कानपुर हो या गुवाहाटी अपना देश अपनी माटी, विभिन्नता में एकता भारत की विशेषता, का नारा लगाते समय विद्यार्थी जीवन में हम सब देश की एकता अखण्डता को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करते थे और मन ही मन उत्साहित रहते थे परन्तु जीवन के संध्याकाल में इन नारो के सन्देश का खोखलापन अब हमें डराने लगा है। अहसास होता है कि कोई भी नारा लगाया जाये या कुछ भी कहा जाये परन्तु जमीनी स्तर पर हम आगामी चुनाव में वोट बैक से मजबूत रखने के लिए करते वही है जिससे धार्मिक उन्माद और कट्टरपन को बढ़ाया मिलता है। असहिष्णुता और साम्प्रदायिक असद्भाव को बढ़ने बढ़ाने के आरोप प्रत्यारोप के बीच शुक्र है कि महामहिम राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने खुद को पहचानने का जोखिम उठाया और देशवासियों को भी उनकी पहचान की याद दिलाकर बता दिया कि सद्भाव और सहिष्णुता भारत के राष्ट्र जीवन का मूल आधार है।
प्राथमिक कक्षाओं की पढ़ाई के दौरान नित्य प्रति स्कूल में ”ईश्वर अल्ला एक ही नाम सबको सम्मति दे भगवान“ के प्रार्थना की जाती थी। सभी धर्मो के विद्याथिर्यों को इस प्रकार की प्रार्थनाओं के माध्यम से धार्मिक सहिष्णुता बनाये रखने के संस्कार दिये जाते थे। कल करखानो में भी सभी लोग एक दूसरे की धार्मिक भावनओं का सम्मान करते हुए पसीना बहाकर अपनी जीविका कमाते थे। कही कोई धार्मिक उन्माद या कट्टरता नही थी। पता ही नही चला कब कहाँ ”ईश्वर अल्ला एक ही नाम“ वाला सद्भाव खो गया और मण्डल कमण्डल के अभियान ने समाज का पूरा ताना बाना बिगाड़कर जाति धर्म की टूटती दीवारों को पहले में ज्यादा मजबूत कर दिया है। 21वीं सदी के भारत में बकरे के माँस को गोमाँस बताकर बिसाहड़ा गाँव में अखलाक की हत्या को भी वोट बैंक की तरह देखने जाने से कोई आहत नहीं हो रहा है। राष्ट्र के स्तर पर इस प्रकार की मानसिकता शर्म का विषय है परन्तु शासक होने के नाते जिन्हें शर्मिन्दगी महसूस करनी चाहिए उन्होेंने इस घटना को एक हादसा बताकर पूरे देश को अपमानित किया है।
राजनैतिक कारणों से धार्मिक असहिष्णुता को बढ़ाया जा रहा है और उसके कारण समान में प्रत्येक स्तर पर एक दूसरे पर विश्वास और सामाजिक सद्भाव नित्य प्रति कम होता जा रहा है और कट्टरता बढ़ रही है। मामूली बातों पर साम्प्रदायिक उन्माद का माहौल बन जाता है और इससे खुराफात की साजिश रचने वालो को कोई न कोई बहाना मिल ही जाता है। इस समस्या को समझने और उसके नियन्त्रण की जरूरत है परन्तु इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास होता दिखता नहीं है। वास्तव मे धार्मिक उन्माद और असहिष्णुता राजनैतिक समस्या नहीं है। इसका सम्बन्ध समाज और संस्कृति से है परन्तु समाधान की अपेक्षा राजनीति से की जा रही है जबकि सबको पता है कि समाज राजनीतिज्ञो पर बिल्कुल विश्वास नहीं करता। वास्तव में राजनीतिज्ञो की कथनी करनी में भयंकर विरोधाभास है और वे नही चाहते कि समाज में समरसता कायम रहे।
बिसाहड़ा अखलाक की निर्भय हत्या के पहले एम.एम. कालवर्गी नरेन्द्र दाभोलकर और गोविन्द पनसारे की हत्यायें भी धार्मिक कट्टरता का प्रतिफल है इन घटनाओं ने समाज को झकझोरा है और इसीलिए राष्ट्रपति ने देशवासियों को भारत की मूल परम्परा की याद दिलायी है और उन बुनियादी मूल्यों को रेखांकित किया है जिनका पालन समाज को करना चाहिये। सहिष्णुता, सहनशीलता और एक दूसरे के विचारों का सम्मान भारतीय समाज की विशेषता है और इन्ही शाश्वत मूल्यों को अपनाने के कारण ”कुछ है जो हस्ती मिटती नही हमारी“ की श्रेष्ठता के साथ हम आदिकाल से जीते चले आ रहे है।
धार्मिक उन्माद की बढ़ती घटनाओं के बीच प्रधानमन्त्री का मौन चिन्ता का विषय है परन्तु उनके स्वाभाविक सहयोगी शिवसेना ने इस विषय में सराहनीय काम किया है। शिवसेवा के मुखपत्र सामना के सम्पादकीय में ठीक ही लिखा गया है कि कलबुर्गी नरेन्द्र दाभोलकर तथा कम्युनिस्ट कार्यकर्ता गोविन्द पन्सारे को अपने विचार व्यक्त करने की पूरी स्वतन्त्ऱता थी। विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर हमला किसी स्वतन्त्र देश की आत्मा की हत्या के समान है। अगर हिन्दुत्व के नाम देश में विरोधी आवाजों को इसी प्रकार समाप्त किया जाता रहा तो भारत तालिबानी आतंकवाद की आलोचना करने का अपना हक खो देगा।