मैं तुम्हारी बेटी जैसी हूँ ...............
‘‘ अंकल मुझे छोड़ दो, मैं तुम्हारी बेटी जैसी हूँ’’ की गुहार का फिर एक दरिन्दे पर कोई असर नही पड़ा, एक मासूम दुष्कर्म का शिकार बनी और आत्म ग्लानि मे आत्महत्या को विवश। कानपुर के जूही मुहल्ले में पड़ोसी पप्पू अंकल ने सभी मर्यादाओं को ताक पर रखकर हैवानियत का परिचय दिया है और इस हैवान को समाज व कानून से ऊपर मानकर असहायता में बच्ची ने आत्महत्या कर ली।
कानुपर में इसके पहले कल्याणपुर की नीलम घाटमपुर परौली की वन्दना, कैन्ट की मोनी को उनके निकटतम परिचतों ने अपनी हवश का शिकर बनाया और वे सभी बच्चियाँ लोक लाज व खुद को न्याय न मिलता देख आत्महत्या करने को विवश हुई। रावतपुर गाँव की दिव्या को उसके स्कूल के प्रबन्धक ने हवश का शिकार बनाया तो घाटमपुर में कक्षा आठ की बच्ची के साथ उसके स्कूल के अध्यापक ने दुष्कर्म किया है। 14 वर्षीय एक किशोरी के साथ ढोगी बाबा ने सात दिन तक दुष्कर्म किया।
दुष्कर्म से पीडि़त बच्चियों और उनके परिजनों का इन्साफ और समाज से विश्वास उठता जा रहा है। दरिन्दे वेखौफ है उन्हें समाज पुलिस या कानून किसी का भय नही है। वे मानते है और उन्हें विश्वास है कि उनकी दरिन्दगी और अदालत में उनके विचारण के बीच एक लम्बा फासला है और इस फासले का पार करने की कुब्बत किसी के पास नही है। जो लड़की इस फासले का पार करने की कोशिश करेगी समाज उसे तिरस्कृत करेगा और उसे दोषी बताकर आत्महत्या के लिए विवश कर देगा। इसीलिए अपने सुसाइड नोट में बच्ची ने लिखा है कि पापा, प्लीज अंकल को छोड़ना मत। मम्मी पापा आप के आने से पहले पप्पू अंकल ने मेरे साथ जबरदस्ती की, मेरे साथ बहुत बुरा हुआ, मम्मी पापा हमने इसीलिए ये कदम उठा लिया। दिल को झकझोर देने वाली बच्ची की यह बात इस तथ्य का परिचायक है कि हम अपनी बच्चियों को अभी तक यह विश्वास नही दिला सके है कि उनके साथ दरिन्दगी करने वाले दरिन्दे को सजा जरूर मिलेंगी।
कोई कुछ भी कहे लेकिन सच यह है कि दुष्कर्म पीडि़त बच्चियों की आत्महत्या के लिए समाज और आपराधिक न्याय प्रशासन खुद दोषी है। प्रायः समाज बच्चियों को तिरस्कृत भाव से देखकर उसे उस अपराध की सजा देता है जो उसने किया ही नही है। बच्चियों के प्रति आपराधिक न्याय प्रशासन की उपेक्षा और असंवेदनशीलता, सर्वविदित है। हादसे के तत्काल बाद बच्ची को भावनात्मक सहारे की जरूरत होती है। टू-फिंगर थ्योरी आधारित मेडिकल परीक्षण और पुलिसिया पूँछताँछ बच्ची और उसके परिचनों के लिए एक नयी परेशानी का सबब बनाता है। प्रायः देखा जाता है कि महिला होमगार्ड पीडि़ता को टेम्पो या रिक्शे पर बैठाकर ले जाती है और रास्ते में होने वाले सभी व्यय स्वयं पीडि़ता या उसके परिजनों को करने होते है। अस्पताल स्टाफ का व्यवहार पीडि़ता को सदैव आत्मग्लानि से रूबरू कराता है। पीडि़ता को इस प्रकार के र्दुव्यवहार से बचाने का कोई कारगर प्रबन्ध सरकार या अस्पताल प्रशासन के पास नही है और कोई इसे गम्भीरता से नही लेता।
अदालत के समक्ष गवाही के लिए उपस्थित होने के समय पीडि़ता को फिर एक बार अपमान और आत्मग्लानि का शिकार होना पड़ता है। अभियुक्त के आवेदन पर सुनवाई स्थगित होते रहने के कारण पीडि़ता को महीनों उपने व्यय पर अदालत के चक्कर लगाने पड़ते है। किसी न किसी बहाने उसकी साक्ष्य अंकित नही हो पाती और अदालत कक्ष के बाहर उसे अभियुक्त के आस पास बैठना पड़ता है। इन स्थितियों में अभियुक्त की मुस्कराहट पीडि़ता के अस्तित्व को झकझोर देती है और फिर पीडि़ता अपने पूर्व बयानों से मुकरने के लिए विवश हो जाती है।
दुष्कर्म के अधिकांश अभियुक्त पीडि़ता के पूर्व बयानों से मुकर जाने के कारण दोषमुक्त हो जाते है। सबको पता है कि अदालत के सामने पीडि़ता की पक्षद्रोहिता सहज स्वाभाविक नही होती। उसे अपने पूर्व बयानों से मुकरने के लिए मजबूर किया जाता है परन्तु अपना आपराधिक न्याय प्रशासन उसे उसकी सुरक्षा सम्मान और गरिमा की रक्षा का विश्वास नही दिला पाता और अभियुक्त उसे भयभीत करके उसे अपने पूर्व बयानों से मुकरने के लिए मजबूर करने में सफल हो जाता है।
किदवई नगर थाना क्षेत्र स्थित महिला कालेज गेट पर एक छात्रा को उसके पड़ोसी ने बताया कि उसके पापा की तबियत खराब है। तुम्हारी मम्मी ने बुलाया है। छात्रा भी उनके झाँसे में आ गई और घबराहट में उसके साथ कार में बैठ गई। लड़का अपने दो साथियों के साथ उसे ग्वालियर ले गया। वहाँ उसके साथ जबरन शारीरिक सम्बन्ध बनाये। बाद में लड़का गिरफ्तार हुआ। अदालत के समक्ष लड़की ने अपनी गवाही में अपने साथ हुये दुष्कर्म की पुष्टि की, परन्तु अभियुक्त की तरफ से उस दिन जिरह नही की गई और फिर कई तिथियाँ स्थगित हुई। लड़की कई बार जिरह के लिए अदालत आई परन्तु किसी न किसी बहाने जिरह टलती रही। अदालत ने जिरह का अवसर समाप्त कर दिया। इसी बीच लड़की की शादी हो गई परन्तु मुकदमा समाप्त नही हुआ। लड़की की शादी होते ही अभियुक्त सक्रिय हो गया और उसने लड़की को जिरह के लिए पुनः तलब करा लिया। लड़की ससुराल में होने के कारण नही आ सकी तो उसे गिरफ्तार करके अदालत के सामने प्रस्तुत करने का आदेश पारित हो गया। मजबूरन लड़की को पुनः जिरह के लिए आना पड़ा। पहले के अपमानजनक अनुभवों से भयभीत लड़की ने हताशा में अपने बयान बदल दिये। इस तरह जिरह के लिए तिथियाँ स्थगित कराने में सफल हो जाने के कारण बच्ची का भरोसा टूट गया और फिर एक दरिन्दा अपने किये की सजा पाने से बच गया।
आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम 2013 पारित करते समय बड़े बड़े दावे किये गये थे। अधिनियम में कहा गया है कि दुष्कर्म के मामलों में दिन प्रतिदिन के आधार पर सुनवाई की जायेगी और पीडि़ता से जिरह के लिए स्थगन प्रार्थना पत्र अपवाद स्वरूप ही स्वीकार किये जायेंगे। इसमें यह भी प्रावधान है कि साक्ष्य प्रारम्भ होने की तिथि से दो माह के अन्दर मुकदमा निर्णीत कर दिया जायेगा, परन्तु जमीनी स्तर पर अधिनियम का कोई लाभ पीडि़ता को नही मिला। पीडि़ता की साक्ष्य के लिए तिथियाँ आज भी सहजता से स्थगित होती है और दो माह के अन्दर विचारण कभी समाप्त नही होता। सर्वोच्च न्यायालय ने दुष्कर्म से सम्बन्धित मुकदमों की सुनवाई महिला जज के समक्ष कराये जाने का आदेश काफी पहले पारित किया था। इस आदेश के द्वारा दुष्कर्म की सुनवाई करने वाले न्यायालय में महिला शासकीय अधिवक्ता और महिला पेशकार को भी नियुक्त करने की सलाह दी गई थी। महिला जज शासकीय अधिवक्ता और पेशकार की उपस्थिति से अदालत कक्ष के अन्दर पीडि़ता अपने आप को अकेला महसूस नही करेगी और जिरह के दौरान उसे अपने साथ घटित भयंकर हादसे की याद दिलाने वाले कई अपमान जनक प्रश्नों का सामना नही करना पड़ेगा। दुष्कर्म पीडि़त बच्चियों को आत्महत्या करने से बचाने के लिए जाँच और विचारण के दौरान प्रत्येक स्तर पर उसे भावनात्मक सहारा दिये जाने की आवश्यकता है। कठोर प्रावधान बना देने से समाज और कानून के प्रति बच्चियों के टूटे विश्वास को जिन्दा नही किया जा सकता।