Monday, 5 October 2015

बिसाहड़ा में दोषियों को सजा, किसी की प्राथमिकता में नहीं


केन्द्रीय पर्यटन एवं सास्कृतिक मन्त्री श्री महेश शर्मा ने नई दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा के  बिसाहड़ा गाँव की घटना को एक हादसा बताकर उसकी क्रूरता को कमतर करने का प्रयास किया है। वही दूसरी ओर साध्वी प्राची ने गोमाँस के नाम पर इकलाख की क्रूर हत्या को जायज बताकर इस प्रकार की साम्प्रदायिक उन्मादी घटनाओं की पुनरावृत्ति का घातक संकेत दिया है। इन दोनो बयानो ने जाँच एजेन्सियांे को अपनी हद में रहने की नसीहत दी है और इसके द्वारा स्पष्ट कर दिया है कि इस घटना के कारणों की तह तक पहुँचने के प्रयासों का परिणाम हितकर नहीं होगा। दाषियांे को सजा दिलाना किसी की भी प्राथमिकता में नहीं है।
बिसाहड़ा गाँच की घटना एक सोची समझी उन्मादी साजिश का प्रतिफल हैं। इस घटना के लिए दो चार व्यक्ति नहीं बल्कि एक विशेष प्रकार का सोच जिम्मेदार है। घटना के बाद आस-पास के सभी लोगों ने इकलाख की हत्या और उनके बेटे पर जानलेवा हमला को गलत बताया परन्तु साथ ही साथ पुलिस की कार्यवाही को एक पक्षीय बताना भी उन सब ने   आवश्यक माना है। सभी भारी संख्या में इकलाख के घर पर उन्मादियों की उपस्थिति स्वीकार करते है परन्तु उनकी पहचान बताने के लिए तैयार नहीं हैं। इस प्रकार की घटनाओं के लिए  यही सबसे बड़ी त्रासदी है। समुचित साक्ष्य के साथ दोषियों की पहचान सुनिश्चित कराये बिना किसी भी आरोपी अदालत दण्डित नहीं कर सकती और इसी कारण प्रायः साम्प्रदायिक घटनाओं में दोषियों को सजा नहीं मिलती और उनका मनोबल बढ़ता रहता है। वास्तव में इस प्रकार की घटनाओं से तात्कालिक राजनैतिक लाभ प्राप्त करना राजनेताओं का पसंदीदा शौक है।
केन्द्रीय मन्त्री द्वारा इस घटना को हादसा बताये जाने के बाद जाँच एजेन्सियों के लिए विवेचना के दौरान दोषियों को विरुद्ध समुचित साक्ष्य संकलित करना कठिन हो गया है। स्थानीय महिलाओं ने इस घटना की रिपोर्टिंग कर रहे पत्रकारों पर हमला करके अपना मन्तव्य स्पष्ट कर दिया है। इस हमले के पीछे भी किसी न किसी राजनेता की साजिश है। कोई नही चाहता कि घटना के वास्तविक दाषियों को चिन्हित किया जा सके और इसीलिए   आस-पास का कोइ्र व्यक्ति जाँच एजेन्सियों के साथ कोई सहयोग नहीं करेगा। बल्कि उन्हें गुमराह करने का प्रयास किया जायेगा। अन्ततः उसका लाभ दोषियों को प्राप्त होगा। आज विवेचक अपनी केस डायरी में साक्षियों का कोई भी बयान लिखकर आरोप पत्र विचारण के लिए अदालत भेज दे परन्तु अदालत के सामने विचारण के समय अभियोजन साक्षियों का पक्षद्रोही होना सुनिश्चित सा दिख रहा है।
केन्द्र या राज्य दोनों के जिम्मेदार मन्त्री वास्तविक दोषियों को चिन्हित करने के लिए जाँच एजेन्सियों को अपने विवेक पर निर्णय लेने की स्वतऩ्त्रता देने के लिए तैयार नहीं है। कहते सभी है कि उन्मादियों की कोई जाति या धर्म नही होता। वे केवल और केवल उन्मादी होते है परन्तु सत्यता सदा इसके प्रतिकूल होती हंै कोई न कोई राजनेता अपने कारणों से उन्मादियों की मदद करता है क्योंकि यही उन्मादी उनकी राजनैतिक फसल के लिए खाद, पानी का काम करते है। कुछ वर्ष पहले कानपुर में सम्प्रदायिक घटनाओं के दौरान एक दस वर्षीय बच्ची के सामने उन्मादियों न उसके दुधमुँहे भाई का पैर पकड़कर पत्थर पर पटककर मार डाला था। उस बच्ची ने दाषियों की पहचान भी बताई थी। पुलिस ने आरोप पत्र भी प्रेषित किया परन्तु विचारण समय साक्ष्य देने के लिए उस बच्ची को अभियोजन एजेन्सियाँ अदालत के समक्ष प्रस्तुत नहीं कर सकी। अपनी आँखों के सामने इतना क्रूर मंजर देखने के बाद उसके माँ बाप मकान छोड़कर चले गये और पुलिस ने भी दोषियों को सजा दिलाने के लिए उनकों खोजने का कोई प्रयास नहीं किया और सभी अभियुक्त साक्ष्य के आभाव में दोषमुक्त कर दिये गये। उस बच्ची की कहानी और उसका चेहरा जब भी मुझे याद आता है, मन दहल जाता है और इस मामले में कुछ भी न कर पाने की मजबूरी पर ग्लानि महसूस होती है।
बिसाहड़ा जैसी घटनाओं में साम्प्रदायिक कारणों से दोषियांे के विरुद्ध अदालत के सामने अभियोजन एजेन्सियाँ समुचित विश्वसनीय साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर पाती। सरकारों के स्तर पर दाषियों को दण्डित कराने के लिए संघठित प्रयास कराने की अपेक्षा मुआवजे के नाम पर कुछ धनराशि बाँटकर उसका राजनैतिक फायदा उठाने में सभी की दिलचस्पी ज्यादा होती है। इस मामले में भी यही हो रहा हैं। स्थानीय पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ्तार कर लिया है। इसके बाद मनमाने तरीके से साक्षियों के बयान अंकित करके विचारण के लिए आरोप पत्र अदालत भेजकर स्थानीय पुलिस अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेगी और मान लेगी कि अब इसके आगे की कार्यवाही अदालत के सरकारी वकील की जिम्मेदारी है जबकि उसे मालूम है कि सरकारी वकील की अपनी सीमाएँ पहले से निर्धारित है उसकी नियुक्ति सत्तारूढ़ दल के किसी सांसद या विधायक की सिफारिश पर होती है और हर तीन साल बाद उसके कार्यकाल का नवीनीकरण और सांसद या विधायक की सिफारिश पर ही किया जाता है। साम्प्रदायिक घटनाओं में प्रायः भावी राजनेता दोषी होते है जो किसी न किसी वर्तमान राजनेता के निकटतम होते है। ऐसे दोषियों के विरुद्ध समुचित तैयारी के साथ अदालत के सामने साक्षी परीक्षित करा के अपने नवीनीकरण को जोखिम में डालने की अपेक्षा सरकारी वकील से सभी करते है। उससे सभी निष्पक्षता और पारदर्शिता की अपेक्षा करते है परन्तु उसको अपनी पदीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए विवेकीय शक्तियों का प्रयोग करने की छूट देने के लिए राजनेता तैयार नहीं है। सरकारी वकीलों पर राजनेताओं के शिकंजे के कारण गवाहों को पक्ष द्रोहिता के लिए अवसर उपलब्ध कराना उनकी मजबूरी होती है और इसीलिए राजनैतिक कसूर वाले दाषियों को सजा नहीं हो पाती। बिसाहड़ा मामले में भी ऐसा ही नहीं होगा इसकी  गारण्टी प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी या मुख्यमंत्री अखिलेश यादव देने के लिए तैयार नहीं है।

No comments:

Post a Comment