Saturday, 26 October 2013

जमानत की स्वीकृति नियम है अस्वीकृति अपवाद ...........


इलाहाबाद उच्च न्यायालय की सात सदस्यीय खण्ड पीठ ने अमरावती एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ यू.पी. में अपने निर्णय दिनांक 15 अक्टूबर 2004 के द्वारा प्रतिपादित किया है कि  दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 437 की परिधि में आने वाले अपराधों में जमानत प्रार्थनापत्रों का निस्तारण उसी दिन किया जाना चाहिये। धारा 439 की परिधि में आने वाले अपराधों में जमानत प्रार्थनापत्रों का निस्तारण उसे प्रस्तुत किये जाने की तिथि पर करने या न करने और अन्तरिम जमानत देने का सम्पूर्ण विवेकाधिकार अधीनस्थ न्यायालयों में निहित है। इसी निर्णय में यह भी कहा गया है कि समान्यतः उच्च न्यायालय को जमानत प्रार्थनापत्रों को उसी दिन निस्तारित करने का आदेश अधीनस्थ न्यायालयों को नही देना चाहिये। 
अपने आपराधिक न्याय प्रशासन मे जमानत स्वीकार करने या खारिज करने का सम्पूर्ण विवेकाधिकार सम्बन्धित न्यायिक अधिकारी में निहित है और दिन प्रतिदिन की गतिविधियों में उच्च न्यायालय द्वारा इस व्यवस्था में हस्तक्षेप करने का कोई विधिक औचित्य भी नही है परन्तु अमरावती के मामले में पारित निर्णय की भावना को दृष्टिगत रखकर अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष उनके स्तर पर जमानत प्रार्थनापत्रों के उसी दिन निस्तारण और निस्तारण न होने की दशा में अभियुक्त को अन्तरिम जमानत पर रिहा करने की गति काफी धीमी है। उसी दिन निस्तारण या अन्तरिम जमानत के लिए प्रत्येक मामले में उच्च न्यायालय द्वारा आदेश लाना आवश्यक बना लिया गया है, जो अमरावती और बाद में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लाल कमलेन्द्र प्रताप सिंह बनाम स्टेट आफ यू.पी. के मामलों मे प्रतिपादित सिद्धान्तों के अनुकूल नही है। आर्थिक कारणो से उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल करने में असमर्थ लोगों को युक्तियुक्त आधार होने के बावजूद अन्तरिम जमानत नही मिल पाती और वे जेल जाने को  विवश होते है।
अपने देश में हजारो विचाराधीन बन्दी विचारण के समाप्त होने की प्रतीक्षा में वर्षों से जेल में है। किसी युक्तियुक्त कारण के बिना उनकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार का हनन हो रहा है। अमरावती के मामले में स्वीकार किया गया है कि उत्तर प्रदेश में आपराधिक विचारण के निस्तारण में औसतन 5 वर्ष का समय लगता है। अदालतो के स्तर पर दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 309 प्रभावी नही हो सकी हैं। माह दर माह अभियोजन साक्ष्य के लिए नियत तिथियाँ स्थगित होती रहती है। कई बार तो गलत पता लिखा होने के कारण साक्षी पर सम्मन भी तामील नही हो पाता। इन स्थितियों में भी अभियोजन साक्ष्य क्लोज नही हो पाती और न अभियुक्त को जमानत पर रिहा किया जाता है। अभियोजन के अपने कारणो से विचारण में विलम्ब होने के बावजूद अभियुक्त को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों के तहत जमानत पर रिहा नही किया जाता। 
दण्ड प्रक्रिया संहिता या अन्य किसी अधिनियम में जमानत को परिभाषित नही किया गया है। हाल्सवरी ला आफ इंग्लैण्ड के अनुसार जमानत रिहाई की एक प्रक्रिया है जिसमें आरोपी को उसके श्योरटीज की अभिरक्षा मे इस शर्त के साथ दिया जाता है कि न्यायालय की अपेक्षा पर वे उसे विचारण के समक्ष प्रस्तुत करेंगे। जमानत की स्वीकृति या अस्वीकृति का सिद्धान्त न्यायालयों के निर्णय के तहत विकसित हुआ है। इसमें विधायिका की भूमिका नगण्य है। जमानत की अवधारणा पुलिस की शक्तियों और किसी व्यक्ति विशेष की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के मध्य विरोधाभाष पैदा करती है। अपने देश में दोष सिद्ध न होने तक किसी भी आरोपी को निर्दोष माना जाता है। उसे दोषी मानकर दण्डित करने के आशय से जमानत अस्वीकृत नही की जा सकती है। वास्तव में किसी की भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता उसका मौलिक अधिकार है और उसे विधि सम्मत कारणों के बिना प्रतिबन्धित नही किया जा सकता।
विभिन्न उच्च न्यायालयो और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णयो के तहत किसी भी अपराध में अभियुक्त को उसके विचारण के पूर्व और उसके दौरान अपवाद स्वरूप विशेष परिस्थितियों में ही जमानत देने से इन्कार किया जाना चाहिये। अपने देश में अदालत द्वारा दोष सिद्ध घोषित न किये जाने तक अभियुक्त को निर्दोष माना जाता है परन्तु जमानत न मिलने की दशा में सर्वस्वीकृत निर्दोषिता की अवधारणा का उल्लंघन होता है। 
स्टेट आफ केरल बनाम रनीफ (2011-1-एस.सी.सी.-पेज-784 में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार किया है कि आपराधिक विचारण के दौरान अभियुक्तो को जमानत न मिल पाने के कारण उनकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार का हनन होता है। जमानत न मिलने के बाद दोषमुक्त हो जाने की दशा में जेल में बिताये गये उसके समय को क्या कोई वापस दे सकता है ? जेल में निरूद्ध रहने के कारण उसके और उसके परिवार को गम्भीर आर्थिक संकट का शिकार होना पड़ता है और अभियुक्त अपने बचाव के समान अवसरो से भी वंचित हो जाता है जो अनुच्छेद 14 एवं 21 के प्रतिकूल है। यह सच है कि विचाराधीन बन्दियों को सरकार के व्यय पर उनका बचाव करने के लिए न्यायमित्र दिये जाते है। इन न्यायमित्रों की नियुक्ति में निष्पक्षता और पारदर्शिता का अभाव रहता है जिसके कारण न्यायमित्रों की व्यवसायिक कुशलता का पक्ष नगण्य हो जाता है। 
संविधान का अनुच्छेद 21 प्रत्येक नागरिक को जीवन और स्वतन्त्रता का अधिकार देता है। जमानत की अवधारणा व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार से सम्बन्धित है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालय को जमानत अस्वीकृत करते समय काँशश और केयरफुल रहने के लिए निर्देशित किया है। माना गया है कि आरोपियों की व्यक्तिगत स्वतन्त्रता किसी युक्तियुक्त कारण के बिना प्रतिबन्धित नही की जानी चाहिये। विचारण के समय न्यायालय के समक्ष अभियुक्त की उपस्थिति को सुनिश्चित कराना जमानत का उद्देश्य होता है ऐसी दशा में यदि न्यायालय को विश्वास हो जाता है कि विचारण के समय अभियुक्त न्यायालय के समक्ष उपस्थित रहेगा और उसके फरार होने या उसके द्वारा साक्ष्य को कुप्रभावित करने की सम्भावना नही है तो उसे जमानत दी जानी चाहिये। अपराध की जाँच विवेचना और विचारण के दौरान केवल अभियोजन की संतुष्टि के लिए किसी को भी जेल में बनाये रखकर उसे अपने जीवन की रक्षा और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से वंचित नही किया जा सकता उसे संविधान के तहत प्राप्त अधिकारों का उसी तरह प्रयोग करने का अधिकार प्राप्त है, जिस तरह देश के अन्य नागरिक अनुच्छेद 14 एवं 21 के द्वारा प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते है। वास्तव में जमानत मिलने के बाद केवल 1 प्रतिशत अभियुक्त न्यायालय के समक्ष विचारण के लिए उपस्थित नही होते परन्तु इसके लिए केवल जमानत को दोषी बताना उचित नही है। विवेचना के दौरान अभियुक्त या साक्षियों का जो पता लिखा जाता है, कई बार वो बस्ती ऊजाड़ दी जाती है और उसके कारण विचारण प्रारम्भ होने की सूचना ही अभियुक्त तक नही पहुँच पाती।
स्वतन्त्र भारत में संविधान लागू होने के पूर्व वर्ष 1950 में सर्वोच्च न्यायालय ने ए.के. गोपालन बनाम स्टेट आफ मद्रास (ए.आइ.आर.-1950-एस.सी.-पेज-27) के द्वारा प्रतिपादित किया था कि किसी की भी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता उसका मौलिक अधिकार है और उसे विधि सम्मत कारणों के बिना प्रतिबन्धित नही किया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय के इसी सिद्धान्त को दृष्टिगत रखकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की सात सदस्यीय खण्ड पीठ ने अमरावती के मामले में पुनः इसी सिद्धान्त को दोहराया है। अपनी न्यायिक व्यवस्था में जमानत चाहने वाले व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष जमानत प्रार्थनापत्र प्रस्तुत करने के समय स्वयं आत्मसमर्पण भी करना पड़ता है। जमानत प्रार्थनापत्र की प्रति न्यायालय के शासकीय अधिवक्ता को दी जाती है। प्रायः प्रति पाने के बाद सम्बन्धित थाने से आख्या मँगाने के लिए समय माँगा जाता है जिसके कारण प्रार्थनापत्र को निस्तारण के लिए अगले कार्य दिवस या अन्य किसी कार्य दिवस की तिथि नियत की जाती है और इस दौरान अभियुक्त को जेल भेज दिया जाता है। नित्य प्रति देखा जाता है कि अभियोजन की तर से प्रत्येक प्रार्थनापत्र का विरोध किया जाता है। प्रायः किसी सुसंगत आधार के बिना भी जमानत प्रार्थनापत्रों का विरोध अभियोजन की आदत है। करीसराज बनाम स्टेट आफ पंजाब (2000-क्रिमिनल ला जनरल-पेज-2993-पेरा-5) में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि वैवाहिक विवादों में सभी पारिवारिक सदस्यों को दोषी बताने की प्रवृति इन दिनों तेजी से बढ़ी है। ऐसे मामलों में अभियोजन की आख्या की प्रतीक्षा मे अभियुक्त के जमानत प्रार्थनापत्र का निस्तारण नही हो पाता और वह जेल में निरूद्ध रहने को विवश होता है। बाद में उसे जमानत मिल जाती है, परन्तु इस दौरान उसका मान सम्मान उसकी व्यक्तिगत गरिमा प्रतिष्ठा नष्ट हो जाती है। इसीलिये अमरावती के मामले में कहा गया है कि जमानत प्रार्थनापत्रों के निस्तारण के लिए अभियोजन को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर देने और अवसर देने के कारण अभियुक्त को जेल भेजते समय अधीनस्थ न्यायालयों को संविधान के अनुच्छेद 21 के द्वारा सभी नागरिकों को प्रदत्त व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार को दृष्टिगत रखना चाहिये। 
अमरावती और लाल कमलेन्द्र प्रताप सिंह के मामलों में पारित निर्णयों के पूर्व लतीफ बनाम स्टेट आफ उत्तर प्रदेश (1990-ए.सी.सी.-पेज-440) आदि अन्य कई मामलों में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया है कि यदि किन्ही कारणों से अभियुक्त द्वारा प्रस्तुत जमानत प्रार्थनापत्र का निस्तारण उसी दिन नही हो सकता तो अभियुक्त को व्यक्तिगत बन्धपत्र लेकर जमानत प्रार्थनापत्र के निस्तारण तक  अन्तरिम जमानत दे देनी चाहिये। जमानत किसी व्यक्ति का प्रक्रियागत अधिकार नही है बल्कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राप्त मौलिक अधिकार है। विचारण के दौरान अभियुक्त के फरार रहने की कोई आशंका न होने की स्थिति में जमानत दी जानी चाहियें। 

Saturday, 19 October 2013

हथकड़ी लगाना सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना है.............


 सम्पूर्ण देश में नित्य प्रति कचहरी परिसर के आस पास पुलिस अभिरक्षा में व्यक्तियों के हाथ में हथकड़ी और उसकी रस्सी पकड़े पुलिस कर्मियों को देखकर किसी को अचरज नही होता। सभी इसे एक सामान्य आवश्यक पुलिसिया कार्यवाही मानते है। न्यायिक अधिकारियों के सामने भी हथकड़ी पहने लोगों को प्रस्तुत किया जाता है और उसी दशा उन्हें सुनवाई के दौरान न्यायालय कक्ष में खड़ा रखा जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अमानवीय अतार्किक उत्पीड़क और संविधान के अनुच्छेद 19 एवं 21 के प्रतिकूल घोषित किया है।


आजादी के पहले अंग्रेज पुलिस अधिकारी भारतीयों की गरिमा और सम्मान को धूल धूसरित करने के दुरासय से हथकड़ी बेड़ी पहनाकर उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाया करते थे और इससे उनका अहं संतुष्ट होता था। उन्होंने अपनी इस अमानवीय कार्यवाही को विधि सम्मत बताने के लिए पुलिस अधिनियम में इसके लिए नियम भी बना लिये थे। अंग्रेजों के बनाये नियमो का अनुचित सहारा लेकर हरियाणा पुलिस ने उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति श्री ए0एस0 बैन्स को हथकड़ी पहनाकर थाने से न्यायालय लाने का दुस्साहर किया था। उच्च न्यायालय ने पुलिस की इस कार्यवाही को अमानवीय बताते हुये राज्य सरकार के विरूद्ध पेनाल्टी अधिरोपित की और पचास हजार रूपये बतौर क्षतिपूर्ति देने का आदेश पारित किया है। इस प्रकार के कई आदेशों के बावजूद सम्पूर्ण देश में स्थानीय थाना स्तरों पर पुलिस अभिरक्षा में गिरफ्तार व्यक्तियों को हथकड़ी पहनाना और फिर उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान तक पैदल ले जाना नित्य प्रति की सामान्य कार्यवाही है।

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री कृष्णा अय्यर ने सुनील बत्रा बनाम देलही एडमिनिस्ट्रेशन (ए.आई.आर-1978 सुप्रीम कोर्ट पेज 1678) के द्वारा सम्पूर्ण देश में जारी इस प्रथा को अमानवीय घोषित किया है। उन्होंने प्रतिपादित किया है कि हथकड़ी पहनाने से व्यक्ति की मानवीय गारिमा, सम्मान और सार्वजनिक प्रतिष्ठा नष्ट हो जाती है। इसके बाद प्रेमशंकर शुक्ला बनाम देलही एडमिनिस्ट्रेशन (ए.आई.आर-1980-एसी.सी. पेज 540) में सर्वोच्च न्यायालय ने आदेशात्मक दिशा निर्देश जारी किये। कहा गया कि गिरफ्तार व्यक्ति को हथकड़ी पहनाना अनुच्छेद 19 एवं 21 का उल्लंघन है। हथकड़ी पहनाकर गिरफ्तार व्यक्तियों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाना अमानवीय अपमानजनक और उत्पीड़क है। इससे मानवाधिकारों का हनन होता है और व्यक्ति की मानवीय गरिमा धूल धूसरित हो जाती है। निर्णय में कहा गया है कि हथकड़ी के बिन्दु पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी दिशा निर्देशों के बाद जो कोई भी  किसी को हथकड़ी पहनाकर पुलिस अभिरक्षा में कहीं ले जाता हुआ पाया जाता है तो माना जायेगा कि उसने न्यायालय के आदेश की अवमानना की है और उसे विधि के अन्य प्रावधानों के साथ साथ न्यायालय अवमान अधिनियम के तहत दण्डित किया जायेगा।

     सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट आदेशों और आदेशात्मक दिशा निर्देशों के बावजूद पुलिस अभिरक्षा में व्यक्तियों को हथकडी पहनाकर न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करने की प्रथा आज भी बेरोकटोक जारी है। स्थानीय स्तरो पर थाने या जेल में हथकड़ी पहनाकर लोगों को अपमानित करने पर कोई अंकुश नही लग सका है। मेडिकल कालेज के कुछ छात्रों को हथकड़ी लगाये जाने के विरोध में डाक्टरों की देशव्यापी हड़ताल का भी इस अमानवीय प्रथा पर कोई प्रभाव नही पड़ा है। आपातकाल के दौरान उस समय के प्रख्यात समाजवादी श्रमिक नेता श्री जार्ज फर्नाडीज को हथकड़ी पहनाकर सुप्रीम कोर्ट लाया जाता था। हरियाणा में मुख्यमन्त्री देबी लाल ने अपनी व्यक्तिगत खुन्नस के चलते निवर्तमान मुख्यमन्त्री चैधरी वंशी लाल को हथकड़ी पहनावाकर सड़क पर घुमवाया था। इस प्रकार के उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है कि अब पुलिस अभिरक्षा में हथकड़ी सुरक्षा कारणो से नही पहनाई जाती है बल्कि पुलिस कर्मियों की सुविधा और अहं की संतुष्टि के लिए इस प्रथा को जारी रखा जा रहा है। सार्वजनिक मुद्दों पर धरना प्रदर्शन करने वाले आन्दोलकारी स्वयं अपनी गिरफ्तारी देते है और किसी भी दशा में पुलिस अभिरक्षा से उनके भागने की कोई सम्भावना नही होती फिर भी उन्हें थाने या जेल से न्यायालय हथकड़ी पहनाकर ही लाया जाता है। खेत मजदूर चेतना संघ बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश (ए.आई.आर.-1995 एस.सी.-पेज 31) में सर्वोच्च न्यायालय ने सार्वजनिक मुद्दो पर धरना या प्रदर्शन करने वाले आन्दोलनकारियों की गिरफ्तारी और उन्हें हथकड़ी लगाने की घटना पर राज्य सरकार के साथ साथ सम्बन्धित न्यायिक अधिकारी को भी फटकार लगाई थी।

आम लोगों को शोषण, अत्याचार, अन्याय, अपराध और अपराधियों से बचाना और उनकी रक्षा करना पुलिस का पवित्र कर्तव्य है। भ्रष्टाचार और अपने आपको शासक मानने की सामन्ती प्रवृत्ति के कारण सम्पूर्ण देश में पुलिस कर्मियों ने आम लोगों की रक्षा करने के अपने पवित्र कर्तव्य का परित्याग कर दिया है और खुद आम लोगों के उत्पीड़न का कारण बन गये है। आम आदमी पुलिस अभिरक्षा से भागने या अभिरक्षा के दौरान पुलिस कर्मियों को कोई क्षति पहुँचाने के बारे में सोच भी नही सकता। पुलिस कर्मियों की मिली भगत और भ्रष्टाचार के कारण अपराधी पुलिस अभिरक्षा से भागने में सफल होते है। भागने के अवसर स्वयं पुलिस कर्मी उन्हें उपलब्ध कराते है।

     सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि किसी भी व्यक्ति के विरूद्ध गम्भीर आरोप होना या गम्भीर धाराओं मे ज्यादा मुकदमें दर्ज होना हथकड़ी पहनाने का आधार नही हो सकता। स्वतन्त्र भारत में हथकड़ी पहनाने का कोई नियम नही है। हथकड़ी अपवाद स्वरूप ही पहनाई जायेगी। सुनील गुप्ता बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश (1990-एस.सी.सी. क्रिमिनल -पेज 441) में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिपादित किया है कि गिरफ्तार व्यक्ति यदि खतरनाक है और पुलिस अभिरक्षा के दौरान उसके भाग जाने की सम्भावना प्रतीत होती है तो उसे थाने से मजिस्टेªट के समक्ष लाये जाने के लिए हथकड़ी पहनाने के पूर्व सम्बन्धित अधिकारी को थाने की डायरी में हथकड़ी पहनाने के कारणों को अभिलिखित करना होगा और अन्य कागजातों के साथ इसकी प्रति भी मजिस्टेªट के समक्ष प्रस्तुत करनी होगी। न्यायालय को गिरफ्तार व्यक्ति के भाग जाने की सम्भावना के बारे में सम्पूर्ण तथ्यों से अवगत कराना होगा और फिर न्यायिक अधिकारी के आदेश के अधीन हथकड़ी पहनाई जा सकती है, परन्तु पुलिस या जेल अधिकारियो को अपने मन से अपने स्तर पर किसी को भी हथकड़ी पहनाने के लिए निर्णय लेने का कोई अधिकार किसी विधि के तहत प्राप्त नही है। विभिन्न राज्यों में अंग्रेजों के बनाये पुलिस अधिनियमों में हथकड़ी पहनाने के प्रावधान थे जो सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री कृष्णा अय्यर द्वारा पारित निर्णय के बाद स्वतः निष्प्रभावी हो गये है और अब उनका कोई विधि अस्तित्व नही है। हथकड़ी पहनाने की कार्यवाही अब पूरी तरह विधिविरूद्ध और संविधान के अनुच्छेद 19 एवं 21 के प्रतिकूल घोषित कर दी गयी है तद्नुसार उसे किसी भी दशा में जारी नही रखा जा सकता है।

प्रायः देखा जाता है कि अस्पतालों में इलाज के दौरान बीमार बन्दियों को भी हथकड़ी पहनाकर रखा जाता है। सिटीजन आफ डेमोक्रेसी बनाम स्टेट आफ आसाम (ए.आई.आर-1996-एस.सी.- पेज 197) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने अस्पताल में बीमार बन्दियों को हथकड़ी बेड़ी लगाकर रखे जाने की घटना को अन्तर्राष्ट्रीय विधि के तहत सभी को प्राप्त मानवाधिकारो का उल्लंघन बताया है। इस निर्णय के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने घोषित किया है कि देश के किसी भी भाग में दोषी या विचाराधीन किसी भी प्रकार के बन्दी को हथकड़ी पहनाकर अस्पताल में रखना, एक जेल से दूसरी जेल स्थानान्तरित करना या जेल से न्यायालय लाना आम लोगों को प्राप्त संवैधानिक अधिकारों के प्रतिकूल है, परन्तु सर्वोच्च न्यायालय की इस उद्घोषणा या इसके पूर्व जारी आदेशात्मक दिशा निर्देशों का स्थानीय स्तर पर पालन नही किया जा रहा है और सम्बन्धित न्यायिक अधिकारी से अनुमति प्राप्त किये बिना नित्य प्रति गिरफ्तार व्यक्तियों को पुलिस अभिरक्षा में हथकड़ी पहनाकर लाया जाता है और हथकड़ी लगाये रखकर न्यायिक अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत भी किया जाता है। एलटेमेस एडवोकेट बनाम यूनियन आफ इण्डिया आदि मे देलही हाई कोर्ट ने सरकार को हथकड़ी के सम्बन्ध में स्पष्ट दिशा निर्देश जारी करने के लिए आदेशित किया है परन्तु केन्द्र सरकार या राज्य सरकारो ने इस दिशा में अपने स्तर पर अभी तक कोई पहल नही की है। सरकारो का यही रवैया पुलिस कर्मियों और जेल अधिकारियों को मनमानी करने की छूट देता है।

आम लोगों के प्रति असंवेदनशील रवैये के कारण पुलिस कर्मी या जेल अधिकारी अपनी अभिरक्षा में बन्दियों को मनुष्य नही मानते और हथकड़ी बेड़ी रस्सी में उसे बाँधकर लाने ले जाने में गर्व महसूस करते है। दुःखद सच्चाई है बन्दियों के मानवीय अधिकारों की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी दिशा निर्देश थाने या जेल की चैखट पर दम तोड़ देते है। किसी को हथकड़ी पहनाकर थाने या जेल से न्यायालय लाना न्यायालय की अवमानना की परिधि में आता है परन्तु अभी तक किसी पुलिस कर्मी या जेल अधिकारी के विरूद्ध न्यायालय अवमान अधिनियम के तहत कार्यवाही नही की गई है।

Sunday, 13 October 2013

सड़क दुर्घटनाओ को बोनान्जा बनने से रोके.........

अब सड़क दुर्घटनाये में दी जाने वाली क्षतिपूर्ति मृतक आश्रितों की जगह बिचैलियो के लिए बोनान्जा बन गई है। सामाजिक सुरक्षा की यह व्यवस्था कुछ लोगों के लोभ और अनुचित कमाई का साधन बन गई है। क्षतिपूर्ति की राशि का बँटवारा होता है और आधे से भी कम घायल या मृतक आश्रित के हिस्से मे आता है। बड़े पैमाने पर गिरोहबन्दी करके पोस्टमार्टम हाऊस या थाने से मृतक के नाम पते की जानकारी करके न्यायालयों मे क्लेम पिटीशन दाखिल किये जाते है। फर्जी कथानक और बनावटी कागजात प्रस्तुत करके क्षतिपूर्ति प्राप्त की जा रही है। दिसम्बर जनवरी महीने में रात्रि 12 बजे से सुबह 4 बजे के मध्य घटित दुर्घटनाओं में भी अज्ञात वाहन के विरूद्ध दूसरे दिन प्रथम सूचना रिपार्ट दर्ज होने के बावजूद विवेचक साँठ गाँठ करके किसी न किसी वाहन के विरूद्ध आरोप पत्र प्रेषित कर देते है और यहीं से क्लेम का खेल और अनुचित कमाई का सिलसिला शुरू हो जाता है।

           अपने देश में सर्वाधिक मौतें सड़क दुर्घनाओं में होती है। वर्ष 2011 में 4,97,000 और वर्ष 2012 में 4,90,383 दुर्घटनायें घटित हुई है। जिसमें क्रमशः 142485 और 138258 लोग मृत्यु का शिकार हुये है। कैंसर जैसी असाध्य कही जाने वाली बीमारी से मरने वालों की तुलना में उससे कही ज्यादा लोग सड़क दुर्घटनाओं में मृत्यु का शिकार होते है, परन्तु सड़क सुरक्षा और यातायात प्रबन्ध आज भी सरकारो की प्राथमिकता सूची में नही है। यातायात प्रबन्ध के नाम पर शहरी क्षेत्रों के गली मोहल्लों में स्थानीय पुलिस दुपहिया वाहनों की नित्य प्रति तलाशी लेती है, जबकि दुपहिया वाहनों से घटित दुर्घटना में जनहानि प्रायः नही होती। शहरी क्षेत्रो में शराब पीकर वाहन चलाने वाले कार चालकों की तेजगति और ओवरटेकिंग को नियन्त्रित करने का कोई प्रयास नही किया जाता।
केन्द्रीय मन्त्री श्री आस्कर फर्नाडीज ने पिछले दिनों नेशनल रोड सेफ्टी काउन्सिल को सम्बोधित करते हुये बताया है कि नेशनल रोड सेफ्टी पालिसी 2010 के एप्रूब्ड कर दिया गया है, परन्तु पालिसी के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए उन्होंने कोई समयबद्ध रूपरेखा प्रस्तुत नही की जबकि सड़क दुर्घटनायें जनहानि के साथ साथ देश के अर्थतन्त्र को भी कुप्रभावित करती है। कुल जी.डी.पी. की तीन प्रतिशत क्षति सड़क दुर्घटनाओं के कारण होती है।

शहरी क्षेत्रों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में ज्यादा सड़क दुर्घटनायें होती है। शहरी क्षेत्रों में 46.5 प्रतिशत और गा्रमीण क्षेत्रामें में 53.5 प्रतिशत दुर्घटनाये घटित होती है। ग्रामीण क्षेत्रों मे यातायात कोई समस्या नही है। चालकों की अपनी लापरवाही दुर्घटनाओं का कारण बनती है। करीब 77.5 प्रतिशत दुर्घटनायें वाहन चालकों की लापरवाही का प्रतिफल है। तेज गति और ओवर टेकिंग वाहन चालको की आदत बन गई है। केवल कानून और सजा का भय उनकी इस आदत को नियन्त्रित कर सकता है। मोटर वाहन अधिनियम और भारतीय दण्ड संहिता में इस आशय के प्रावधान है। सड़क दुर्घटनाओं के दोषियों को सजा दिलाकर उन्हें सबक सिखाना किसी की प्राथमिकता में नही है। विवेचना की औपचारिकता पूरी करके साक्ष्य संकलित की जाती है। वैज्ञानिक तरीके से साक्ष्य संकलन का कोई तरीका आज तक विकसित नही हो सका है। प्रत्येक शहर में फारेन्सिक लैब बनायी गयी है, परन्तु आपराधिक मामलों की विवेचना में उनका कोई उपयोग नही है। फर्जी प्रत्यक्षदर्शी खोजना अपने देश के विवेचको की विशेषता है। विवेचक मरे व्यक्तियों का बयान लिखकर फाइनल रिपोर्ट या अरोपपत्र प्रेषित कर देते है जिसके कारण केवल दो प्रतिशत आरोपियों को सजा मिल पाती है। दुर्घटना में घायल या मृतक के आश्रित केवल क्षतिपूर्ति की चिन्ता करते है। दोषी वाहन चालक का विचारण और उसको उसके किये की सजा दिलाने के लिये प्रयास करना उनकी प्राथमिकता सूची मे नही है। 


          आर.टी.ओ. कार्यालयों में फैले भ्रष्टाचार के कारण ड्राइविंग लायसेन्स आसानी से मिल जाता है। दुपहिया वाहन चलाने के लिए अकुशल चालकों को भारी वाहन ड्राइव करने का लायसेन्स मिल जाना आम बात है। ऐसे ही वाहन चालक आम राहगीर से उसका जीवन छीन लेते है। ड्राइविंग लायसेन्स निर्गत करने की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना आवश्यक है। कम से कम भारी वाहनों के ड्राइविंग लायसेन्स के लिए प्रशिक्षण की अनिवार्यता लागू करना जरूरी हो गया है। किसी भी प्रकार की दुर्घटना कारित होने पर उसकी प्रविष्टि सम्बन्धित वाहन चालक के ड्राइविंग लायसेन्स पर अंकित करने की व्यवस्था भी लागू की जानी चाहियें ताकि विचारण के दौरान न्यायालय इस तथ्य को अपने संज्ञान में ले सके। दिनांक 31.05.2010 और दिनांक 18.05.2011 को सय्यद बाबा मजार कैन्ट कानपुर के पास अलग अलग घटित दुर्घटनाओं के लिए विक्रम टेम्पों पंजीकरण संख्या यू.पी. 78 बी. 3708 को दोषी बताया गया। प्रथम सूचना रिपोर्ट भी दर्ज है, परन्तु टेम्पों चालक के विरूद्ध कोई कार्यवाही नही हुई है। वास्तव में एक बार लायसेन्स जारी हो जाने के बाद उसके निरस्त होने का खतरा नही रहता। दूसरी या तीसरी दुर्घटना के बाद ड्राइविंग लायसेन्स निरस्त करने का नियम बनाया जाना चाहिये।

           सड़क दुर्घटनाओं में मृतक आश्रितों को मिलने वाली क्षतिपूर्ति का बँटवारा बढ़ता जा रहा है। क्लेम पिटीशन अनुचित कमाई का साधन बन गये है, परन्तु सरकारों के स्तर पर सड़क सुरक्षा और यातायात प्रबन्ध के लिए अभी तक कोई एकीकृत विधि नही बन सकी है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं पहल करके सड़क दुर्घटनाओं में घायलो का जीवन बचाने के लिए पण्डि़त परमानन्द कटारा बनाम यूनियन आफ इण्डिया (क्रिमिनल रिट पिटीशन संख्या 27 सन 1988 दिनांक 28.08.1989, ए.आई.आर. 1989 सुप्रीम कोर्ट पेज 2139) के द्वारा आदेशित किया है कि विधिक औपचारिकताओं के पूरा होने की प्रतीक्षा किये बिना घायल को तत्काल चिकित्सकीय इलाज उपलब्ध कराया जाये। भारतीय दण्ड संहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता और मोटर वाहन अधिनियम में ऐसा कोई प्रावधान नही है जो प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज हुये बिना किसी डाक्टर को दुर्घटना में घायल व्यक्ति का चिकित्सकीय इलाज करने से रोकता हो। किसी भी दशा में घायल का जीवन बचाना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्देश के बाद केन्द्र सरकार ने मोटर वाहन अधिनियम को संशोधित करके अधिनियम संख्या 54 सन् 1994 के द्वारा धारा 134 की प्रकृति को आदेशात्मक बना दिया है। इस धारा के तहत अब घायल को तत्काल निकटतम अस्पताल पहुँचाना ड्राइवर और मालिक के लिए आवश्यक हो गया है। चिकित्सकों के लिए भी सड़क दुर्घटना में घायलों का इलाज करना जरूरी है। वें अब एफ.आई.आर. दर्ज न होने के आधार पर किसी घायल का इलाज करने से इन्कार नही कर सकते। इलाज करने से इन्कारी अब मोटर वाहन अधिनियम की धारा 187 के तहत दण्डनीय अपराध है। 3 माह की सजा और 500/- रूपया जुर्माना या दोनों और दूसरी बार इलाज से इन्कार करने पर 6 माह की सजा और एक हजार रूपये जुर्माने का प्रावधान अधिनियम में है।

         तीस प्रतिशत से ज्यादा दुर्घटनाओं में 15 से 24 वर्ष की आयु वर्ग के युवा मृत्यु का शिकार होते है। इसमें बड़ी संख्या कक्षा 11 व 12 के  विद्यार्थियों की है। इन दुर्घटनाओं को माता पिता अपने स्तर पर नियन्त्रित कर सकते है। कक्षा ग्यारह बारह मे पढ़ने वाले बच्चों को केवल उनके शौक के लिए तेज गति की बाइक खरीद देने की बढ़ती प्रवृत्ति भी दुर्घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। दिल्ली के पूर्व स्वास्थ्य मन्त्री डा. हर्ष वर्धन ने एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई के अन्तिम वर्ष में मोटर साइकिल ली थी, जबकि उनके कई साथी द्वितीय वर्ष में ही मोटर साइकिल का आनन्द ले रहे थे। वास्तव में एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई मे अंतिम वर्ष के विद्यार्थियों को अलग अलग विभागों में जाना पड़ता है, जहाँ पैदल पहुँच पाना मुश्किल होता  है। अर्थात मोटर साइकिल आवश्यकता के लिए खरीदना चाहियें। माता पिता को कठोरता से कक्षा 12 तक के विद्यार्थियों को साइकिल या स्कूल बस से विद्यालय जाने के लिए मजबूर करना चाहियें। इस प्रकार के प्रयासों से तीस प्रतिशत सड़क दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है। 

           मोटर वाहन अधिनियम की धारा 158 (6) में प्रावधान है कि दुर्घटना की सूचना अंकित किये जाने के तीस दिन के अन्दर थाना प्रभारी दुर्घटना से सम्बन्धित सम्पूर्ण विवरण मोटर एक्सीडेन्ट क्लेम ट्रिब्यूनल के समक्ष प्रेषित करें। इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय ने भी कई बार दिशा निर्देश जारी किये है परन्तु थाना स्तर पर उसका अनुपालन नही किया जा रह है जबकि दिशा निर्देशों की प्रकृति आदेशात्मक है। थाना स्तर पर दुर्घटना से सम्बन्धित सुसंगत सूचनाओं को संकलित करने से क्षतिपूर्ति मामलों में फर्जीवाड़ा को काफी हद तक रोका जा सकता है। 

        दुर्घटना के तत्काल बाद पंचायत नामा से पोस्ट मार्टम की अवधि में मृतक के परिजन सम्बन्धित थाना प्रभारी के सम्पर्क मे आ जाते है। इसलिए मृतक की आयु आय और उसके आश्रितों की जानकारी उसे आसानी से हो सकती है। उसी समय यह भी स्पष्ट हो जाता है कि किस वाहन से दुर्घटना कारित हुई है अर्थात सब कुछ स्पष्ट हो जाता है और फर्जीवाड़ा की गुन्जाइस समाप्त हो जाती है। अपने पिता के नाम पंजीकृत कार को चला रहे पुत्र की दुर्घटना में मृत्यु हो जाने पर पुत्रवधू ने अपने पति को अपने ससुर का ड्राइवर कर्मचारी बताकर क्षतिपूर्ति का दावा किया है। इसी प्रकार दिनांक 20.01.2010 को रात्रि में घटित दुर्घटना में अज्ञात वाहन के विरूद्ध प्र्रथम सूचना रिपोर्ट लिखाये जाते समय किसी को वाहन का नम्बर पता नही था परन्तु बाद में नम्बर खोज लिया गया। थाना प्र्रभारी के स्तर पर एक्सीडेन्ट इनफारमेशन रिपार्ट भेजने की अनिवार्यता लागू हो जाने के बाद इस प्रकार की सोची समझी फर्जी याचिकाओं पर स्वतः रोक लग सकेगी और वास्तविक पीडि़त को कुछ भी व्यय किये बिना और अन्य किसी को हिस्सेदारी दिये बिना क्षतिपूर्ति प्राप्त हो सकेगी।

              थाना स्तर पर एक्सीडेन्ट इनफारमेशन रिपार्ट तैयार न करने कारण मोटर दुर्घटनाओं में फर्जी प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य आसानी में अदालत में प्रस्तुत हो जाती है। पोर्ट ब्लेयर (गोवा) में गोल घर चैराहे पर घटित सड़क दुर्घटना में एयरफोर्स कर्मी की मृत्यु की क्षतिपूर्ति का क्लेम पिटीशन कानपुर नगर में दाखिल है। इस दुर्घटना की अपने अपने स्तर पर अलग अलग विवेचना सिविल पुलिस और सेना पुलिस ने की है, परन्तु कानपुर में पिटीशन की सुनवाई के दौरान एक कथित प्रत्यक्षदर्शी साक्षी न्यायालय के समक्ष उपस्थित हुआ और उसने बताया कि वकील साहब के बस्ते पर चर्चा हो रही थी तभी हमे याद आ गया कि दुर्घटना मेरे सामने हुई थी। इस प्रकार के साक्षी पूरी क्षतिपूर्ति प्रक्रिया में दीमक लगा रहे है। बढ़ती सड़क दुर्घटनाओं को बोनान्जा मानकर ज्यादा से ज्यादा लाभ अर्जित करने वाले तत्वों का संघटित गिरोह सक्रिय हो गया है। जो दुर्घटना के बाद भोले भाले आश्रितों को सब्जबाग दिखाते है। फर्जी वाहन नम्बर ड्राइवर ड्राइविंग लायसेन्स आदि सुसंगत कागजात उपलब्ध कराते है और उसकी मुँहमाँगी कीमत वसूलते है और बाद में क्षतिपूर्ति की राशि का भी बँटवारा करते है।

Monday, 7 October 2013

तय करनी होगी मुकदमा दाखिले के दिन निर्णय की तिथि.....

सिविल लिटिगेशन के त्वरित और समयबद्ध निस्तारण के लिए मुकदमा दाखिल होने के दिन ही निर्णय की तिथि निर्धारित किया जाना आवश्यक हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने राम रामेश्वरी देवी एण्ड अदर्स बनाम निर्मला देवी एण्ड अदर्स (2011-3-जे.सी.एल.आर.-पेज 518-एस.सी) के द्वारा निर्देश जारी किया है कि अधीनस्थ न्यायालय दाखिले के समय विचारण का सम्पूर्ण शिडयूल्ड निर्धारित करे और लिखित कथन से लेकर निर्णय पारित होने की अवधि में प्रत्येक प्रक्रम के लिए तिथियाँ नियत कर दे। आवश्यक प्रकीर्ण प्रार्थनापत्रों का निस्तारण इसी अवधि में ही किया जाये और मूल कार्यो के लिए निर्धारित तिथियों पर नियत कार्यवाही अपवाद स्वरूप ही स्थगित की जाये, परन्तु निर्णय की तिथि में किसी भी दशा में परिवर्तन न किया जाये।
अदालतों के द्वारा लम्बे समय तक फैसले न हो पाने के कारण अब मकान मालिक अपना घर या फ्लेट किसी को रहने के लिए किराये पर नही देते और ताला बन्द रखना पसन्द करते है, जबकि बड़े शहरो और महानगरों में खाली पड़े इन आवासो से लाखों लोगों की तात्कालिक आवासीय जरूरतो को पूरा किया जा सकता है। किसी सामान्य व्यक्ति को विश्वास ही नही होता कि लीज या लायसेन्स की अवधि समाप्त हो जाने के बाद उनको अपनी जरूरत के लिए अपने मकान का शान्तिपूर्ण कब्जा एवं दखल वापस मिल जायेगा।
प्रायः देखा जाता है कि लीज या लायसेन्स अपनी अवधि समाप्त होने के बाद लिटिगेशन का कारण बन जाती है। अपनी अदालतंे लीज या लायसेन्स से सम्बन्धित मुकदमों से भरी पड़ी है। प्रत्येक दिन आधे से ज्यादा मुकदमें लीज या लायसेन्स से सम्बन्धित विवादों में निषेधाज्ञा हेतु दाखिल किये जाते है। घरेलू नौकर, माली, वाचमैन, केयर टेकर, सुरक्षागार्ड जिन्हें भवन में कर्मचारी होने के नाते रहने की अनुमति दी जाती है। अनुमति समाप्त हो जाने के बाद स्वेच्छा से अपने अध्यासन वाला भाग खाली नही करते बल्कि किरायेदारी के फर्जी कागजात बनाकर निषेधाज्ञा वाद दाखिल कर देते है और कई बार उनके पक्ष में निषेधाज्ञा आदेश भी पारित हो जाता है। अदालतों की लम्बी काजलिस्ट और प्रकीर्ण प्रार्थनापत्रों के निस्तारण में समय व्यय हो जाने के कारण ऐसे मुकदमों का निस्तारण टलता रहता है। वर्षों बाद मुकदमें के निर्णीत होने पर ऐसे अवैध कब्जेदारों या आदतन वादकारी को अवैध अध्यासन बनाये रखने के लिए दण्डित नही किया जाता और कई बार तो उन्हें अवैध कब्जा छोड़ने के एवज में अच्छी खासी धनराशि मिल जाती है और उसी कारण अवैध कब्जेदारों का मनोबल बढ़ा हुआ है।
वर्ष 2003 में कानपुर के कैन्टूमेन्ट बोर्ड ने भारत सेल्स कारपोरेशन नाम की फर्म को कान्ट्रेक्ट पर सिविल कार्य का आदेश दिया। काम की जरूरतो के लिए सामान रखने हेतु भारतीय सेना की जमीन पर एक कमरा भी दे दिया। इस कान्टेªक्टर को उसी प्रकृति के कई और काम भी आंवटित हो गये, जिसके कारण कान्ट्रेक्ट समाप्त होते ही कमरा खाली नही कराया गया। इस अवधि में सम्बन्धित अधिकारी स्थानान्तरित हो गये और फिर उसने कमरा खाली नही किया। नोटिस दी गई और नोटिस को वाद कारण बनाकर कान्ट्रेक्टर ने सिविल न्यायालय के समक्ष निषेधाज्ञा वाद दाखिल कर दिया और उसके पक्ष में एक पक्षीय निषेधाज्ञा आदेश पारित हो जाने के कारण सेना की भूमि पर उसका अवैध कब्जा बना हुआ है और दस वर्ष की लम्बी अवधि बीत जाने के बावजूद वाद में अभी तक वाद बिन्दु भी निर्धारित नही हो सके है।
अपने पक्ष में एक पक्षीय निषेधाज्ञा आदेश पा लेने में सफल हो जाने के बाद वादकारी उसे किसी न किसी बहाने अनन्त काल तक लम्बित बनाये रखने का प्रयास करता है। अदालतों में प्रत्येक दिन सौ पचास मुकदमों की लम्बी काज लिस्ट होने और प्रत्येक स्तर पर न्यायिक अधिकारियों की कमी के कारण गुणदोष के आधार पर सुनवाई नही हो पाती और एक दो महीने बाद की कोई नई तिथि नियत हो जाती है। गुणदोष के आधार पर मुकदमों के निस्तारण के लिए प्रतिदिन कम से कम पाँच गवाहों का परीक्षण सुनिश्चित कराया जाना जरूरी है। साक्ष्य के प्रक्रम पर प्रकीर्ण प्रार्थनापत्र प्रस्तुत किये जाते है। गवाही टल जाती है और उसके कारण साक्षी हतोत्साहित होता है। गुणदोष के आधार पर मुकदमों के निस्तारण में अवरोध उत्पन्न करने के आशय से प्रस्तुत प्रार्थनापत्रों पर समुचित अवसर और प्राकृतिक न्याय के हित मे हैवी कास्ट अधिरोपित नही हो पाती। सौ रूपये पचास रूपये की कास्ट का आदतन वादकारी पर कोई असर नही पड़ता। इस प्रकार की स्थितियों में वास्तविक पीडि़त और सही पक्षकार हतोत्साहित होता है और फिर वह अपने विधिपूर्ण अधिकारों से समझौता करने को विवश हो जाता है।
असत्य कथनों और फर्जी कागजातों के आधार पर दाखिल निषेधाज्ञा वादों की बढ़ती संख्या सर्वोच्च न्यायालय के संज्ञान में है और उसने कई अवसरों पर स्पष्ट दिशा निर्देश जारी किये है परन्तु अधीनस्थ न्यायालयों के स्तर पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देश लम्बे समय से लागू होने की प्रतीक्षा में दम तोड़ने लगे है। कामन काज और राजदेव शर्मा के मामलों में जारी दिशा निर्देशों की अब चर्चा भी बन्द हो गई है जबकि वे आज भी उतने ही सुसंगत और प्रासंगिक है। सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः (2011-3-जे.सी.एल.आर.-पेज 518-एस.सी.) के द्वारा स्पष्ट किया है कि प्लीडिंग और डाक्यूमेन्ट सिविल वादों का आधार होते है। मुकदमा दाखिल होने के समय इनका बेरीफिकेशन गहनता से किया जाना चाहियें। कोई भी आदेश करने के पूर्व डाक्यूमेन्ट की डिस्कवरी और प्रोडक्शन पर जोर देना चाहिये। इस प्रक्रिया से वास्तविक वाद बिन्दु के निर्धारण और फिर विवाद के न्यायपूर्ण समाधान मे सहायता मिलती है। किसी भी प्रकृति का सिविल वाद दाखिल होने के समय सामान्य नियमावली (सिविल) के तहत न्यायालय के मुन्सरिम समस्त प्रपत्रों की जाँच करके उस पर अपनी आख्या प्रस्तुत करते है और उसी आधार पर मुकदमा दर्ज रजिस्टर होता है। वाद संख्या आवंटित होती है। अपने स्तर पर कुशलता आर्जित करके मुन्सरिम बनने वाले लिपिक सेवानिवृत्त हो चुके है। पदोन्नति में पक्षपात और प्रशासनिक कारणों से आये दिन के स्थानान्तरण से व्यथित कर्मचारी अब अपने स्तर पर मुन्सरिम के लिए अपेक्षित कुशलता अर्जित करने का प्रयास नही करते और उसके कारण कमोवेश सभी जनपदो मे इस पद की महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों का निर्वहन काम चलाऊ व्यवस्था के तहत किया जा रहा है। मुन्सरिम को सभी विधियों के प्रक्रियागत नियमों की जानकारी होनी चाहिये। उसके नियमित प्रशिक्षण की कोई एकीकृत व्यवस्था न होने के कारण सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रक्रियागत सुधारों के लिए जारी दिशा निर्देशों का अनुपालन नही हो पा रहा है। मुन्सरिम की अकुशलता के कारण सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में आरबीट्रेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट 1996 के तहत पारित माध्यस्थम पंचाटों के प्रवर्तन के लिए इजरा वादों के दाखिले के समय स्टाम्प डयूटी के भुगतान को लेकर अलग अलग जनपदों मे अलग अलग नियम लागू है। कही स्टाम्प डयूटी देय है और कही देय नही है।
सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों के अनुकूल दाखिले के समय समस्त प्रपत्रों का बेरीफिकेशन न होने के कारण अनावश्यक मुकदमेबाजी बढ़ती है। भारत सरकार के एक प्रतिष्ठान में नौकरी के लिए प्रेषित आवेदन के रिजेक्शन को उपभोक्ता विवाद बताकर उपभोक्ता फोरम शाहजहाँपुर के समक्ष परिवाद दाखिल किया गया है। नौकरी के आवेदन पर विचार करने या न करने का विवाद उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की परिधि में नही आता। परिवाद की ग्राहृता के विरूद्ध भारत सरकार की आपत्ति का निस्तारण पविादी के स्थगन प्रार्थनापत्र के कारण नही हो पा रहा है। प्रारम्भिक स्तर पर मुन्सरिम आख्या के समय खारिज होने वाला परिवाद पिछले एक वर्ष से ज्यादा समय से लम्बित है। जनपद कानपुर के धार्मिक महत्व वाले बिठूर में ध्रुवटीला की जमीन को अपनी पैतृक सम्पत्ति बताकर किसी मधुकर राव मोघे ने अदालत में निषोधाज्ञा वाद दाखिल कर दिया जबकि ध्रुव टीला और उसके आसपास की 4 एकड़ जमीन सड़क और लगे 39 पोलो को तत्कालीन संयुक्त प्रांत सरकार के लेफ्टिनेन्ट गवर्नर ने  नोटिफिकेशन संख्या यू.पी.-213/एम 357/ दिनांक 01 फरवरी 1912 के द्वारा संरक्षित स्मारक घोषित किया है और उस समय वहाँ मधुकर राव मोघे का कोई पूर्वज या अन्य कोई नही रहता था। हलाँकि अदालत ने मुकदमा खारिज कर दिया है परन्तु इन उदाहरणों से इतना तो तय है कि अपनी अदालतों में आदतन वादकारी असत्य तथ्यों और फर्जी कागजातों के आधार पर किसी के भी विधिपूर्ण अधिकारों का हनन करके मुकदमा दाखिल करने और फिर अपने पक्ष में एक पक्षीय निषेधाज्ञा आदेश पारित करा लेने मे सफल हो जाते है। ऐसे वाद कारियों पर प्रभावी अंकुश लगाने और उन्हें दण्डित करके अपनी न्यायिक व्यवस्था के प्रति आम लोगों के विश्वास को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए अधीनस्थ न्यायालयों के स्तर पर सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों का अनुपालन आवश्यक है। न्यायिक सुधारों के लिए और ज्यादा प्रतीक्षा देश और समाज के व्यापक हितो के प्रतिकूल है।