उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों के चयन की अपारदर्शी कोलेजियम व्यवस्था को समाप्त करके केन्द्र सरकार ने संविधान की सर्वोच्चता के सुस्थापित सिद्धान्त को मान्यता दी है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश श्री आर.एम. लोढा सहित न्याय क्षेत्र के अधिकांश दिग्गज कोलेजियम व्यवस्था का मोह त्यागने को तैयार नही थे, परन्तु संसद ने जजो की नियुक्ति की कोलेजियम व्यवस्था बदलने वाले 99वें संविधान संशोधन विधेयक को मंजूरी दे दी है। लोक सभा में यह बिल शून्य के मुकाबले 367 मतों से मंजूर किया गया है।
मुख्य न्यायाधीश श्री आर.एम. लोढा ने कोलेजियम व्यवस्था की वकालत करते हुये कहा था कि न्यायपालिका को बदनाम करते हुये भ्रमित करने वाला अभियान चलाया जा रहा है। उन्होंने न्या
याधीशों के चयन की मौजूदा कोलेजियम व्यवस्था को सही भी ठहराया है। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि यदि कोलिजियम गलत है तो हम भी गलत है।
कोलिजियम की व्यवस्था का संविधान में कोई प्रावधान नही है। इस व्यवस्था को खुद सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णयों के द्वारा स्थापित किया है। वास्तव मे यह व्यवस्था संविधान के प्रतिकूल है। संविधान के अनुच्छेद 124(2) एवं अनुच्छेद 217(1) के तहत सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के जजो को भारत के मुख्य न्यायाधीश के सलाह के बाद महामहिम राष्ट्रपति नियुक्ति करते है। संविधान के अनुसार सरकार मुख्य न्यायाधीश की सलाह मानने के लिए बाध्य नही है। वर्ष 1993 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित एक निर्णय के बाद कोलेजियम सिस्टम की शुरूआत हुई। इसके तहत वरिष्ठ न्यायाधीशों का समूह सर्वोच्च न्यायालय और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति करने लगा। इस निर्णय के करीब पाँच साल बाद सर्वोच्च न्यायालय की 9 सदस्यीय संवेधानिक पीठ ने कार्यपालिका से सलाह के बाद जजों की नियुक्ति की सिफारिश की। जिसमें मुख्य न्यायाधीश की सलाह को निर्णायक माना गया। सरकार कोलेजियम द्वारा सुझाये गये नामों मे से ही नियुक्ति के लिए बाध्य होती थी। यदि सरकार किसी नाम पर सहमत नही है तो वह विचार के लिए कोलेजियम के पास उसे सिर्फ एक बार वापस भेज सकती थी। यदि कोलेजियम दोबारा वही नाम भेजता, तो उसकी अनुशंशा मानना सरकार की बाध्यता थी। यह पूरी प्रक्रिया बन्द कमरे में वरिष्ठ न्यायाधीशों के बीच बैठकर पूरी की जाती है और उसके बारे में आम लोगों के लिए कोई जानकारी प्राप्त कर पाना लगभग असम्भव है।
कोलेजियम व्यवस्था के लागू होने के बाद भारत दुनिया में इकलौता ऐसा देश बन गया था, जहाँ जजों की नियुक्ति स्वयं जज करते है। गोपनीयता के नाम पर पारदर्शिता की उपेक्षा की जाती है। जिसके कारण जजो की नियुक्ति में पक्षपात और भाई भतीजा वाद की शिकायतें आम होने लगी। जजों की गुणवत्ता में भी कमी आने की शिकायतें मिली है।
कोलेजियम व्यवस्था के शुरूआती दौर में कहा जाता था कि सर्वोच्च न्यायालय और हाई कोर्ट के जजों को न्यायिक प्रक्रिया की जानकारी रखने वालो के बारे में अन्य किसी की तुलना में ज्यादा अच्छी जानकारी होती है। लिहाजा नियुक्ति में उनकी राय को वरीयता दी जानी चाहियें। इस व्यवस्था के समर्थकों की तरफ से तर्क दिया जाता था इससे न्यायपालिका को राजनीतिक दखलन्दाजी से मुक्त रखा जा सकेगा। इस प्रकार के तर्को से संदेश दिया गया कि कोलेजियम व्यवस्था लागू होने के पहले हमारी न्यायपालिका की नियुक्तियों में राजनीतिक हस्तक्षेप किया जाता था। जबकि वस्तुस्थिति इसके प्रतिकूल है। कोलेजियम व्यवस्था के पहले नियुक्ति किये गये सर्वोच्च न्यायालय और हाई कोर्ट के जजों ने न्याय के उच्च मानदण्डों की रक्षा की थी। इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायाधीश श्री जगमोहन लाल सिन्हा ने अपने ऐतिहासिक निर्णय के द्वारा 12 जून 1975 को तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी के लोक सभा चुनाव को रद्द करते हुये उन्हें अगले 6 वर्षों तक किसी भी संवैधानिक पद के लिए अयोग्य घोषित किया था। बाद में इसी मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री वी.आर. कृष्णा अय्यर ने श्रीमती इन्दिरा गाँधी को संसद में मतदान के अधिकार से वंचित कर दिया था। न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने अपनी पुस्तक ‘‘आफ द बेंच’’ में उस समय की कुछ घटनाओं को स्मरण करते हुये उल्लेख किया है कि इलाहाबाद हाई कोर्ट में निर्णय पारित होने के कुछ ही मिनटों बाद तत्कालीन विधि मन्त्री श्री एच.आर. गोखले ने उनसे मिलने की इच्छा जाहिर की थी। न्यायमूर्ति अय्यर ने स्पष्ट रूप से उनसे मिलने से इन्कार कर दिया था। इसलिए यह कहना एकदम गलत है कि कोलेजियम व्यवस्था के पहले के न्यायाधीशों की गुणवत्ता के साथ समझौते किये जाते थे। सत्यता तो यह है कि कोलेजियम व्यवस्था के द्वारा नियुक्त कई न्यायाधीशों की निष्ठा एवं ईमानदारी पर प्रश्नचिन्ह उपस्थिति हुये है और इन्हीं सब कारणों से कोलेजियम व्यवस्था में बदलाव की जरूरत महसूस हुई है।
कोलेजियम व्यवस्था की खामियाँ उजागर हो चुकी है और उसके स्थान पर केन्द्र सरकार द्वारा न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना की पहल स्वागत योग्य है, परन्तु साथ साथ यह भी ध्यान रखा जाना चाहिये कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामलें में सरकार की भूमिका ज्यादा प्रभावी और निर्णायक न होने पाये। यदि ऐसा कुछ होता है तो एक कमी से दूसरी कमी की ओर बढने वाली बात होगी। यह सच है कि ऐसी किसी व्यवस्था का निर्माण करना कठिन है। जिसमें किसी प्रकार की कोई कमी न हो।
हम सब जानते है कि जनपद न्यायालयों से सर्वोच्च न्यायालय तक सरकार का पक्ष प्रस्तुत करने के लिए लोक अभियोजक, स्टैण्डिंग काउन्सिल, एडवोकेट जनरल, सालिसिटर जनरल आदि की निुयक्ति सरकार द्वारा की जाती है और इन नियुक्तियों में सदा सर्वदा मेरिट की अनदेखी होती है। जनपद न्यायालयों में विभिन्न दलों की राज्य सरकारें अपने दल के कार्यकर्ताओं को उपकृत करने के लिए नियुक्तियाँ करती है। उत्तर प्रदेश में मुख्यमन्त्री रहने के दौरान सुश्री मायावती ने सम्पूर्ण प्रदेश में अपनी पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा नियुक्त किये गये शासकीय अधिवक्ताओं को किसी युक्तियुक्त कारण के बिना हटा दिया और अपने दल के कार्यकर्ताओं को नियुक्त कर दिया। जबकि नियुक्ति पायें अधिकांश लोगों ने अपने वकालती जीवन के दौरान भारतीय दण्ड संहिता की धारा 323, 504, 506 जैसे अपराधों के विचारण का सामना नही किया था और ऐसे लोगों को हत्या, बालात्कार, डकैती जैसे गम्भीर अपराधों के संचालन का अधिकार दे दिया गया। हलाँकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने बसपा सरकार द्वारा की गई सभी नियुक्तियों को रद्द कर दिया है और सर्वोच्च न्यायालय ने भी उच्च न्यायालय के फैसले पर मोहर लगा दी है, परन्तु अखिलेश सरकार भी शासकीय अधिवक्ताओं की नियुक्ति के मामले में बसपा सरकार के नक्शे कदम पर चलने में कोई शर्म महसूस नही कर रही है और वही सब करना चाहती है जो निर्लज्जतापूर्वक बसपा सरकार ने किया था।
शासकीय अधिवक्ताओं की नियुक्ति में सभी स्तरों पर मेरिट की अन्देखी की घटनाओं को देखकर आशंका होती है कि जजों की नियुक्ति में भी सरकार की प्रभावी भूमिका हो जाने के बाद मेरिट के साथ समझौतों को कहीं वरीयता न दी जाने लगे। सरकार के मन्त्रियों से निष्पक्ष, न्यायपूर्ण और पारदर्शी निर्णय की अपेक्षा नही की जा सकती। सम्पूर्ण देश में प्रभावी पदों पर छोटे मन के लोगों की तैनाती आज आम बात हो गयी है। इसलिए कई प्रकार की आशंकाओं को बल मिलता है। नियुक्ति व्यवस्था बदलने से इस प्रकार की आशंकाओं का समाधान नही होगा। नियुक्ति की अपारदर्शी प्रक्रिया के साथ साथ न्यायाधीशों के आचरण पर भी सवाल उठने लगे है। इसलिए जब तक न्यायाधीशों के लिए न्यायिक मानदण्ड और जवाबदेही तय नही होगी तब तक न्यायपालिका के दामन को दागदार करने वाले लोग उसकी प्रतिष्ठा और गरिमा को ठेस पहुँचाते ही रहेंगे। अभी ऐसा कोई तन्त्र विकसित नही हो सका है जो न्यायाधीशों के आचरण मे खोट पाये जाने पर उनके विरूद्ध कार्यवाही सुनिश्चित कराता हो। सर्वोच्च न्यायालय और हाई कोर्ट के जज को हटाना तो दूर उसे अवकाश पर भेजने और उसके विरूद्ध अनुशाशनात्मक कार्यवाही भी लगभग असम्भव है। जस्टिस दिनकरन का मामला सबके सामने है जिन्होंने आरोंपों की जाँच होने तक अवकाश पर जाने की सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम की सलाह मानने से इन्कार कर दिया था।
प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग की संरचना अभी स्पष्ट नही है। आम सहमति बनाने की भी बात की जा रही है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति रहे श्री मार्कण्डेय काटजू मानते है कि न्यायिक नियुक्ति आयोग मे सात सदस्य होने चाहियें जिसमें लोक सभा मे विपक्ष के नेता को शामिल किया जाना चाहियें और एक न्यायविद को राष्ट्रपति अपने विवेक से मनोनीत करें। चयन की प्रक्रिया को अमेरिकी सीनेट की तरह राष्ट्रीय स्तर पर टेलीविजन पर प्रसारित किया जाये। किसी भी दशा में न्यायिक स्वतन्त्रता के साथ कोई समझौता न हो और न्यायिक स्वतन्त्रा और न्यायिक जवाबदेही के बीच संतुलन बनाये रखा जाये। वास्तव में महत्वपूर्ण यह नही है कि नियुक्तियाँ न्यायपालिका करे या कार्यपालिका, महत्वपूर्ण यह है कि नियुक्तियाँ किस तरह से किन लोगों द्वारा की जाती है। अगर पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता बनाये रखी जाये और राजनैतिक गुणा भाग को नियुक्ति प्रक्रिया से दूर रखा जाये तो निश्चिित रूप से गुणवत्ता के साथ समझौता नही हो सकेगा और उन स्थितियों को पुनः दोहराना सम्भव नही होगा, जिसमें कार्यपालिका न्यायिक नियुक्तियों में अहम भूमिका निभाती थी और अपने कार्यकर्ताओं को जज नियुक्त करके उपकृत करने में कोई संकोच नही करती थी।