आरबीट्रेशन अदालतों में बढते मुकदमों के अम्बार को समाप्त करने का एकमात्र कारगर
उपाय है भारत सरकार ने आरबीटेªेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट 1996 पारित करके इस दिशा में एक अच्छी पहल की है। इस अधिनियम के पारित होने के पूर्व
अपने देश में आरबीट्रेशन एक्ट 1940 प्रभावी था और उस अधिनियम में आरबीट्रेटर
द्वारा पारित एवार्ड को न्यायालय का नियम बनाने के लिए सक्षम न्यायालय के समक्ष उसे
प्रस्तुत करना आवश्यक होता था और उसके बाद ही आरबीट्रेशन एवार्ड डिक्री का भाग बनता
था नये अधिनियम में इस प्रावधान को समाप्त कर दिया गया है और अब आरबीट्रªेशन एवार्ड पारित होने की तिथि से तीन माह बाद स्वतः डिक्री बन जाता है और उसे
माननीय जनपद न्यायाधीश के समक्ष आवेदन करके सिविल न्यायालय की डिक्री की तरह इन्फोर्स
कराया जा सकता है। वर्तमान न्यायिक व्यवस्था के तहत सिविल न्यायालय द्वारा पारित कोई
निर्णय इतनी जल्दी डिक्री के रूप में इन्फोर्स नही कराया जा सकता है।
अभी दो दिन पूर्व जनपद न्यायाधीश
कानपुर नगर में मेसर्स सुन्दरम फायनेन्स लिमिटेड के आवेदन पर आरबीटेªेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट 1996 की धारा 9 के तहत बकायेदार की अचल सम्पत्ति के एक तिहाई भाग को कुर्क करने का आदेश पारित
किया है। इसके पूर्व अन्य कई मामलो में आरबीटेªेशन एवार्ड के अनुपालन में कई बकायेदारो
की चल - अचल सम्पत्ति कुर्क हुई है। निजी क्षेत्र
की बैंको ने अपने एन0पी0ए0 खातो की बकाया राशि को वसूलने के लिए इस माध्यम का भरपूर उपयोग किया है और उनको
इसमें व्यापक सफलता मिली है।
आरबीटेªेशन के तहत विवाद को सुलझाने आपसी सम्बन्धो का तनाव समाप्त हो जाता है और इस प्रक्रिया
में न्यूनतम व्यय होता है जिसे किसी भी स्तर के पक्षकार के लिए वहन करना सहज होता है। आरबीटेªेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट 1996 में आरबीट्रेशन कार्यवाही शुरू करने, संचालित करने उसे जारी रखने सुनवायी
के दौरान साक्ष्य संकलित करने की प्रक्रिया काफी सहज बना दी गयी है। आरबीट्रेटर के घर, कार्यालय या किसी पक्षकार के घर/ कार्यालय में बैठकर विवाद की सुनवायी की जा सकती
है।
इस अधिनियम और इस अधिनियम के तहत सम्बन्धित
पक्षकार किसी भी व्यक्ति को आपसी सहमति से आरबीटेªेटर नियुक्त कर सकते है
और इस प्रकार आपसी सहमति से नियुक्त आरबीट्रेटर को माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा
प्रतिपादित सिद्वान्तों के तहत विवाद के निपटारे के लिए व्यापक शक्तियां दी गई है और
न्यायालय द्वारा उसमें हस्तक्षेप करने की शक्तियों को सीमित कर दिया गया है और यहीं
इस अधिनियम की विशेषता है। माननीय सर्वोच्च
न्यायालय ने अपने कई निर्णयों में प्रतिपादित किया है कि आरबीट्रेशन में प्रश्नगत विवाद
के गुणदोष पर आरबीटेªेटर के एवार्ड के विरूद्व समान्यतः न्यायालय हस्ताक्षेप नही करेंगे। विवाद के गुणदोष पर आरबीटेªेटर के निष्कर्षो को अन्तिम माना जाता है। इसलिए इस अधिनियम के तहत सुनवाई के दौरान
आरबीटेªेटर की जिम्मेदारी बढ जाती है और उसे अपनी सम्पूर्ण कार्यवाही में पारदर्शिता रखना
आवश्यक हो जाता है।
इस अधिनियम की धारा 16 में क्षेत्राधिकार से सम्बन्धित आपत्तियों को सुनने और निर्णीत करने का सम्पूर्ण
क्षेत्राधिकार आरबीटेªेटर में निहित है। प्रायः देखा जाता है कि आरबीट्रेशन एवार्ड को अपास्त कराने के
लिए प्रस्तुत आवेदनों में क्षेत्राधिकार के प्रश्न पर आपत्ति की जाती है। परन्तु इस
आशय की आपत्ति इस अधिनियम के तहत शुरूआत से ही ग्राहय् नही है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने हिन्दुस्तान पेट्रोलियम
कारपारेशन लिमिटेड बनाम पिंक सिटी मिडवे पेट्रोलियम (2003-6-एस.सी. सी. पेज 503) में प्रतिपादित किया है कि अनुबन्ध की विधिमान्यतः और आरबीट्रल ट्रिव्युनल के गठन
से सम्बन्धित आपत्तियों को सुनने वा निर्णीत करने का क्षेत्राधिकार आरबीट्रेटर में
निहित है। एन0 इरर0 आॅफ0 लाॅ0 ऐपारेन्ट आॅन द फेस आॅफ द एवार्ड पुराने अधिनियम में एवार्ड के विरूद्व उसे अपास्त
कराने के लिए एक अच्छा आधार हुआ करता था परन्तु इस अधिनियम में इस आशय का कोई प्रावधान
नही है।
माननीय जनपद न्यायाधीश कानपुर नगर
के समक्ष निजी क्षेत्र के बैंक और नाॅन बैंकिंग फायनेन्स कम्पनियों में अपने बकायेदारो
के विरूद्व पारित आरबीट्रेशन एवार्ड के अनुपालन के लिए निष्पादन प्रार्थनापत्र दाखिल
किये है इनमें से अधिकंाश एवार्ड एकपक्षीय पारित किये गये है। निजी क्षेत्र के बैंक और नाॅन बैकिंग फायनेन्स कम्पनियां
मुम्बई, चेन्नई, कोलकाता, नई दिल्ली, आदि जगहो पर स्थित अपने मुख्यालयों पर आरबीट्रेटर नियुक्त करती है और उसकी सूचना
सम्बन्धित पक्षकार को रजिस्टर्ड डाक द्वारा प्रेषित की जाती है परन्तु सूचना पा लेने
के बाद अपवाद स्वरूप एक दो लोगों को छोड़कर कोई आरबीट्रेटर के समक्ष कोई अपना पक्ष
प्रस्तुत नही करता है और आरबीट्रेटर किसी स्थानीय समाचार पत्र में सूचना प्रकाशित कराके
एकपक्षीय एवार्ड पारित कर देते है। इस प्रकार
पारित एकपक्षीय आरबीटेªेशन एवार्ड के प्रवर्तन के लिए जनपद न्यायाधीश के समक्ष इजराय कार्यवाही लम्बित
है। इन एवार्डो के विरूद्व उन्हें अपास्त कराने
के लिए दाखिल की जाने वाली आपत्तियां प्रायः खारिज हो जाती है और लोगो को आरबीटेªेशन के महत्व और उसके विधिक प्रभाव की जानकारी न होने के कारण एवार्ड के अनुसार
ब्याज सहित बकाया राशि अदा करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है।
इस अधिनियम के तहत पारित एवार्ड
के विरूद्व उसे अपास्त कराने के लिए यदि एवार्ड की सूचना पाने के तीन माह के अन्दर
सम्बन्धित जनपद न्यायाधीश के समक्ष आवेदन नहीं किया जा सका तो आपत्ति प्रस्तुत करने
का अधिकार समाप्त हो जाता है। परिसीमा अधिनियम के प्रावधान इस अधिनियम के तहत पारित
एवार्ड में लागू नही होते है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कैलाश रानी डॅान्ग बनाम
राकेश बाला अनेजा एण्ड ऐनादर (2009 -9- एस0 सी0 सी0- पेज 732) में प्रतिपादित किया है कि आरबीट्रेटर द्वारा प्रेषित एवार्ड यदि अनुबन्ध में दिये
गये पते पर भेजा गया है और वह सम्बन्धित डाक कर्मी की टिप्पणी रिफ्यूज, घर पर नहीं मिले, ताला बन्द है, आदि की टिप्पणी के साथ वापस आ जाता है।
तो जनरल क्लाज एक्ट की धारा 27 के तहत एवार्ड तामील हो जाने की उपधाराणा
की जायेगी। दुर्भाग्य से इन प्रावधानो के प्रति समुचित जागरूपता न होने के कारण कई
बार आम आदमी परेशानी का शिकार हो जाता है।
न्यायालय में विचाराधीन किसी मामले
का निपटारा आरबीट्रेशन या सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 में दिये गये आल्टरनेटिव
डिस्प्यूट रेजोल्यूशन के किसी भी और तरीके से किया जाता है तो वादकारी को उसके द्वारा
अदा किया गया सम्पूर्ण न्याय शुल्क वापस कर दिया जाता है। अथार्त बिना व्यय के सहज और सुलभ न्याय प्राप्त
हो जाता है। सिविल प्रक्रिया संहिता में भी
प्रावधान है कि न्यायालय अपने समक्ष लम्बित किसी मुकदमें में प्रश्नगत विवाद के निपटारे
के लिए विवाद के गुण दोष पर सुनवायी करने के पूर्व पक्षकारो के बीच पहले समझौता कराने
का प्रयास करेेंगे और यदि मुकदमें की सुनवायी के दौरान किसी प्रक्रम पर उन्हें प्रतीत
हो कि पक्षकारो के मध्य आपसी समझदारी से निपटारे की युक्तियुक्त सम्भावना है तो न्यायालय
कार्यवाही को स्थगित कर सकेगा।
उत्तर प्रदेश सरकार ने सिविल प्रक्रिया
मध्यस्थता नियमावली 2009 अधिसूचित की है जो सभी अधीनस्थ न्यायालयो पर लागू है इस नियमावली में आरबीट्रेटर
की नियुक्ति आरबीट्रेटर का पैनल आरबीट्रेशन की प्रक्रिया और सुनवायी की समय सीमा निर्धारित
की गयी है। आरबीट्रेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट
1996 के तहत पक्षकारो के मध्य आरबीट्रेटर के रूप में किसी एक व्यक्ति पर सहमत न होने
की दशा में आरबीट्रेटर की नियुक्ति के लिए माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य
न्यायाधिपति के समक्ष आवेदन करना होता है जो वास्तव में एक मंहगी और विलम्बकारी प्रक्रिया
है। देश के अधिकांश उच्च न्यायालयो में जनपद न्यायाधीशो को इस आशय का अधिकार दे दिया
है और अपने प्रदेश में भी इस आशय के प्रावधान की सक्त आवश्यकता है।
सिविल न्यायालयो में वाद दाखिला
से सम्बन्धित कर्मचारियों का नियमित प्रशिक्षण न होने के कारण जानकारी के अभाव में
आज भी आरबीट्रेशन के तहत विवादो को सुलझाने की लिखित सहमति होने के बावजूद सिविल वाद
दाखिल करा लिया जाता है। इस प्रकार की स्थितियों
में मुन्सरिम स्तर पर ही वादो को खारिज होने की व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए। इस प्रकार के वादो की पोषणीयता के विरूद्व सिविल
जज के स्तर पर अनेको प्रार्थनापत्र कई वर्षो से लम्बित है।
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