प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने आज सम्पूर्ण देश के उच्च न्यायालयो के मुुख्य न्यायाधीशो के नई दिल्ली मे आयोजित दो दिवसीय सम्मेलन को संबोधित करते हुये उन्हे अपने अन्दर स्व आकलन की प्रक्रिया विकसित करने की सलाह दी है और याद दिलाया कि अपने देश मे उन पर भगवान की तरह विश्वास किया जाता है। राजनेताओ और सरकार द्वारा की गई गलतियो को वे सुधार सकते है परन्तु यदि उन्होने कोई गलती की तो सब कुछ समाप्त हो जायेगा और उसे कोई सुधार नही सकेगा। इसमे राजनेताओ और सरकार की कोई भूमिका नही है। स्व आकलन की आन्तरिक प्रक्रिया के महत्व को प्रतिपादित करते हुये प्रधानमन्त्री ने कहा कि यदि किसी कारणवश न्यायापालिका की प्रतिष्ठा या उसके प्रति लोगो के विश्वास मे कोई कमी आई तो वह सम्पूर्ण राष्ट्र के लिये घातक होगा। न्याय के प्रति आम लोगो की अपेक्षाओ के अनुरूप परफेक्ट होने की दिशा मे भी उन्हे अग्रसर रहना चाहिये। प्रधानमन्त्री ने उन्हे चेताया कि वे किसी भी दशा मे पूर्वाग्रहो के प्रभाव मे न आये।
अपने देश मे सभी स्तरो के न्यायाधीश आये दिन कार्यपालिका आदि समाज के सभी क्षेत्रो मे अपनी विवेकीय शक्तियो के तहत हस्तक्षेप करते दिखाई देते है परन्तु अपनी व्यवस्थागत कमियो को दूर करने के प्रति उदासीन रहना उनकी आदत बन गयी है। सर्वोच्च न्यायालय से लेकर अधीनस्थ न्यायालयो तक भ्रष्टाचार की शिकायते आम हो गई है परन्तु इन शिकायतो के कारणो को चिन्हित करके तत्काल उन्हे दूर करने के लिये कोई आन्तरिक तन्त्र न्यायपालिका ने अभी तक विकसित नही किया है और उसी कारण प्रधानमन्त्री को आज उन्हे स्व आकलन की प्रक्रिया विकसित करने की सलाह देने के लिये बाध्य होना पडा है।
18 वर्ष पहले मई 1997 मे इसी प्रकार के एक सम्मेलन के दौरान “ रिस्टेटमेन्ट आॅफ वैल्यू आफ ज्यूडिशियल लाइफ” का उद्घोष और “न्याय होना ही नही न्याय दिखना भी चाहिये” का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया था। न्यायपालिका की निष्पक्षता और पारदर्शिता के लिये सभी स्तरो के न्यायालयो मे इस सिद्धान्त का अनुपालन सुनिश्चित कराया जाना खुद न्यायपलिका की जिम्मेदारी है।
अपने देश मे 2.64 लाख मुकदमे अधीनस्थ न्यायालयो के समक्ष और करीब 42 लाख मुकदमे विभिन्न उच्च न्यायालयो के समक्ष लम्बित है। लम्बित मुकदमो के निस्तारण की गति दाखिल होने वाले मुकदमो की गति से काफी धीमी है। आज अधीनस्थ न्यायालयो के समक्ष प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने के लिये दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के तहत दाखिल होने वाले मुकदमे भी उसी दिन निस्तारित नही किये जाते जबकि सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट आदेश है कि यदि प्रार्थना पत्र मे वर्णित कथानक से प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध का होना दर्शित होता है तो प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना थानाध्यक्ष की पदीय प्रतिबद्धता है। इतने स्पष्ट आदेश के बावजूद प्रार्थना पत्र पर सम्बन्धित पुलिस स्टेशन से रिपोर्ट मॅगाने की औपचारिकता पूरी की जाती है और फिर बहस के लिये कई तिथियाॅ नियत होती है। इसी कारण निस्तारण मे विलम्ब होता है और पेन्डेन्सी बढती है।
अधीनस्थ न्यायालयो के समक्ष आपराधिक विचारणों में लगने वाले विलम्ब को कम करना आज एक बड़ी समस्या है। प्रायः इसके लिए सरकार या बचाव पक्ष के अधिवक्ताओ के स्थगन प्रार्थनापत्रो को दोषी माना जाता है। बिलम्ब के लिए सरकार या स्थगन प्रार्थना पत्र कतई दोषी नही है। विलम्ब को कम करने की सभी स्थितियाँ न्यायालयों के नियन्त्रण में है और उनके स्तर पर गुणात्मक कार्यवाही नही की जाती है और उदारता पूर्वक स्थगन प्रार्थना पत्र स्वीकार किये जाते है। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों के तहत दण्ड प्रक्रिया संहिता में अपेक्षित संशोधन कर दिये है। अब उन्हें लागू करना न्यायालयों की अपनी जिम्मेदारी है। अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष सर्वाेच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा जारी दिशा निर्देश निष्प्रभावी हो जाते है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के सर्कुलर संख्या 25ध्61 दिनांक 26 अक्टूबर 1961 के द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को किसी भी अन्य कार्य की तुलना में आपराधिक विचारणें को वरीयता देने और गवाही प्रारम्भ होने के बाद दिन प्रतिदिन सुनवाई जारी रखने का निर्देश जारी किया गया था। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने रजिस्ट्रार को पुनः इसी आशय का सुर्कुलर जारी करने का निर्देश दिया है जो इस तथ्य का परिचायक है कि वर्ष 1961 से वर्ष 2013 के मध्य अधीनस्थ न्यायालयों की वर्किंग में कोई गुणात्मक सुधार नही हो सका है। स्थितियाँ ज्यों की त्यों बनी हुयी है इसलिए अब आवश्यक हो गया है कि न्यायिक सुधारो के लिए कोई नई विधि बनाये बिना विद्यमान कानूनों को अधीनस्थ न्यायालयों के स्तर पर लागू कराने के लिए युद्ध स्तरीय प्रयास किये जायें।
सर्वोच्च न्यायालय ने राम रामेश्वरी देवी एण्ड अदर्स बनाम निर्मला देवी एण्ड अदर्स (2011-3-जे.सी.एल.आर.-पेज 518-एस.सी) मे पारित अपने निर्णय के द्वारा सिविल लिटिगेशन के त्वरित और समयबद्ध निस्तारण के लिए मुकदमा दाखिल होने के दिन ही निर्णय की तिथि निर्धारित करने का आदेश जारी किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्देश मे कहा था कि अधीनस्थ न्यायालय नये मुकदमो के दाखिले के समय विचारण का सम्पूर्ण शिडयूल्ड निर्धारित करे और लिखित कथन से लेकर निर्णय पारित होने की अवधि में प्रत्येक प्रक्रम के लिए तिथियाँ नियत कर दे। आवश्यक प्रकीर्ण प्रार्थनापत्रों का निस्तारण इसी अवधि में ही किया जाये और मूल कार्यो के लिए निर्धारित तिथियों पर नियत कार्यवाही अपवाद स्वरूप ही स्थगित की जाये, परन्तु निर्णय की तिथि में किसी भी दशा में परिवर्तन न किया जाये। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित यह निर्णय अभी तक क्रियान्वयन की प्रतीक्षा में है जबकि सभी को मालूम है कि यदि इस निर्णय के अनुरूप दाखिले की तिथि पर निर्णय की तिथि बता दी जाये तो निश्चित रूप से वादकारियो को अपने नये मुकदमो मे पेन्डेन्सी का शिकार नही होना पडेगा।
मुख्य न्यायाधीशो के सम्मेलन मे विभिन्न न्यायालयो के समक्ष लम्बित मुकदमो की पेन्डेन्सी पर भी विचार किया जाना है। इस सम्मेलन मे पारित प्रस्तावो और प्रधानमन्त्री के सारगर्भित उद्बोधन का अधीनस्थ न्यायालयो की दिन प्रतिदिन की वर्किग पर क्या प्रभाव पडेगा? कोई नही जानता ? परन्तु सभी जानते है कि सभी स्तरो के न्यायालयो की वर्किग मे गुणात्मक सुधार लागू करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयो द्वारा पारित आदेशो का अनुपालन सुनिश्चित करा दिया जाये तो पेन्डेन्सी अपने आप समाप्त हो जायेगी और न्यायपालिका के प्रति आम लोगो का विश्वास खुद ब खुद पहले से ज्यादा मजबूत हो जायेगा और साल दर साल न्यायिक सुधारो के लिये सम्मेलन आयोजित करने की जरूरत नही पडेगी।
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