कन्या दान बिटिया के स्वतंत्र अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न
कितना अपमानजनक है
एक स्त्री का दान करना
आदरणीया उर्वशी जी की कविता के उक्त संदेश के साथ मेरी सहमति कुछ विद्वान मित्रो को अच्छी नही लगी । मै खुद मानता हूँ कि पाणिग्रहण संस्कार के अवसर पर कन्या दान का कोई औचित्य नहीं है। बिटिया वस्तु नही होती । उसका अपना एक स्वतंत्र गरिमामय अस्तित्व होता है और दान से उसका अपना अस्तित्व खत्म हो जाता है और वह अकारण पराधीन बन जाती है । " दाम्पत्य सूत्र बन्धन " से बिटिया को उसके पति के संरक्षण मे देने की अवधारणा प्रगट नही होती । इसमे समता और समानता का भाव निहित है । दोनो मे से कोई किसी के अधीनस्थ नही है । सदियों पहले बिटिया को दितीय श्रेणी के पारिवारिक सदस्य के रूप मे पाला पोसा जाता था । बचपन से विवाह तक पिता और भाई , विवाह के बाद पति के संरक्षण मे रहना उसकी बाध्यता थी । आज हर माता पिता अपनी बिटिया को बेटे की तरह पालता परोसता है । उसे खुले आसमान मे उड़ने के लिए हर प्रकार की सुविधा और संस्कार देता है ।बेटियों ने भी मेहनत और लगन से अपनी सक्षमता साबित की है और ऐसी कोई योग्यता नही जो वे खुद अर्जित न कर सकती हो ।इन स्थितियों मे विवाह के समय केवल बिटिया होने के कारण उनको दान करने का धार्मिक या सामाजिक औचित्य मुझे समझ मे नही आता । हमारी कई परम्पराएं बेटियों को बेटों से कमतर बताती है । एक समय था जब बाल विवाह , सती प्रथा को धार्मिक या सामाजिक मान्यता थी । विधवा विवाह की कल्पना भी भयावह थी लेकिन सामाजिक जागरूकता और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण इन परम्पराओं को कुरीति मान लिया गया है । समय आ गया है , " कन्या दान" की अपमानजनक परम्परा को " कुरीति " के रूप मे मान्यता दिलाने का माहौल बनाया जाये । आदरणीया उर्वशी जी ने अपनी कविता के द्वारा संदेश देकर हम सबके लिए कुछ करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है ।
कितना अपमानजनक है
एक स्त्री का दान करना
आदरणीया उर्वशी जी की कविता के उक्त संदेश के साथ मेरी सहमति कुछ विद्वान मित्रो को अच्छी नही लगी । मै खुद मानता हूँ कि पाणिग्रहण संस्कार के अवसर पर कन्या दान का कोई औचित्य नहीं है। बिटिया वस्तु नही होती । उसका अपना एक स्वतंत्र गरिमामय अस्तित्व होता है और दान से उसका अपना अस्तित्व खत्म हो जाता है और वह अकारण पराधीन बन जाती है । " दाम्पत्य सूत्र बन्धन " से बिटिया को उसके पति के संरक्षण मे देने की अवधारणा प्रगट नही होती । इसमे समता और समानता का भाव निहित है । दोनो मे से कोई किसी के अधीनस्थ नही है । सदियों पहले बिटिया को दितीय श्रेणी के पारिवारिक सदस्य के रूप मे पाला पोसा जाता था । बचपन से विवाह तक पिता और भाई , विवाह के बाद पति के संरक्षण मे रहना उसकी बाध्यता थी । आज हर माता पिता अपनी बिटिया को बेटे की तरह पालता परोसता है । उसे खुले आसमान मे उड़ने के लिए हर प्रकार की सुविधा और संस्कार देता है ।बेटियों ने भी मेहनत और लगन से अपनी सक्षमता साबित की है और ऐसी कोई योग्यता नही जो वे खुद अर्जित न कर सकती हो ।इन स्थितियों मे विवाह के समय केवल बिटिया होने के कारण उनको दान करने का धार्मिक या सामाजिक औचित्य मुझे समझ मे नही आता । हमारी कई परम्पराएं बेटियों को बेटों से कमतर बताती है । एक समय था जब बाल विवाह , सती प्रथा को धार्मिक या सामाजिक मान्यता थी । विधवा विवाह की कल्पना भी भयावह थी लेकिन सामाजिक जागरूकता और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कारण इन परम्पराओं को कुरीति मान लिया गया है । समय आ गया है , " कन्या दान" की अपमानजनक परम्परा को " कुरीति " के रूप मे मान्यता दिलाने का माहौल बनाया जाये । आदरणीया उर्वशी जी ने अपनी कविता के द्वारा संदेश देकर हम सबके लिए कुछ करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है ।