मैं प्रायः कहा करता हूँ कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जनहित में पारित निर्णय अधीनस्थ न्यायालयों की चैखट तक आते आते दम तोड़ देते है और आम लोग उसके लाभ से वंचित रह जाते है। पुलिस सुधार पर प्रकाश सिंह बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर मेरी कहावत पूरी तरह लागू होती है। अदालत ने इसे लागू करने की समय सीमा भी निर्धारित की थी। इस निर्णय के बाद एक लम्बा समय बीत गया है और इस अवधि में सभी राजनैतिक दलों को सत्तारूढ़ होने का अवसर मिला परन्तु किसी ने इसे लागू करने में कोई रुचि नहीं दिखाई। कोई कुछ भी कहे लेकिन सच यही है कि अदालत का निर्णय लकागू करके कोई भी राजनैतिक दल सत्तारूढ़ रहने के दौरान पुलिस पर अपना शिकंजा कम नहीं करना चाहता। कहते सभी है कि पुलिस का वर्तमान ढ़ाचा औपनिवेशिक है और उसे बदलने की सख्त जरूरत है परन्तु उसे न बदलने के लिए सभी राजनेताओं में मूक सहमति है और इसीलिए सर्वाच्च न्यायालय की मानीटरिंग के बावजूद 22 सितम्बर 2006 का निर्णय अपने लागू होने की प्रतीक्षा में निरर्थक सा होने लगा है।
सम्पूर्ण देश मंे पुलिसकर्मी आज भी विदेशी शासन की तर्ज पर सत्तारूढ़ दल के राजनेताओं की हनक बनाये रखने के लिए आम लोगों को उत्पीडि़त करने का माध्यम है। केन्द्र या राज्य सभी स्तरों पर सत्तारूढ़ नेताओं द्वारा अपने राजनैतिक विरोधियों के विरुद्ध पुलिस का दुरुपयोग आम बात हो गई है। बेटी के विवाह के दिन हिमांचल प्रदेश के मुख्यमन्त्री के घर पर आयकर विभाग का छापा या दिल्ली के पूर्व कानून मन्त्री श्री सोमनाथ भारती के विरुद्ध घरेलू हिंसा के पारिवारिक मामले में दिल्ली पुलिस की तत्परता सत्ता के दुरुपयोग का ज्वलन्त उदाहरण है। सत्तारूढ़ दल के नेताओ को खुश रखने के लिए पुलिस ने राजनैतिक कार्यकर्ताओं और जघन्य अपराधियों के अन्तर को मिटा दिया हैं। आन्दोलनकारियों पर सेवन क्रिमिनल लाॅ अमेन्डमेन्ट एक्ट सरीखे कानूनों के तहत गम्भीर अपराधों में मुकदमें पंजीकृत करना आम बात हो गई है।
काँग्रेसी राज के भ्रष्टाचार की कितनी भी आलोचना की जाये परन्तु यह सच है कि आन्दोलनकारियों के प्रति उनका रवैया कभी दुश्मनी भरा नहीं रहा है। छात्र आन्दोलनों के दौरान गिरफ्तारी के कारण कभी किसी छात्रनेता के साथ अपराधियों और व्यवहार नहीं किया जाता था। आन्दोलन समाप्त होते ही आपराधिक धाराओं में पंजीकृत मुकदमें भी वापस हो जाते थे परन्तु अब ऐसा नहीं होता और आन्दोलनकारियों को अदालत के सामने विचारण झेलना ही पड़ता है। नारायण दत्त तिवारी के मुख्य मन्त्रीत्व काल में कानपुर की कपड़ा मिलों के मजदूरों ने लगातार गई दिनों तक लखनऊ, मुम्बई रेलमार्ग जाम रखा था परन्तु आन्दोलनकारियों के प्रति शासन की उदार नीति के कारण उन्हंें बलपूर्वक खदेड़ा नहीं गया। उनकी माँगे मानी गई। इस आन्दोलन के कुछ ही महीनो बाद प्रदेश की सत्ता मंे आई मुलायम सिंह यादव की सरकार ने एल.एम.एल. स्कूटर के आन्दोलनकारी श्रमिकांे पर गोली चलवाई थी जिसमंे कई श्रमिक शहीद हुये थे जबकि इनके नेता डा0 राममनोहर लोहिया आन्दोलनकारियों पर गोली चलाने के सख्त विरोधी थे।
काँग्रेसी शासन में पुलिस के दुरुपयोग का सर्वाधिक शिकार समाजवादी पार्टी और जनसंघ भारतीय जनता पार्टी के कार्यरत हुये है इसलिए इन दलों की सरकारों से पुलिस को पब्लिक ओरियेन्टेड सेवा प्रदाता संस्थान बनाने की दिशा में पहल करने की अपेक्षा की जाती थी। परन्तु इन दोनों दलों की सरकारों ने आम लोगों को निराश किया है। इनके राज मंे भी काँग्रेसी राज की तहत पुलिस को मनमानी करने की छूट प्राप्त है।
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुरूप पुलिस को स्वायत्ता न मिलने और उनके नित्य प्रति के कामों में सत्तारूढ़ दल के संस्थागत हस्तक्षेप के कारण ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ पुलिसकर्मियों का मनोबल कमजोर होता है ओर उससे अपराधांे का जाँच एवं विवेचना कुप्रभावित होती हैं। सत्तारूढ़ दल के एक विधायक की संतुष्टि के लिए जी.एस.वी.एम. मेडिकल कालेज छात्रावास में पुलिसिया आक्रमण के दोषियों पर आज तक कोई कार्यवाही नही की गई है और आन्दोलनकारी छात्रों की संरक्षक डा0 आरती लाल चन्दानी को निलम्बित कर दिया गया है। पुलिस पर सत्तारूढ़ दल के एकाधिकार के कारण आम लोग पुलिस पर विश्वास नहीं करते। माना जाता है कि उनका आचरण जनविरोधी है और उनसे सम्पर्क आकरण परेशानियों का आमन्त्रण है इसलिए हर व्यक्ति पुलिस से दूर भागता है। वास्तव में अपनी ज्ञात आय पर अपना गुजारा करने वाले पुलिसकर्मियों को प्रोत्साहित करने की जरूरत हैं। वर्तमान व्यवस्था ऐसे लोगो को हतोत्साहित करती है।
उत्तर प्रदेश की नब्बे प्रतिशत पुलिस स्टेशनों पर एक ही जाति के थानेदारों की तैनाती और पुलिस अधीक्षक से ऊपर के अधिकारियांे का कोई कार्यकाल निर्धारित न होने के कारण सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय/दिशा निर्देशों का लागू होना अन्य किसी राज्य की तुलता में ज्यादा जरूरी है। इस राज्य में सत्तारूढ़ दल के सांसदो, विधायकों के हस्तक्षेप के बिना बड़ी से बड़ी बारदात की रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाती। अभी पिछले दिनों जिलाधिकारी के स्पष्ट आदेश के बावजूद एक लड़की की शिकायत पर दो माह बाद मुकदमा पंजीकृत किया गया और आरोपी एक जाति विशेष का होने के कारण अभी तक उसके विरुद्ध कार्यवाही नहीं की गई है एस.एस.पी. आदि वरिष्ठ अधिकारियों के समक्ष बड़ी संख्या में नित्य प्रति फरियादियों की उपस्थिति दर्शाती है कि आम लोगों को स्थानीय पुलिसकर्मियों की निष्पक्षता और पारदर्शिता के प्रति तनिक भी विश्वास नहीं है।
वास्तव में उत्तर प्रदेश में पुलिस स्टेशन आतंक, उत्पीड़न, अन्याय और उगाही का पर्याय बन गये हैं। पिछले दिनों थाना बर्रा के थानाध्यक्ष ने एक फायनेन्स कम्पनी के अधिकारी को उत्पीडि़त करके कई हजार रूपये की उगाही की थी। हालांकि बाद में एस.पी. के हस्तक्षेप के बाद उगाही की रकम वापस की गई परन्तु जाति विशेष के दोषी पुलिस अधिकारी पर चाहकर भी एस.एस.पी. कोई कार्यवाही नही कर सके। इसलिए सर्वाेच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि पुलिस की प्रतिबद्धता और जवाबदेही केवल शासन के प्रति है और उसका नियन्त्रण और सूपरविजन इस तरह किया जाना चाहिए कि स्थानीय स्तरों पर थानांे में पुलिसकर्मी अपने पदीय कर्तव्यों का निर्वहन के दौरान किसी व्यक्ति की हैसियत या किसी प्रकार के बाहरी दबाव से कुप्रभावित न हो। मामले की परिस्थितियों के गुण-दोष या उन्हंे जो भी न्यायोचित लगंे उन्हें वही करने का प्रशिक्षण और छूट दी जानी चाहिए।
सर्वाेच्च न्यायालय के निर्णय का सभी राजनैतिक दलों ने स्वागत किया और उसे एतिहासिक बताया था परन्तु सत्यता कुछ और ही थी। वास्तव में किसी राजनेता को सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुरूप पुलिस को स्वायत्ता प्रदान करना रास नहीं आता। सभी उस पर अपना शिकंजा मजबूत बनाये रखना चाहते है उन्हे लगता है कि यह पुलिस उनके नियन्त्रण से बाहर हो गई तो प्रापर्टी डीलिंग जैसे गुण्डई आधारित उनके धन्धे बन्द हो जायेेंगे और इसीलिए सभी दलों की सरकारों ने इसे लागू न करने के तरीके ईजाद किये है। आदेश में कहा गया है कि राज्य सरकार द्वारा अपने कानून बना लिये जाने के बाद सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुपालन की बाध्यता समाप्त हो जायेगी इसलिए कई राज्यों ने आनन-फानन में नये पुलिस अधिनियम बनाकर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की मूल भावना को ठेंगा दिखाया है।
अटल बिहारी बाजपेई की सरकार ने अक्टूबर 2005 में प्रख्यात विधिवेत्ता श्री सोली सोराव जी की अध्यक्षता में पुलिस एक्ट ड्राफ्टिंग कमेटी का गठन किया था। जिसने 30 अक्टूबर 2006 को माडल पुलिस एक्ट को प्रारूप केन्द्र सरकार को सौंप दिया है। माना जा रहा था कि उसी प्रारूप के आधार पर केन्द्र सरकार अपना पुलिस एक्ट बनायेगी और फिर राज्य सरकार भी उसी के अनुरूप अपने राज्यों में कानून बना लेगी परन्तु अक्टूबर 2006 के बाद अपने अवशेष कार्यकाल में श्री अटल बिहारी बाजपेई की सरकार ने और फिर दस वर्षो तक मनमोहन सिंह सरकार ने सोली सोराव जी कमेटी की अनुशंसाओं को लागू करने के लिए कोई पहल नहीं की। इस विषय पर अब मोदी सरकार की चुप्पी भी निराशा का कारण बना रही है।
सम्पूर्ण देश मंे पुलिसकर्मी आज भी विदेशी शासन की तर्ज पर सत्तारूढ़ दल के राजनेताओं की हनक बनाये रखने के लिए आम लोगों को उत्पीडि़त करने का माध्यम है। केन्द्र या राज्य सभी स्तरों पर सत्तारूढ़ नेताओं द्वारा अपने राजनैतिक विरोधियों के विरुद्ध पुलिस का दुरुपयोग आम बात हो गई है। बेटी के विवाह के दिन हिमांचल प्रदेश के मुख्यमन्त्री के घर पर आयकर विभाग का छापा या दिल्ली के पूर्व कानून मन्त्री श्री सोमनाथ भारती के विरुद्ध घरेलू हिंसा के पारिवारिक मामले में दिल्ली पुलिस की तत्परता सत्ता के दुरुपयोग का ज्वलन्त उदाहरण है। सत्तारूढ़ दल के नेताओ को खुश रखने के लिए पुलिस ने राजनैतिक कार्यकर्ताओं और जघन्य अपराधियों के अन्तर को मिटा दिया हैं। आन्दोलनकारियों पर सेवन क्रिमिनल लाॅ अमेन्डमेन्ट एक्ट सरीखे कानूनों के तहत गम्भीर अपराधों में मुकदमें पंजीकृत करना आम बात हो गई है।
काँग्रेसी राज के भ्रष्टाचार की कितनी भी आलोचना की जाये परन्तु यह सच है कि आन्दोलनकारियों के प्रति उनका रवैया कभी दुश्मनी भरा नहीं रहा है। छात्र आन्दोलनों के दौरान गिरफ्तारी के कारण कभी किसी छात्रनेता के साथ अपराधियों और व्यवहार नहीं किया जाता था। आन्दोलन समाप्त होते ही आपराधिक धाराओं में पंजीकृत मुकदमें भी वापस हो जाते थे परन्तु अब ऐसा नहीं होता और आन्दोलनकारियों को अदालत के सामने विचारण झेलना ही पड़ता है। नारायण दत्त तिवारी के मुख्य मन्त्रीत्व काल में कानपुर की कपड़ा मिलों के मजदूरों ने लगातार गई दिनों तक लखनऊ, मुम्बई रेलमार्ग जाम रखा था परन्तु आन्दोलनकारियों के प्रति शासन की उदार नीति के कारण उन्हंें बलपूर्वक खदेड़ा नहीं गया। उनकी माँगे मानी गई। इस आन्दोलन के कुछ ही महीनो बाद प्रदेश की सत्ता मंे आई मुलायम सिंह यादव की सरकार ने एल.एम.एल. स्कूटर के आन्दोलनकारी श्रमिकांे पर गोली चलवाई थी जिसमंे कई श्रमिक शहीद हुये थे जबकि इनके नेता डा0 राममनोहर लोहिया आन्दोलनकारियों पर गोली चलाने के सख्त विरोधी थे।
काँग्रेसी शासन में पुलिस के दुरुपयोग का सर्वाधिक शिकार समाजवादी पार्टी और जनसंघ भारतीय जनता पार्टी के कार्यरत हुये है इसलिए इन दलों की सरकारों से पुलिस को पब्लिक ओरियेन्टेड सेवा प्रदाता संस्थान बनाने की दिशा में पहल करने की अपेक्षा की जाती थी। परन्तु इन दोनों दलों की सरकारों ने आम लोगों को निराश किया है। इनके राज मंे भी काँग्रेसी राज की तहत पुलिस को मनमानी करने की छूट प्राप्त है।
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुरूप पुलिस को स्वायत्ता न मिलने और उनके नित्य प्रति के कामों में सत्तारूढ़ दल के संस्थागत हस्तक्षेप के कारण ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ पुलिसकर्मियों का मनोबल कमजोर होता है ओर उससे अपराधांे का जाँच एवं विवेचना कुप्रभावित होती हैं। सत्तारूढ़ दल के एक विधायक की संतुष्टि के लिए जी.एस.वी.एम. मेडिकल कालेज छात्रावास में पुलिसिया आक्रमण के दोषियों पर आज तक कोई कार्यवाही नही की गई है और आन्दोलनकारी छात्रों की संरक्षक डा0 आरती लाल चन्दानी को निलम्बित कर दिया गया है। पुलिस पर सत्तारूढ़ दल के एकाधिकार के कारण आम लोग पुलिस पर विश्वास नहीं करते। माना जाता है कि उनका आचरण जनविरोधी है और उनसे सम्पर्क आकरण परेशानियों का आमन्त्रण है इसलिए हर व्यक्ति पुलिस से दूर भागता है। वास्तव में अपनी ज्ञात आय पर अपना गुजारा करने वाले पुलिसकर्मियों को प्रोत्साहित करने की जरूरत हैं। वर्तमान व्यवस्था ऐसे लोगो को हतोत्साहित करती है।
उत्तर प्रदेश की नब्बे प्रतिशत पुलिस स्टेशनों पर एक ही जाति के थानेदारों की तैनाती और पुलिस अधीक्षक से ऊपर के अधिकारियांे का कोई कार्यकाल निर्धारित न होने के कारण सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय/दिशा निर्देशों का लागू होना अन्य किसी राज्य की तुलता में ज्यादा जरूरी है। इस राज्य में सत्तारूढ़ दल के सांसदो, विधायकों के हस्तक्षेप के बिना बड़ी से बड़ी बारदात की रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाती। अभी पिछले दिनों जिलाधिकारी के स्पष्ट आदेश के बावजूद एक लड़की की शिकायत पर दो माह बाद मुकदमा पंजीकृत किया गया और आरोपी एक जाति विशेष का होने के कारण अभी तक उसके विरुद्ध कार्यवाही नहीं की गई है एस.एस.पी. आदि वरिष्ठ अधिकारियों के समक्ष बड़ी संख्या में नित्य प्रति फरियादियों की उपस्थिति दर्शाती है कि आम लोगों को स्थानीय पुलिसकर्मियों की निष्पक्षता और पारदर्शिता के प्रति तनिक भी विश्वास नहीं है।
वास्तव में उत्तर प्रदेश में पुलिस स्टेशन आतंक, उत्पीड़न, अन्याय और उगाही का पर्याय बन गये हैं। पिछले दिनों थाना बर्रा के थानाध्यक्ष ने एक फायनेन्स कम्पनी के अधिकारी को उत्पीडि़त करके कई हजार रूपये की उगाही की थी। हालांकि बाद में एस.पी. के हस्तक्षेप के बाद उगाही की रकम वापस की गई परन्तु जाति विशेष के दोषी पुलिस अधिकारी पर चाहकर भी एस.एस.पी. कोई कार्यवाही नही कर सके। इसलिए सर्वाेच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि पुलिस की प्रतिबद्धता और जवाबदेही केवल शासन के प्रति है और उसका नियन्त्रण और सूपरविजन इस तरह किया जाना चाहिए कि स्थानीय स्तरों पर थानांे में पुलिसकर्मी अपने पदीय कर्तव्यों का निर्वहन के दौरान किसी व्यक्ति की हैसियत या किसी प्रकार के बाहरी दबाव से कुप्रभावित न हो। मामले की परिस्थितियों के गुण-दोष या उन्हंे जो भी न्यायोचित लगंे उन्हें वही करने का प्रशिक्षण और छूट दी जानी चाहिए।
सर्वाेच्च न्यायालय के निर्णय का सभी राजनैतिक दलों ने स्वागत किया और उसे एतिहासिक बताया था परन्तु सत्यता कुछ और ही थी। वास्तव में किसी राजनेता को सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुरूप पुलिस को स्वायत्ता प्रदान करना रास नहीं आता। सभी उस पर अपना शिकंजा मजबूत बनाये रखना चाहते है उन्हे लगता है कि यह पुलिस उनके नियन्त्रण से बाहर हो गई तो प्रापर्टी डीलिंग जैसे गुण्डई आधारित उनके धन्धे बन्द हो जायेेंगे और इसीलिए सभी दलों की सरकारों ने इसे लागू न करने के तरीके ईजाद किये है। आदेश में कहा गया है कि राज्य सरकार द्वारा अपने कानून बना लिये जाने के बाद सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुपालन की बाध्यता समाप्त हो जायेगी इसलिए कई राज्यों ने आनन-फानन में नये पुलिस अधिनियम बनाकर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की मूल भावना को ठेंगा दिखाया है।