Saturday, 29 June 2013

मैं तुम्हारी बेटी जैसी हूँ ...............

‘‘ अंकल मुझे छोड़ दो, मैं तुम्हारी बेटी जैसी हूँ’’ की गुहार का फिर एक दरिन्दे पर कोई असर नही पड़ा, एक मासूम दुष्कर्म का शिकार बनी और आत्म ग्लानि मे आत्महत्या को विवश। कानपुर के जूही मुहल्ले में पड़ोसी पप्पू अंकल ने सभी मर्यादाओं को ताक पर रखकर हैवानियत का परिचय दिया है और इस हैवान को समाज व कानून से ऊपर मानकर असहायता में बच्ची ने आत्महत्या कर ली।

कानुपर में इसके पहले कल्याणपुर की नीलम घाटमपुर परौली की वन्दना, कैन्ट की मोनी को उनके निकटतम परिचतों ने अपनी हवश का शिकर बनाया और वे सभी बच्चियाँ लोक लाज व खुद को न्याय न मिलता देख आत्महत्या करने को विवश हुई। रावतपुर गाँव की दिव्या को उसके स्कूल के प्रबन्धक ने हवश का शिकार बनाया तो घाटमपुर में कक्षा आठ की बच्ची के साथ उसके स्कूल के अध्यापक ने दुष्कर्म किया है। 14 वर्षीय एक किशोरी के साथ ढोगी बाबा ने सात दिन तक दुष्कर्म किया। 
दुष्कर्म से पीडि़त बच्चियों और उनके परिजनों का इन्साफ और समाज से विश्वास उठता जा रहा है। दरिन्दे वेखौफ है उन्हें समाज पुलिस या कानून किसी का भय नही है। वे मानते है और उन्हें विश्वास है कि उनकी दरिन्दगी और अदालत में उनके विचारण के बीच एक लम्बा फासला है और इस फासले का पार करने की कुब्बत किसी के पास नही है। जो लड़की इस फासले का पार करने की कोशिश करेगी समाज उसे तिरस्कृत करेगा और उसे दोषी बताकर आत्महत्या के लिए विवश कर देगा। इसीलिए अपने सुसाइड नोट में बच्ची ने लिखा है कि पापा, प्लीज अंकल को छोड़ना मत। मम्मी पापा आप के आने से पहले पप्पू अंकल ने मेरे साथ जबरदस्ती की, मेरे साथ बहुत बुरा हुआ, मम्मी पापा हमने इसीलिए ये कदम उठा लिया। दिल को झकझोर देने वाली बच्ची की यह बात इस तथ्य का परिचायक है कि हम अपनी बच्चियों को अभी तक यह विश्वास नही दिला सके है कि उनके साथ दरिन्दगी करने वाले दरिन्दे को सजा जरूर मिलेंगी। 
कोई कुछ भी कहे लेकिन सच यह है कि दुष्कर्म पीडि़त बच्चियों की आत्महत्या के लिए समाज और आपराधिक न्याय प्रशासन खुद दोषी है। प्रायः समाज बच्चियों को तिरस्कृत भाव से देखकर उसे उस अपराध की सजा देता है जो उसने किया ही नही है। बच्चियों के प्रति आपराधिक न्याय प्रशासन की उपेक्षा और असंवेदनशीलता, सर्वविदित है। हादसे के तत्काल बाद बच्ची को भावनात्मक सहारे की जरूरत होती है। टू-फिंगर थ्योरी आधारित मेडिकल परीक्षण और पुलिसिया पूँछताँछ बच्ची और उसके परिचनों के लिए एक नयी परेशानी का सबब बनाता है। प्रायः देखा जाता है कि महिला होमगार्ड पीडि़ता को टेम्पो या रिक्शे पर बैठाकर ले जाती है और रास्ते में होने वाले सभी व्यय स्वयं पीडि़ता या उसके परिजनों को करने होते है। अस्पताल स्टाफ का व्यवहार पीडि़ता को सदैव आत्मग्लानि से रूबरू कराता है। पीडि़ता को इस प्रकार के र्दुव्यवहार से बचाने का कोई कारगर प्रबन्ध सरकार या अस्पताल प्रशासन के पास नही है और कोई इसे गम्भीरता से नही लेता।
अदालत के समक्ष गवाही के लिए उपस्थित होने के समय पीडि़ता को फिर एक बार अपमान और आत्मग्लानि का शिकार होना पड़ता है। अभियुक्त के आवेदन पर सुनवाई स्थगित होते रहने के कारण पीडि़ता को महीनों उपने व्यय पर अदालत के चक्कर लगाने पड़ते है। किसी न किसी बहाने उसकी साक्ष्य अंकित नही हो पाती और अदालत कक्ष के बाहर उसे अभियुक्त के आस पास बैठना पड़ता है। इन स्थितियों में अभियुक्त की मुस्कराहट पीडि़ता के अस्तित्व को झकझोर देती है और फिर पीडि़ता अपने पूर्व बयानों से मुकरने के लिए विवश हो जाती है।
दुष्कर्म के अधिकांश अभियुक्त पीडि़ता के पूर्व बयानों से मुकर जाने के कारण दोषमुक्त हो जाते है। सबको पता है कि अदालत के सामने पीडि़ता की पक्षद्रोहिता सहज स्वाभाविक नही होती। उसे अपने पूर्व बयानों से मुकरने के लिए मजबूर किया जाता है परन्तु अपना आपराधिक न्याय प्रशासन उसे उसकी सुरक्षा सम्मान और गरिमा की रक्षा का विश्वास नही दिला पाता और अभियुक्त उसे भयभीत करके उसे अपने पूर्व बयानों से मुकरने के लिए मजबूर करने में सफल हो जाता है।
किदवई नगर थाना क्षेत्र स्थित महिला कालेज गेट पर एक छात्रा को उसके पड़ोसी ने बताया कि उसके पापा की तबियत खराब है। तुम्हारी मम्मी ने बुलाया है। छात्रा भी उनके झाँसे में आ गई और घबराहट में उसके साथ कार में बैठ गई। लड़का अपने दो साथियों के साथ उसे ग्वालियर ले गया। वहाँ उसके साथ जबरन शारीरिक सम्बन्ध बनाये। बाद में लड़का गिरफ्तार हुआ। अदालत के समक्ष लड़की ने अपनी गवाही में अपने साथ हुये दुष्कर्म की पुष्टि की, परन्तु अभियुक्त की तरफ से उस दिन जिरह नही की गई और फिर कई तिथियाँ स्थगित हुई। लड़की कई बार जिरह के लिए अदालत आई परन्तु किसी न किसी बहाने जिरह टलती रही। अदालत ने जिरह का अवसर समाप्त कर दिया। इसी बीच लड़की की शादी हो गई परन्तु मुकदमा समाप्त नही हुआ। लड़की की शादी होते ही अभियुक्त सक्रिय हो गया और उसने लड़की को जिरह के लिए पुनः तलब करा लिया। लड़की ससुराल में होने के कारण नही आ सकी तो उसे गिरफ्तार करके अदालत के सामने प्रस्तुत करने का आदेश पारित हो गया। मजबूरन लड़की को पुनः जिरह के लिए आना पड़ा। पहले के अपमानजनक अनुभवों से भयभीत लड़की ने हताशा में अपने बयान बदल दिये। इस तरह जिरह के लिए तिथियाँ स्थगित कराने में सफल हो जाने के कारण बच्ची का भरोसा टूट गया और फिर एक दरिन्दा अपने किये की सजा पाने से बच गया।
आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम 2013 पारित करते समय बड़े बड़े दावे किये गये थे। अधिनियम में कहा गया है कि दुष्कर्म के मामलों में दिन प्रतिदिन के आधार पर सुनवाई की जायेगी और पीडि़ता से जिरह के लिए स्थगन प्रार्थना पत्र अपवाद स्वरूप ही स्वीकार किये जायेंगे। इसमें यह भी प्रावधान है कि साक्ष्य प्रारम्भ होने की तिथि से दो माह के अन्दर मुकदमा निर्णीत कर दिया जायेगा, परन्तु जमीनी स्तर पर अधिनियम का कोई लाभ पीडि़ता को नही मिला। पीडि़ता की साक्ष्य के लिए तिथियाँ आज भी सहजता से स्थगित होती है और दो माह के अन्दर विचारण कभी समाप्त नही होता। सर्वोच्च न्यायालय ने दुष्कर्म से सम्बन्धित मुकदमों की सुनवाई महिला जज के समक्ष कराये जाने का आदेश काफी पहले पारित किया था। इस आदेश के द्वारा दुष्कर्म की सुनवाई करने वाले न्यायालय में महिला शासकीय अधिवक्ता और महिला पेशकार को भी नियुक्त करने की सलाह दी गई थी। महिला जज शासकीय अधिवक्ता और पेशकार की उपस्थिति से अदालत कक्ष के अन्दर पीडि़ता अपने आप को अकेला महसूस नही करेगी और जिरह के दौरान उसे अपने साथ घटित भयंकर हादसे की याद दिलाने वाले कई अपमान जनक प्रश्नों का सामना नही करना पड़ेगा। दुष्कर्म पीडि़त बच्चियों को आत्महत्या करने से बचाने के लिए जाँच और विचारण के दौरान प्रत्येक स्तर पर उसे भावनात्मक सहारा दिये जाने की आवश्यकता है। कठोर प्रावधान बना देने से समाज और कानून के प्रति बच्चियों के टूटे विश्वास को जिन्दा नही किया जा सकता। 

Saturday, 22 June 2013

आपातकाल से सबक लें राजनेता..!!

आपातकाल से सबक लें राजनेता............

इन्दिरा गाँधी की तानाशाही के दौरान आपातकाल के विरूद्ध कक्षा 12 का विद्यार्थी होने के नाते; ‘‘दम है कितना दमन मे तेरे देख लिया और देखेंगे, इन्दिरा तेरी जेल अदालत देखी है और देखेगें’’ का नारा लगाते हुये सत्याग्रह करके जेल जाना जीवन की सबसे महत्वपूर्ण और अविस्मरणीय घटना है। उन दिनों आये दिन सत्याग्रही गिरफ्तार करके कचहरी लाये जाते थे और वहाँ इन्दिरा विरोधी नारेबाजी के बीच लोगों के चेहरों पर सत्याग्रहियों के प्रति अपनेपन और सम्मान का भाव देखकर सत्याग्रहियों का उत्साह और मनोबल बढ़ जाता था। भारत की जनता ने कभी आपातकाल स्वीकार नही किया।
आपातकाल भारत के लोकतान्त्रिक जीवन का काला अध्याय है। सोचा भी नही जा सकता था कि मोती लाल नेहरू और देश बन्धु चितरन्जन दास की ही दूसरी पीढ़ी असहमति को कुचलने का कारण बनेगी। इन्दिरी गाँधी को आन्तरिक आपातकाल लगाने का रास्ता सिद्धार्थ शंकर राय ने सुझाया था। शाह आयोग के समक्ष अपनी गवाही के दौरान उन्होंने बताया था कि 25 जून 1975 को उन्हें इन्दिरा गाँधी ने अपने आवास पर बुलाया और सलाह माँगी कि वर्तमान परिस्थितियों में कठोर कदम उठाने के लिए संविधान के किस अनुच्छेद के तहत कार्यवाही की जा सकती है। उन्होंने अनुच्छेद 352 का सहारा लेने की सलाह दी। इन्दिरा जी ने उनसे यह भी कहा था कि आपातकाल लगाने के निर्णय की सूचना, अधिसूचना जारी होने के बाद मन्त्रिमण्डल को दी जायेगी। श्री राय ने इन्दिरा गाँधी को संविधान की मर्यादा का उल्लघंन करने की सलाह दी और देश पर आपातकाल थोपने में सक्रिय सहयोग किया। 
जय प्रकाश नारायण, अटल बिहारी बाजपेई, लालकृष्ण आडवाणी, राजनारायण, मधुलिमये, बीजू पटनायक, मोरारी जी भाई देसाई और कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य चन्द्रशेखर सहित हजारों राजनैतिक कार्यकर्ताओं को बिना कोई कारण बताये सम्पूर्ण देश में गिरफ्तार कर लिया गया। सभी प्रमुख राजनेताओं के गिरफ्तार हो जाने के कारण आपातकाल की घोषणा के तत्काल बाद उसके विरूद्ध कोई आन्दोलन खड़ा नही हो सका। कानपुर के दैनिक जागरण ने उस दिन अपने सम्पादकीय कालम में कुछ भी लिखे बिना उसमें प्रश्नचिन्ह बनाकर अदम्य साहस का परिचय दिया था परन्तु पिता पुत्र की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने भी अपना स्वर बदल लिया। 
आपात काल में राजनैतिक कार्यकर्ता, पत्रकार और वकील सर्वाधिक प्रभावित हुये थे। राजनैतिक कार्यकर्ताओं ने उस दौर में सर्वाधिक निराश किया था। वकीलों ने प्रतिरोध के मामले में अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शित की थी। आपातकाल का कारण बने राजनारायण के मुकदमें में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष इन्दिरा गाँधी के वकील रहे श्री नानी पालकीवाला ने आपातकाल के विरोध में बाम्बे हाउस में अधिवक्ताओं की सभा की और इन्दिरा गाँधी को उनकी फाइल वापस कर दी। सर्वोच्च न्यायालय के एडिशनल सालिसिटर जनरल श्री पी.एस. नरीमन ने अपना पद त्याग दिया। आपातकाल के विरोध में नानी पालकीवाला, रामजेठमलानी, के.एस. कूपर, ए.वी. दीवान, एस.जे. सोराबजी जैसे प्रख्यात वकीलों ने 18 अक्टूबर 1975 को जिन्नाहाउस में मीटिंग की और सरकार का विरोध किया। न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अय्यर, न्यायमूर्ति एच.आर. खन्ना न्यायमूर्ति रंगराजन ने न्यायिक तरीके से सरकार को उनकी संवैधानिक मर्यादाओं की याद दिलायी। स्थानीय स्तर पर कानपुर के युवा अधिवक्ता श्री विजय नारायण सिंह सेंगर ने भी जेल बन्दियों का निःशुल्क मुकदमा लडकर प्रतिरोध में अतुलनीय योगदान किया था। बडौदा डाइनामाइट काण्ड में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष जार्ज फर्नाडिज और उनके साथियों की तरफ से उपस्थित होकर उस समय की युवा अधिवक्ता श्रीमती सुषमा स्वराज ने भी साहस का परिचय दिया था। आज वे लोक सभा में विपक्ष की नेता है।
आपातकाल के दौरान 253 पत्रकारों को भी गिरफ्तार किया गया। उनमें से 110 मीसा, 110 डिफेन्स आॅफ इण्डिया सेल्स और 33 को अन्य कानूनों के अन्तर्गत बन्दी बनाया गया परन्तु इण्डियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका और पत्रकार कुलदीप नय्यर को छोड़कर लगभग सभी ने निराश किया था। वास्तव में इन्दिरा गाँधी ने उनसे झुकने को कहा परन्तु वे सब के सब रेंगने लगे थे। 
गाँवो, कस्बों के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने आपातकाल को कभी स्वीकार नही किया और उसके विरूद्ध सशक्त जनमत बनाने में एक बडी भूमिका निभाई थी। आपात काल के विरूद्ध सत्याग्रह करके गिरफ्तारी देने के निर्णय के बाद इण्टर कालेज के छात्रों, किसानों और छोटे व्यापारियों ने बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी दी थी। आज के विद्वान अधिवक्ता प्रकाश मिश्र और श्याम मिश्र आयु में सबसे छोटे सत्याग्रही थे और उस समय कक्षा 10 के विद्यार्थी थे। आपात काल की घोषणा के पूर्व वार्डो में सभी राजनैतिक दलों की ईकाइयों के कम से कम पाँच पदाधिकारियों को स्थानीय प्रभावशाली राजनेता के रूप में जाना जाता था, परन्तु उन सब ने निराश किया और उनमें से कई बीस सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करके आपातकाल समर्थकों के मनोबल को बढ़ाने का कारण बने। आई.आई.टी कानपुर के छात्रों ने भी भूमिगत आन्दोलन में सक्रिय सहभागिता की थी। आपात काल के दौरान भूमिगत कार्यकर्ताओं की तीन दिवसीय बैठक आई.आई.टी. छात्रावास में हुई थी। जिसमें उस समय के प्रख्यात छात्र नेता श्री राम बहादुर राय भी उपस्थित रहे थे। 
संेसरशिप के कारण बन्दी राजनेताओं के बारे में कोई समाचार नही छपते थे, परन्तु दो पेजीय पम्पलेटों के माध्यम से अपने कार्यकर्ताओं की प्रत्येक सूचना पहुँचाने का तन्त्र विकसित कर लिया गया था। पूरे आपात काल के दौरान इन्दिरा गाँधी की पुलिस और सी.बी.आई. इस तन्त्र के बारे में कोई जानकारी नही जुटा सकी। भूमिगत साहित्य बड़े पैमाने पर वितरित किया जाता था। अटल जी, आडवाणी और मधु दण्डवते ने कर्नाटक हाई कोर्ट में अपनी नजरबन्दी के विरूद्ध समादेश याचिका दाखिल की थी जिस पर बहस के लिए सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री एम.सी. छागला मुम्बई से बँगलौर गये थे। न्यायालय के समक्ष हुई बहस का आँखों देखा हाल भूमिगत साहित्य में छापा गया था।
जेल जीवन में अपने घरों से आने वाले पत्रों को कई बार पढ़ना बहुत अच्छा लगता था। अधिकांश विद्यार्थियों ने अपने घर में कोई जानकारी दिये बिना सत्याग्रह करके गिरफ्तारी दी थी। कब रिहाई होगी कोई नही जानता था इसलिए स्वाभाविक रूप से माता पिता कुछ दुःखी हुये, वे अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिन्तित थे परन्तु राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के तत्कालीन प्रचारक श्री विष्णु जी, जिन्हें सभी मास्टर साहब कहते थे, ने गिरफ्तार विद्यार्थियों के घर वालों को अपने बच्चों पर गर्व करने के लिए तैयार किया। उनकी प्रेरणा से किसी माता पिता ने अपने बच्चों को बीस सूत्रीय कार्यक्रम का समर्थन करके माफी माँग लेने के लिए नही कहा और न अन्य किसी प्रकार से हतोत्साहित किया। मीसाबन्दियों गणेशदत्त बाजपेई, विनय भाई, सन्तोष शुक्ला, गणेश दीक्षित, डा. वी.एल. धूपड़, सन्तोष चन्देल आदि को कानपुर से अलग अलग दूसरी जेलों में स्थानान्तरित करने की सूचना बैरक में देर रात आयी। अलग अलग तीन बैरकों में बन्दी रखे गये थे। दीवार के किनारे खडे होकर चिल्ला चिल्ला कर बैरको में सूचना शेयर करके रात भर नारेबाजी की गयी। उस रात जेल में पहली बार माहौल गमगीन हुआ। दूसरे दिन तड़के सुबह-सुबह इन सभी को बैरको से निकाल लिया गया और उसके बाद सारा दिन किसी ने खाना भी नही खाया। सांयकाल रामवृक्ष बेनीपुरी की किताब से 1942 मे जय प्रकाश जी और उनके साथियों के जेल से भागने का वर्णन सुनाया गया और उसको सुनने के बाद माहौल में फिर गर्मजोशी आ गयी। 
जेल में सभी को व्यस्त रखने का पूरा इन्तजाम था। विद्यार्थियों को विषयवार पढ़ाने के लिए कक्षायें लगती थी। आई.आई.टी के विभागाध्यक्ष डा. वी.एल. धूपड़, वी.एस.एस.डी.कालेज के डा. ज्ञान चन्द्र अग्रवाल, डा. प्रकाश अवस्थी डा. जगन्नाथ गुप्ता एवं एम.काॅम. और एम.एससी के बन्दी विद्यार्थी 10वीं 12वीं और बी.काॅम बी.एससी. के विद्यार्थियों को पढ़ाते थे। स्वर्गीय सन्तोष शुक्ला ने विधि की परीक्षा जेल में दी थी। कक्षा 10वीं एवं 12वीं के विद्यार्थियों को आई.आई.टी. के विभागाध्यक्ष से पढ़ने का सौभाग्य अन्य किसी को नही मिला होगा। शाम को प्रख्यात अधिवक्ता श्री गोपाल कृष्ण पाण्डेय धार्मिक ग्रन्थों की कहानियाँ सुनाते थे और रात्रि में वी.एन.एस.डी. कालेज में रसायन शास्त्र के प्राध्यापक श्री रवीन्द्र पाठक अखबारों से चुटीले समाचार ढूँढ़कर सुनाते थे। कभी किसी को ऊबने या खाली होने का अहसास नही होने दिया गया। 
आपात काल के दौरान पुलिस का रवैया बेहद उत्पीड़क था। भूमिगत साहित्य का प्रकाशन स्थल जानने के लिए थाना बजरिया में सन्तोष शुक्ला के साथ उस समय के एस.एस.पी, ओ.पी. अग्निहोत्री ने थर्ड डिग्री का प्रयोग किया था। रामदेव शुक्ला को डी.ए.वी. कालेज मे सत्याग्रह के बाद थाना कोतवाली ले जाते समय तत्कालीन कोतवाली इन्सपेक्टर सुरेन्द्र पाल शर्मा ने बुरी तरह मारा पीटा था और सत्याग्रहियों पर अत्याचार के लिए जिम्मेदार तत्कालीन अपर जिलाधिकारी (नगर) राम रतन राम को बाद में भाजपा ने जितवाकर राज्य सभा पहुँचाया।
आपात काल के दौरान उत्तर प्रदेश के पाँच महानगरों में अफवाह उड़ी थी कि स्कूलों में बच्चों को नसबन्दी के टीके लगाये जा रहे है। इस अफवाह के कारण सभी शहरों में अफरातफरी मच गई। जो जहाँ था वहीं से अपने बच्चों को स्कूल से लाने के लिए भागा। उस दिन मेरे बाल सखा आज के केन्द्रीय मन्त्री श्री राजीव शुक्ला की माँ का लाला लाजपत राय अस्पताल में आॅपरेशन हुआ था और मैं सारा दिन वहीं उपस्थित था, परन्तु उसी दिन रात्रि में मेरे पारिवारिक सुपरिचित दरोगा ने मुझे अफवाह फैलाने के आरोप में गिरफ्तार किया जबकि उसे मालूम था कि मैं सारा दिन अस्पताल में रहा हूँ। उस दिन के बाद से मैं मानने लगा हूँ कि यदि अपने पिता जी दरोगा हो जायें तो मान लेना चाहियें कि वे दरोगा पहले हैं पिता जी बाद में। अर्थात दरोगा का अपना कोई चरित्र नही होता, अपने कैरियर और अपने राजनैतिक आका को खुश करने के लिए वह निर्दोष की फर्जी मुड़भेड़ में हत्या कर सकता है।
सभी दलो के नेताओं ने आपात काल में पुलिसिया अत्याचार झेले थे। परन्तु किसी ने उससे कोई सबक नही लिया। जार्ज फर्नाडिज को हथकड़ी लगाकर न्यायालय लाया जाता था। उनके भाई लारेन्स फर्नाडिज और अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी के साथ कर्नाटक पुलिस ने बेहद अमानवीय व्यवहार किया था। केरल में एक छात्र नेता को नक्सली बताकर रोड रोलर से कुचल कर मार डाला गया था। बरेली में संघ के स्वयं सेवक श्री वीरेन्द्र अटल के नाखून पुलिस ने उखाडे़ थे, परन्तु इन सब अमानवीय घटनाओं से आपात काल विरोधी राजनेताओं ने कोई सबक नही लिया। इनमें से कई बाद में प्रधानमन्त्री बने, मुख्यमन्त्री बने, केन्द्रीय मन्त्री बने परन्तु कभी किसी ने पुलिस के उत्पीड़क रवैये पर अंकुश लगाने का कोई काम नही किया। दुर्भाग्य है कि आपात काल विरोधी नेताओं ने भी अपनी सत्ता के दौरान जन आन्दोलन को कुचलने में पुलिस का अनुचित सहारा लिया और आन्दोलनकारियों को बर्बरता पूर्वक पिटवाया है और उसके कारण आपात काल के बाद के दौर में पुलिस बल में फर्जी मुड़भेड़ में निहत्थों को मार गिराने की अराजकता और ंिफर बहादुरी का खिताब लेने की होड़ तेजी से बढ़ी है।
आपाल काल की ज्यादतियों की जाँच के लिए जनता सरकार ने न्यायमूर्ति श्री जे.सी. शाह की अध्यक्षता में एक सदस्यीय आयोग का गठन किया था। शाह आयोग की रिपोर्ट अधिकारिक रूप से गायब है। पूर्व सांसद श्री एरा सेझियन के प्रयास से उसकी प्रति उपलब्ध है। शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट में राॅबर्ट फ्राँट के कथनों को उद्घृत करते हुये लिखा था कि ‘‘हम जीवन में जो अधिकांश परिवर्तन चाहते है, उसका कारण यह है कि सत्य या तो हमारे पक्ष में है अथवा हमारे प्रतिकूल है। यदि प्रशासानिक तन्त्र को हमारे देश में अपने बच्चों के लिए सुरक्षित रखना है तो सेवाओं को ईमानदार और सक्षम प्रशासन के आधारभूत मूल्यों के लिए खडे़ होकर स्वयं को बेहतर बनाना होगा। इससे ही हमारी सेवाओं के प्रति जो जनता की आस्था समाप्त हो गई है। उसे दोबारा कायम किया जा सकता है। यदि हमे भावी पीढि़यों को कोई लोकतान्त्रिक परम्परा देनी है तो हमे अपनी विधायिका में, अपने देश के सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक तन्त्र में, सत्य का पुनः प्रतिष्ठापन करना पडे़गा। यह कोई असम्भव या गम्भीर कार्य नही है। यह एक सरल मानवीय संदेश है आपातकाल पर यह एक कालजयी टिप्पणी है परन्तु हमारे राजनेताओं ने आपातकाल से कोई सबक नही लिया और आज भी अपने-अपने कारणों से किसी न किसी की अनिवार्यता साबित करने के अभियान का हिस्सा बने हुये हैं और भूल जाते है कि नेतृत्व की अपरिहार्यता अन्ततः निरंकुश तानाशाही का कारण बनती है।

Monday, 17 June 2013

उत्पीडन का कारण बनी धारा 138



नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट की धारा 138 के बढ़ते दुरूपयोग और विभिन्न जनपदों के अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष चालिस लाख से ज्यादा मुकदमों के लम्बित हो जाने, नये मुकदमों के दाखिले की तेज गति को केन्द्र सरकार ने गम्भीरता से लिया है और नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में संशोधन करके सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 89 की तर्ज पर सुलह समझौते और लोक अदालतों के माध्यम से मुकदमों को निस्तारित कराने की अनिवार्यता लागू करने का निर्णय लिया है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री के0एस0 राधाकृष्णन और दीपक मिश्रा की खण्ड पीठ ने इण्डियन बैंक एसोशियेसन द्वारा दाखिल जनहित याचिका की सुनवाई के दौरान धारा 138 के बढ़ते मुकदमोें को बोझ को अधीनस्थ न्यायालयों के लिए गम्भीर समस्या बताया है और इससे निपटने के लिए केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों से सुझाव माँगे है।
आज के युग में व्यवसायिक संव्यवहारों मेें चेक का प्रयोग एक आम बात है और इसीलिए केन्द्र सरकार ने चेक की विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में संशोध्न करके चेक अनादरण को अपराध बनाया है। व्यापारिक लेनदेन से सम्बन्धित चेक अनादरण के मुकदमें अदालतों में काफी कम संख्या में है परन्तु सम्पूर्ण देश में वित्तीय संस्थानों ने इस धारा का बड़े पैमाने पर दुरूपयोग किया और इसे अपनी बकाया राशि की वसूली के लिए बारोबर पर अनुचित दबाव का माध्यम बना लिया है।
बारोबर को उत्पीडित करने के लिए वित्तीय संस्थानों की तरफ से फतेहपुर, छिबरामऊ, देवरिया, हरदोइर्, सीतापुर जैसे छोटे शहरों में निर्गत चेक को मुम्बई, कोलकता, गुड़गाँव, चेन्नई आदि शहरों मे ंअनादृत कराके वही मुकदमा दाखिल किये जाते है और वहाँ से गैर जमानती वारण्ट दस्ती लाकर आम लोगों को उत्पीडित किया जाता है।
इण्डिया बुल्स फायनेन्सियल सर्विसेस लिमिटेड ने कानपुर की श्रीमती रागिनी सिंह के विरूद्ध चेक अनादरण के तीन अलग अलग मुकदमें गुडगाँव में दाखिल किये है जबकि कथित अनादृत तीनों चेको का नगद भुगतान उन्होंने कम्पनी को कर दिया है और उनके विरूद्ध चेक अनादरण का अपराध नही बनता फिर भी कम्पनी ने अदालत से गैर जमानती वारण्ट प्राप्त कर लिया जिसके कारण रागिनी सिंह को गुडगाँव जाकर जमानत करानी पड़ी। गुडगाँव में जमानत के लिए दो व्यक्तियों को खोजने में उन्हें अनेको दिक्कतों का सामना करना पड़ा। कम्पनी का यह आचरण विधिक प्रक्रिया के दुरूपयोग और अपराध की परिधि में आता है परन्तु एन.आई.एक्ट में कोई प्रावधान न होने के कारण रागिनी सिंह और उनके जैसे बहुत से लोग उत्पीडि़त होने को अभिशप्त है।
धारा 138 के दुरूपयोग को रोकने और जुर्माना आदि में एकरूपता बनाये रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने दामोदर एस प्रभु बनाम सय्यद बाबा लाल एच (2010-5- सुप्रीम कोर्ट केसेज पेज 663) के द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों के लिए दिशा निर्देश जारी किये है। इन निर्देशों के तहत अभियुक्त को प्रेषित किये जाने वाले सम्मनों को संशोधित करके उसमें लिखा जाना है कि यदि अभियुक्त सुनवाई के लिए नियत प्रथम या द्वितीय तिथि पर उपस्थित होकर कम्पाउण्डिंग के लिए आवदेन करेगा तो उसका प्रार्थनापत्र उसके विरूद्ध कोई जुर्माना अधिरोपित किये बिना स्वीकार किया जायेगा और यदि आवेदन इसके बाद करेगा तो चेक पर अंकित राशि का दस प्रतिशत विधिक सेवा प्राधिकरण में जमा कराने के बाद स्वीकार किया जायेगा अर्थात किसी भी दशा में बैंकिंग संस्थान को चेक में अंकित राशि से ज्यादा राशि वसूलने का अवसर नही दिया जायेगा। परन्तु सर्वोच्च नयायालय के दिशा निर्देशों के अनुरूप सम्मन में कोई संशोधन नही किया गया है।
मुकदमों के त्वरित निपटारे के लिए केन्द्र सरकार ने वर्ष 2002 में नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में संशोधन करके मुकदमों को छः माह के अन्दर निस्तारित करने शपथपत्र पर साक्ष्य लेने और बैंक रिटर्न स्लिप को सुसंगत साक्ष्य मानने का कानून बना दिया है। संशोधन के द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता से पृथक सम्मन की तामीली के लिए स्पीड और प्रायवेट कोरियर कम्पनी की सेवायें लेने की अनुमति भी प्रदान की गई है। धारा 138 के मुकदमों में सम्मन की तामीली के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 61 से 90 में वर्णित प्रक्रिया के अनुपालन में शिथिलता दी गई है परन्तु संशोधन अधिनियम 2002 मुकदमों के त्वरित निस्तारण का माध्यम नही बन सका बल्कि इन प्रावधानों का अनुचित लाभ उठाकर वित्तीय संस्थानों ने एक ही दिन में सौ दो सौ मुकदमें एक साथ दाखिल करके सम्बन्धित अधीनस्थ न्यायालय की पेन्डेन्सी बढ़ा दी। अदालतों में स्टाप की कमी का भी इन संस्थानों ने अनुचित लाभ उठाया और अदालत के कार्यालय में अपना कर्मचारी बैठाकर अपनी पत्रावलियों का रख रखाव कराते है।
इस अधिनियम के दुरूपयोग पर अंकुश लगाने के लिए केन्द्र सरकार ने नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में संशोधन करने का निर्णय लिया और अपेक्षित सुझावों के लिए मन्त्रिमण्डलीय समूह का गठन किया है जो विधि मन्त्रालय और वित्त मन्त्रालय के साथ विचार विमर्श करके नीति निर्धारित करेगा। शुरूआती विचार विमर्श में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 89 की तर्ज पर नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में भी सुलह समझौते से मुकदमों के निपटारे की अनिवार्यता लागू करने पर सहमति बनी है। सरकार लोक अदालतों के माध्यम से भी इन मुकदमों को निपटाने पर जोर देगी। प्रस्तावित संशोधन के द्वारा चेक में अंकित राशि पर दो प्रतिशत न्याय शुल्क लेने पर भी सहमति बनी है। महाराष्ट्र में बाम्बे कोर्ट फीस अधिनियम में राज्य स्तरीय संशोधन करके दस हजार रूपये तक की चेको पर दो सौ रूपये और फिर प्रत्येक दस हजार पर दो सौ रूपये अतिरिक्त अधिकतम 1.50 लाख रूपये तक कोर्ट फीस लेने का प्रावधान पहले ही लागू किया जा चुका है। अन्य राज्यों में अभी किसी भी राशि की अनादृत चेक पर केवल एक रूपये पचास पैसे का न्याय शुल्क देय है।

Saturday, 8 June 2013

लोक अभियोजकों की नियुक्ति का चोर दरवाजा बन्द करना होगा.....

अपने देश के जनपद न्यायालयों में हत्या डकैती बालात्कार जैसे जघन्य अपराधों के लिए शासन की तरफ से अभियुक्तों के विरूद्ध आपराधिक मुकदमों का संचालन प्रदेश में सत्तारूढ़ दल के स्थानीय सांसदो विधायकों और उनके पदाधिकारियों की संस्तुति पर नियुक्त लोक अभियोजकों के द्वारा किया जाता है और साधारण मार पीट, लूट पाट आदि के मामलों में मजिस्ट्रेट के समक्ष मुकदमों का संचालन लोक सेवा आयोग द्वारा चयनित अभियोजन अधिकारियों द्वारा किया जाता है।
सत्र न्यायालयों के समक्ष आपराधिक मुकदमों के संचालन हेतु लोक अभियोजकों की नियुक्ति के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 24 में प्रावधान है कि जिला मजिस्ट्रेट सेशन न्यायाधीश के परामर्श से ऐसे व्यक्तियों के नामों का एक पैनल तैयार करेगा जो उसकी राय में उस जिले के लिए लोक अभियोजक या अपर लोक अभियोजक नियुक्त किये जाने के योग्य है। इसमें यह भी प्रावधान है कि जहाँ किसी राज्य में अभियोजन अधिकारियों का नियमित कैडर है वहाँ राज्य सरकार ऐसा कैडर गठित करने वाले व्यक्तियों में से ही लोक अधियोजक या अपर लोक अभियोजक नियुक्त करेगी परन्तु राज्य सरकारों ने दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 के प्रभावी होने के तीस वर्ष बाद भी लोक अभियोजकों का नियमित कैडर नही बनाया जबकि इनके द्वारा संचालित आपराधिक मुकदमों में मृत्यु दण्ड या आजीवन कारावास की सजा दी जाती है।
अपनी न्यायिक व्यवस्था में किसी अभियुक्त के विरूद्ध अधिरोपित आरोपों को सिद्ध करने के लिए न्यायालय के समक्ष साक्ष्य प्रस्तुत करना लोक अभियोजक का दायित्व है। कौन सी साक्ष्य सुसंगत है विश्वसनीय है का निर्धारण स्वयं उसे करना होता है और इसके लिए आपराधिक विधि की अद्यतन जानकारी आवश्यक होती है। अभियुक्त की तरफ से सदैव स्थानीय स्तर के विद्वान अधिवक्ता उपस्थित होते है। वे समुचित होम वर्क करके अदालत में उपस्थित रहते है और अभियोजन की प्रत्येक कमी को सलीके से चिन्हित करके संदेह पैदा करते है। इन कमियों को मौखिक साक्ष्य या अन्य उपलब्ध साक्ष्य से सुधारने के लिए कुशलता अर्जित करने का कोई प्रशिक्षण लोक अभियोजको को नही दिया जाता जिसका सीधा अनुचित लाभ अभियुक्तों को मिल जाता है।
विभिन्न राज्यों में सत्तारूढ़ दलों ने लोक अभियोजक के पद पर अपने कार्यकर्ताओं को उपकृत करने के लिए राज्य स्तर पर दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 24 को संशोधित कर लिया और नियुक्ति के लिए जिलाधिकारी द्वारा प्रस्तावित पैनल के नामों पर सेशन न्यायाधीश द्वारा सलाह लिये जाने की अनिवार्यता समाप्त कर दी है। इस संशोधन से नियुक्ति के लिए अपेक्षित योग्यता के सभी मापदण्ड बदल गये और राजनैतिक कारणों से अपने वकालती जीवन में एक भी सत्र परीक्षण का संचालन न करने वाले  अकुशल लोगों की नियुक्ति का रास्ता साफ हो गया।
अकुशल लोगों की बढ़ती नियुक्ति और उसके कारण आपराधिक न्याय प्रशासन के प्रति बढ़ते अविश्वास को दृष्टिगत रखकर प्रधानमंत्री कार्यालय (पी0एम0ओ0) की सलाह पर गृह मन्त्रालय ने विधि आयोग को मामला संदर्भित किया है। संदर्भित आदेश में कहा गया था कि आपराधिक विचारणों का संचालन राज्य सरकारों द्वारा संविदा पर नियुक्त लोक अभियोजकों के द्वारा किया जा रहा है। जिसके कारण गुणवत्ता कुप्रभावित हो रही है। विधि आयोग ने लोग अभियोजकों की नियुक्ति प्रक्रिया का अध्ययन करके अपने सुझाओं सहित दिनांक 31 जुलाई 2006 को अपनी 197वीं रिपोर्ट सौप दी है। योग्यता के किसी युक्तियुक्त आधार के बिना केवल राजनैतिक सम्पर्क के बल पर नियुक्त हुये लोक अभियोजक की निष्ठा आसानी से मैनेज हो जाती है और उसका अनुचित सीधा लाभ अभियुक्तो को मिलता है। इस आशय के स्पष्ट कथन विधि आयोग की रिपोर्ट में किये गये है। उसमें यह भी कहा गया है कि लोक अभियोजकों की नियुक्ति राज्य सरकारो की स्वीट बिल पर नही छोडी जा सकती है। राज्य सरकारो की नियुक्ति प्रक्रिया सही नही है और इस प्रक्रिया से अकुशल व्यक्तियों की नियुक्ति का खतरा लगातार बना हुआ है। इस रिपोर्ट के आधार पर नियुक्ति प्रक्रिया को अभी तक संशोधित नही किया गया और राज्य सरकारो की मनमानी आज भी जारी है। 
लोक अभियोजको की नियुक्ति में मनमानी और ओछापन उत्तर प्रदेश में सरकारो की विशेषता है। मायावती सरकार ने राजनैतिक कारणों से सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में एक साथ सभी लोक अभियोजको को हटा दिया और योग्यता का कोई मापदण्ड निर्धारित किये बिना मनमाने तरीके से लोक अभियोजक नियुक्त करके अपने कार्यकर्ताओं को उपकृत किया। लोक अभियोजको को एक साथ हटाने की शुरूआत मुलायम सिंह यादव ने अपने कार्यकाल में की थी। उन्होंने दण्ड प्रक्रिया संहिता में संशोधन करके लोक अभियोजकों की नियुक्ति में सेशन न्यायाधीश से सलाह होने की अनिवार्यता को समाप्त किया था। इलाहाबाद उच्च न्यायलय ने एक लम्बे अन्तराल के बाद इस संशोधन को विधि विरूद्ध घोषित कर दिया है। इस सबके बावजूद कोई सुधार होता नही दिखाई देता। अखिलेश सरकार द्वारा की गई नियुक्तियों में भी निष्पक्षता एवं पारदर्शिता का अभाव है। सभी नियुक्तियाँ स्थानीय विधायकों सांसदो की संस्तुति पर की गई और की जा रही है। वास्तव में लोक अभियोजक सरकार पुलिस अभियुक्त या इनफार्मेण्ट के अधिवक्ता नही होते और न किसी भी कीमत पर अभियुक्त को सजा कराना उनका दायित्व है। उनकी भूमिका मिनिस्टर आफ जस्टिस की होती है और उस नाते वे सम्पूर्ण न्याय करने में अदालत की सहायता करते है इसलिए उन्हें प्रशासन या पुलिस के दबाव के बिना स्वतन्त्र तरीके से अपने दायित्वों का निर्वहन किये जाने की छूट दी जानी चाहिये। परन्तु यदि व्यक्तिगत योग्यता कुशलता निष्ठा ईमानदारी को दरकिनार करके केवल राजनैतिक सम्पर्क को नियुक्ति का आधार बनाये रखा जायेगा तो निश्चित रूप से आपराधिक न्याय प्रशासन के व्यापक हितों को चोट पहुँचेगी और अपराधियों का मनोबल बढ़ेगा जो अन्ततः कानून व्यवस्था के लिए घातक है। 
वास्तव में आज अपराधी हाई टेक हो गया है और विवेचना के तौर तरीके बैलगाडी युग के है, जिसके कारण जोक अभियोजकों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। व्यवस्था के प्रति आम लोगों का विश्वास अविश्वास स्थानीय स्तर की प्रशासनिक गतिविधियों से निर्धारित होता है। राजनैतिक अपराधियों और लोक अभियोजकों की साँठगाँठ के समाचारो से आम लोगों का दिल दहल जाता है। उनमें असहाय होने का भाव पैदा हो जाता है। 
आपराधिक न्याय प्रशासन को सुचारू रूप से संचालित करने और उसके प्रति आम लोगों का विश्वास और ज्यादा सुदृढ़ बनाये रखने के लिए आवश्यक हो गया है कि केन्द्र सरकार अपने स्तर पर दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 24(6) को आदेशात्मक प्रभाव दिलाने के लिए पहल करें। अब यह कल्पना करना बेईमानी है कि कोई राज्य सरकार आपराधिक न्याय प्रशासन के व्यापक हितों को दृष्टिगत रखकर लोक अभियोजक की नियुक्ति के लिए योग्यता और कुशलता के साथ कोई खिलवाड़ नही करेगी और अपने राजनैतिक कार्यकर्ताओ को नियुक्ति देकर उपकृत नही करेगी। ऐसी दशा में धारा 24(6) का अनुपालन सुनिश्चित कराके सेशन न्यायाधीश की सलाह पर जिलाधिकारी द्वारा तैयार किये गये पैनल से नियुक्ति की प्रक्रिया को समाप्त कर देना चाहिये। मान लेना चाहिये धारा 24(4) की प्रक्रिया मनमानी के अवसर देती है और उससे संविधान के अनुच्छेद 14 का भी उल्लंघन होता है। यह नियुक्ति का चोर दरवाजा है जिसे बन्द करने में ही सबकी भलाई है।


Saturday, 1 June 2013

भूमाफियाओं की गिद्ध दृष्टि अब श्रमिक बस्तियों पर.............

उप श्रमायुक्त श्री यू.पी. सिंह ने जूहीकलाँ श्रमिक बस्ती कानपुर के मकान नं. 57/6 से बेदखली के लिए मृतक महादेव पर दिनांक 11.02.2013 को नोटिस की तामीली बताकर बेदखली का एक पक्षीय निर्णय पारित किया है, जबकि उनकी मृत्यु दिनांक 10.11.1998 को हो चुकी है।

उत्तर प्रदेश में औद्योगिक श्रमिकों को वी0आर0एस0 देकर जबरन बेरोजगार कर दिये जाने के बाद अब श्रमिक बस्तियों से उन्हें बेदखल करने की तैयारी की जा रही है। किसी युक्तियुक्त आधार के बिना एकदम मनमानें तरीके से चुन चुन कर उत्तर प्रदेश सार्वजनिक भूगृहादि (अप्राधिकृत अध्यासियों की बेदखली) अधिनियम 1972 के तहत बेदखली कार्यवाही शुरू कर दी गई है। सभी न्यायिक सिद्धान्तों को दरकिनार करके मृतक आवंटियों के आश्रितों को पक्षकार बनाये बिना मृतकों पर सम्मन की तामीली मानकर एक पक्षीय सुनवाई करके बेदखली आदेश पारित किये जा रहे है। औद्योगिक प्रतिष्ठानों के श्रमिक सरकारी नीतियों के तहत बेरोजगार हुये है। कारखानों की जमीन बेचकर बड़े पैमाने पर लाभ कमाया गया है और अब इन गिद्धो की कुदृष्टि श्रमिक बस्तियों की जमीन पर है। 
सन् 1952 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू अपने सहयोगी मन्त्री बाबू जगजीवन राम के साथ कर्मचारी राज्य बीमा योजना का उद्घाटन करने कानुपर आये थे। उस समय के श्रमिक नेताओं ने नेहरू जी से मलिन बस्तियांे का निरीक्षण करने का आग्रह किया। वें लोग नेहरू जी को झकरकटी स्थित मुन्नालाल हाता दिखाने ले गये। हाते में कमरंे जमीन खोदकर गढ्ढ़े में बनाये गये थे, खपरैल की छत थी। कमरों में पानी की निकासी का कोई प्रबन्ध नही था। हाते मंे पहुँचते ही नेहरू जी ने एक बच्चे को मकान के सामने खड़ा देखा वे उसी मकान में घुस गये वहाँ चारपाई पर एक व्यक्ति लेटा था और महिला चूल्हे में खाना बना रही थी, जिसके कारण कमरे में धुआँ भरा था। कमरे में घूसते ही चिल्लाते हुये वे बाहर आये और फिर एक गली में घुस गये जहाँ नाली थी और उसमें लोग शौच करते थे जिसकी सफाई दिन में केवल एक बार होती थी। यह सब देखकर जानकर उन्हें दुख हुआ, गुस्सा आया। उन्होंने मौंके पर उपस्थित मुख्यमन्त्री सहित सभी लोगों पर नाराजगी जतायी। उनकी नाराजगी के बीच बाबू जगजीवन राम ने बताया कि उत्तर प्रदेश सरकार ने मलिन बस्तियों के सुधार के लिए कभी धन नही माँगा। मुख्यमन्त्री पंत जी ने तत्काल डिमाण्ड नोट भेजने का वायदा किया और इस प्रकार इन परिस्थितियों में मुन्नालाल के हाते में भारत सरकार ने एक नई श्रमिक बस्ती बनाने के लिए धनराशि स्वीकृत करने का निर्णय लिया। उसके बाद शास्त्री नगर श्रमिक बस्ती का निर्माण कराया गया। औद्योगिक श्रमिक बस्तियों के निर्माण का सम्पूर्ण व्यय भारत सरकार द्वारा वहन किया गया है। उत्तर प्रदेश सरकार का इसमें कुछ भी नही लगा है। 
          सम्पूर्ण देश में श्रमिक बस्तियों का निर्माण औद्योगिक श्रमिकों और समाज के आर्थिक दृष्टि से कमजोर वर्गांे के लिए एकीकृत सहायता प्राप्त आवास योजना के तहत भारत सरकार के सहयोग से किया गया है। राज्य सरकारांे की इसमें कोई भूमिका नही है। भारत सरकार ने अपने निर्माण एवं आवास मन्त्रालय की तरफ से शासनादेश संख्या एन 14024/17/77-एच नई दिल्ली दिनांक 9 फरवरी 1978 जारी करके सम्पूर्ण देश में इस स्कीम के तहत निर्मित औद्योगिक आवासों का स्वामित्व वर्तमान में उनके अध्यासियांे के पक्ष में हस्तान्तरित करने का आदेश पारित किया है। इस आदेश के तहत उड़ीसा, केरल, दिल्ली, बिहार आदि कई राज्य सरकारों ने श्रमिक बस्तियों का स्वामित्व मूल लागत पर उनके अध्यासियों को हस्तान्तरित कर दिया है।
           उत्तर प्रदेश सरकार ने भी अपने शासनादेश संख्या- 515 (1)/36-चार/ 1995-16/92 दिनांक 21.02.1995 के द्वारा श्रमिक बस्तियों के सभी आवासों को उनके वर्तमान अध्यासियों के पक्ष में हस्तान्तरित करने का निर्णय लिया है। उत्तर प्रदेश सरकार ने यह भी निर्णय लिया था कि मृतक या सेवानिवृत्त आवंटियों की स्थिति में उनके आश्रितों के साथ एक नया आवंटन अनुबन्ध निष्पादित कराके आवंटन उनके पक्ष में कर दिया जायेगा। एक कमरे वाले आवास का मानक किराया एक सौ पच्चीस रूपया और दो कमरे वाले आवास का दौ सौ पैतीस रूपये निर्धारित करके औद्योगिक श्रमिक की परिधि में न आने वाले अध्यासियों को भी आवास आवंटित करने का प्रावधान है, परन्तु अब अखिलेश सरकार पूर्व शासनादेशों का अनुपालन करने के लिए तैयार नही है और वर्तमान अध्यासियों को जबरन श्रमिक बस्तियों से बेदखल करने पर आमादा है।  
अपने देश में विवन्ध का सिद्धान्त (प्रिन्सिपल आॅफ प्रामिसरी इस्टापेल) सुस्थापित विधि है और इस विधि के तहत प्रत्येक सरकार के लिए अपनी पूर्ववर्ती सरकार द्वारा किये गये वायदों का अनुपालन सुनिश्चित करना कराना आवश्यक होता है। विधि में वर्तमान सरकार के लिए पूर्ववर्ती सरकार  के वायदों से मुकर जाने का कोई विकल्प उपलब्ध नही है, परन्तु वर्तमान उत्तर प्रदेश सरकार श्रमिक बस्तियों के मामले में पूर्ववर्ती सरकारों द्वारा श्रमिकों से किये गये वायदों का अनुपालन करने से इन्कार कर रही है। जबकि पूर्व शासनादेशों के तहत श्रमिक बस्तियों में शिकमी की परिधि में आने वाले कई अध्यासियों के पक्ष में मानक किराये की दर पर आवंटन आदेश जारी किये गये है। अवशेष लोगों को शासनादेश का लाभ देने से इन्कार करना स्पष्ट रूप से भेदभावपूर्ण कार्यवाही है। 
            उत्तर प्रदेश सरकार डा0 राम मनोहर लोहिया, राजनारायण मधु लिमये को अपना आदर्श बताती है। इन लोगों ने ‘‘पिछड़े पायें सौ में साठ का अभियान किसी जाति विशेष का आगे लाने के लिए नही चलाया था। उनकी मंशा समाज के सभी पिछड़ों को आगे लोन की थी। श्रमिक बस्तियों में समाज अति पिछड़े वर्ग को लोग रहते है। आज भी यहाँ उच्च आय वर्ग के लोग नही रहते है। यह सच है कि इन बस्तियों में रहने वाले श्रमिकों के बच्चों ने सीमित साधनों के बावजूद लगन और मेहनत के बल पर अपने माता पिता के जमाने के धन्नासेठों के बच्चों को कैरियर की दुनिया में एकदम पीछे कर दिया है। गरीब घरों के बच्चे भी अब कलक्टर बनने लगे है। इन बच्चों ने ईमानदारी की कमाई से अपने माता पिता के लिए आधुनिक सुविधायें जुटा दी है। इन सुविधाओं के कारण उत्तर प्रदेश सरकार वर्तमान अध्यासियों को टाटा बिड़ला अम्बानी के समकक्ष मानने लगी है। ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश सरकार की सोच है कि पिछड़ों को  पिछडा ही रहना चाहिए। श्रमिक परिवारों को आधुनिक सुविधायें जुटाने का कोई अधिकार नही है। उनके बच्चों को भी अपने माता पिता की तरह ताजिन्दगी मजदूरी करने के लिए ही अभिशप्त रहना होगा।