Friday, 1 August 2014

जजो की नियुक्ति में पारदर्शिता जरूरी ..................

मद्रास उच्च न्यायालय में एक भ्रष्ट न्यायाधीश की नियुक्ति के खुलासे में सम्बन्धित क्षेत्रों में व्यक्त की जा रही चिन्ताये सरासर दिखावा है। कौन नही जानता कि हमारी न्यायिक व्यवस्था माँ गंगा की तरह प्रदूषित हो चुकी है। नियुक्ति से फैसलों तक सब कुछ मैनेज होता है। काफी पहले वर्ष 1995 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति श्री एस.एस. सोढी ने ‘‘द अदर साइड आफ जस्टिस’’ नामक पुस्तक में अपने साथ हुये अन्याय को उजागर करते हुये बताया था कि सर्वोच्च न्यायालय के कुछ न्यायमूर्तियों की व्यक्तिगत खुन्नस में उनकी योग्यता को दरकिनार करके उन्हें सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नही बनने दिया था। तत्कालीन मुख्य न्यायमूर्ति श्री ए.एम. अहमदी ने अपने दो अन्य वरिष्ठ न्यायमूर्तियों की सलाह से जस्टिस सगीर अहमद, जस्टिस जी.टी. नानावटी, जस्टिस के वेंकटस्वामी और जस्टिस एस.एस. सोढी को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त करने की अनुशंशा की थी परन्तु बाद मे जस्टिस सोढी को छोडकर अन्य तीनों न्यायमूर्तियों को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के पद की शपथ दिलाई गई। बताया जाता
है कि सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन न्यायमूर्ति श्री आर0एम0 सहाय के सम्बन्धी को लखनऊ उच्च न्यायालय से इलाहाबाद उच्च न्यायालय स्थानान्तरित करने और फिर इस विषय पर उच्च स्तरीय दबाव के आगे नतमस्तक न होने के कारण जस्टिस एम.एस सोढी को न्यायमूर्तियों का कोपभाजन बनना पडा और उन्हें सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश बनने से वंचित कर दिया गया।
सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए वर्तमान कोलेजियम व्यवस्था का कोई प्रावधान संविधान में नही है। संविधान में न्यायाधीशों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति में निहित है। संविधान में राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय जैसी भी स्थिति हो के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करके सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का प्रावधान है।
न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कोलजियम व्यवस्था का जन्म वर्ष 1993 में सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले से हुआ है। इसके बाद वर्ष 1998 में पुनः सर्वोच्च न्यायालय ने प्रेसीडेन्ट रिफरेन्स के मामले में अपना निर्णय सुनाकर कोलेजियम व्यवस्था को स्थायी बना दिया। इस निर्णय के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया कि मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली कोलेजियम में मुख्य न्यायाधीश के अलावा चार वरिष्ठतम् जज होंगे और मुख्य न्यायाधीश अपने इन चार वरिष्ठ सहयोगियों से परामर्श करने के बाद ही नियुक्ति के लिए अपनी अनुशंशा सरकार को भेजेंगे और कोलेजियम की अनुशंशा सरकार पर बाध्यकर होगी।
कोलेजियम की इस व्यवस्था में सरकार की भूमिका लगभग समाप्त कर दी गई है। संवैधानिक प्रावधानों के तहत सरकार कोलेजियम से दुबारा विचार करने का आग्रह कर सकती है लेकिन अगर कोलेजियम अपनी अनुशंसाओं में कोई संशोधन नही करती और पूर्व अनुशंशा पर पुनः मोहर लगा देती है तो सरकार के लिए उसका पालन अपरिहार्य हो जाता है और वह उसे मानने से इन्कार नही कर सकती। वास्तव में यह पूरी व्यवस्था संविधान के प्रतिकूल है। संविधान में मुख्य न्यायाधीश को नियुक्ति के लिए अनुशंशा करने का अधिकार प्राप्त है। संविधान ने मुख्य न्यायमूर्ति को निर्णायक प्राधिकारी नही बनाया है। निर्णायक प्राधिकार राष्ट्रपति में निहित है। लेकिन वर्तमान व्यवस्था संविधान के इस स्पष्ट प्रावधान के प्रतिकूल है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपने लिए न्यायाधीशो की नियुक्ति प्रक्रिया मे दावेदारों के गुण दोष का आकलन मुख्य न्यायमूर्ति और उनके अन्य वरिष्ठ सहयोगियो द्वारा अपने स्तर पर किया जाता है। इस पूरी प्रक्रिया में कोई पारदर्शिता नही है। बन्द कमरे में जो कुछ तय किया जाता है उसकी भनक किसी को नही लगती और यही इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा दोष है। अपने देश में किसी सार्वजनिक पद पर कोई नियुक्ति पारदर्शिता अपनाये बिना एकदम मनमाने तरीके से नही की जा सकती। ऐसी दशा में न्यायाधीशो की नियुक्ति के लिए बन्द कमरे की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करने का कोई विधिक औचित्य नही है और न संविधान इसकी अनुमति देता है।
आपातकाल के दौर को लोकतन्त्र का काला अध्याय माना जाये तो कोलेजियम व्यवस्था के अस्तित्व में आने के पूर्व सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए परम्परागत रूप से मुख्य न्यायाधीशें से परामर्श किया करती थी। यह भी सच है कि सरकार द्वारा नियुक्त किये गये न्यायाधीशों की निष्ठा ईमानदारी या योग्यता पर कभी प्रश्नचिन्ह नही लगे। कोलेजियम व्यवस्था के तहत नियुक्त न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप आम होते जा रहे है जो अपनी न्यायपालिका और अन्ततः लोकतन्त्र के हित में नही है। 
आज समाज के प्रत्येक क्षेत्र मे भ्रष्टाचार अर्कमण्यता भाई, भतीजा वाद का बोल बाला है और उसके कारण व्यवस्था के प्रति लोगों का विश्वास घटता जा रहा है। इस प्रदूषित वातावरण मे भी आम लोगों को न्यायपालिका पर अटूट विश्वास है। लोग मानते है कि न्यायपालिका प्रदूषित हुई है परन्तु आज भी उसके अन्दर ईमानदार लोगों की संख्या ज्यादा है। इसलिए न्यायपालिका को साफ सुथरा रखना अन्य किसी व्यवस्था को साथ सुथरा रखने से ज्यादा जरूरी है। सन्तोष की बात है कि अपने देश में न्यायपालिका पर अँगुली नही उठाई जाती इसलिए न्यायपालिका को नियन्त्रित करने वालो का दायित्व बढ़ जाता है कि वे अपने बीच के प्रदूषण को चिन्हित करे और उन्हें बेहिचक बाहर का रास्ता दिखाये।
कोलेजियम सिस्टम को लेकर न्यायपालिका के अन्दर भी असन्तोष के स्वर उठने लगे है। न्यायमूर्ति चन्द्रमौलि प्रसाद और न्यायमूर्ति श्रीमती ज्ञान सुधा मिश्रा की सर्वोच्च न्यायालय मे नियुक्ति के समय शिकायतों का दौर चला था। हलाँकि दोनों को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद की शपथ दिलाई गई परन्तु असन्तोष की चिंगारी तो उठी ही थी। पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री के.जी. बालाकृष्णन ने कोलेजियम सिस्टम के दोषों को स्वीकार करते हुये कहा था कि जब तक सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों द्वारा प्रचलित इस व्यवस्था में परिवर्तन नही होता वे इसे मानने के लिए बाध्य है।
कालेजियम सिस्टम के तहत न्यायाधीशों के पद पर नियुक्ति के दावेदारों की निष्ठा कुशलता ईमानदारी आदि गुण दोषो की परख नही हो पाती। अलग अलग स्तरों से जानकारी एकत्र करने का कोई प्रावधान नही है। मुख्य न्यायाधीश और अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश पूरी गोपनीयता बरतते हुये जानकारी एकत्र करते है। इस प्रक्रिया में पारदर्शिता न होने के कारण कमियों की सम्भावना बनी रहती है।
कोलेजियम सिस्टम दोषपूर्ण है और इसमें बदलाव समय की जरूरत है, परन्तु इसका यह अर्थ नही कि न्यायाधीशो की नियुक्ति का सम्पूर्ण क्षेत्राधिकार सरकारों को दे दिया जाये। आज के राजनैतिक वातावरण में किसी भी दल की सरकार से न्यायपूर्ण आचरण की उम्मीद की अपेक्षा करना खुद को धोखा देना है। हम सब जानते है कि राज्य सभा में सदस्यों को मनोनीत करने के अधिकार का सभी दलो की सरकारों ने दुरूपयोग किया है। कला साहित्य आदि क्षेत्र के लोगों को नही बल्कि पराजित राजनेताओं का पुर्नवास करने के लिए इस प्रावधान का उपयोग किया जाता है। ऐसी दशा में आवश्यक है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा की तर्ज पर न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का गठन किया जाये। अखिल भारतीय परीक्षा उत्तीर्ण करके नियुक्त होने वाले न्यायाधीश हरेक दृष्टि से सक्षम एवं सुयोग्य होंगे। 
अधिकांश कामनवेल्थ देशों में जजो की नियुक्ति के लिए नेशनल ज्यूडिशियल एप्वाइन्मेन्ट कमीशन स्थापित किये गये है। इस प्रकार के कमीशन यू.के. साउथ अफ्रीका और कनाडा में अच्छी तरह काम कर रहे है। इस प्रकार के कमीशन स्वतन्त्र होते है और इसके द्वारा न्यायपालिका कार्यपालिका और समाज के अन्य सम्बन्धित वर्गो के दृष्टि कोण के आधार पर विचार किया जाना सहज हो जाता है। इस प्रक्रिया में नियुक्ति के लिए सार्वजनिक उद्घोषणा के द्वारा प्रार्थनापत्र आमन्त्रित किय जाते है इसलिए उसकी पूरी प्रक्रिया अपने आप पारदर्शी हो जाती है और मनमानी की सम्भावनायें नगण्य हो जाती है। अपने देश में विधि आयोग ने वर्ष 1987 में इस आशय की अनुशंशा की थी, जो आज तक स्वीकृत होने की प्रतीक्षा में है।
मनमोहन सरकार ने अपने कार्यकाल में राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के गठन के लिए लोक सभा में विधेयक पेश किया था जो लोक सभा का कार्यकाल समाप्त हो जाने के कारण समाप्त हो गया है। वर्तमान सरकार भी इसी आशय का संशोधन विधेयक संसद में प्रस्तुत करना चाहती है। वर्तमान सरकार के न्यायमन्त्री श्री रवि शंकर प्रसाद और वित्त मन्त्री श्री अरूण जेटली ने इस विषय पर वरिष्ठ विधि वेत्ताओं को साथ चर्चा की है।

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