Sunday, 6 September 2015

 घरेलू हिंसा पीडि़त पति भी है कोई उसकी सुनता नहीं
आम तौर पर कानून की नजर में पत्नी निरीह और पीडि़त मानी जाती है। उसके साथ ससुराल में हर स्तर पर अन्याय किया जाता है उसे दहेज के लिए प्रताडि़त किया जाता है परन्तु वास्तव में हर समय यही सच नहीं होता। कई बार पति पत्नी की तुलना में ज्यादा पीडि़त और अकेला होता है। माँ और पत्नी के बीच में पिसता रहता है परन्तु सार्वजनिक स्तर पर उसे ही दोषी माना जाता है।
पिछले दिनों एक पढ़ी लिखी उद्यमी पत्नी ने अपने पति के गाल पर समोसा रगडा और फिर वहीं पर पति के साथ मार पीट करके उसे अपमानित किया। इस घटना को देखने वाले सभी लोगों ने पति को उसकी कायरता के लिए धिक्कारा परन्तु पति ने उसके विरूद्ध कहीं कोई शिकायत दर्ज नही कराई। पत्नी आज भी साधिकार पतिग्रह में रह रही है अपने तरीके से पति के खर्चे पर अपनी जीवन जीती है। पत्नी इस मामले मंे हर तरह से दोषी है और जानबूझकर अपने पति और सास ससुर को अपमानित करके प्रताडि़त कर रही है परन्तु कानून में पत्नी को दण्डित कराने की कोई व्यवस्था न होने के कारण पति असहाय होकर उत्पीड़न झेलने को अभिशप्त है।
वास्तव में पति पत्नी के विवाद में पति और उसके निकटतम सम्बन्धियों को दोषी मानने की अवधारणा ने पति को अन्याय का शिकार बना दिया है। शादी के बाद प्रायः दहेज को लेकर घर में विवाद होते रहते है परन्तु इस प्रकार के वास्तविक विवाद पुलिस के स्तर तक नहीं जाते। पति पत्नी के बीच किन्ही और कारणों को लेकर विवाद उत्पन्न होते है। दोनों की एक समान पढ़ाई लिखाई और उसके कारण अपने आपको सामने वाले से ज्यादा श्रेष्ठ मानने की प्रवृत्ति दाम्पत्य विवादों का एक बड़ा कारण है। पारिवारिक स्तर पर सामंजस्य बिठा न पाने के कारण भी विवाद उत्पन्न होते है। दहेज की इन विवादों में कोई भूमिका नहीं होती परन्तु शिकायत दहेज को आधार बनाकर की जाती हैै जिसमें पति की विवाहित बहनों और उनके पतियों को भी शामिल कर लिया जाता है। प्रथम सूचना रिपार्ट दर्ज हो जाने के बाद पूरा परिवार आत्म ग्लानि का शिकार हो जाता है और फिर पत्नी मनमाफिक तरीके से पति को समझौता करने के लिए विवश करती हैै।
डामेस्टिक वायलेन्स एक्ट के तहत शुरुआत में ही पति को दोषी मान लिया जाता है। जबकि आपराधिक न्यायशास्त्र का नियम है कि जब तक दोष सिद्ध न हो जाये तब तक आरोपी को निर्दोष माना जाना चाहिये। कहा जाता है कि दस दोषी छूट जायें परन्तु किसी भी दशा में एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए लेकिन डामेस्टिक वायलेन्स एक्ट के तहत की गई शिकायतों पर पति को शुरुआत में ही  दोषी मानकर जमानत कराने के लिए मजबूर किया जाता है और फिर अदालती कार्यवाही के दौरान उसे नित्य पति अपमानित भी होना पड़ता है।
पुलिस स्टेशनों पर पति की शिकायत पर पत्नी के विरूद्ध मुकदमा पंजीकृत नहीं किया जाता जबकि पति भी घरेलू हिंसा का शिकार होता है वास्तव में डामेस्टिक वायलेन्स एक्ट सीताओं को उत्पीड़न से बचाने के लिए बनाया गया था परन्तु व्यवहार में इसका लाभ केवल सूर्पनखाओं को प्राप्त होता रहा है। सम्पूर्ण देश में पति अपनी पत्नियों द्वारा पंजीकृत कराये गये आपराधिक मुकदमों से उत्पीडि़त हो रहे है। परन्तु उनकी व्यथा को समझने के लिए कोई तैयार नहीं है। एक स्कूल टीचर ने कक्षा 9 के अपने विद्यार्थी को अपने साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए उत्प्रेरित किया और फिर उससे उसके माता पिता की इच्छा के प्रतिकूल आर्य समाज मन्दिर में शादी कर ली। इस विवाह में दहेज की कोई भूमिका नहीं थी परन्तु पत्नी ने थाना किदवई नगर कानपुर नगर में अपने नाबालिग पति और उसके माता पिता के विरूद्ध दहेज उत्पीड़न के आरोप में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करा दी है। पति ने भी अपनी पत्नी के विरूद्ध थाने में शिकायती पत्र दिया है परन्तु उसकी शिकायत पर प्रथम सूचना रिपोर्ट अभी तक दर्ज नहीं की गई।
दाम्पत्य विवादों को पत्नी के विरूद्ध अपराध की तरह देखने और मानने के कारण पतियों का उत्पीड़न तेजी से बढ़ा है। हलाँकि सात वर्ष तक की सजा के आपराधिक मामलों मंे विश्वसनीय साक्ष्य संकलित किये बिना गिरफ्तारी पर रोक लग जाने के कारण तत्काल जेल जाने का खतरा टल गया है। परन्तु यदि पत्नी की मनमर्जी के अनुसार पति पक्ष समझौते के लिए तैयार नहीं होता तो उसे जमानत करानी ही पड़ती है और फिर विचारण का सामना करना पड़ता है जो कई वर्ष तक चलता है। दाम्पत्य विवादों को अपराध मानने की अवधारणा का उद्देश्य कुछ भी रहा हो परन्तु अब इसका जमकर दुरुपयोग हो रहा है। वृद्ध दादा दादी और किशोर भाई बहनों को मुस्लिम बना देना आम बात हो गई है दाम्पत्य विवाद पारिवारिक सामाजिक समस्या है और उसे इसी रूप में देखा जाना चाहिये। पारिवारिक ताना बाना और सामाजिक शक्तियाँ निरन्तर कमजोर होती जा रही है आज हर व्यक्ति अपने को केन्द्र बिन्दु मानकर निर्णय चाहता है जो पारिवारिक जीवन में सम्भव नहीं है। सभी को एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना होगा। एक लड़की पत्नी के साथ माँ, बहन, बुआ, चाची, मामी और भाभी भी होती हैं इसलिए उत्पीड़न की शिकायत दर्ज करने के पहले उसे और उसके माता पिता को  सभी पारिवारिक पहलुओं पर विचार करना चाहिए और घर के स्तर पर पति पत्नी को अपने मतभेद दूर करने के अवसर दिये जाने चाहिए।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498ए, 304बी एवं 3/4 दहेज प्रतिषेध अधिनियम के मुकदमांे में विवेचना क्षेत्राधिकारी स्तर के पुलिस अधिकारी से कराई जाती है और इसके पीछे विधायिका की मंशा थी कि सम्पूर्ण घटनाक्रम की जांच निष्पक्ष पारदर्शी तरीके से हो ताकि किसी निर्दोष के विरूद्ध आरोप पत्र दाखिल न  हो सके परन्तु क्षेत्राधिकारी अपने स्तर पर पारिवारिक मतभेदों को दूर करने के लिए कभी कोई प्रयास नहीं करता बल्कि सभी नामजद लोगों के विरूद्ध आरोप पत्र विचारण के लिए प्रेषित कर देता है। एक मामले में पत्नी की मृत्यु प्रसव के दौरान अस्पताल में हुई। परन्तु लड़की के पिता नेे दहेज हत्या का मुकदमा पंजीकृत करा दिया। जिसमें पन्द्रह वर्ष पहले ब्याही गई बहन और उसके पति को भी मुल्जिम बनाया गया चिकित्सकीय साक्ष्य से दहेज हत्या का कोई मामला नहीं बनता था परन्तु सम्पूर्ण परिवार को अदालत ने धारा 304बी के तहत निर्दोष पाया और दहेज प्रतिषेध अधिनियम के तहत पति और उसके नातेदारों को दोषी मानने की अवधारण के कारण तीन वर्ष के सक्षम कारावास से दण्डित किया।
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498ए, 304बी, 306 दहेज प्रतिषेध अधिनियम की धारा 3/4 साक्ष्य अधिनियम की धारा 113बी और डामेस्टिक वायलेन्स एक्ट महिलाओं की सुरक्षा के लिए अधिनियमित किये गये है परन्तु अब यह धाराये पतियों के विरूद्ध विधिक आतंक से कम नहीं है। इन धाराओं के आतंक के कारण पति अपनी पत्नी की मनमानी झेलने के लिए अभिशप्त है। अभियोजन एजेन्सी भी इन धाराओे का अनुचित सहारा लेकर पति अैर उसके नातेदारों का उत्पीड़न करती हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रीती गुप्ता बनाम स्टेट आफ आर झारखण्ड (ए.आई.आर-2010- सुप्रीमकोर्ट- पेज 3313) में इन धाराओं के दरुपयोग पर चिन्ता व्यक्त की है। विधि आयोग ने भी इन धाराओ में संशोधन की सिपारिस की है परन्तु सरकार के स्तर पर अभी तक कोई सकारात्मक पहल नहीं की गयी हैं।


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