प्रति की धमकियों के कारण असहायता में साक्षियों की आत्म हत्या की भी घटनायें में इजाफा हुआ है परन्तु शाशन के पास इस जबर्दस्ती पर प्रभावी नियन्त्रण के लिए कोई रणनीति नही है। रणनीति बनाने की दिशा में सेचा भी नही जा रहा है। भारी भरकम कानून और उसमें सजा के प्रावधान बालात्कार की घटनाओं को रोकने मे सक्षम नही हो सकते। इस पर नियन्त्रण के लिए समाज का सक्रिय सहयोग जरूरी है। प्रत्येक परिवार को अपने बेटे के पालन पोषण के दौरान उसे अपनी बहेन की सहेलियों के साथ गरिमामय व्यवहार करने की शिक्षा देनी होगी। उन्हे निरन्तर सचेत करते रहना होगा कि यदि उन्होंने किसी लड़की के साथ यौन हिंसा का व्यवहार किया तो घर के दरवाजे उनके लिए बन्द हो सकते है।
निर्भया काण्ड के समय उभरे आन्दोलन के दौरान दोषियों को मृत्युदण्ड या बंध्याकरण की सजा से दण्डित करने की माँग काफी मुखर थी। बालात्कार एवं हत्या के कई मामलों में दोषियों को मृत्युदण्ड से दण्डित किया गया है, परन्तु उसके कारण बालात्कार की घटनाओं में कोई कमी नही आई है बल्कि उसमें इजाफा हुआ है। ऐसी दशा में बंध्याकरण के दण्ड के प्रति गम्भीरता के साथ विचार विमर्श की जरूरत है। बालात्कार के बाद पीडि़ता एक जिन्दा लाश बनकर रह जाती है और उसे स्थायी रूप से शर्मिन्दगी एवं कलंक के साथ जीने को अभिशप्त होना पडता है। समाज उसे उस दण्ड के लिए दण्डित करता है, जो उसने किया ही नही है। साधारणतया कोई पुरूष उसके साथ विवाह करना ही नही चाहता जबकि बालात्कार के दोषियों का विवाह आसानी से जो जाता है। विवाहित होने की स्थिति में उनकी पत्नी उन्हें माफ कर देती है। दोषी सामान्य जीवन जीने लगता है और फिर किसी को अपनी दरिन्दगी का शिकार बनाता है, परन्तु स्त्री ताजिन्दगी सामान्य नही हो पाती और हर छण जीते जीते मरती रहती है। सामान्य सजाओं से बालात्कार के दोषयों को नियन्त्रित करना सम्भव नही है। इस प्रकार के दाषियों के लिए बंध्याकरण उचित दण्ड है। बंध्याकरण मृत्यु दण्ड से ज्यादा प्रभावी हो सकता है। मृत्युदण्ड में दोषी को अपराध बोध के साथ जीना नही पडता जबकि बंध्याकरण में उन्हें अपने द्वारा कारित दरिन्दगी के अपराध बोध के साथ समाज का सामना करना पड़ता है और उनको देखकर नये अपराधी बालात्कार की ओर उन्मुख होने से डरेंगे। सर्वविदित है कि सामान्य कानून बेअसर सिद्ध हुये है ऐसी दशा में बंध्याकरण के बारे में विचार विमर्श करना कतई अमानवीय नही है। 

Sunday, 6 July 2014

गिरफ्तारी के पहले अब विश्वसनीय साक्ष्य का संकलन जरुरी.......

पुलिस अधिकारी अब किसी को केवल प्रथम सूचना रिपोर्ट में नामजद होने के कारण गिरफ्तार नही कर सकेगे। गिरफ्तारी के पहले  विश्वसनीय साक्ष्य संकलित करना उनके लिये आवश्यक बना दिया है। ऐसा न करने वालेे पुलिस अधिकारियों को विभागीय कार्यवाही के साथ -साथ न्यायालय की अवमानना का भी दोषी माना जायेगा। समुचित कारण अभिलिखित किये बिना अभिरक्षा का आदेश पारित करने वाले न्यायिक अधिकारियांे के विरुद्ध भी विभागीय कार्यवाही का आदेशात्मक दिशा निर्देश जारी हुआ है।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री चन्द्रमौलि कुमार प्रसाद एवं श्री पिनाकी चन्द्र घोष की खण्ड पीठ ने दिनांक 02जुलाई2014 को पारित अपने आदेशात्मक दिशा निर्देशों मे कहा है कि पुलिस अधिकारी किसी को भी गिरफ्तार करने से पूर्व अपने आप से पँूछे कि गिरफ्तारी क्यों ? क्या इसकी वास्तव में जरुरत है? इससे किस उद्देश्य की पूर्ति  होगी? प्राप्त क्या होगा? इन प्रश्नों का सकारात्मक उत्तर मिलने और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-41 में निर्धारित शर्तो का अनुपालन हो जाने के बाद ही किसी को गिरफ्तार करे। पहले गिरफ्तारी और बाद में साक्ष्य संकलन की प्रवृति न्यायोचित नही है। गिरफ्तारी से व्यक्ति का उत्पीडन और उसकी स्वतन्त्रता का हनन होता है। आजादी के छः दशको के बाद भी पुलिस की सामंती प्रवृति में कोई परिवर्तन नही आ सका। पुलिस आज भी आम लोगों के उत्पीडन का कारण बनी हुयी है। किसी भी दशा में जनता की मित्र नही है । लोगों को गिरफ्तार करनें के पुलिसिया अधिकारों को न्यायपूर्ण आधार पर सीमित करने के लिये सभी स्तरों पर अनेकानेक प््रायास किये गये है परन्तु अपेक्षित परिणाम प्राप्त नही हो सके है।
विधि आयोग, पुलिस  आयोग और सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अपने स्तरो पर इस समस्या के विभिन्न पहुलुओ पर कई बार विचार किया है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अनेकानेक निर्णयों के द्वारा गिरफ्तारी के अधिकारों का प्रयोग किये जाते समय आम लोगों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और सामाजिक व्यवस्था के माध्य सांमजस्य बनाये रखने पर जोर दिया है। गिरफ्तारी का अधिकार अपने में निहित होने के कारण पुलिस अधिकारियों की अहमन्यता में कोई कमी नही आयी है पुलिस अधिकारी नामजद अभियुक्तो को पहले गिरफ्तार करने और उसके बाद विवेचना प्रारम्भ करने में विश्वास करते है जबकि अब उन्हे इस आशय का कोई विधिपूर्ण अधिकार प्राप्त नही है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि गैर जमानती और संज्ञेय अपराध होने के बावजूद केवल नामजद होने के कारण किसी को गिरफ्तार नही किया जाना चाहिये। गिरफ्तारी का अधिकार अपनी जगह है परन्तु इस अधिकार के प्रयोग का न्यायोचित होना एकदम अलग बात है। गिरफ्तारी का अधिकार होने के बावजूद न्यायोचित कारणों के आधार पर गिरफ्तारी सर्वथा विधि विरुद्ध है। पुलिस अधिकारियों को गिरफ्तारी की सुसंगता सिद्ध करने के लिये समुचित कारण बताने होगें। उसके लिये आरोपों की सत्यता बाबत संुसंगत संतुष्टि आवश्यक है। इस आशय कि स्पष्ट विधि होने के बावजूद रुटीन गिरफ्तारियों की संख्या में कोई कमी नही आयी है। पुलिस अधिकारियों के इस उत्पीडक रवैये के कारण आम लोगोें की स्वन्त्रता का हनन होता है और उन्हे अनेकानेक कठिनाईयों का शिकार होना पडता है।
आम लोगों को पुलिसिया उत्पीडन से निजात दिलानें के लिये विधि आयोग की 177वी रिपोर्ट की अनुसंसाओं को स्वीकार करकेे केन्द्र सरकार ने दण्ड प्रक्रिया की धारा 41 में संशोधन करके सात वर्ष तक की सजा वाले अपराधो में केवल नामजद होने के कारण अभियुक्तों की गिरफ्तारी पर रोक लगा दी है। दण्ड प्रक्रिया की धारा 41ए के संशोधित प्रावधानों के अनुसार सात वर्ष तक की सजा वाले अपराधों मे नामजद व्यक्ति को गिरफ्तार करने के पूर्व पुलिस अधिकारी के लिये आवश्यक हो गया है कि वे नामजद व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित होने के लिये नोटिस जारी करें। धारा 41-क निम्नवत हैः- 41-क. पुलिस अधिकारी के समक्ष उपसंजाति की सूचना-
1. पुलिस अधिकारी उन सभी मामालों में, जहां धारा 41 की अपधारा (1)के प्रावधान के आधीन व्यक्ति की गिरफ्तारी अपेक्षित नही है उस व्यक्ति, जिसके विरुद्ध युक्तियुक्त परिवाद किया गया है या विश्वसनीय सूचना प्राप्त की गयी है, या युक्तियुक्त सन्देह विद्यमान है कि उसने संज्ञेय अपराध किया है को अपने समक्ष या ऐसे अन्य स्थान पर जैसा नोटिस ममें  विनिदिष्ट किया जाये, उपसंजात होने का निर्देश देते हुये नोटिस जारी करेगा।
2. जहां ऐसी नोटिस किसी व्यक्तिको जारी की जाती है तब उस व्यक्ति का यह कर्तव्य होगा कि वह नोटिस के निबन्धनों का अनुपालन करे ।
3. जहां ऐसा व्यक्ति नोटिस का अनुपालन करता है या अनुपालन निरन्तर करता है तब उसे नोटिस में निर्दिष्ट अपराध के सम्बन्ध में तब तक गिरफ्तार नही किया जायेगा जब तक लेखबद्ध किये जाने वाले कारणों से पुलिस अधिकारी की यह राय हो कि उसे गिरफ्तार किया जाना चाहिये ।
4. जहां ऐसा व्यक्ति,किसी समय नोटिस के निबन्धनों का अनुपालन करने में असफल रहता है या स्वयं की शिनाख्त करने के लिये अनिच्छुक है,पुलिस अधिकारी,ऐसे आदेशों के अध्यधीन,जैसा कि इस निमित सक्षम न्यायालय द्वारा पारित किया जायें,नोटिस में वर्णित अपराध के लिए उसे गिरफ्तार कर सकेगा।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 के तहत अब पुलिस अधिकारी किसी व्यक्ति को केवल उसी स्थिति में गिरफ्तार कर सकेगे,जब उनका समाधान हो जाता है कि ऐसे व्यक्ति को कोई अग्रेतर अपराध करने से रोकने,अपराध का उचित अन्वेषण करने,अपराध के साक्ष्य को  मिटाने या साक्ष्य के साथ किसी प्रकार की छेडछाड करने से प्रतिवारित करने,मामलें के तथ्यो से परिचित किसी व्यक्ति को उत्पीडित करने,धमकी देने,या वचन देने से प्रतिवारित करने,और न्यायालय के समक्ष उसकी उपस्थिति सुनिश्चित कराने के लिये गिरफ्तारी जरुरी है। पुलिस अधिकारी को ऐसी गिरफ्तारी के पूर्व केस डायरी में गिरफ्तारी के कारणों को  अभिलिखित करना होगा। पुलिस अधिकारी के लिये यह भी आवश्यक है कि वे उन सभी मामलों में, जहाँ व्यक्ति की गिरफ्तारी इस उपधारा के प्रावधानांे के अपेक्षित नही है, गिरफ्तारी न करने के कारणोे को भी अभिलिखित करे।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय के द्वारा न्यायिक अधिकारियों के लिये भी आवश्यक बना दिया है कि वे अपने समक्ष गिरफ्तार करके उपस्थित किये गये व्यक्तियों की अभिरक्षा का आदेश पारित करने के पूर्व सुनिश्चित करे कि गिरफ्तारी के समय पुलिस अधिकारियों ने विधिक प्रक्रिया का अनुपालन किया है और यदि पुलिस अधिकारी ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 में निर्धारित प्रक्रिया के अनुरूप गिरफ्तारी नही की है तोे गिरफ्तार करके लाये गये व्यक्ति को तत्काल रिहा करना न्यायिक अधिकारी की पदीय प्रतिबद्धता है। अभिरक्षा के आदेश में न्यायिक अधिकारी को अभिरक्षा के कारणों और उस पर अपनी संतुष्टि के कारणों को अभिलिखित करना होगा । न्यायिक अधिकारी की संतुष्टि उसके आदेश में परिलक्षित होनी चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने आदेशात्मक दिशा निर्देशों में कहा है कि यदि कोई  न्यायिक अधिकारी सुसंगत कारण अभिलिखित किये बिना अभिरक्षा का आदेश पारित करेगे तो उनकेे विरुद्ध विभागीय कार्यवाही सुनिश्चित करायी जायेगी।
न्यायालय ने अपने निर्णय में स्पष्ट रूप से कहा है कि पुलिस अधिकारी के लिये आवश्यक है कि किसी को भी गिरफ्तार करने के पूर्व उसे नोटिस जारी करेगा और उसमे उपस्थित होने के लिये नियत तिथि,स्थान और समय का उल्लेख करेगा । विधि के तहत ऐसे व्यक्ति के लिये नोटिस पाने के बाद पुलिस अधिकारी के समक्ष उपस्थित होना भी आवश्यक है। नोटिस पाने के बाद यदि वह व्यक्ति पुलिस अधिकारी के समक्ष उपस्थित होकर नोटिस की शर्तो का पालन करता है तो उसे गिरफ्तार नही किया जायेगा। पुलिस अधिकारी को ऐसे व्यक्ति की गिरफ्तारी यदि आवश्यक प्रतीत होती है तो वह अपनी संतुष्टि के कारणों को तथ्यो सहित अभिलिखित करेगा और सम्बन्धित न्यायिक अधिकारी के समक्ष उसे प्रस्तुत करेगा। कोई पुलिस अधिकारी अब निर्धारित प्रक्रिया और सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा जारी दिशा निर्देशों के प्रतिकूल किसी को गिरफ्तार करेगे तो उनके विरुद्ध विभागीय कार्यवाही की जायेगी और उन्हे न्यायालय की अवमानना का भी दोषी माना जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि यान्त्रिक तरीके से गिरफ्तारी के कारणों को केस डायरी मेे अभिलिखित करने की प्रवृत्ति को हत्तोसाहित करके उस पर पूर्ण विराम लगा देना चाहिये। पुलिस अधिकारी अब किसी की भी अनावश्यक गिरफ्तारी नही करेगे और न्यायिक अधिकारी यान्त्रिक तरीके से अभिरक्षा का  आदेश पारित करने की औपचारिकता नही निभायेगे