Monday, 29 December 2014

सम्पत्ति के अधिकार की तरह है पेन्शन

सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट आॅफ झारखण्ड एण्ड अदर्स बनाम जितेन्द्र कुमार श्रीवास्तव एण्ड अदर्स (2014-2-सुप्रीम कोर्ट केसेज-एल एण्ड एस-570) में प्रतिपादित किया है कि किसी कर्मचारी को पेन्शन एवम ग्रेच्युटी उसके सेवायोजक की कृपा पर नही बल्कि सम्पत्ति के अधिकार के तहत प्राप्त होती है और किसी कर्मचारी को पेन्शन एवम ग्रेच्युटी के अधिकार से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 300 ए का उल्लघंन है। 
सुस्थापित और सर्वस्वीकृत है कि पेन्शन एवम ग्रेच्युटी किसी सेवायोजक की कृपा का प्रतिफल नही है। अपनी मेहनत निष्ठा और ईमानदारी से लम्बे समय तक सेवा करने वाले कर्मचारियों को इनके लाभ मिलते है। ये लाभ मेहनत से अर्जित लाभ है जो सम्पत्ति के अधिकार की तरह कर्मचारियों के सेवा हितलाभो के साथ निहित होते है और विधिक प्रक्रिया का अनुपालन किये बिना कोई सेवायोजक किसी कर्मचारी को इनके लाभो से वंचित नही कर सकता है। 
झारखण्ड सरकार ने अपने एक कर्मचारी को उसके विरूद्ध भारतीय दण्ड संहिता एवम भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत पंजीकृत आपराधिक मुकदमों और विभागीय स्तर पर अनुशासनात्मक कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान सेवानिवृत्ति पर उसकी पंेशन अवकाश नकदीकरण एवम ग्रेच्युटी का भुगतान नही किया। राज्य सरकार के इस निर्णय के विरूद्ध कर्मचारी ने उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल की जिस पर उच्च न्यायालय ने आदेश पारित करके कर्मचारी को राज्य सरकार के समक्ष प्रतिवेदन दाखिल करने का निर्देश दिया। उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश के अनुपालन मे कर्मचारी ने राज्य सरकार के समक्ष प्रतिवेदन प्रस्तुत करके पेन्शन, ग्रेच्युटी एवम अवकाश नगदीकरण दिये जाने की माॅग की। परन्तु राज्य सरकार ने कर्मचारी के प्रतिवेदन को खारिज कर दिया। राज्य सरकार के इस आदेश के विरूद्ध कर्मचारी ने पुनः उच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल की जो खारिज हो गयी। हाई कोर्ट के इस आदेश के विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिये कर्मचारी ने डिवीजन बेन्च के समक्ष अपील दाखिल की जिसे उच्च न्यायालय ने दूधनाथ पाण्डेय बनाम स्टेट आॅफ झारखण्ड (2007-2-बी.एल.जे.आर-2847) में फुल बेन्च द्वारा पारित निर्णय को दृष्टिगत रखकर स्वीकार कर लिया और राज्य सरकार को पेन्शन ग्रेच्युटी एवम अवकाश नगदीकरण का भुगतान करने के लिये आदेशित किया।
राज्य सरकार ने अपने पेन्शन नियमों में आपराधिक मुकदमा या अनुशासनात्मक कार्यवाही के लम्बित रहने के दौरान सेवा हितलाभों के भुगतान का कोई प्रावधान न होने के बावजूद केवल वित्त विभाग द्वारा जारी शासनादेश को आधार बनाकर पेन्शन एवम ग्रेच्युटी का भुगतान रोका था। राज्य सरकार ने संतराम शर्मा बनाम स्टेट आॅफ राजस्थान (ए.आई.आर-1967-सुप्रीम कोर्ट-1910) में पारित निर्णय का सहारा लेकर सर्वेच्च न्यायालय के समक्ष डिवीजन बेन्च द्वारा पारित निर्णय के विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिये अपील दाखिल की और दलील दी कि यदि किसी विषय विशेष के सम्बन्ध में कोई नियम विद्यमान नही है तो राज्य सरकार को अधिकार है कि वह प्रशासनिक आदेश जारी करके इस कमी को पूरा कर ले। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार की इस दलील को स्वीकार नही किया और स्पष्ट किया कि संतराम शर्मा वाले मामले में न्यायालय के समक्ष प्रशासनिक आदेश के तहत पेन्शन एवम ग्रेच्युटी को रोके जाने का विवाद प्रश्नगत नही था बल्कि उसमें प्रशासनिक आदेश की विधिक हैसियत का विवाद प्रश्नगत था इसलिये संतराम शर्मा के मामले में प्रतिपादित विधि सेवा हितलाभों के विवाद में लागू नही हो सकती।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि यह सच है कि सेलेक्शन ग्रेड पदों पर जूनियर और सीनियर ग्रेड अधिकारियों की पदोन्नति का नियमो में कोई प्रावधान नही है। इसका यह अर्थ नही है कि जब तक सरकार इस आशय के नियम नही बनाती है तब तक सरकार पदोेन्नति के लिये कोई शासनादेश जारी नही किये जा सकते। इन स्थितियों में प्रशासनिक सहूलियतों के लिये राज्य सरकार को प्रशासनिक निर्देश जारी करने का अधिकार है परन्तु राज्य सरकार को प्रशासनिक आदेश के द्वारा किसी नियम को प्रतिस्थापित करने का अधिकार प्राप्त नही है। 
सर्वोच्च न्यायालय ने डी.एस नकारा बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया (1983-1-एस.सी.सी-305) में पेंशन क्यो दी जाती है? क्या सरकार या सेवायोजक अपने कर्मचारी को पंेशन देने के लिये बाध्य है? पेंशन क्या है? पेंशन का उद्देश्य क्या है? पंेशन देने में क्या जनहित है? आदि प्रश्नों का उत्तर देते हुये संवैधानिक पीठ द्वारा देवकी नन्दन प्रसाद बनाम स्टेट आॅफ बिहार (1971-2-एस.सी.सी-330) एवम स्टेट आॅफ पंजाब बनाम इकबाल सिंह (1976-2-एस.सी.सी-1) को उदधृत करते हुये स्पष्ट किया है कि पंेशन सेवायोजको की कृपा या उनकी सदिच्छा का प्रतिफल नही है बल्कि इसे पाना कर्मचारी का अधिकार है जो नियमों द्वारा शासित होता है। जो कर्मचारी इन नियमों की परिधि मे आता है उसे अधिकार स्वरूप पंेशन दिये जाने का प्रावधान है। इसी निर्णय में प्रतिपादित किया गया है कि पेंशन सम्पत्ति की तरह का अधिकार है जिससे कर्मचारी को विधिक प्रक्रिया का अनुपालन किये बिना वंचित नही किया जा सकता। सर्वाेच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था कि पेंशन के अधिकार में किसी तरह का हस्तक्षेप संविधान के अनुच्छेद19(1)(एफ) और 31(1) को उल्लघंन है और सरकार पेंशन के अधिकार में प्रशासनिक आदेश के द्वारा कोई कटौती नही कर सकती और न उसे समाप्त कर सकती है।
पेंशन के अधिकार का विवाद के आर इररी बनाम स्टेट आफ पंजाब (ए.आइ.आर-1967- पंजाब-279) में पंजाब एण्ड हरियाणा उच्च न्यायालय के समक्ष प्रश्नगत हुआ। उच्च न्यायालय ने सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा पारित दोनों पूर्व निर्णयों को आधार बनाकर प्रतिपादित किया कि पेंशन का अधिकार किसी कर्मचारी का महत्वपूर्ण अधिकार है। इस अधिकार में अनुशासनात्मक कार्यवाही के तहत यदि किसी प्रकार की कटौती की जानी है तो सम्बन्धित कर्मचारी को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का समुचित अवसर प्रदान किया जाना चाहिये। इस प्रकार के अवसर दिये बिना और इन अवसरों पर कर्मचारी द्वारा प्रस्तुत तथ्यों के गुणदोष पर विचार किये बिना पंेशन में कटौती का दण्ड अधिरोपित करने का कोई अधिकार सरकार या सेवायोजक को प्राप्त नही है। 
स्टेट आॅफ वेस्ट बंगाल बनाम हरेश सी. बनेर्जी (2006-7-एस.सी.सी-651) में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि 44वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 के द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार न माने जाने के बावजूद अनुच्छेद 300 ए के तहत पंेशन का अधिकार संवैधानिक अधिकार है और उसे सम्पत्ति के अधिकार के रूप में संवैधानिक मान्यता प्राप्त है। प्रशासनिक निर्देश की प्रक्रति विधिक नही होती इसलिये वे विधि की परिधि में नही आते। तदनुसार किसी कर्मचारी को प्रशासनिक निर्देशो के तहत पेंशन एवम ग्रेच्यूटी के अधिकार से वंचित नही किया जा सकता।

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