Monday, 22 December 2014

मानवाधिकारो के लिये बदलना होगा पुलिस का रवैया

पिछले दिनों इण्डियन काउन्सिल आॅफ ह्ययूमैन राइट्स की एक कार्यशाला को सम्बोधित करते हुये उत्तराचंल मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति श्री राजेश टंडन ने स्वीकार किया कि एन.डी.पी.एस. एक्ट के तहत पंजीकृत लगभग सभी मुकदमो में बरामदगी फर्जी होती है। स्थानीय पुलिस इस अधिनियम का जानबूझ कर दुरूपयोग करती है और उसने आम लोगो को उत्पीडित करने का इसे माध्यम बना लिया है। उन्होने अपने सम्बोधन में अपने अनुभवो को साझा करते हुये बताया कि मेरी पीठ के समक्ष जर्मनी की एक महिला के कब्जे से मादक पदार्थ की बरामदगी का मामला सामने आया जिस पर विचार करते हुये मैने पाया कि गिरफ्तार महिला को हिन्दी नही आती थी और उसे गिरफ्तार करने वाले पुलिस कर्मियों का अंग्रेजी भाषा से कोई वास्ता नही था परन्तु बरामदगी मेमो में लिखा था कि पुलिस कर्मियों ने महिला को बताया था कि उसे अपनी तलासी किसी मजिस्ट्रेेट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष कराने का अधिकार प्राप्त है परन्तु महिला ने किसी मजिस्ट्रेेट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष तलाशी के लिये जाने से इनकार कर दिया और कहा कि आप पर मुझे विश्वास है और आप ही मेरी तलाशी ले लीजिये। माननीय न्यायमूर्ति के अनुसार उन्हे यह पूरी प्रक्रिया फर्जी प्रतीत हुई और उन्होने एन.डी.पी.एस एक्ट की धारा 50 का अनुपालन न होने के कारण विदेशी महिला को दोषमुक्त घोषित कर दिया और बाद में उनके निर्णय की पुष्टि सर्वोच्च न्यायालय ने भी की थी।
मेरा अपना अनुभव भी बताता है कि स्वतन्त्र भारत में पुलिस बल संघटित अपराधियों का एक सरकारी गिरोह बन गया है, जो  राज्य की शक्तियों का प्रयोग प्रायः आम लोगो के मानवाधिकारो का हनन करने, उन्हे उत्पीडित करके अवैध कमाई करने के लिये करती है। किसी को भी फर्जी मुकदमा बनाकर वर्षो के लिये जेल में निरू़द्ध रहने के लिये अभिशप्त बना देने और फर्जी मुडभेड दिखाकर किसी की भी हत्या करने में इन्हे व्यवसायिक विशेषज्ञता हासिल है। आजादी के बाद सभी राजनैतिक दलों ने अलग अलग अवसरों पर पुलिसिया उत्पीडन और उसके द्वारा की गयी ज्यादातियों का विरोध करने के लिये उसकी तुलना विदेशी शासन के जलिया वाला बाग काण्ड से की है परन्तु सत्तारूढ रहने के दौरान किसी ने भी पुलिस बल को पब्लिक  ओरियेन्टेड सेवा प्रदाता संस्थान बनाने के लिये कोई पहल नही की, उस पर प्रभावी नियन्त्रण के लिये कोई तन्त्र विकसित नही किया बल्कि पुलिस कर्मियों को अपनी तत्कालिक राजनैतिक जरूरतों के लिहाज से आम लोगो के मानवाधिकारों के हनन की खुली छूट दी है। 
एन.डी.पी.एस. एक्ट के तहत सभी बरामदगी मेमो में लिखा रहता है कि हम पुलिस कर्मी गश्त पर जा रहे थे, सामने की ओर से एक व्यक्ति आता हुआ दिखायी दिया जो हम पुलिस वालो को अचानक देखकर ठिठका और पीछे मुडकर तेज कदमो से चलने लगा। शक हुआ उसे रोका टोका गया नही रूका। एकबारगी दौडाकर उसे पकड लिया । उससे भागने का कारण पूॅछा तो उसने बताया कि उसके पास चरस है। चरस होने की जानकारी प्राप्त होते ही उसे बताया गया कि उसे अपनी तलाशी किसी मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष कराने का अधिकार प्राप्त है परन्तु उसने तलाशी के लिये कहीं भी जाने से इनकार कर दिया और कहा कि हमें आप सब पर विश्वास है आप ही मेरी तलाशी ले लीजिये। इसी बीच उसने अपने पहने पैन्ट की दाहिनी जेब से एक पुडिया निकाल कर दी और कहा कि इसी में चरस है। प्रत्येक फर्द पर यही भाषा लिखी होती है और कभी कोई व्यक्ति पुलिस वालो की गिरफ्त में आने के पहले भागने के दौरान अपने जेब में रखी चरस को फेकता नही है और पुलिस वालो के आने का इन्तजार करता है। फर्द की भाषा से ही स्पष्ट हो जाता है कि पूरी प्रक्रिया एकदम फर्जी है और पुलिस अपने तरीके से फर्द लिखकर किसी को भी गिरफ्तार करके महीनों के लिये जेल भेज देती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने फर्जी मामले बनाकर लोगो को जेल भेज देने की पुलिसिया कार्यवाही की आलोचना करते हुये कई बार कहा है कि फर्जी मामलो में जेल जाने वाले  लोग वर्षो जेल में रहने के बाद जब रिहा होते है तो कोई उनका वह समय वापस नही दिला सकता जो उन्होने निर्दोष होने के बावजूद जेल में बिताया है। कई  बार अपने आपको निर्दोष साबित कराने के लिये उन्हे सर्वोच्च न्यायालय तक लम्बा कानूनी युद्ध लडना पडता है और उसके व्यय को वहन करने के लिये उन्हे कर्ज, शर्म और उत्पीडन का शिकार होना पडता है। परन्तु जिला प्रशासन या राज्य सरकार के स्तर पर इसकी कोई चिन्ता नही करता। कानपुर के रामा डेन्टल कालेज के एक विद्यार्थी को पुलिस ने उसके पास से चरस बरामद करके जेल भेज दिया। मानवाधिकार आयोग ने इस घटना की जाॅच कराई तो पूरी प्रक्रिया फर्जी पाई गयी। मानवाधिकार आयोग ने सम्बन्धित थानाध्यक्ष के विरूद्ध कार्यवाही की अनुशंसा की परन्तु उनके विरूद्ध कोई कार्यवाही नही हुयी। बाद में न्यायालय ने भी पूरे मामले को फर्जी पाया और विद्यार्थी को दोषमुक्त घोषित कर दिया परन्तु उसका पूरा कैरियर बरबाद हो गया और वह डाक्टर नही बन सका।
वास्तव में इस प्रकार की स्थितियों में निर्दोष नागरिकोे के उत्पीडन के लिये खुद व्यवस्था दोषी है। राज्य का संवैधानिक दायित्व है कि वे अपने नागरिको के मान समान और उसकी गरिमा की रक्षा करे और किसी भी दशा में निर्दोष को उत्पीडित होने से बचाये। राज्य सरकारो को अपने स्तर पर प्रक्रियागत व्यवस्था स्थापित करके सुनिश्चित कराना चाहिये कि किसी भी दशा में किसी भी नागरिक को स्थानीय पुलिस कर्मी फर्जी मामलों में फॅसाने का दुस्साहस न कर सकें और मामलों को विचारण के लिये न्यायालय के समक्ष प्रेषित करने के पूर्व उनकी सधन उच्चस्तरीय समीक्षा की जाये और केवल उन्ही मामलों में आरोप पत्र प्रेषित किये जाये जिनमें सजा के लिये समुचित विश्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध हो। औपचारिकतावश आरोप पत्र प्रेषित करने की प्रक्रिया में आमूलचूल परिवर्तन किये जायें। विवेचना पूरी हो जाने के बाद स्वतन्त्र मस्तिष्क का प्रयोग करके संकलित साक्ष्य की समीक्षा की जाये और यदि उनमें कोई कमी पायी जाये तो बेहिचक उन्हे दूर किया जाये। आवश्यकता प्रतीत हो तो नये सिरे से पुनः साक्ष्य संकलित की जाये परन्तु किसी भी दशा में अपर्याप्त साक्ष्य के साथ आरोप पत्र न्यायालय के समक्ष प्रेषित नही किये जाने चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुझाई गई इस उद्देश्यपरक प्रक्रिया से केवल उन्ही लोगो के विरूद्ध आरोप पत्र प्रेषित किये जा सकेगे जिनके विरूद्ध समुचित विश्वसनीय साक्ष्य उपलब्ध होगी और उसके कारण अधिकांश अपराधो में अभियोजन को अभियुक्तो के विरूद्ध अधिरोपित आरोप  सिद्ध करने में सहजता होगी।
विदेशी शासन काल के दौरान वर्ष 1861 में बनाये गये पुलिस अधिनियम का उद्देश्य आतंक का राज्य कायम करके हम भारतीयो को उत्पीडित करके मान मर्यादा को धूलधुसरित करने का था। सोचा गया था कि आजाद भारत में इस अधिनियम को प्रभावहीन कर दिया जायेगा परन्तु अपने राज नेताओं ने इसमें कोई परिवर्तन नही किया और उसी कारण पुलिस का सोच व्यवहार एवं आचरण आज भी अंग्रेजो के शासनकाल की तरह आम नागरिकों को आतंकित रखने का है। स्वतन्त्र भारत में उनकी मानसिकता को बदलने का कोई  प्रयास नही किया गया। पुलिसिया व्यवस्था में सुधार के लिये केन्द्र सरकार और अनेक राज्य सरकारांे ने कई आयोगों का गठन किया है, परन्तु सभी आयोगों की रिपोर्ट सरकारी फाइलों में कैद है। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने भी उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व डी.जी.पी. प्रकाश सिंह की याचिका पर पुलिसिया व्यवस्था में सुधार के लिये व्यापक दिशा निर्देश जारी किये है परन्तु  किसी राज्य सरकार ने इस दिशा निर्देशो के अनुरूप अपने पुलिस बल में सुधार के लिये कोई प्रयास नही किया है।  
किसी भी मामले में फर्जी गवाह खोजना और फिर उसी आधार पर अपराध के खुलासे की वाह वाही लूटना स्थानीय पुलिस अधिकारियों का प्रिय शगल है प्रेमचन्द्र बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया (ए.आई.आर.-1981-पेज 613) की सुनवाई के समय एक व्यक्ति द्वारा बतौर अभियोजन साक्षी तीन हजार मामलों में गवाही देने का तथ्य प्रकाश में आने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रकार के पेशेवर साक्षियों की पूरी न्यायिक व्यवस्था के लिये प्रदूषण बताया था। सभी जानते है कि इस प्रकार का पुलिसिया आचरण मानवाधिकारो के लिये घातक है इस सबको देखकर लगता है कि आम लोगों के मानवाधिकारो की रक्षा और देश में सुशासन बनाये रखने के लिये कानून व्यवस्था को राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में शामिल करना आवश्यक हो गया है।  

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