Sunday, 27 September 2015

पुलिस थाने आतंक उत्पीड़न और अन्याय का पर्याय

मैं प्रायः कहा करता हूँ कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जनहित में पारित निर्णय अधीनस्थ न्यायालयों की चैखट तक आते आते दम तोड़ देते है और आम लोग उसके लाभ से वंचित रह जाते है। पुलिस सुधार पर प्रकाश सिंह बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर मेरी कहावत पूरी तरह लागू होती है। अदालत ने इसे लागू करने की समय सीमा भी निर्धारित की थी। इस निर्णय के बाद एक लम्बा समय बीत गया है और इस अवधि में सभी राजनैतिक दलों को सत्तारूढ़ होने का अवसर मिला परन्तु किसी ने इसे लागू करने में कोई रुचि नहीं दिखाई। कोई कुछ भी कहे लेकिन सच यही है कि अदालत का निर्णय लकागू करके कोई भी राजनैतिक दल सत्तारूढ़ रहने के दौरान पुलिस पर अपना शिकंजा कम नहीं करना चाहता। कहते सभी है कि पुलिस का वर्तमान ढ़ाचा औपनिवेशिक है और उसे बदलने की सख्त जरूरत है परन्तु उसे न बदलने के लिए सभी राजनेताओं में मूक सहमति है और इसीलिए सर्वाच्च न्यायालय की मानीटरिंग के बावजूद 22 सितम्बर 2006 का निर्णय अपने लागू होने की प्रतीक्षा में निरर्थक सा होने लगा है।

सम्पूर्ण देश मंे पुलिसकर्मी आज भी विदेशी शासन की तर्ज पर सत्तारूढ़ दल के राजनेताओं की हनक बनाये रखने के लिए आम लोगों को उत्पीडि़त करने का माध्यम है। केन्द्र या राज्य सभी स्तरों पर सत्तारूढ़ नेताओं द्वारा अपने राजनैतिक विरोधियों के विरुद्ध पुलिस का दुरुपयोग आम बात हो गई है। बेटी के विवाह के दिन हिमांचल प्रदेश के मुख्यमन्त्री के घर पर आयकर विभाग का छापा या दिल्ली के पूर्व कानून मन्त्री श्री सोमनाथ भारती के विरुद्ध घरेलू हिंसा के पारिवारिक मामले में दिल्ली पुलिस की तत्परता सत्ता के दुरुपयोग का ज्वलन्त उदाहरण है। सत्तारूढ़ दल के नेताओ को खुश रखने के लिए पुलिस ने राजनैतिक कार्यकर्ताओं और जघन्य अपराधियों के अन्तर को मिटा दिया हैं। आन्दोलनकारियों पर सेवन क्रिमिनल लाॅ अमेन्डमेन्ट एक्ट सरीखे कानूनों के तहत गम्भीर अपराधों में मुकदमें पंजीकृत करना आम बात हो गई है।

काँग्रेसी राज के भ्रष्टाचार की कितनी भी आलोचना की जाये परन्तु यह सच है कि आन्दोलनकारियों के प्रति उनका रवैया कभी दुश्मनी भरा नहीं रहा है। छात्र आन्दोलनों के दौरान गिरफ्तारी के कारण कभी किसी छात्रनेता के साथ अपराधियों और व्यवहार नहीं किया जाता था। आन्दोलन समाप्त होते ही आपराधिक धाराओं में पंजीकृत मुकदमें भी वापस हो जाते थे परन्तु अब ऐसा नहीं होता और आन्दोलनकारियों को अदालत के सामने विचारण झेलना ही पड़ता है। नारायण दत्त तिवारी के मुख्य मन्त्रीत्व काल में कानपुर की कपड़ा मिलों के मजदूरों ने लगातार गई दिनों तक लखनऊ, मुम्बई रेलमार्ग जाम रखा था परन्तु आन्दोलनकारियों के प्रति शासन की उदार नीति के कारण उन्हंें बलपूर्वक खदेड़ा नहीं गया। उनकी माँगे मानी गई। इस आन्दोलन के कुछ ही महीनो बाद प्रदेश की सत्ता मंे आई मुलायम सिंह यादव की सरकार ने एल.एम.एल. स्कूटर के आन्दोलनकारी श्रमिकांे पर गोली चलवाई थी जिसमंे कई श्रमिक शहीद हुये थे जबकि इनके नेता डा0 राममनोहर लोहिया आन्दोलनकारियों पर गोली चलाने के सख्त विरोधी थे।

काँग्रेसी शासन में पुलिस के दुरुपयोग का सर्वाधिक शिकार समाजवादी पार्टी और जनसंघ भारतीय जनता पार्टी के कार्यरत हुये है इसलिए इन दलों की सरकारों से पुलिस को पब्लिक ओरियेन्टेड सेवा प्रदाता संस्थान बनाने की दिशा में पहल करने की अपेक्षा की जाती थी। परन्तु इन दोनों दलों की सरकारों ने आम लोगों को निराश किया है। इनके राज मंे भी काँग्रेसी राज की तहत पुलिस को मनमानी करने की छूट प्राप्त है।

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुरूप पुलिस को स्वायत्ता न मिलने और उनके नित्य प्रति के कामों में सत्तारूढ़ दल के संस्थागत हस्तक्षेप के कारण ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ पुलिसकर्मियों का मनोबल कमजोर होता है ओर उससे अपराधांे का जाँच एवं विवेचना कुप्रभावित होती हैं। सत्तारूढ़ दल के एक विधायक की संतुष्टि के लिए जी.एस.वी.एम. मेडिकल कालेज छात्रावास में पुलिसिया आक्रमण के दोषियों पर आज तक कोई कार्यवाही नही की गई है और आन्दोलनकारी छात्रों की संरक्षक डा0 आरती लाल चन्दानी को निलम्बित कर दिया गया है। पुलिस पर सत्तारूढ़ दल के एकाधिकार के कारण आम लोग पुलिस पर विश्वास नहीं करते। माना जाता है कि उनका आचरण जनविरोधी है और उनसे सम्पर्क आकरण परेशानियों का आमन्त्रण है इसलिए हर व्यक्ति पुलिस से दूर भागता है। वास्तव में अपनी ज्ञात आय पर अपना गुजारा करने वाले पुलिसकर्मियों को प्रोत्साहित करने की जरूरत हैं। वर्तमान व्यवस्था ऐसे लोगो को हतोत्साहित करती है।

उत्तर प्रदेश की नब्बे प्रतिशत पुलिस स्टेशनों पर एक ही जाति के थानेदारों की तैनाती और पुलिस अधीक्षक से ऊपर के अधिकारियांे का कोई कार्यकाल निर्धारित न होने के कारण सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय/दिशा निर्देशों का लागू होना अन्य किसी राज्य की तुलता में ज्यादा जरूरी है। इस राज्य में सत्तारूढ़ दल के सांसदो, विधायकों के हस्तक्षेप के बिना बड़ी से बड़ी बारदात की रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाती। अभी पिछले दिनों जिलाधिकारी के स्पष्ट आदेश के बावजूद एक लड़की की शिकायत पर दो माह बाद मुकदमा पंजीकृत किया गया और आरोपी एक जाति विशेष का होने के कारण अभी तक उसके विरुद्ध कार्यवाही नहीं की गई है एस.एस.पी. आदि वरिष्ठ अधिकारियों के समक्ष बड़ी संख्या में नित्य प्रति फरियादियों की उपस्थिति दर्शाती है कि आम लोगों को स्थानीय पुलिसकर्मियों की निष्पक्षता और पारदर्शिता के प्रति तनिक भी विश्वास नहीं है।

वास्तव में उत्तर प्रदेश में पुलिस स्टेशन आतंक, उत्पीड़न, अन्याय और उगाही का पर्याय बन गये हैं। पिछले दिनों थाना बर्रा के थानाध्यक्ष ने एक फायनेन्स कम्पनी के अधिकारी को उत्पीडि़त करके कई हजार रूपये की उगाही की थी। हालांकि बाद में एस.पी. के हस्तक्षेप के बाद उगाही की रकम वापस की गई परन्तु जाति विशेष के दोषी पुलिस अधिकारी पर चाहकर भी एस.एस.पी. कोई कार्यवाही नही कर सके। इसलिए सर्वाेच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि पुलिस की प्रतिबद्धता और जवाबदेही केवल शासन के प्रति है और उसका नियन्त्रण और सूपरविजन इस तरह किया जाना चाहिए कि स्थानीय स्तरों पर थानांे में पुलिसकर्मी अपने पदीय कर्तव्यों का निर्वहन के दौरान किसी व्यक्ति की हैसियत या किसी प्रकार के बाहरी दबाव से कुप्रभावित न हो। मामले की परिस्थितियों के गुण-दोष या उन्हंे जो भी न्यायोचित लगंे उन्हें वही करने का प्रशिक्षण और छूट दी जानी चाहिए।

सर्वाेच्च न्यायालय के निर्णय का सभी राजनैतिक दलों ने स्वागत किया और उसे एतिहासिक बताया था परन्तु सत्यता कुछ और ही थी। वास्तव में किसी राजनेता को सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुरूप पुलिस को स्वायत्ता प्रदान करना रास नहीं आता। सभी उस पर अपना शिकंजा मजबूत बनाये रखना चाहते है उन्हे लगता है कि यह पुलिस उनके नियन्त्रण से बाहर हो गई तो प्रापर्टी डीलिंग जैसे गुण्डई आधारित उनके धन्धे बन्द हो जायेेंगे और इसीलिए सभी दलों की सरकारों ने इसे लागू न करने के तरीके ईजाद किये है। आदेश में कहा गया है कि राज्य सरकार द्वारा अपने कानून बना लिये जाने के बाद सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुपालन की बाध्यता समाप्त हो जायेगी इसलिए कई राज्यों ने आनन-फानन में नये पुलिस अधिनियम बनाकर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की मूल भावना को ठेंगा दिखाया है।

अटल बिहारी बाजपेई की सरकार ने अक्टूबर 2005 में प्रख्यात विधिवेत्ता श्री सोली सोराव जी की अध्यक्षता में पुलिस एक्ट ड्राफ्टिंग कमेटी का गठन किया था। जिसने 30 अक्टूबर 2006 को माडल पुलिस एक्ट को प्रारूप केन्द्र सरकार को सौंप दिया है। माना जा रहा था कि उसी प्रारूप के आधार पर केन्द्र सरकार अपना पुलिस एक्ट बनायेगी और फिर राज्य सरकार भी उसी के अनुरूप अपने राज्यों में कानून बना लेगी परन्तु अक्टूबर 2006 के बाद अपने अवशेष कार्यकाल में श्री अटल बिहारी बाजपेई की सरकार ने और फिर दस वर्षो तक मनमोहन सिंह सरकार ने सोली सोराव जी कमेटी की अनुशंसाओं को लागू करने के लिए कोई पहल नहीं की। इस विषय पर अब मोदी सरकार की चुप्पी भी निराशा का कारण बना रही है।

Sunday, 20 September 2015

अनावश्यक गिरफ्तारियाँ व्यक्ति केे मौलिक अधिकारों का हनन


दण्ड प्रक्रिया संहिता में नई धारा 41ए जोड़कर विश्वनीय साक्ष्य संकलित किये बिना अभियुक्तों की गिरफ्तारी पर विधिक रोक लगाये जाने के बावजूद आम लोगों पर गिरफ्तारी का पुलिसिया कहर जारी है। पूँछताछ पर अन्य किसी नाम पर किसी को भी कोई कारण बताये बिना निरुद्ध रखना और फिर उसे उत्पीडि़त करना पुलिस कर्मियों की फितरत है। इसमें सुधार की कोई गुन्जाइस दिखती भी नहीं है। आजादी के बाद पुलिस में सुधार के लिए बनाये गये किसी भी कमीशन की रिपोर्ट को लागू करना किसी भी सरकार की प्राथमिकता में नहीं रहा है। सभी दलों ने अपनी अपनी सरकारों के दौरान उसके दुरुपयोग में महारथ हासिल की है और इसी कारण पुलिस को जनता ओरियेन्टेड एक निष्पक्ष एवं पारदर्शी सर्विस प्रोवाइडर संस्थान बनाने की दिशा में कोई सार्थक पहल नहीं की जा रही है। और उसके कारण आम लोगों को उत्पीडि़त करने के लिए पुलिसकर्मियांे को खुली छूट मिली हुई है और उन पर अंकुश रखना किसी की भी चिन्ता का विषय नही हैं। जबकि इससे आम लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन होता है।

अपने देश की 1353 जेलों में निरुद्ध लगभग चार लाख लोगों में आधे से ज्यादा विचाराधीन बन्दी है अर्थात अपने विरुद्ध कोई दोष सिद्ध हुये बना भी वह जेल में है। इनमें से अधिकांश आर्थिक कारणों से जमानत का प्रबन्ध न कर पाने के कारण जेल में रहने को अधिशप्त हैं। अपने देश में प्रतिवर्ष लगभग पचहत्तर लाख व्यक्ति गिरफ्तार किये जाते है। इनमें से अस्सी प्रतिशत लोग साधारण अपराधों या सात वर्ष तककी सजा वाले अपराधों में गिरफ्तार किये जाते है। ऐसे अभियुक्तों के फरार होने विचारण के समय अदालत के समक्ष हाजिर न रहने या साक्षियांे को डराने, धमकानें कुप्रभावित करने की अशंका न के बराबर होती है। ऐसे लोगों गिरफ्तार करके जेल भेजने और अदालत के सक्षम उनकी जमानत का विरोध करने का कोई युक्तियुक्त आधार न होने के बावजूद अभियोजन कीतरफ से जमानत का विरोध किया जाता हैं। दुर्भाग्यवश जमानत प्रार्थनापत्रों की सुनवााई केे दौरान थाने से रिपोर्ट नही आई पुट अप टुमारो का आदेश आम बात हो गई हैऔर इस कारण साधारण मामलों में जेल जाना मजबूरी बन गया है। परिवाद के मामलों में तलबी आदेश के बाद न्यायालय द्वारा भेजे गये सम्मन के अनुपालन में न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने वाले अभियुक्तों को पहले जमानत अधिकार स्वरूप मिल जाया करती थी परन्तु अब ऐसे मामलों में भी अभियुक्त जेल भेज दिये जाते है जबकि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 88 के तहत तलवी आदेश के बाद अभियुक्तों की उपस्थिति बजरिये अधिवक्ता स्वीकार की जा सकती है। इसका स्पष्ट प्रावधान विधि में है।

आपातकाल के बाद सत्ता में आई जनता पार्टी की सरकार ने पुलिस सुधार के लिए धर्मवीर आयोग का गठन किया था। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि इकसठ प्रतिशत आपराधिक मामलों में अभियुक्तों की गिरफ्तारी जरूरी नहीं होती। सर्वोच्च न्यायालय ने जोगेन्द्र सिंह के मामले में जारी अपने दिशा निर्देशो में कहा था कि पुलिस को केवल उन्ही मामलों में गिरफ्तारी करनी चाहिये जहाँ इसकी वास्तविक जरूरत हो। केवल औपचारिकतावश नामजद अभियुक्तों को गिरफ्तार करके महीनो जेल में निरुद्ध रखना न्याय संगत नही है। इन दिशा निर्देशों की  प्रकृति आदेशात्मक है परन्तु स्थानीय स्तरों पर अनावश्यक गिरफ्तारियों पर कोई रोक नहीं लगी। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालयने लाला कमलेन्दु प्रसाद के मामले में फिर से एक नया आदेश पारित किया परन्तु आम लोगों पर गिरफ्तारी का पुलिसिया कहर बन्द नहीं हो सका हैं। लाला कमलेन्दु प्रसाद के मामले में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय होने के बावजूद अधिनस्थ न्यायालयों के समक्ष आम लोगों को इसका लाभ नही मिल सका। इस निर्णय का लाभ प्राप्त करने के लिए हाई कोर्ट की शरण लेनी पड़ती है और उसका व्यय वहन करना सब लोगों के वश की बात नही है।

आपराधिक न्याय प्रशासन में सुधार के लिए बनाई गई मलिमथ कमेटी ने वर्ष 2000 मे अटल बिहारी बाजपेयी सरकार के समक्ष प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में अनावश्यक गिरफ्तारियों पर चिन्ता जताई थी और इसके समाधान के लिए कई सार्थक सुझाव दिये थे परन्तु अन्य आयोगो एवं कमेटियों की तरह मलिमथ कमेटी की अनुशंासाये भी लागू होने की प्रतीक्षा में दम तोड़ने लगी हैं। मलिमथ कमेटी ने सुझाव दिया थाकि पुलिस को गिरफ्तारी का अधिकार देने वाले संज्ञेय अपराधों की संख्या कम कर दी जाये। कुछ गम्भीर अपराधों को छोड़कर अवशेष मामलों को असंज्ञेय अपराध के रूप में वर्गीकृत किया जाये ताकि इन मामलों में गिरफ्तारी का अधिकार स्वतः समाप्त हो सके। कुछ विशेष अपराधों में अदालत की अनुमति से अभियुक्तों की गिरफ्तारी का अधिकार पुलिस को दिया जा सकता है परन्तु वर्तमान व्यवस्था को किसी भी दशा में जारी रखना न्यायसंगत नही हैं।

सात वर्ष तक की सजा वाले अपराधों में विश्वसनीय साक्ष्य संकलित किये बिना गिरफ्तारी पर विधिक रोक लगने के बाद देश में गिरफ्तार किये गये व्यक्तियों की संख्या चैहत्तर लाख से बढ़कर उन्यासी लाख हो गई है जो इस तथ्य का प्रतीक है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता में संशोधन करके बढ़ाई गयी धारा 41ए का लाभ आम लोगों को प्राप्त नहीं हो सका जबकि विधिक सेवा प्राधिकरण सहित सभी सम्बन्धित एजेन्सियों ने इस धारा का व्यापाक प्रचार किया है। स्थानीय पुलिस अधिकारी गिरफ्तारी के अधिकार मे किसी भी प्रकार की कटौती को अपने अस्तित्व के लिए खतरा मानते है इसलिए उसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। आँकड़े जाहिर करते हैकि करीब चालिस प्रतिशत विचाराधीन बन्दी पहले तीन महीने के भीतर जेल से जमानत पर रिहा हो जाते है। लगभग साठ प्रतिशत विचारधीन बन्दियों को एक वर्ष के अन्दर जमानत मिल जाती है। इनमें से अधिकांश मामलोें मे विचारण के दौरान अभियुक्त के विरुद्ध अभियोजन एजेन्सी अदालत के समक्ष समुचित साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर पाती और अभियुक्त दोषमुक्त हो जाता है और उसको जेल भेजने का औचित्य निराधार साबित हो जाता है। इससे यह भी साबित हो जाता है कि पुलिस अपनी हनक बनाये रखने और आम लोगो को सबक सिखाने के लिए किसी मुक्ति युक्त आधार के बिना लोगों को गिरफ्तार करके जेल भेज देती है जो गिरफ्तारी के अधिकार की मूल भावना के प्रतिकूल हैं।

आम लोगों को अनावश्यक गिरफ्तारी से बचाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने अपने स्तर पर सार्थक पहल की हैं परन्तु यह पहल अधीनस्थ न्यायालयों को अपनी कार्य प्रणाली में सुधार के लिए पे्ररित नहीं कर पा रही हैं जबकि अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। गिरफ्तार किये गये व्यक्तियों को जमानत पर रिहा करने के बजाय विचाराधीन बन्दी के रूप में उन्हें एक या दो दिन के लिए जेल भेज देने की अधीनस्थ न्यायालयों की मानसिकता भी सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों को उनकी मूल भावना के अनुरूप लागू करने में एक बड़ी बाधा है। थाना कोतवाली हलद्वानी में एक व्यवसायिक विवाद में स्थानीय पुलिस ने एक कम्पनी के अधिकारी को बरेली में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया जबकि उस मामले में नैनीताल हाईकोर्ट ने गिरफ्तारी पर रोक लगा रखी थी और न्यायिक मजिस्ट्रेट ने भी तकनीकी कारणांे से गिरफ्तार अधिकारी को जमानत नही दी और जेल भेज दिया। इस मामले में अन्य अभियुक्तों को न्यायिक मजिस्टेªट के समक्ष उपस्थित हुये बिना सर्वोच्च न्यायालय ने पाँच हजार रूपये की दो जमानतों और इतनी ही राशि के बन्धपत्र पर रिहा करने का आदेश पारित किया था। बाद में इस मामले की प्रथम सूचना रिपोर्ट को नैनीताल हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति बी.सी. काण्डपाल ने खारिज भी कर दिया था परन्तु स्थानीय पुलिस की धींगामुस्ती और न्यायिक अधिकारी की रूटीन वर्किंग के कारण एक निर्दोष व्यक्ति को बाइस दिन तक जेल में रहकर सामाजिक आपमान और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय के द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों पर जिम्मेदारी डाली है कि जब उनके समक्ष किसी गिरफ्तार व्यक्ति को पेश किया जाये तो उन्हें समीक्षा करनी चाहिए कि क्या गिरफ्तारी आवश्यक थी? और यदि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों के गुण दोष पर गिरफ्तारी अनावश्यक प्रतीत हो तो व्यक्ति को तत्काल जमानत पर रिहा कर दे। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भीकहा है कि इन दिशा निर्देशों का अनुपालन न करने वाले पुलिस कर्मियों और न्यायालय की अवमानना का दोषी माना जाय। मुझे नहीं लगता कि मेरे जीवनकाल में सर्वोच्च न्यायालय के इस दिशा निर्देश का अनुपालन अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष सुनिश्चित कराया जा सकेगा।                  

Sunday, 6 September 2015

 घरेलू हिंसा पीडि़त पति भी है कोई उसकी सुनता नहीं
आम तौर पर कानून की नजर में पत्नी निरीह और पीडि़त मानी जाती है। उसके साथ ससुराल में हर स्तर पर अन्याय किया जाता है उसे दहेज के लिए प्रताडि़त किया जाता है परन्तु वास्तव में हर समय यही सच नहीं होता। कई बार पति पत्नी की तुलना में ज्यादा पीडि़त और अकेला होता है। माँ और पत्नी के बीच में पिसता रहता है परन्तु सार्वजनिक स्तर पर उसे ही दोषी माना जाता है।
पिछले दिनों एक पढ़ी लिखी उद्यमी पत्नी ने अपने पति के गाल पर समोसा रगडा और फिर वहीं पर पति के साथ मार पीट करके उसे अपमानित किया। इस घटना को देखने वाले सभी लोगों ने पति को उसकी कायरता के लिए धिक्कारा परन्तु पति ने उसके विरूद्ध कहीं कोई शिकायत दर्ज नही कराई। पत्नी आज भी साधिकार पतिग्रह में रह रही है अपने तरीके से पति के खर्चे पर अपनी जीवन जीती है। पत्नी इस मामले मंे हर तरह से दोषी है और जानबूझकर अपने पति और सास ससुर को अपमानित करके प्रताडि़त कर रही है परन्तु कानून में पत्नी को दण्डित कराने की कोई व्यवस्था न होने के कारण पति असहाय होकर उत्पीड़न झेलने को अभिशप्त है।
वास्तव में पति पत्नी के विवाद में पति और उसके निकटतम सम्बन्धियों को दोषी मानने की अवधारणा ने पति को अन्याय का शिकार बना दिया है। शादी के बाद प्रायः दहेज को लेकर घर में विवाद होते रहते है परन्तु इस प्रकार के वास्तविक विवाद पुलिस के स्तर तक नहीं जाते। पति पत्नी के बीच किन्ही और कारणों को लेकर विवाद उत्पन्न होते है। दोनों की एक समान पढ़ाई लिखाई और उसके कारण अपने आपको सामने वाले से ज्यादा श्रेष्ठ मानने की प्रवृत्ति दाम्पत्य विवादों का एक बड़ा कारण है। पारिवारिक स्तर पर सामंजस्य बिठा न पाने के कारण भी विवाद उत्पन्न होते है। दहेज की इन विवादों में कोई भूमिका नहीं होती परन्तु शिकायत दहेज को आधार बनाकर की जाती हैै जिसमें पति की विवाहित बहनों और उनके पतियों को भी शामिल कर लिया जाता है। प्रथम सूचना रिपार्ट दर्ज हो जाने के बाद पूरा परिवार आत्म ग्लानि का शिकार हो जाता है और फिर पत्नी मनमाफिक तरीके से पति को समझौता करने के लिए विवश करती हैै।
डामेस्टिक वायलेन्स एक्ट के तहत शुरुआत में ही पति को दोषी मान लिया जाता है। जबकि आपराधिक न्यायशास्त्र का नियम है कि जब तक दोष सिद्ध न हो जाये तब तक आरोपी को निर्दोष माना जाना चाहिये। कहा जाता है कि दस दोषी छूट जायें परन्तु किसी भी दशा में एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए लेकिन डामेस्टिक वायलेन्स एक्ट के तहत की गई शिकायतों पर पति को शुरुआत में ही  दोषी मानकर जमानत कराने के लिए मजबूर किया जाता है और फिर अदालती कार्यवाही के दौरान उसे नित्य पति अपमानित भी होना पड़ता है।
पुलिस स्टेशनों पर पति की शिकायत पर पत्नी के विरूद्ध मुकदमा पंजीकृत नहीं किया जाता जबकि पति भी घरेलू हिंसा का शिकार होता है वास्तव में डामेस्टिक वायलेन्स एक्ट सीताओं को उत्पीड़न से बचाने के लिए बनाया गया था परन्तु व्यवहार में इसका लाभ केवल सूर्पनखाओं को प्राप्त होता रहा है। सम्पूर्ण देश में पति अपनी पत्नियों द्वारा पंजीकृत कराये गये आपराधिक मुकदमों से उत्पीडि़त हो रहे है। परन्तु उनकी व्यथा को समझने के लिए कोई तैयार नहीं है। एक स्कूल टीचर ने कक्षा 9 के अपने विद्यार्थी को अपने साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए उत्प्रेरित किया और फिर उससे उसके माता पिता की इच्छा के प्रतिकूल आर्य समाज मन्दिर में शादी कर ली। इस विवाह में दहेज की कोई भूमिका नहीं थी परन्तु पत्नी ने थाना किदवई नगर कानपुर नगर में अपने नाबालिग पति और उसके माता पिता के विरूद्ध दहेज उत्पीड़न के आरोप में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करा दी है। पति ने भी अपनी पत्नी के विरूद्ध थाने में शिकायती पत्र दिया है परन्तु उसकी शिकायत पर प्रथम सूचना रिपोर्ट अभी तक दर्ज नहीं की गई।
दाम्पत्य विवादों को पत्नी के विरूद्ध अपराध की तरह देखने और मानने के कारण पतियों का उत्पीड़न तेजी से बढ़ा है। हलाँकि सात वर्ष तक की सजा के आपराधिक मामलों मंे विश्वसनीय साक्ष्य संकलित किये बिना गिरफ्तारी पर रोक लग जाने के कारण तत्काल जेल जाने का खतरा टल गया है। परन्तु यदि पत्नी की मनमर्जी के अनुसार पति पक्ष समझौते के लिए तैयार नहीं होता तो उसे जमानत करानी ही पड़ती है और फिर विचारण का सामना करना पड़ता है जो कई वर्ष तक चलता है। दाम्पत्य विवादों को अपराध मानने की अवधारणा का उद्देश्य कुछ भी रहा हो परन्तु अब इसका जमकर दुरुपयोग हो रहा है। वृद्ध दादा दादी और किशोर भाई बहनों को मुस्लिम बना देना आम बात हो गई है दाम्पत्य विवाद पारिवारिक सामाजिक समस्या है और उसे इसी रूप में देखा जाना चाहिये। पारिवारिक ताना बाना और सामाजिक शक्तियाँ निरन्तर कमजोर होती जा रही है आज हर व्यक्ति अपने को केन्द्र बिन्दु मानकर निर्णय चाहता है जो पारिवारिक जीवन में सम्भव नहीं है। सभी को एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना होगा। एक लड़की पत्नी के साथ माँ, बहन, बुआ, चाची, मामी और भाभी भी होती हैं इसलिए उत्पीड़न की शिकायत दर्ज करने के पहले उसे और उसके माता पिता को  सभी पारिवारिक पहलुओं पर विचार करना चाहिए और घर के स्तर पर पति पत्नी को अपने मतभेद दूर करने के अवसर दिये जाने चाहिए।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498ए, 304बी एवं 3/4 दहेज प्रतिषेध अधिनियम के मुकदमांे में विवेचना क्षेत्राधिकारी स्तर के पुलिस अधिकारी से कराई जाती है और इसके पीछे विधायिका की मंशा थी कि सम्पूर्ण घटनाक्रम की जांच निष्पक्ष पारदर्शी तरीके से हो ताकि किसी निर्दोष के विरूद्ध आरोप पत्र दाखिल न  हो सके परन्तु क्षेत्राधिकारी अपने स्तर पर पारिवारिक मतभेदों को दूर करने के लिए कभी कोई प्रयास नहीं करता बल्कि सभी नामजद लोगों के विरूद्ध आरोप पत्र विचारण के लिए प्रेषित कर देता है। एक मामले में पत्नी की मृत्यु प्रसव के दौरान अस्पताल में हुई। परन्तु लड़की के पिता नेे दहेज हत्या का मुकदमा पंजीकृत करा दिया। जिसमें पन्द्रह वर्ष पहले ब्याही गई बहन और उसके पति को भी मुल्जिम बनाया गया चिकित्सकीय साक्ष्य से दहेज हत्या का कोई मामला नहीं बनता था परन्तु सम्पूर्ण परिवार को अदालत ने धारा 304बी के तहत निर्दोष पाया और दहेज प्रतिषेध अधिनियम के तहत पति और उसके नातेदारों को दोषी मानने की अवधारण के कारण तीन वर्ष के सक्षम कारावास से दण्डित किया।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498ए, 304बी, 306 दहेज प्रतिषेध अधिनियम की धारा 3/4 साक्ष्य अधिनियम की धारा 113बी और डामेस्टिक वायलेन्स एक्ट महिलाओं की सुरक्षा के लिए अधिनियमित किये गये है परन्तु अब यह धाराये पतियों के विरूद्ध विधिक आतंक से कम नहीं है। इन धाराओं के आतंक के कारण पति अपनी पत्नी की मनमानी झेलने के लिए अभिशप्त है। अभियोजन एजेन्सी भी इन धाराओे का अनुचित सहारा लेकर पति अैर उसके नातेदारों का उत्पीड़न करती हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रीती गुप्ता बनाम स्टेट आफ आर झारखण्ड (ए.आई.आर-2010- सुप्रीमकोर्ट- पेज 3313) में इन धाराओं के दरुपयोग पर चिन्ता व्यक्त की है। विधि आयोग ने भी इन धाराओ में संशोधन की सिपारिस की है परन्तु सरकार के स्तर पर अभी तक कोई सकारात्मक पहल नहीं की गयी हैं।