Sunday, 11 October 2015

कट्टरता नहीं विभिन्नता में एकता भारत की विशेषता

                                                 

कानपुर हो या गुवाहाटी अपना देश अपनी माटी, विभिन्नता में एकता भारत की विशेषता, का नारा लगाते समय विद्यार्थी जीवन में हम सब देश की एकता अखण्डता को अक्षुण्य बनाये रखने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करते थे और मन ही मन उत्साहित रहते थे परन्तु जीवन के संध्याकाल में इन नारो के सन्देश का खोखलापन अब हमें डराने लगा है। अहसास होता है कि कोई भी नारा लगाया जाये या कुछ भी कहा जाये परन्तु जमीनी स्तर पर हम आगामी चुनाव में वोट बैक से मजबूत रखने के लिए करते वही है जिससे धार्मिक उन्माद और कट्टरपन को बढ़ाया मिलता है। असहिष्णुता और साम्प्रदायिक असद्भाव को बढ़ने बढ़ाने के आरोप प्रत्यारोप के बीच शुक्र है कि महामहिम राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने खुद को पहचानने का जोखिम उठाया और देशवासियों को भी उनकी पहचान की याद दिलाकर बता दिया कि सद्भाव और सहिष्णुता भारत के राष्ट्र जीवन का मूल आधार है।
प्राथमिक कक्षाओं की पढ़ाई के दौरान नित्य प्रति स्कूल में ”ईश्वर अल्ला एक ही नाम सबको सम्मति दे भगवान“ के प्रार्थना की जाती थी। सभी धर्मो के विद्याथिर्यों को इस प्रकार की प्रार्थनाओं के माध्यम से धार्मिक सहिष्णुता बनाये रखने के संस्कार दिये जाते थे। कल करखानो में भी सभी लोग एक दूसरे की धार्मिक भावनओं का सम्मान करते हुए पसीना बहाकर अपनी जीविका कमाते थे। कही कोई धार्मिक उन्माद या कट्टरता नही थी। पता ही नही चला कब कहाँ ”ईश्वर अल्ला एक ही नाम“ वाला सद्भाव खो गया और मण्डल कमण्डल के अभियान ने समाज का पूरा ताना बाना बिगाड़कर जाति धर्म की टूटती दीवारों को पहले में ज्यादा मजबूत कर दिया है। 21वीं सदी के भारत में बकरे के माँस को गोमाँस बताकर बिसाहड़ा गाँव में अखलाक की हत्या को भी वोट बैंक की तरह देखने जाने से कोई आहत नहीं हो रहा है। राष्ट्र के स्तर पर इस प्रकार की मानसिकता शर्म का विषय है परन्तु शासक होने के नाते जिन्हें शर्मिन्दगी महसूस करनी चाहिए उन्होेंने इस घटना को एक हादसा बताकर पूरे देश को अपमानित किया है।
राजनैतिक कारणों से धार्मिक असहिष्णुता को बढ़ाया जा रहा है और उसके कारण समान में प्रत्येक स्तर पर एक दूसरे पर विश्वास और सामाजिक सद्भाव नित्य प्रति कम होता जा रहा है और कट्टरता बढ़ रही है। मामूली बातों पर साम्प्रदायिक उन्माद का माहौल बन जाता है और इससे खुराफात की साजिश रचने वालो को कोई न कोई बहाना मिल ही जाता है। इस समस्या को समझने और उसके नियन्त्रण की जरूरत है परन्तु इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास होता दिखता नहीं है। वास्तव मे धार्मिक उन्माद और असहिष्णुता राजनैतिक समस्या नहीं है। इसका सम्बन्ध समाज और संस्कृति से है परन्तु समाधान की अपेक्षा राजनीति से की जा रही है जबकि सबको पता है कि समाज राजनीतिज्ञो पर बिल्कुल विश्वास नहीं करता। वास्तव में राजनीतिज्ञो की कथनी करनी में भयंकर विरोधाभास है और वे नही चाहते कि समाज में समरसता कायम रहे। 
बिसाहड़ा अखलाक की निर्भय हत्या के पहले एम.एम. कालवर्गी नरेन्द्र दाभोलकर और गोविन्द पनसारे की हत्यायें भी धार्मिक कट्टरता का प्रतिफल है इन घटनाओं ने समाज को झकझोरा है और इसीलिए राष्ट्रपति ने देशवासियों को भारत की मूल परम्परा की याद दिलायी है और उन बुनियादी मूल्यों को रेखांकित किया है जिनका पालन समाज को करना चाहिये। सहिष्णुता, सहनशीलता और एक दूसरे के विचारों का सम्मान भारतीय समाज की विशेषता है और इन्ही शाश्वत मूल्यों को अपनाने के कारण ”कुछ है जो हस्ती मिटती नही हमारी“ की श्रेष्ठता के साथ हम आदिकाल से जीते चले आ रहे है।
धार्मिक उन्माद की बढ़ती घटनाओं के बीच प्रधानमन्त्री का मौन चिन्ता का विषय है परन्तु उनके स्वाभाविक सहयोगी शिवसेना ने इस विषय में सराहनीय काम किया है। शिवसेवा के मुखपत्र सामना के सम्पादकीय में ठीक ही लिखा गया है कि कलबुर्गी नरेन्द्र दाभोलकर तथा कम्युनिस्ट कार्यकर्ता गोविन्द पन्सारे को अपने विचार व्यक्त करने की पूरी स्वतन्त्ऱता थी। विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर हमला किसी स्वतन्त्र देश की आत्मा की हत्या के समान है। अगर हिन्दुत्व के नाम देश में विरोधी आवाजों को इसी प्रकार समाप्त किया जाता रहा तो भारत तालिबानी आतंकवाद की आलोचना करने का अपना हक खो देगा।

Monday, 5 October 2015

बिसाहड़ा में दोषियों को सजा, किसी की प्राथमिकता में नहीं


केन्द्रीय पर्यटन एवं सास्कृतिक मन्त्री श्री महेश शर्मा ने नई दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा के  बिसाहड़ा गाँव की घटना को एक हादसा बताकर उसकी क्रूरता को कमतर करने का प्रयास किया है। वही दूसरी ओर साध्वी प्राची ने गोमाँस के नाम पर इकलाख की क्रूर हत्या को जायज बताकर इस प्रकार की साम्प्रदायिक उन्मादी घटनाओं की पुनरावृत्ति का घातक संकेत दिया है। इन दोनो बयानो ने जाँच एजेन्सियांे को अपनी हद में रहने की नसीहत दी है और इसके द्वारा स्पष्ट कर दिया है कि इस घटना के कारणों की तह तक पहुँचने के प्रयासों का परिणाम हितकर नहीं होगा। दाषियांे को सजा दिलाना किसी की भी प्राथमिकता में नहीं है।
बिसाहड़ा गाँच की घटना एक सोची समझी उन्मादी साजिश का प्रतिफल हैं। इस घटना के लिए दो चार व्यक्ति नहीं बल्कि एक विशेष प्रकार का सोच जिम्मेदार है। घटना के बाद आस-पास के सभी लोगों ने इकलाख की हत्या और उनके बेटे पर जानलेवा हमला को गलत बताया परन्तु साथ ही साथ पुलिस की कार्यवाही को एक पक्षीय बताना भी उन सब ने   आवश्यक माना है। सभी भारी संख्या में इकलाख के घर पर उन्मादियों की उपस्थिति स्वीकार करते है परन्तु उनकी पहचान बताने के लिए तैयार नहीं हैं। इस प्रकार की घटनाओं के लिए  यही सबसे बड़ी त्रासदी है। समुचित साक्ष्य के साथ दोषियों की पहचान सुनिश्चित कराये बिना किसी भी आरोपी अदालत दण्डित नहीं कर सकती और इसी कारण प्रायः साम्प्रदायिक घटनाओं में दोषियों को सजा नहीं मिलती और उनका मनोबल बढ़ता रहता है। वास्तव में इस प्रकार की घटनाओं से तात्कालिक राजनैतिक लाभ प्राप्त करना राजनेताओं का पसंदीदा शौक है।
केन्द्रीय मन्त्री द्वारा इस घटना को हादसा बताये जाने के बाद जाँच एजेन्सियों के लिए विवेचना के दौरान दोषियों को विरुद्ध समुचित साक्ष्य संकलित करना कठिन हो गया है। स्थानीय महिलाओं ने इस घटना की रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकारों पर हमला करके अपना मन्तव्य स्पष्ट कर दिया है। इस हमले के पीछे भी किसी न किसी राजनेता की साजिश है। कोई नही चाहता कि घटना के वास्तविक दाषियों को चिन्हित किया जा सके और इसीलिए   आस-पास का कोइ्र व्यक्ति जाँच एजेन्सियों के साथ कोई सहयोग नहीं करेगा। बल्कि उन्हें गुमराह करने का प्रयास किया जायेगा। अन्ततः उसका लाभ दोषियों को प्राप्त होगा। आज विवेचक अपनी केस डायरी में साक्षियों का कोई भी बयान लिखकर आरोप पत्र विचारण के लिए अदालत भेज दे परन्तु अदालत के सामने विचारण के समय अभियोजन साक्षियों का पक्षद्रोही होना सुनिश्चित सा दिख रहा है।
केन्द्र या राज्य दोनों के जिम्मेदार मन्त्री वास्तविक दोषियों को चिन्हित करने के लिए जाँच एजेन्सियों को अपने विवेक पर निर्णय लेने की स्वतऩ्त्रता देने के लिए तैयार नहीं है। कहते सभी है कि उन्मादियों की कोई जाति या धर्म नही होता। वे केवल और केवल उन्मादी होते है परन्तु सत्यता सदा इसके प्रतिकूल होती हंै कोई न कोई राजनेता अपने कारणों से उन्मादियों की मदद करता है क्योंकि यही उन्मादी उनकी राजनैतिक फसल के लिए खाद, पानी का काम करते है। कुछ वर्ष पहले कानपुर में सम्प्रदायिक घटनाओं के दौरान एक दस वर्षीय बच्ची के सामने उन्मादियों न उसके दुधमुँहे भाई का पैर पकड़कर पत्थर पर पटककर मार डाला था। उस बच्ची ने दाषियों की पहचान भी बताई थी। पुलिस ने आरोप पत्र भी प्रेषित किया परन्तु विचारण समय साक्ष्य देने के लिए उस बच्ची को अभियोजन एजेन्सियाँ अदालत के समक्ष प्रस्तुत नहीं कर सकी। अपनी आँखों के सामने इतना क्रूर मंजर देखने के बाद उसके माँ बाप मकान छोड़कर चले गये और पुलिस ने भी दोषियों को सजा दिलाने के लिए उनकों खोजने का कोई प्रयास नहीं किया और सभी अभियुक्त साक्ष्य के आभाव में दोषमुक्त कर दिये गये। उस बच्ची की कहानी और उसका चेहरा जब भी मुझे याद आता है, मन दहल जाता है और इस मामले में कुछ भी न कर पाने की मजबूरी पर ग्लानि महसूस होती है।
बिसाहड़ा जैसी घटनाओं में साम्प्रदायिक कारणों से दोषियांे के विरुद्ध अदालत के सामने अभियोजन एजेन्सियाँ समुचित विश्वसनीय साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर पाती। सरकारों के स्तर पर दाषियों को दण्डित कराने के लिए संघठित प्रयास कराने की अपेक्षा मुआवजे के नाम पर कुछ धनराशि बाँटकर उसका राजनैतिक फायदा उठाने में सभी की दिलचस्पी ज्यादा होती है। इस मामले में भी यही हो रहा हैं। स्थानीय पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार कर लिया है। इसके बाद मनमाने तरीके से साक्षियों के बयान अंकित करके विचारण के लिए आरोप पत्र अदालत भेजकर स्थानीय पुलिस अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेगी और मान लेगी कि अब इसके आगे की कार्यवाही अदालत के सरकारी वकील की जिम्मेदारी है जबकि उसे मालूम है कि सरकारी वकील की अपनी सीमाएँ पहले से निर्धारित है उसकी नियुक्ति सत्तारूढ़ दल के किसी सांसद या विधायक की सिफारिश पर होती है और हर तीन साल बाद उसके कार्यकाल का नवीनीकरण और सांसद या विधायक की सिफारिश पर ही किया जाता है। साम्प्रदायिक घटनाओं में प्रायः भावी राजनेता दोषी होते है जो किसी न किसी वर्तमान राजनेता के निकटतम होते है। ऐसे दोषियों के विरुद्ध समुचित तैयारी के साथ अदालत के सामने साक्षी परीक्षित करा के अपने नवीनीकरण को जोखिम में डालने की अपेक्षा सरकारी वकील से सभी करते है। उससे सभी निष्पक्षता और पारदर्शिता की अपेक्षा करते है परन्तु उसको अपनी पदीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए विवेकीय शक्तियों का प्रयोग करने की छूट देने के लिए राजनेता तैयार नहीं है। सरकारी वकीलों पर राजनेताओं के शिकंजे के कारण गवाहों को पक्ष द्रोहिता के लिए अवसर उपलब्ध कराना उनकी मजबूरी होती है और इसीलिए राजनैतिक कसूर वाले दाषियों को सजा नहीं हो पाती। बिसाहड़ा मामले में भी ऐसा ही नहीं होगा इसकी  गारण्टी प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी या मुख्यमंत्री अखिलेश यादव देने के लिए तैयार नहीं है।