Sunday, 13 July 2014

लैंगिक हिंसा विरोधी कानूनों में बंध्याकरण की जरूरत ............

आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम 2013 के लागू हो जाने के बावजूद जमीनी स्तर पर इन कानूनों के माध्यम से महिलाओं के प्रति लैंगिक हिंसा में कोई कमी नही आई है। इन अपराधों में महिलाओं के प्रति समाज पुलिस और अभियोजन के रवैये में कोई परिवर्तन नही आया है। संशोधन अधिनियम के द्वारा विद्यमान कानूनों में समयानुसार संशोधन किय गये, सजा के प्रावधानों को ज्यादा कठोर बनाया गया, आरोप पत्र दाखिल होने के बाद दो माह के अन्दर विचारण पूरा करके मामले को निपटाने का नियम बनाया गया परन्तु प्रक्रियागत शिथिलताओं के कारण ये सभी कानून दोषियो पर अपना प्रभाव छोड़ने में नाकाम सिद्ध हुये है और उसके कारण बालात्कार की घटनाओं में इजाफा हुआ है।
‘सहमति’ का प्रश्न उठाकर बालात्कार के दोषी प्रायः अपनी दोषमुक्ति आसान बना लिया करते थे परन्तु इस नये अधिनियम में सहमति को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है। कहा गया है कि सहमति से कोई स्पष्ट स्वेच्छिक सहमति अभिपे्रत है, जब स्त्री शब्दों संकेतो, या किसी प्रकार की मौखिक या अमौखित संसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट लैगिक कृत्य में शामिल होन की इच्छा व्यक्त करती है। परन्तु ऐसी स्त्री के बारे में जो प्रवेशन के कृत्य का भौतिक रूप से विरोध नही करती है, मात्र इस तथ्य के कारण यह नही समझा जायेगा कि उसने लैगिक संसर्ग के लिए अपनी सहमति दी है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम में भी संशोधन करके प्रावधान किया गया है कि बालात्कार के किसी अभियोजन में, जहाँ अभियुक्त द्वारा मैथुन किया जाता साबित हो जाता है और प्रश्न यह है कि क्या वह उस स्त्री की सहमति के बिना किया गया है और ऐसी स्त्री यदि अपनी साक्ष्य में  अदालत के समक्ष यह कथन करती है कि उसने सहमति नही दी थी, तो अदालत यह उपधारणा करेगी कि उसने सहमति नही दी है। सहमति सिद्ध करने का भार पूरी तरह अभियुक्त पर है स्त्री द्वारा सहमति से इन्कार किया जाना असहमति की उपधारणा के लिए पर्याप्त है।
नये अधिनियम में बालात्कार की नई धाराये भी जोडी गई है। इनमें सम्बन्धी, अभिभावक, शिक्षक या विश्वस्त व्यक्ति द्वारा बालात्कार धारा 376(2) (एफ), साम्प्रदायिक या वर्ग हिंसा के दौरान महिला के साथ बालात्कार 376 (2) (जी), सहमति जताने में असमर्थ महिला के साथ बालात्कार धारा 376 (2) (जे) अधिपत्य या नियन्त्रण में रहने वाली महिला के साथ बालात्कार धारा 376 (2) (के), जब एक महिला शारीरिक या मानिसिक रूप से लाचार हो धारा 376 (2) (आई), जब बालात्कार के लिए गम्भीर रूप से चोट पहुँचाई जाये, या महिला को घायल कर दिया जाये या उसे शारीरिक रूप से विकृत कर दिया जाये या उसका जीवन खतरे में पड जाये 376 (2) (एम), उस स्त्री से बार बार बालात्कार धारा 376 (2) (एन) को गम्भीर अपराध माना गया है और उसके लिए न्यून्तम दस वर्षो के कठोर कारावास और अधिकतम आजीवन कारावास एवं जुर्माने से दण्डित करने का प्रावधान किया गया है। बालात्कार के दौरान यदि कोई महिला को ऐसी कोई क्षति पहुँचाता है जिससे उसकी मृत्यु जो जाती है या स्त्री की दशा लगातार विकृतशील हो जाती है तो वह ऐसी अवधि के कठोर कारावास से जिसकी अवधि बीस वर्ष से कम की नही होगी। इस प्रकार के अपराधों में दोषी को मृत्युदण्ड से भी दण्डित किया जा सकेगा।
इस अधिनियम में लैंगिक उत्पीडन, विवस्त्र करने के आशय से स्त्री पर हमला या आपराधिक बल का प्रयोग प्राइवेट कृत्य में लगी स्त्री को एकटक देखने या उसकी फोटो लेने, किसी स्त्री का पीछा करने को भी अपराध माना गया है। धारा 354 के अपराध की सजा को एक वर्ष से बढ़ाकर पाँच वर्ष कर दिया गया है। इसी प्रकार धारा 326 ए और 326 बी जोडकर तेजाब आदि का प्रयोग करके स्वेच्छया गम्भीर चोट पहुँचाने या इसका प्रयत्न करने के अपराधों में न्यूनतम दस वर्ष या आजीवन कारावास की सजा का प्रावधान किया गया है। इस अपराध में दण्ड स्वरूप ऐसे जुर्माने का भी प्रावधान है जो पीडि़ता के उपचार के चिकित्सकीय खर्चों को पूरा करने के लिए युक्ति युक्त हो। जुर्माने की राशि पीडि़ता को देने का नियम बना दिया गया है। 
बालात्कार के मामलों में बालात्कार के बाद महिला को टू फिंगर जाँच के दौरान पुनः एक बार उत्पीडन और शर्मिन्दगी का शिकार होना पड़ता है। जाँच के दौरान पीडित के जननांग में दो उंगलियाँ डालकर जाना जाता है कि उसकी योनि में फैलाव हुआ है या नही। इससे विचारण के दौरान अदालत के समक्ष पीडि़ता के यौन इतिहास और शारीरिक सम्बन्धों की आदी होने या न होने के बारे में चिकित्सक अपनी साक्ष्य प्रस्तुत करते है। विधि में विचारण के दौरान पीडि़ता के यौन इतिहास को प्रस्तुत करने की इजाजत नही है। परन्तु टू फिंगर परीक्षण के द्वारा मेडिकल रिपोर्ट में पीडि़ता को बालात्कार का आदी बताने की कुप्रथा आज भी जारी है।
हृयूमन राइट वाच रिपोर्ट डिग्निटी आन ट्रायल के द्वारा केन्द्र सरकार से अनुशंशा की गई है कि टू फिंगर को तत्काल प्रभाव से रोक दिया जाये। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इस प्रकार की जाँच का कोई वैज्ञानिक आधार नही है क्योंकि इस परीक्षण के आधार पर कोई चिकित्सक किसी पीडि़ता के यौन इतिहास के बारे में कुछ भी नही बता सकता। टू फिंगर परीक्षण की प्रक्रिया पीडि़ता का नये सिरे से शर्मिन्दगी का शिकार बनाती है और फिर न्यायालय के समक्ष विचारण के समय प्रतिपरीक्षा के दौरानय इन शब्दों के सहारे उसे जानबूझकर अपमानित किया जाता है। वास्तव में आदी है या नही ? का तथ्य बालात्कार के अपराध की गम्भीरता को कम नही कर सकता। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा टू फिंगर परीक्षण को अवैधानिक घोषित किये जाने के बावजूद राज्य सरकारों ने इसे अभी तक प्रतिबन्धित नही किया है। 
बालात्कार के दोषियों की रिहाई में साक्षियों की पक्षद्रोहिता एक बड़ा कारण है परन्तु संशोधित अधिनियम इस बडी समस्या के प्रति पूरी तरह मौन है। नई विधि में न्यायालय के बाहर के समझौतो और उसके कारण साक्षियों की पक्ष द्रोहिता पर विचार नही किया गया है। पीडि़ता पर न्यायालय के समक्ष गवाही न देने का जबर्दस्त दबाव होता है। पुलिस सी.बी.आई. अभियुक्त के वकील अदालत के शासकीय अधिवक्ता अपने अपने स्तरों पर कोई न काई भय दिखाकर पीडि़ता और उसके साक्षियों को पक्षद्रोही होने के लिए मजबूर करते है। इसकी वजह से दोषियों के दोष मुक्त होने की घटनायें बढ़ी है और दूसरी और नित्य प्रति की धमकियों के कारण असहायता में साक्षियों की आत्म हत्या की भी घटनायें में इजाफा हुआ है परन्तु शाशन के पास इस जबर्दस्ती पर प्रभावी नियन्त्रण के लिए कोई रणनीति नही है। रणनीति बनाने की दिशा में सेचा भी नही जा रहा है। भारी भरकम कानून और उसमें सजा के प्रावधान बालात्कार की घटनाओं को रोकने मे सक्षम नही हो सकते। इस पर नियन्त्रण के लिए समाज का सक्रिय सहयोग जरूरी है। प्रत्येक परिवार को अपने बेटे के पालन पोषण के दौरान उसे अपनी बहेन की सहेलियों के साथ गरिमामय व्यवहार करने की शिक्षा देनी होगी। उन्हे निरन्तर सचेत करते रहना होगा कि यदि उन्होंने किसी लड़की के साथ यौन हिंसा का व्यवहार किया तो घर के दरवाजे उनके लिए बन्द हो सकते है।
निर्भया काण्ड के समय उभरे आन्दोलन के दौरान दोषियों को मृत्युदण्ड या बंध्याकरण की सजा से दण्डित करने की माँग काफी मुखर थी। बालात्कार एवं हत्या के कई मामलों में दोषियों को मृत्युदण्ड से दण्डित किया गया है, परन्तु उसके कारण बालात्कार की घटनाओं में कोई कमी नही आई है बल्कि उसमें इजाफा हुआ है। ऐसी दशा में बंध्याकरण के दण्ड के प्रति गम्भीरता के साथ विचार विमर्श की जरूरत है। बालात्कार के बाद पीडि़ता एक जिन्दा लाश बनकर रह जाती है और उसे स्थायी रूप से शर्मिन्दगी एवं कलंक के साथ जीने को अभिशप्त होना पडता है। समाज उसे उस दण्ड के लिए दण्डित करता है, जो उसने किया ही नही है। साधारणतया कोई पुरूष उसके साथ विवाह करना ही नही चाहता जबकि बालात्कार के दोषियों का विवाह आसानी से जो जाता है। विवाहित होने की स्थिति में उनकी पत्नी उन्हें माफ कर देती है। दोषी सामान्य जीवन जीने लगता है और फिर किसी को अपनी दरिन्दगी का शिकार बनाता है, परन्तु स्त्री ताजिन्दगी सामान्य नही हो पाती और हर छण जीते जीते मरती रहती है। सामान्य सजाओं से बालात्कार के दोषयों को नियन्त्रित करना सम्भव नही है। इस प्रकार के दाषियों के लिए बंध्याकरण उचित दण्ड है। बंध्याकरण मृत्यु दण्ड से ज्यादा प्रभावी हो सकता है। मृत्युदण्ड में दोषी को अपराध बोध के साथ जीना नही पडता जबकि बंध्याकरण में उन्हें अपने द्वारा कारित दरिन्दगी के अपराध बोध के साथ समाज का सामना करना पड़ता है और उनको देखकर नये अपराधी बालात्कार की ओर उन्मुख होने से डरेंगे। सर्वविदित है कि सामान्य कानून बेअसर सिद्ध हुये है ऐसी दशा में बंध्याकरण के बारे में विचार विमर्श करना कतई अमानवीय नही है। 

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