सर्वोच्च न्यायालय के सुस्पष्ट दिशा निर्देशो के बावजूद 28 फरवरी 2014 को गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक मेडिकल कालेज मे तत्कालीन एस.एस.पी. यशस्वी यादव के नेतृत्व और निर्देशन मे जबरन घुसकर निहत्थे छात्रो को मारने पीटने उनके लैपटाप, मोबाइल लूटने और उनके साथ अमानवीय व्यवहार करने के लिये दोषी पुलिस कर्मियो को दण्डित नही किया जा सका। पीडित छात्रो और प्राध्यापको को सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग करके दोषी पुलिस कर्मियो के समर्थन मे शपथपत्र देने के लिये मजबूर किया गया है। इसके पूर्व चन्द्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यायल मे देर रात जबरन घुसकर कानपुर की मित्र पुलिस ने छात्रावासो मे सो रहे छात्रो को बुरी तरह मारा पीटा था और उस मामले मे भी पुलिस कर्मियो के विरूद्ध कोई कार्यवाही नही की गयी और उसके कारण पुलिस कर्मियो का मनोबल बढा हुआ है और वे अपने आपको आज भी शासक मानते है।
गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक मेडिकल कालेज की घटना पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लिया और न्यायमूर्ति श्री राजमणि चैहान की अध्यक्षता मे न्यायिक जाँच आयोग का गठन किया था। न्यायमूर्ति श्री चैहान ने घटना स्थल पर आकर सम्बद्ध पक्षो के बयान लिये। एक दूसरे को गवाहो से जिरह का अवसर दिया और अपनी जाँच रिपोर्ट सरकार को सौप दी है। जाँच मे गवाहो की परीक्षा प्रतिपरीक्षा से सिद्ध हो गया था कि तत्कालीन एस.एस.पी के नेतृत्व और निर्देशन मे पुलिस कर्मियो ने अपनी पदीय शक्तियो का आपराधिक दुरूपयोग किया और छात्रावासो मे जबरन घुसकर निहत्थे छात्रो पर हमला किया और लूट पाट की है । न्यायिक जाॅच के कारण सभी को विश्वास था कि पदीय अधिकारो का दुरूपयोग करने के लिये पुलिस कर्मी निश्चित रूप से दण्डित होगे और फिर भविष्य मे कोई पुलिस कर्मी आम जनता को उत्पीडित करने का दुस्साहस नही कर सकेगा परन्तु जिस तरीके से एस0आई0टी0 (स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम) ने दोषी पुलिस कर्मियो को निर्दोष साबित करने के लिये साक्षियो के शपथपत्र एकत्र करने मे तत्परता दिखाई और फिर फाइनल रिपोर्ट लगाकर सम्पूर्ण प्रकरण को ठन्डे बस्ते मे डाल दिया है, उसको देखकर हैरत होती है। मेडिकल कालेज की घटना पर विवेचक का यह आचरण लोकतन्त्र के गाल पर जबर्दस्त तमाचा है और इसके द्वारा सभी को न्याय की अवधारणा का गला घोटा गया है।
मुझे नही मालूम कि “नेहरू तेरे राज मे पुलिस डकैती करती है“ का उद्धोष डा0 राम मनोहर लोहिया ने क्यो और किन परिस्थितियो मे किया था? परन्तु 28 फरवरी 2014 को गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक मेडिकल कालेज छात्रावास मे पुलिसिया अत्याचार के दोषी पुलिस कर्मियो को विधिपूर्ण दण्ड से बचाने के लिये उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा किये गये प्रयासो को देखकर सिद्ध होता है कि नेहरू सरकार पर डाक्टर राम मनोहर लोहिया की टिप्पणी अखिलेश सरकार पर पूरी तरह लागू होती है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कभी कहा था कि उत्तर प्रदेश पुलिस संघटित अपराधियो का सरकारी गिरोह है। उत्तर प्रदेश पुलिस पर न्यायालय की यह टिप्पणी मेडिकल कालेज प्रकरण पर एकदम सामयिक है और उसे किसी भी दशा मे दुर्भावनापूर्ण नही माना जा सकता। अपने देश प्रदेश मे पुलिस कर्मियो को किसी के भी साथ अभद्रता करने उन्हे फर्जी मामले बनाकर गिरफ्तार करने और अभिरक्षा के दौरान अमानवीय व्यवहार करने का अधोषित अधिकार प्राप्त है। थानो की जनरल डायरी (जी0डी0) एकदम मनमाने तरीके से लिखी जाती है। वर्तमान मे केन्द्र और राज्य सरकारो के कई कैबिनेट मन्त्रियो और मुख्यमन्त्रियो को पुलिसिया अत्याचारो का प्रत्यक्ष अनुभव है परन्तु अपने तत्कालिक स्वार्थो और स्थानीय राजनैतिक कारणो से इन लोगो ने समुचित अवसर होते हुये भी अपने पुलिस बलो को पब्लिक ओरियेन्टेड सेवा प्रदाता संस्थान बनाने की दिशा मे कभी कोई पहल नही की बल्कि न्यायालयो द्वारा किये गये प्रयासो मे पलीता लगाने का काम किया है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व डी.जी.पी. श्री प्रकाश सिंह की याचिका पर दिये गये निर्णय को किसी भी राजनैतिक दल की सरकार ने लागू नही किया है और इसी कारण स्वतन्त्र भारत मे भी पुलिस कर्मियो की अराजकता बेलगाम है और किसी के भी साथ अमानवीय व्यवहार उनकी आदत है।
4- 5 जून 2011 की रात मे रामलीला मैदान के योग शिविर पर दिल्ली पुलिस का आचरण और गणेश शंकर विद्यार्थी स्मारक मेडिकल कालेज मे उत्तर प्रदेश पुलिस का आचरण एक जैसा रहा है। दोनो मामलो मे पुलिस ने निहत्थे नागरिको के साथ मारपीट की उन पर हमला किया और उनके साथ अमानवीय व्यवहार करके उनके मानवाधिकारो का हनन किया है। इसलिये सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सु मोटू रिट पिटीशन (क्रिमिनल) सं0 122 सन् 2011 मे दिनांक 23 फरवरी 2012 को पारित निर्णय के तहत मेडिकल कालेज की घटना पर स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम द्वारा प्रस्तुत फाइनल रिपोर्ट शुरूआत से ही विधि विरूद्ध हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने इस निर्णय मे स्पष्ट किया था कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 144 के तहत न्यूसेन्स या आंशकित खतरे के अर्जेण्ट मामलो मे प्रशासनिक अधिकारियो को किसी भी प्रकार की भीड को तितर बितर करने के लिये निरोधक कार्यवाही करने का अधिकार प्राप्त है परन्तु आम जनता के विरूद्ध इस प्रकार की कार्यवाही करने के पूर्व सम्बन्धित मजिस्टेªट के लिये रीजन्ड लिखित आदेश पारित करना आवश्यक है। आदेश की प्रति सम्बन्धित लोगो पर दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 134 मे उपबन्धित रीति से तामील कराया जाना भी आवश्यक है। पुलिस अधिनियम मे भी इस आशय का प्रावधान है जो शुरूआत से ही पुलिस अधिकारियो के संज्ञान मे रहता है परन्तु मेडिकल कालेज प्रकरण मे तत्कालीन एस.एस.पी. ने छात्रो पर हमला करने के पूर्व उन्हे तितर बितर होने या शान्ति पूर्वक छात्रावास खाली करने का कोई नोटिस नही दिया है। छात्रावास मे पुलिस के जबरिया प्रवेश के समय छात्रावासो मे किसी प्रकार की अशान्ति नही थी और न शान्ति भंग का कोई तात्कालिक खतरा विद्यमान था। ऐसी दशा मे एस.एस.पी. यशस्वी यादव और उनके सहयोगियो द्वारा की गई सम्पूर्ण कार्यवाही दोषपूर्ण थी और उसके द्वारा जानबूझकर छात्रो के मौलिक अधिकारो का हनन सर्वविधित है। इसलिये फाइनल रिपोर्ट केवल और केवल एक तमाशा है और उससे सिद्ध होता है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने इस प्रकरण मे अपने संवैधानिक दायित्वो का पालन नही किया और दोषी पुलिस कर्मियो को पीडित छात्रो पर अनुचित दबाव बनाने के लिये अवसर उपलब्ध कराये है।
मेडिकल कालेज के प्रकरण मे न्यायमूर्ति श्री आर.एम. चैहान की न्यायिक जाॅच रिपोर्ट आवश्यक कार्यवाही के लिये उत्तर प्रदेश सरकार के समक्ष लम्बित है और उसके आधार पर एस.एस.पी. यशस्वी यादव और उनके सहयोगियो के विरूद्ध उनकी सेवा शर्तो के तहत विभागीय अनुशासनात्मक कार्यवाही की जा सकती है। स्टेट आॅफ मध्य प्रदेश एण्ड अदर्स बनाम परवेज खाॅ (2015-1- सुप्रीम कोर्ट केसेज- एल. एण्ड एस पेज 544) और इसके पहले अन्य कई मामलो मे प्रतिपादित किया है कि आपराधिक धाराओ मे विचारण के समय न्यायालय द्वारा दोष मुक्त घोषित हो जाने के बाद भी शासकीय कर्मचारियो के विरूद्ध विभागीय जाॅच मे अनुशासनात्मक कार्यवाही की जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि आपाराधिक मामलो मे अभियुक्त साक्षियो के पक्षदोही हो जाने या आपस मे समझौता हो जाने के कारण सन्देह का लाभ देकर दोष मुक्त किया जा सकता है परन्तु अनुशासनात्मक कार्यवाही के लिये विभागीय जाॅच का दायरा दूसरा होता है। इसमे सन्देह का लाभ नही दिया जा सकता। एस0एस0पी0 यशस्वी यादव ने अपने पदीय अधिकारो का दुरूपयोग किया है और उसके कारण पुलिस बल की प्रतिष्ठा धूमिल हुई और आम लोगो मे उसके प्रति अविश्वास बढा है इसलिये एस0एस0पी0 और उनके सहयोगियो के विरूद्ध डा0 राम मनोहर लोहिया और जनेश्वर मिश्रा की आत्मा की शान्ति और व्यवस्था के प्रति आम लोगो के विश्वास को सुदृढ बनाये रखने के लिये अखिलेश सरकार को अनुशासनात्मक कार्यवाही सुनिश्चित करानी चाहिये अन्यथा पीडित छात्रो और प्राध्यापको को मन ही मन असहाय होने का दंश सदैव डसता रहेगा जो सम्पूर्ण व्यवस्था और लोकतन्त्र के लिये हितकर नही है।