Saturday, 23 February 2013

LABOUR'S PROBLEMS


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देश में पहली बार सभी श्रमिक संगठनांे ने अपनी अपनी दलीय प्रतिबद्वताओं से ऊपर उठकर श्रमिकों के प्रति अपने अपने दलो की सरकारो की नीतियो का जोरदार विरोध किया है। सारे देश के श्रमिको ने भी श्रमिक संगठनो को निराश नहीं किया है और दो दिवसीय हड़ताल को सफल बनाकर सन्देश दे दिया है कि उनकी अनदेखी सरकारो के लिए मँहगी हो सकती है।
        1974 की रेलवे हड़ताल के बाद श्रमिक संगठनो की ताकत कम हुई है। सरकारी नीतियों और उनके क्रियान्वयन में उघोगपतियों का वर्चस्व बढा है। निहित स्वार्थवश श्रम कानूनों को लागू कराने में सम्बन्धित अधिकारियों की रूचि खत्म हो गई है और इस सबके कारण एक लम्बे सत्त संघर्ष के बाद सामाजिक सुरक्षा के लिए मिली अधिकांश सुविधायें श्रमिको के हाथ से फिसलती जा रहीं है। कौन नही जानता कि निजी क्षेत्र ने अपने मुनाफे के लिए काम के घंटे बढा लिये है जिसे सभी स्तरो पर अघोषित स्वीकृति भी मिल गयी है। वहाँ आने का समय निर्धारित है जाने का कोई समय नहीं है। श्रमिको को उनके परिश्रम की तुलना में काफी कम वेतन दिया जाता है। इस सबको सहने के बावजूद कल से न आने के तुगलकी फरमान का खतरा हर क्षण नौकरी पर मंडराता रहता है।
        यह सच है कि आज देश में रोजगार के अवसर बढे है। सेवा क्षेत्र में युवक युवतियों को बड़े पैमाने पर रोजगार मिला है। उघोग धन्धों को स्थापित करने और उन्हें सुचारू रूप से चलाये रखने के लिए उघोगपतियों को मूलभूत सुविधायें उपलब्ध कराना और करो आदि मे विशेष रियायते देना सरकार का दायित्व है। किसी का भी इसमें कोई विरोध नहीं है परन्तु रियायतों के नाम पर श्रमिक हितो की अनदेखी किसी भी दशा में न्यायसंगत नहीं है। श्रमिक हितो में कटौती करके उघोग धन्धो के विकास की बात बेमानी है। अपने श्रम प्रधान देश में उघोग धन्धो को इस मूल्य पर विकास की अनुमति नहीं दी जा सकती।
        उघोगपतियों के प्रभाव में किसी युक्तियुक्त कारणो के बिना श्रमिक संगठनो को उत्पादन विराधी बताना एक फैशन है। एक साजिश के तहत देश की अधिकांश पुरानी मिलों की बन्दी के लिए श्रमिक संगठनो को दोषी मानने की हवा बना दी गई है जबकि सत्यता ठीक इसके प्रतिकूल है। कोई भी कारखाना श्रमिको की हड़ताल या श्रमिक अशान्ति के कारण बन्द नहीं हुआ है। सभी कारखाने अपने कुप्रबन्ध और समय के साथ नई टेक्नालाजी को न अपनाने के कारण बन्द हुये है। श्रमिको या श्रमिक संगठनो का इसमें कोई दोष नहीं है। सभी कारखानों में मालिको ने अपने अपने कारणो से पहले उत्पादन बन्द किया और फिर स्वेच्क्षिक सेवा निवृत्ति का झुनझुना पकड़ाकर कारखाने बन्द किये है। एन.डी.ए. शासनकाल में सार्वजनिक क्षेत्र की कपड़ा मिलो को आधुनिक बनाकर पूरी क्षमता से चलाने का कोई प्रयास नहीं किया गया बल्कि सरकारी निर्णय के तहत बन्द करके लाखो श्रमिको को बेरोजगार किया गया है। मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में इन मिलो में उत्पादन बन्द कराया था और एन.डी.ए. सरकार ने स्वेच्क्षिक सेवा निवृत्ति योजना लागू करके मिले बन्द कराई है और उनकी जमीन को बेचकर मुनाफा कमाने का निर्णय लिया। इस बिन्दु पर काँग्रेस या भाजपा दोनो की सोच में कोई अन्तर नहीं है। दोनो के नीतिगत निर्णय के कारण आम श्रमिक बेरोजगारी झेलने के लिए अभिशप्त है।
        सरकार के नीतिगत निर्णय के तहत स्थायी प्रकृति के कामो को ठेका श्रमिको से नहीं कराया जा सकता है परन्तु निजी क्षेत्र की बैंको, बीमा कम्पनियों, गैर बैकिंग फायनेन्स कम्पनियों और दूरसंचार क्षेत्र में  स्थायी प्रकृति के काम ठेका श्रमिको से खुले आम कराये जाते है। समान कार्य का समान वेतन के सिद्वान्त की अवहेलना सभी स्तरो पर जारी है। पदनाम बदलकर श्रमिकांे को उनके विधिपूर्ण अधिकारो से वंचित किया जाता है परन्तु श्रमिको के संगठित न होने के कारण इन क्षेत्रो में सरकारी एजेन्सियाँ अपना काम बखूबी नहीं करती और श्रमिक प्रबन्धको का उत्पीड़न झेलने के लिए अभिशप्त है।
        जो लोग आज श्रमिक संघो को उत्पादन विरोधी उघोग विरोधी बताते नहीं थकते उन्हें क्यो नहीं दिखता कि जिन प्रतिष्ठानो में श्रमिको के अपने संगठन नहीं है उन प्रतिष्ठानो में श्रमिको का उत्पीड़न बढा है। उघोगो के मुनाफे में श्रमिको को उनका वाजिब हक दिलाने की चिन्ता और उसके लिए संघर्श केवल श्रमिक संगठन करते है। कोई उघोगपति घराना या उघोगपतियो का संगठन श्रमिको के हितो की चिन्ता नहीं करता। यह सभी श्रमिको के शोषण के लिए नये नये तरीके ईजाद किया करते है।
        आठ घंटे की ड्यूटी, लगातार दो सौ चालीस दिन कार्य करने के बाद स्थायीकरणः, निश्चित समयावधि के बाद अनिवार्य वेतन वृद्वि, सवेतन अवकाश, चिकित्सा और भविष्यनिधि जैसी सामाजिक सुरक्षा की सुविधायें श्रमिको को किसी उघोगपति या सरकार की कृपा से नहीं मिली है। एक लम्बे सतत संघर्ष के बाद श्रमिको को यह सुविधायें नसीब हुई हैं परन्तु पिछले दो दशको में इन सुविधाओ को छीनने की प्रक्रिया तेजी से बढी है। उघोग धन्धो के लिए मूलभूत सुविधायें करो में विशेष रियायत और श्रमिकों के लिए नौकरी सम्मानजनक जीवन जीने के लिए समुचित वेतन की गारण्टी एक सिक्के के दो पहलू है। दोनों को अलग अलग करके नहीं देखा जा सकता। दोनों का समान महत्व है। इसमें से किसी की भी उपेक्षा देश के दूरगामी हितो के लिए घातक है। श्रमिक हितो की सुरक्षा और श्रम कानूनो को लागू कराना सरकार का दायित्व है परन्तु सरकार अपने इस दायित्व का पालन नहीं करती जिसके कारण हड़ताल के सहारे सरकार और उघोगपतियो पर दबाव बनाना श्रमिको की मजबूरी है।
         दो दिवसीय हड़ताल से श्रमिको का मनोबल मजबूत हुआ है और इससे वर्तमान श्रम कानूनों का लाभ पाने की ललक असंगठित क्षेत्र के श्रमिको में भी बढेगी जो देश की सामाजिक समरसता और खशहाली के लिए आवश्यक है।

Sunday, 17 February 2013

ONLINE FIR


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 संज्ञेय अपराधों में भी पुलिस थाने पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज नहीं की जाती जिसके कारण प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए बड़ी संख्या मंे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के तहत प्रार्थनापत्र अदालतों के समक्ष प्रस्तुत किये जाते है और उसके कारण अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष अभियुक्तों के विचारण का काम कुप्रभावित होता है।

    पुलिस अधिनियम और दंण्ड प्रक्रिया संहिता के तहत संज्ञेय अपराधों की सूचना को लेखबद्व करना और उसके बाद उसकी विवेचना पुलिस थाने के भार साधक अधिकारी का विधिक दायित्व है परन्तु प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए न्यायालयो के समक्ष बढ़ते प्रार्थनापत्रों से सिद्व होता है कि थानो के भार साधक अधिकारी अपने इस दायित्व का पालन नहीं कर रहें है। प्रायः पदभार ग्रहण करते समय पुलिस कमिश्नर या पुलिस महानिदेशक अपनी पहली प्रेस कान्फ्रेन्स में प्रत्येक अपराध की सूचना दर्ज करने का फरमान जारी करना कभी नहीं भूलते परन्तु पुलिस थाने के स्तर पर अभी तक किसी प्रदेश में इस फरमान को अमली जामा पहनानें में किसी की कोई रूचि नहीं रहती और स्थितियाँ ज्यों की त्यों बनी हुई है।

    यह सच है कि कई बार कुछ निहित स्वार्थी तत्व किसी को प्रताडि़त करने या किसी व्यवसायिक विवाद में अनुचित दबाव बनाने के लिए फर्जी कथानक बनाकर प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत करा देते है परन्तु थानो में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करना इस समस्या का समाधान नहीं है। इस समस्या के सार्थक एवं दीर्घकालिक समाधान के लिए आवष्यक है कि प्रत्येक अपराध की सूचना थाने में दर्ज की जाये और दर्ज सूचना फर्जी पायी जाये तो इनफार्मेन्ट के विरूद्व भारतीय दण्ड संहिता की धारा 182 के तहत कार्यवाही संस्थित करना सुनिश्चित कराया जाये। इस प्रकार की कार्यवाही से निहित स्वार्थी तत्व हतोत्साहित होगें और फर्जी सूचना देने का सिलसिला रूकेगा।

    पुलिस थानो में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न होने से आम लोगों में पुलिस के प्रति अविश्वास बढता है जो समाज की स्थायी षान्ति एवं कानून व्यवस्था के लिए किसी भी दशा में हितकर नहीं है। प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न होने की बढती शिकायतों को दृष्टिगत रखकर केन्द्र सरकार ने आन लाइन पंजीकरण की व्यवस्था का एक महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट तैयार किया है जो अभी तक जमीनी हकीकत अख्त्यिार नहीं कर सका है। केन्द्रीय गृह मन्त्रालय ने प्रथम सूचना रिपोर्ट के आन लाइन पंजीयन के लिए क्राइम एण्ड क्रिमिनल ट्रेकिंग नेटवर्क एण्ड सिस्ट्म लागू करने का निर्णय लिया है और इसके लिए दो हजार करोड़ रूपयें स्वीकृत भी किये है। इस प्रोजेक्ट के तहत चैदह हजार पुलिस स्टेशन और पुलिस उच्चाधिकारियों के 6 हजार कार्यालयों को आधुनिक संसाधनों से लैस करने की योजना है। क्राइम एण्ड क्रिमिनल ट्रेकिंग नेटवर्क सिस्ट्म के तहत कानून व्यवस्था में लगी सभी एजेन्सियों को अपराधियों की पहचान सुनिश्चित करने और अपराधो की विवेचना की गुणवत्ता निरन्तर बनायें रखने के लिए साझा मंच उपलब्ध कराने की दिशा में कार्य किया जाना है। संयुक्त सचिव स्तर के 20 अधिकारियों को इस प्रोजेक्ट को मानीटर करने का दायित्व सौपा गया है। अपने देश में कानून व्यवस्था राज्य का विषय है और राज्य सरकारे इस विषय पर केन्द्र सरकार के साथ स्वस्थ तालमेल बनाये रखने की दिशा में कोई रूचि नहीं ले रहीं है जिसके कारण समुचित संसाधन होने के बावजूद अभी तक कामन एप्लीकेशन साफ्टवेयर तक तैयार नहीं किया जा सका है और पूरा प्रोजेक्ट विचार के स्तर से आगे नहीं बड़ा है।

    श्री पी चिदम्बरम ने गृह मन्त्री के रूप मंे अपने कार्यकाल के दौरान वर्ष 2012 में राज्य सभा को सूचित किया था कि प्रथम सूचना रिपोर्ट के आन लाइन पंजीकरण की व्यवस्था वर्ष 2012 की समाप्ति तक लागू कर दी जायेगी परन्तु अभी तक इस दिशा में कोई सार्थक पहल नहीं की जा सकी है जबकि इस प्रोजेक्ट के लिए केन्द्र सरकार ने विभिन्न राज्य सरकारो और केन्द्र शासित प्रदेषो को 418 करोड़ रूपये की राशि प्रदान भी कर दी है परन्तु आपसी तालमेल के अभाव के कारण केन्द्र सरकार ने इस प्रोजेक्ट को लागू करने की अवधि मार्च 2015 तक बढा दी है जबकि मूल योजना के तहत इसे दिसम्बर 2012 तक क्रियान्वित करना आवश्यक था। इस सबको देखकर लगता है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट के आन लाइन पंजीयन के लिए दो हजार करोड़ की यह महत्वाकांक्षी योजना भी आम लोगों तक पहुँचने के पहले ही दम तोड़ देगी।

Sunday, 10 February 2013

Arbitration Se Kam Hoga Adalaton Ka Bojh


                  आरबीट्रेशन अदालतों में बढते मुकदमों के अम्बार को समाप्त करने का एकमात्र कारगर उपाय है भारत सरकार ने आरबीटेªेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट 1996 पारित करके इस दिशा में एक अच्छी पहल की है। इस अधिनियम के पारित होने के पूर्व अपने देश में आरबीट्रेशन एक्ट 1940 प्रभावी था और उस अधिनियम में आरबीट्रेटर द्वारा पारित एवार्ड को न्यायालय का नियम बनाने के लिए सक्षम न्यायालय के समक्ष उसे प्रस्तुत करना आवश्यक होता था और उसके बाद ही आरबीट्रेशन एवार्ड डिक्री का भाग बनता था नये अधिनियम में इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया है और अब आरबीट्रªेशन एवार्ड पारित होने की तिथि से तीन माह बाद स्वतः डिक्री बन जाता है और उसे माननीय जनपद न्यायाधीश के समक्ष आवेदन करके सिविल न्यायालय की डिक्री की तरह इन्फोर्स कराया जा सकता है। वर्तमान न्यायिक व्यवस्था के तहत सिविल न्यायालय द्वारा पारित कोई निर्णय इतनी जल्दी डिक्री के रूप में इन्फोर्स नही कराया जा सकता है।

       अभी दो दिन पूर्व जनपद न्यायाधीश कानपुर नगर में मेसर्स सुन्दरम फायनेन्स लिमिटेड के आवेदन पर आरबीटेªेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट 1996 की धारा 9 के तहत बकायेदार की अचल सम्पत्ति के एक तिहाई भाग को कुर्क करने का आदेश पारित किया है। इसके पूर्व अन्य कई मामलो में आरबीटेªेशन एवार्ड के अनुपालन में कई बकायेदारो की चल - अचल सम्पत्ति कुर्क हुई है।  निजी क्षेत्र की बैंको ने अपने एन0पी00 खातो की बकाया राशि को वसूलने के लिए इस माध्यम का भरपूर उपयोग किया है और उनको इसमें व्यापक सफलता मिली है।
                                                                  
      आरबीटेªेशन के तहत विवाद को सुलझाने आपसी सम्बन्धो का तनाव समाप्त हो जाता है और इस प्रक्रिया में न्यूनतम व्यय होता है जिसे किसी भी स्तर के पक्षकार के लिए वहन करना सहज होता है।  आरबीटेªेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट 1996 में आरबीट्रेशन कार्यवाही शुरू करने, संचालित करने उसे जारी रखने सुनवायी के दौरान साक्ष्य संकलित करने की प्रक्रिया काफी सहज बना दी गयी है।   आरबीट्रेटर के घर, कार्यालय या किसी पक्षकार के घर/ कार्यालय में बैठकर विवाद की सुनवायी की जा सकती है।
     इस अधिनियम और इस अधिनियम के तहत सम्बन्धित पक्षकार किसी भी व्यक्ति को आपसी सहमति से आरबीटेªेटर नियुक्त कर सकते है और इस प्रकार आपसी सहमति से नियुक्त आरबीट्रेटर को माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्वान्तों के तहत विवाद के निपटारे के लिए व्यापक शक्तियां दी गई है और न्यायालय द्वारा उसमें हस्तक्षेप करने की शक्तियों को सीमित कर दिया गया है और यहीं इस अधिनियम की विशेषता है।  माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई निर्णयों में प्रतिपादित किया है कि आरबीट्रेशन में प्रश्नगत विवाद के गुणदोष पर आरबीटेªेटर के एवार्ड के विरूद्व समान्यतः न्यायालय हस्ताक्षेप नही करेंगे।  विवाद के गुणदोष पर आरबीटेªेटर के निष्कर्षो को अन्तिम माना जाता है। इसलिए इस अधिनियम के तहत सुनवाई के दौरान आरबीटेªेटर की जिम्मेदारी बढ जाती है और उसे अपनी सम्पूर्ण कार्यवाही में पारदर्शिता रखना आवश्यक हो जाता है।

       इस अधिनियम की धारा 16 में क्षेत्राधिकार से सम्बन्धित आपत्तियों को सुनने और निर्णीत करने का सम्पूर्ण क्षेत्राधिकार आरबीटेªेटर में निहित है। प्रायः देखा जाता है कि आरबीट्रेशन एवार्ड को अपास्त कराने के लिए प्रस्तुत आवेदनों में क्षेत्राधिकार के प्रश्न पर आपत्ति की जाती है। परन्तु इस आशय की आपत्ति इस अधिनियम के तहत शुरूआत से ही ग्राहय् नही है।  माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कारपारेशन लिमिटेड बनाम पिंक सिटी मिडवे पेट्रोलियम (2003-6-एस.सी. सी. पेज 503) में प्रतिपादित किया है कि अनुबन्ध की विधिमान्यतः और आरबीट्रल ट्रिव्युनल के गठन से सम्बन्धित आपत्तियों को सुनने वा निर्णीत करने का क्षेत्राधिकार आरबीट्रेटर में निहित है।  एन0 इरर0 आॅफ0 लाॅ0 ऐपारेन्ट आॅन द फेस आॅफ द एवार्ड पुराने अधिनियम में एवार्ड के विरूद्व उसे अपास्त कराने के लिए एक अच्छा आधार हुआ करता था परन्तु इस अधिनियम में इस आशय का कोई प्रावधान नही है।

       माननीय जनपद न्यायाधीश कानपुर नगर के समक्ष निजी क्षेत्र के बैंक और नाॅन बैंकिंग फायनेन्स कम्पनियों में अपने बकायेदारो के विरूद्व पारित आरबीट्रेशन एवार्ड के अनुपालन के लिए निष्पादन प्रार्थनापत्र दाखिल किये है इनमें से अधिकंाश एवार्ड एकपक्षीय पारित किये गये है।  निजी क्षेत्र के बैंक और नाॅन बैकिंग फायनेन्स कम्पनियां मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता, नई दिल्ली, आदि जगहो पर स्थित अपने मुख्यालयों पर आरबीट्रेटर नियुक्त करती है और उसकी सूचना सम्बन्धित पक्षकार को रजिस्टर्ड डाक द्वारा प्रेषित की जाती है परन्तु सूचना पा लेने के बाद अपवाद स्वरूप एक दो लोगों को छोड़कर कोई आरबीट्रेटर के समक्ष कोई अपना पक्ष प्रस्तुत नही करता है और आरबीट्रेटर किसी स्थानीय समाचार पत्र में सूचना प्रकाशित कराके एकपक्षीय एवार्ड पारित कर देते है।  इस प्रकार पारित एकपक्षीय  आरबीटेªेशन एवार्ड के प्रवर्तन के लिए जनपद न्यायाधीश के समक्ष इजराय कार्यवाही लम्बित है।  इन एवार्डो के विरूद्व उन्हें अपास्त कराने के लिए दाखिल की जाने वाली आपत्तियां प्रायः खारिज हो जाती है और लोगो को आरबीटेªेशन के महत्व और उसके विधिक प्रभाव की जानकारी न होने के कारण एवार्ड के अनुसार ब्याज सहित बकाया राशि अदा करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।

       इस अधिनियम के तहत पारित एवार्ड के विरूद्व उसे अपास्त कराने के लिए यदि एवार्ड की सूचना पाने के तीन माह के अन्दर सम्बन्धित जनपद न्यायाधीश के समक्ष आवेदन नहीं किया जा सका तो आपत्ति प्रस्तुत करने का अधिकार समाप्त हो जाता है। परिसीमा अधिनियम के प्रावधान इस अधिनियम के तहत पारित एवार्ड में लागू नही होते है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कैलाश रानी डॅान्ग बनाम राकेश बाला अनेजा एण्ड ऐनादर (2009 -9- एस0 सी0 सी0- पेज 732) में प्रतिपादित किया है कि आरबीट्रेटर द्वारा प्रेषित एवार्ड यदि अनुबन्ध में दिये गये पते पर भेजा गया है और वह सम्बन्धित डाक कर्मी की टिप्पणी रिफ्यूज, घर पर नहीं मिले, ताला बन्द है, आदि की टिप्पणी के साथ वापस आ जाता है।  तो जनरल क्लाज एक्ट की धारा 27 के तहत एवार्ड तामील हो जाने की उपधाराणा की जायेगी। दुर्भाग्य से इन प्रावधानो के प्रति समुचित जागरूपता न होने के कारण कई बार आम आदमी परेशानी का शिकार हो जाता है।
      
       न्यायालय में विचाराधीन किसी मामले का निपटारा आरबीट्रेशन या सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 में दिये गये आल्टरनेटिव डिस्प्यूट रेजोल्यूशन के किसी भी और तरीके से किया जाता है तो वादकारी को उसके द्वारा अदा किया गया सम्पूर्ण न्याय शुल्क वापस कर दिया जाता है।  अथार्त बिना व्यय के सहज और सुलभ न्याय प्राप्त हो जाता है।  सिविल प्रक्रिया संहिता में भी प्रावधान है कि न्यायालय अपने समक्ष लम्बित किसी मुकदमें में प्रश्नगत विवाद के निपटारे के लिए विवाद के गुण दोष पर सुनवायी करने के पूर्व पक्षकारो के बीच पहले समझौता कराने का प्रयास करेेंगे और यदि मुकदमें की सुनवायी के दौरान किसी प्रक्रम पर उन्हें प्रतीत हो कि पक्षकारो के मध्य आपसी समझदारी से निपटारे की युक्तियुक्त सम्भावना है तो न्यायालय कार्यवाही को स्थगित कर सकेगा।
       उत्तर प्रदेश सरकार ने सिविल प्रक्रिया मध्यस्थता नियमावली 2009 अधिसूचित की है जो सभी अधीनस्थ न्यायालयो पर लागू है इस नियमावली में आरबीट्रेटर की नियुक्ति आरबीट्रेटर का पैनल आरबीट्रेशन की प्रक्रिया और सुनवायी की समय सीमा निर्धारित की गयी है।  आरबीट्रेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट 1996 के तहत पक्षकारो के मध्य आरबीट्रेटर के रूप में किसी एक व्यक्ति पर सहमत न होने की दशा में आरबीट्रेटर की नियुक्ति के लिए माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधिपति के समक्ष आवेदन करना होता है जो वास्तव में एक मंहगी और विलम्बकारी प्रक्रिया है। देश के अधिकांश उच्च न्यायालयो में जनपद न्यायाधीशो को इस आशय का अधिकार दे दिया है और अपने प्रदेश में भी इस आशय के प्रावधान की सक्त आवश्यकता है।

       सिविल न्यायालयो में वाद दाखिला से सम्बन्धित कर्मचारियों का नियमित प्रशिक्षण न होने के कारण जानकारी के अभाव में आज भी आरबीट्रेशन के तहत विवादो को सुलझाने की लिखित सहमति होने के बावजूद सिविल वाद दाखिल करा लिया जाता है।  इस प्रकार की स्थितियों में मुन्सरिम स्तर पर ही वादो को खारिज होने की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए।  इस प्रकार के वादो की पोषणीयता के विरूद्व सिविल जज के स्तर पर अनेको प्रार्थनापत्र कई वर्षो से लम्बित है।