Sunday, 22 February 2015

कोई कारखाना श्रमिको की हडताल की वजह से बन्द नही हुआ।

आज एक उद्योगपति मेरे घर आये थे। सामान्य बातचीत के दौरान कानपुर के औद्योगिक परिद्रश्य की चर्चा आने पर उन्होने बताया कि सभी कारखाने लाल झण्डे वालो विशेषकर माक्र्सवादी नेता श्रीमती सुभाषिनी अली द्वारा चलाये गये आन्दोलन के कारण बन्द हुये है। उन्होने अपने शहर से निर्दलीय लोक सभा सदस्य कम्यूनिस्ट नेता स्वर्गीय एस0एम0 बनर्जी के बारे में भी कई रहस्योदघाटन किये। उनकी बाते सुनते हुये मैने उनसे किसी ऐसे कारखाने का नाम पूॅछा जो टेªड यूनियन नेताओ विशेषकर सुभाषिनी अली के उकसाने पर श्रमिको की हड़ताल के कारण बन्द हुआ है। मेरी इस जिज्ञासा का उनके पास कोर्ट जवाब नही था परन्तु फिर भी वे कारखानो की बन्दी के लिये श्रमिक नेताओ को निर्दोष मानने के लिये तैयार नही हुये। 
कानपुर के कारखानो की बन्दी से लेकर टेªड यूनियन नेताओ को दोषी बताने की चर्चायें आम हो चली है। सार्वजनिक क्षेत्र के एक बडे प्रतिष्ठान के महाप्रबन्धक ने भी मुझसे इसी प्रकार की बाते कही थी। वास्तव में कानपुर के कारखानो की बन्दी के वास्तविक कारणो का इस प्रकार के लोगो को कोई ज्ञान नही है। टेªड यूनियन अवधारणा को उद्योग विरोधी मानने वाले कुछ नव धनाड्य लोगो की सुनी सुनाई अप्रमाणित बातो को आधार बनाकर श्रमिक नेताओ के विरूद्ध अर्नगल दोषारोपण का षडयन्त्र किया जा रहा है। अपने कानपुर में एक भी कारखाना श्रमिको की हडताल के कारण बन्द नही हुआ है। सभी कारखानो को उनके मालिको ने अपने निजी कारणो से बन्द किया है और श्रमिको को बेरोजगार करके भुखमरी का शिकार बनाया है।
सिंहानिया समूह की जे0के0 जूट मिल, कैलाश मिल, जे0के0 प्लास्टिक रेयन, आयरन एण्ड स्टील मिल की बन्दी उनके प्रबन्धको के कुप्रबन्ध और पारिवारिक विवादो का प्रतिफल है। श्रमिको या श्रमिक नेताओ का इसमें कोई दोष या दायित्व नही है। राष्ट्रीय वस्त्र निगम की सभी पाॅचो इकाइयो लक्ष्मी रतन, अथर्टन वेस्ट म्योर मिल, स्वदेशी काटन मिल एवम विक्टोरिया मिल में केन्दीय सरकार के नीतिगत निर्णय के तहत श्री मनमोहन सिंह के वित्त मन्त्रित्व काल मे उत्पादन बन्द किया गया जबकि इन मिलो में प्रतिरक्षा सेनाओ की आवश्यकता के लिये उत्पादन किया जाता था और उस समय तक उसकी माॅग में कोई कमी नही आई थी। बाद मे श्री अटल विहारी बाजपेयी के प्रधान मन्त्रित्व काल मे इन सभी कारखानो की जमीन को बेचने के लिये श्रमिको को स्वेछिक सेवा निवृत्ति का झुनझुना पकडा दिया और कारखाने बन्द कर दिये गये। इन कारखानो की बन्दी के समय शहर से भारतीय जनता पार्टी के श्री जगत वीर सिंह द्रोण सांसद थे और उन्ही के दल के सभी विधायक थे। मुझे नही मालूम कि भारतीय जनता पार्टी के निर्वाचित जन प्रतिनिधियो ने कानपुर के कारखानो की अभूतपूर्व आत्मघाती बन्दी को रोकने के लिये क्या प्रयास किये थे? 
यह सच है कि कानपुर जूझारू मजदूर आन्दोलन के लिये जाना जाता है। साम्यवादी विचारक ई.एम.एस. नंबूदिरिपाद ने अपनी पुस्तक “भारत का स्वाधीनता संग्राम” में लिखा है कि वेतन में बढोत्तरी और अपनी यूनियन को मान्यता दिये जाने की माॅग को लेकर जुलाई 1937 मे कानपुर की एक ब्रिटिश स्वामित्व वाली कपडा मिल की हडताल इस तरह के संधर्षो का शानदार उदाहरण है। कानपुर की हडताल ने देश भर में मजदूरो के संधर्ष के लिये माडल का काम किया। इसने पूरे भारत में साम्राज्य विरोधी तत्वो को इस तथ्य से भी अवगत कराया कि अगर कम्यूनिस्ट सोशलिस्ट और साधारण काग्रेज जन मिल जुल कर मजदूरो के संधर्ष में हिस्सा ले तो कितना शानदार नतीजा निकल सकता है। आजादी के पहले से आज तक श्रमिको ने उद्योग की बन्दी के मूल्य पर कभी कोई आन्दोलन नही किया और इसी कारण कोई कारखाना श्रमिको की हडताल के कारण बन्द नही हुआ है।
नारायण दत्त तिवारी के मुख्य मन्त्रित्व काल में कपडा मिलो के श्रमिको के वेतन और उनकी कार्यदशाओ में सुधार के लिये के0के0 पाण्डेय एवार्ड पारित हुआ था। शुरूआती दौर में किसी श्रमिक नेता ने इस एवार्ड का विरोध नही किया। हलाॅकि एवार्ड के गुणदोष पर सभी स्तरो पर चर्चा हो रही थी परन्तु इसी बीच स्थानीय समाचार पत्रो मे बडे बडे विज्ञापन प्रकाशित होने लगे और उसके द्वारा टेªड यूनियन नेताओ के विरूद्ध दुष्प्रचार शुरू किया गया। इन अखबारी विज्ञापनो के द्वारा के0के0 पाण्डेय एवार्ड के विरूद्ध माहौल बनाया गया। श्रमिको को उकसाया गया। सुस्पष्ट है कि किसी श्रमिक नेता या टेªड यूनियन ने इस प्रकार के मॅहगे विज्ञापन प्रकाशित नही कराये। सब कुछ मिल मालिको, एन.टी.सी और बी.आई.सी के अधिकारियो की शह पर किया गया। दुर्भाग्य से के0के0पाण्डेय एवार्ड अपास्त हो जाने की खुशी में टेªड यूनियन नेताओ ने अखबारी विज्ञापनो के स्त्रोत को जानने का प्रयास नही किया।
कारखानो की बन्दी के कारणो को जाने समझे बिना टेªड यूनियन नेताओ विशेषकर लाल झण्डे वालो को दोषी बताने का एक फैशन बन गया है। ऐसे लोगो को अहसास नही है कि टेªड यूनियन आन्दोलन कमजोर हो जाने के कारण निजी क्षेत्र मे कर्मचारियो का शोषण और उत्पीडन तेजी से बढा है। दस घंटे का कार्य दिवस सामान्य सी बात हो गयी है। काफी संघर्ष के बाद मिली सुविधायो में कटौती कर दी गई है। निजी क्षेत्र के प्रतिष्ठानो में महिला कर्मचारियो के लिये प्रसव अवकास अब सपना हो गया है। नौकरी की कोई सुरक्षा नही है। कभी भी कह दिया जाता है कि कल से ना आना और इन स्थितियो मे अब कर्मचारी को सहारा देने को कोई मजबूत हाथ नही दिखाई देता।
किसी उद्योगपति ने श्रमिको के संधर्ष के बिना अपने कारखानो के मजदूरो को कभी उनका वाजिब हक नही दिया। कांग्रेस के टिकट पर लोक सभा सदस्य रहे राम रतन गुप्ता अपने कारखाने लक्ष्मी रतन काटन मिल में केवल हरिजनो को नौकरी दिया करते थे और इसके द्वारा उन्होने राष्ट्रीय स्तर पर खूब वाहवाही लूटी परन्तु अपने कारखाने में उन्होने कभी श्रम कानून लागू नही किया और श्रमिको केा सदैव उनके विधिपूर्ण अधिकारो से वंचित रखते रहे। कम्यूनिस्ट नेता सन्त सिंह यूसुफ को उन्होन बुरी तरह पिटवाया था। समाजवादी गणेश दत्त बाजपेई को भी उन्होने काफी प्रताडित किया और उस सबके कारण उनके कारखाने मे श्रमिको को संधटित करना असम्भव सा काम था परन्तु कैलाश मिल में स्पिनिंग विभाग के एक मजदूर शिव किशोर ने अपने समाजवादी साथियों श्री एन0के नायर, श्री रघुनाथ सिंह एवम बद्री नारायण तिवारी के साथ मिलकर उनकी फैक्ट्री के मजदूरो को संधटित किया। इसके लिये उन्हे सोलह आपराधिक मुकदमे झेलने पडे। कई बार जेल गये और आर्थिक अभावो का सामना किया। अनवरत संधर्ष के बाद लाला राम रतन गुप्ता को संधटित मजदूर शक्ति के सामने झुकना पडा और उसके बाद उनकी फैक्ट्री मे कई दशक से अस्थायी चले आ रहे श्रमिको को स्थायी किया गया। सेवा निवृत्ति पर गे्रच्यूटी मिली और उनके वेतन से काटे गये भविष्य निधि के अंशदान को सरकारी खजाने मे जमा कराया गया।
अभी पिछले दिनो निजी क्षेत्र की एक फाइनेन्स कम्पनी ने अपने 1200 कर्मचारियो को हटा देने का तुगलगी फरमान जारी किया है। कर्मचारियो से जबरन त्याग पत्र लिये  जा रहे है इनमें से कई उच्चाधिकारी भी है। जो अपने सेवाकाल के दौरान मन वचन और कर्म से टेªड यूनियन विरोधी रहे है परन्तु अब पछता रहे है प्रतिष्ठान में केाई टेªड यूनियन न होने के कारण सब के सब असहाय हो गये है, बेबस है। कोई उनके साथ खडे होकर उनकी व्यथा को स्वर देने के लिये सामने नही आ रहा है। सभी को मानना होगा कि टेªड यूनियन की अवधारणा उद्योग विरोधी नही है। टेªड यूनियन के द्वारा कर्मचारियो  को अपनी दिन प्रति दिन की समस्याओं के समाधान के लिये संधटित ताकत मिलती है और उससे उद्योग के समुचित संचालन के लिये अनुशासन का माहौल भी बनता है ।

Sunday, 8 February 2015

बतकही अपने आप से


अधिकारिक रूप से आज साठ वर्ष पूरे हो गये और अब जीवन का संध्याकाल शुरू हो गया। मैनें कभी अपना जन्म दिन सेलिब्रेट नही किया और न कभी किसी ने मुझे जन्म दिन पर बधाई दी। मेरे घर वाले भी मेरा जन्म दिन भूल गये है लेकिन आज मैने मन ही मन अपने जन्म दिन को सेलिब्रेट करने के लिये अपने आपसे बातचीत की और निर्दयतापूर्वक अपने जीवन में झाॅकने की कोशिश की है। हाई स्कूल की परीक्षा पास करने  के बाद एक काटन मिल में मजदूर की नौकरी से मेरे कैरियर की शुरूआत हुई है। आज मै भारत सरकार का स्टैण्डिग काउन्सिल और टाटा, अशोक लेलैण्ड, श्रीरामग्रुप जैसे बडे कारपोरेट घरानो का वकील हॅू। मुझे कभी किसी के सामने घिघियाना नही पडा और न कभी व्यक्तिगत या सार्वजनिक स्तर पर शर्मिन्दगी का शिकार होना पडा है। अपने जीवन में पूरी तरह सुखी और संतुष्ट रहने का सौभाग्य मुझे मिला है।

आज मन ही मन मै भारतीय विद्यालय इण्टर कालेज भी चला गया। इस कालेज मे मैनें कक्षा 8 से कक्षा 12 तक की पढाई की है। मेरे जीवन का सबसे ज्यादा आत्मीयतापूर्ण समय इसी कालेज में बीता है। छात्रसंघ का महामन्त्री निर्वाचित होकर राजनीति का पहला पाठ मैनें यहीं पढा। आपात काल के विरोध मे सत्याग्रह करके पहली जेल यात्रा का सौभाग्य भी मुझे यही प्राप्त हुआ। महामन्त्री पद के लिये चुनाव प्रचार के दौरान माॅ सरस्वती जी की मूर्ति स्थापित करने का चुनावी वादा भी मैनें यही पूरा किया था। इस दौरान अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सम्पर्क ने मेरे जीवन को एक नई दिशा दी। अपने घर के लोगो के अलावा बाहरी लोग भी एक दम पारिवारिक होकर अपने दुख सुख के साथी हो सकते है इसका अहसास भी मुझे इन्ही लोगो ने कराया था। आज मुझे राम बहादुर राय, गोबिन्दाचार्य, मदन दास देवी, विनय कटियार, राजेन्द्र सिंह पुण्डीर, शिव प्रताप शुक्ल के साथ बिताये गये क्षण याद रहे है जब किसी भी मुद्दे पर उनके विचारो का प्रतिवाद करने में डर नही लगता था। संघटन के प्रति निष्ठा हमारी हैसियत का आधार हुआ करती थी। आर्थिक आधार पर हमारा मूल्यांकन नही किया जाता था। बिना कुर्सी मेज वाले मेरे घर मे जमीन पर बैढकर खाना खाने मे कभी इन लोगों ने कोई संकोच नही किया। मेरे पिता कटर समाजवादी थे परन्तु उस समय के नेताओ के निश्चल व्यवहार ने मुझे सदा सदा के लिये स्वयं सेवक बना दिया।
आपात काल के दौरान जेल मे बिताये गये दिन और उस दौरान की गई मूर्खताये भी याद आ रही है। आई.आई.टी. मे मेकेनिकल इन्जीनियरिंग विभागाध्यक्ष डा0वी.एल. धूपढ द्वारा रोज रोज पढने के लिये टोके जाने पर मैने उनसे कहा था कि पढना ही होता तो मैं जेल क्यों आता उस दिन मेरी बात सुनकर उनके चेहरे पर नाराजगी के नही चिन्ता के उभरे भाव जब कभी याद आते है तो मन भावुक हो जाता है और लगता है कि शुरूआत से ही ईश्वर की अनुकम्पा मेरे जीवन पर रही है और उसी कारण मुझे डा0 बी.एल. धूपढ जैसे सन्त पुरूषों के सानिध्य में रहने और उनके सामने मूर्खताये करने का अवसर मिला है। कक्षा 12 के विद्यार्थी को आई.आई.टी. के विभागाध्यक्ष से पढने का सौभाग्य हमारे जैसे मजदूर बाप के बेटे के लिये आपात काल की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जेल के दौरान गाॅधी वध क्यो पढने का अवसर मिला।
सर्वोदयी नेता श्री विनय भाई ने गाॅधी पर लिखी कुछ चुनिन्दा पुस्तके भी पढने को दी और उसके कारण मेरे किशोर मन पर गाॅधी वध क्यो का कोई प्रभाव नही पडा और दिन प्रति दिन गाॅधी और उनके विचारो के प्रति मेरी श्रद्धा बढती रही। उन्ही दिनो मेरे मन मे समा गया था कि गाॅधी की हत्या एक विचार की हत्या का प्रयास था जो आधुनिक भारत का आधार है।
जेल जीवन के प्रभाव में मजदूरी करते हुये मैने विधि की शिक्षा पूरी की और फिर भय, असुरक्षा और आशंकाओ के बीच वकालत करने का निर्णय लिया और उसके कारण मेरे जीवन में नई प्रकार की सम्भावनाओं का सूत्रपात हुआ। कभी सोचा भी नही था कि एक अधिवक्ता के रूप में कभी स्वतन्त्र पहचान बन सकेगी। अंग्रेजी भाषा से मेरी दोस्ती नही थी  इसलिये मन ही मन मै अपने आपको दूसरो से कमतर मानता था और अदालत के सामने अपनी बात कहते हुये डरता रहता था लेकिन एक दिन अपने विरोध में बडी नफासत से अंग्रेजी मे बहस कर रहे एक विद्वान अधिवक्ता से हिन्दी में बहस करने और मुझे अंग्रेजी नही आती कहने के साहस ने मेरे आत्म विश्वास को तेजी से बढाया और फिर मैने मान लिया कि वकालत मे प्रतिष्ठा पाने के लिये अंग्रेजी भाषा में निपुण होने से ज्यादा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णयो की जानकारी जरूरी है और उसके बाद फिर मुझे पीछे मुडकर देखना नही पडा। कई महत्वपूर्ण मामलो में बतौर आरबीटेªटर मैने हिन्दी में एवार्ड पारित किये है जिन्हे न्यायालय द्वारा निष्पादित कराया गया है। अंग्रेजी भाषा में निपुण न होने के कारण मुझे कभी कोई दिक्कत नही हुई। मेरे सम्पर्क में आने वालो को मेरी देशी कार्यशैली प्रभावित करती है। 
जनवरी 2000 में तत्कालीन न्यायमन्त्री श्री शिव प्रताप शुक्ल ने शासकीय अधिवक्ता (फौजदारी) नियुक्त करके मेरे जीवन को एक नई दिशा दी। हलाॅकि नियुक्ति के समय तक मै इस पद के कार्य की प्रकृति और उसका पूरा नाम भी नही जानता था। कार्य के दौरान मैने पहली बार चार्ज 313 के बयान और धारा 27 की रिकवरी के नाम सुने थे लेकिन जल्दी ही मैने सब कुछ सीखा। विधिक ज्ञान में मै किसी की भी बराबरी नही कर सकता था इसलिये मैने दूसरा रास्ता चुना और अपने काम को एकदम निष्पक्ष, ईमानदार और पारदर्शी तरीके से करने की शुरूआत की। जिसे सभी ने बेवकूफी माना लेकिन मै विचलित नही हुआ। प्रचलित प्रलोभनो को ठुकराने की हिम्मत की। पक्षद्रोही साथियो से अभियुक्त के अधिवक्ता की तरह तैयारी करके जिरह करने की आदत डाली जिससे कुछ मित्रों को तकलीफ हुई परन्तु बाद में जब मायावती सरकार ने मुझे हटाया और उच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद अखिलेश सरकार ने मुझे कार्य पर नही लिया तो कार्यकाल के दौरान की गयी बेवकूफियो को ही मेरी विशेषता माना गया। सराहा गया और इस सबके कारण अपने आपको मैने सदा सुखी, संतुष्ट पाया।
पूरी तरह सुखी संतुष्ट होते हुये भी आज मुझे चन्टई सीख न पाने का दुख सता रहा है। श्रम न्यायालय के समक्ष श्रमिक प्रतिनिधि (अधिवक्ता)  होने के नाते मैने अथर्टन मिल, काटन मिल कानपुर के 250 से ज्यादा निष्कासित किये गये श्रमिको की पैरवी करके मैने सेवायोजको की कार्यवाही को अवैधानिक घोषित कराया। सभी श्रमिक नौकरी में वापस लिये गये परन्तु इस काम का पुरस्कार मुझे नही मिला। उनदिनो मै श्रम न्यायालय में वकालत के साथ साथ एक फैक्ट्री में मजदूरी भी करता था। श्रमिक राजनीति के निर्दयी पेंचों का मुझे कोई ज्ञान नही था इसलिये मेरे द्वारा किये गये काम के पुरस्कार स्वरूप एक मारूति कार पाने में हिन्द मजदूर सभा के नेता श्री राम किशोर त्रिपाठी सफल हुये और मुझे उस कार्यक्रम में आमन्त्रित भी नही किया गया जबकि मुकदमे की पूरी सुनवाई के दौरान श्रम न्यायालय के समक्ष वे एक बार भी उपस्थित नही हुये थे। सेवायोजक गवाहो से जिरह से लेकर लिखित बहस लिखने तक का सारा काम मैने अकेले ही किया था।
अपने जीवन मे नकारात्मकता का भी मैने सामना किया है। मायावती सरकार द्वारा शासकीय अधिवक्ताओ को हटाये जाने का आदेश विधि विरूद्ध घोषित हो जाने के बाद अखिलेश सराकर ने अपने विधायको की सिफारिश पर पिक एण्ड चूज की नीति अपनाकर शासकीय अधिवक्ता नियुक्त किये। प्रदेश सरकार के रेशम मन्त्री और टेªड यूनियन मे मेरे अध्यक्ष रहे श्री शिव कुमार बेरिया ने मेरे सामने मेरे नियुक्ति के लिये मुख्यमन्त्री को पत्र लिखाया और उसी दिन उसे भेज देने का वायदा किया था। अन्य विधायको द्वारा की गई सिफारिशो पर नियुक्तियाॅ हो गई परन्तु मेरी नियुक्ति नही हुई। बाद मे पता चला कि मेरी नियुक्ति के लिये लिखाया गया पत्र मुख्यमन्त्री तक पहूॅचा ही नही। एक न्यायाधीश ने मेरे विरूद्ध प्रतिकूल आख्या भेजी। उनकी पत्नी का बैग रेलवे स्टेशन से चोरी चला गया था। वे चाहते थे कि उनकी पत्नी के बैग की चोरी का मुकदमा जी.आर.पी थाने मे मै अपने नाम से पंजीकृत कराऊ। मैने इन्कार कर दिया और उनके साथ अपने कार्यकाल के दौरान मै एक बार भी  बिना बुलाये मै उनके चैम्बर मे नही गया। कभी उनके घर नही गया लेकिन विधि उनसे उनके कार्य एवम आचरण के प्रति जिस निष्पक्षता एवम पारदर्शिता  की अपेक्षा करती है मैने उनके अधीनस्थ रहकर उनके सानिध्य में अपने कार्य एवम व्यवहार में उसी स्तर की निष्पक्षता एवम पारदर्शिता बरकरार रखी और मेरा विश्वास था कि मेरे पदीय कर्तव्यो के प्रति कोई भी रिपोर्ट मेरे पेशेवर आचरण को आधार बनाकर भेजी जायेगी। परन्तु ऐसा  नही हुआ। इन घटनाओं ने मुझे निराश किया। मेरा आत्म विश्वास पूरी तरह हिल गया। मुझे पहली बार ईमानदार निष्पक्ष पारदर्शी जीवन जीने की अपनी आदत से चिढ हुई। क्रिकेट की भाषा में कहू तो पेशेवर कुशलता के अतिरिक्त पिच की नमी और हवा के रूख की जानकारी न रखने का मलाल हुआ।
प्रैक्टिकल न हो पाना और क्षणिक लाभो से दूर रहने की आदत मेरे जीवन की सबसे बडी त्रादसी है लेकिन यही मेरे जीवन की कुल जमा पूॅजी भी है। मै निरन्तर आर्थिक अभावो से ग्रस्त रहा हूॅ लेकिन प्रैक्टिकल बनकर आर्थिक संसाधन जुटाने का कभी साहस नही जुटा सका। देश में कुछ ही लोग होगे जो शासकीय अधिवक्ता होने के पहले मेरी तरह मजदूरी करके अपना जीवन यापन करते रहे हो। शासकीय अधिवक्ता होने के बाद पहली बार मुझे आढ हजार रूपये मिले। इस दौरान आर्थिक सम्रद्धि बढाने के अवसर भी मिलने लगे। परन्तु इन अवसरो ने मुझे कभी आकर्षित नही किया। शासकीय अधिवक्ता की नियुक्ति के तत्काल बाद पिता जी के मित्र प्रख्यात समाजवादी एवम वरिष्ठ अधिवक्ता श्री एन.के. नायर ने मुझसे अपने एक समाजवादी मित्र के पुत्र का नाम लेकर कहा था कि उसकी तरह न बन जाना। निरन्तर अपडेट रहना पैसा अपने आप आता है शायद उनकी इस बात से उसी दिन मै जान गया था कि सार्वजनिक पद पर बैढा हुआ व्यक्ति कितना भी चतुर और छिपाने में माहिर हो लेकिन छिपता कुछ नही,सबकुछ सार्वजनिक हो ही जाता है और फिर उनके बारे मे एक ओपेनियर बन जाती है जो कभी बदलती नही। इस कारण मै सदा डरता रहा और अपने आपको प्रचलित प्रलोभनो से बचाये रखा। मै मूलतः मजदूर बाप का मजदूर बेटा हूॅ इसलिये यदि बतौर शासकीय आधिवक्ता मेरा आचरण कहीं से भी अनुचित हो जाता तो लोग केवल मुझे नही मेरे खानदान पर भी अपनी टिप्पणी करते । इस सबके कारण मैने अपनी प्राइवेट वकालत बन्द नही की कुछ ज्यादा मेहनत की और ज्ञात साधनो से सम्मानजनक जीवन जीने लायक आय अर्जित करता रहा। कभी अज्ञात साधनो से आय बढाने की जरूरत महसूस नही हुयी। इस आदत के कारण सर्वजनिक प्रतिष्ठा तो बढी है लेकिन पत्नी बेटे और बेटी को कई प्रकार की भौतिक सुख सुविधायां से वंचित होना पडा लेकिन ईश्वर की कृपा से उन सबने भी कभी हमे गलत नही कहा और न प्रैक्टिकल बनने के लिये मजबूर किया।

Monday, 2 February 2015

“नो वर्क नो पे” की अवधारणा मजदूर विरोधी

                   
अवैधानिक निष्कासन के मामलो मे “नो वर्क नो पे” की अवधारणा मजदूर विरोधी और प्राकृतिक न्याय के प्रतिकूल है। इसके द्वारा मजदूरो को उनके विधिपूर्ण  अधिकारो से वंचित रखने का षडयन्त्र किया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट आॅफ यू0पी0 बनाम माधव प्रसाद शर्मा (जजमेन्ट टूडे-2011-1-326) में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है कि वस्तु स्थिति पर निष्पक्षता पूर्वक विचार दिये बिना मनमाने तरीके “नो वर्क नो पे” का सिद्धान्त लागू करना न्यायसंगत नही है। श्रमिक को दण्डित करने या उन्हे सबक सिखाने के रूप मे दूसरा प्रयोग नही किया जाना चाहिये।
प्रायः देखा जाता है कि मजदूरो को निष्कासित करने की कार्यवाही अवैधानिक धोषित हो जाने के बाद सेवायोजक निष्कासन अवधि में मजदूर को किसी दूसरे रोजगार में संलिप्त बताकर उसे दूसरे विधिपूर्ण देयो से वंचित करते है। सेवायोजको का यह तर्क शुरूआत से ही दोषपूर्ण होता है और वे निष्कासन अवधि मे मजदूर और उसके परिवार के सामने जीविकोपार्जन की उत्पन्न कठिनाइयो पर विचार नही करते और मजदूर को उत्पीडित बनाये रखने के लिये “नो वर्क नो पे” के सिद्धान्त का अनुचित सहारा लेते है।
यह सच है कि निष्कासित मजदूर और उसका परिवार अपने जीवन यापन के लिये कोई न कोई साधन तो जुटाता ही है परन्तु इस प्रकार के साधनो को लाभप्रद रोजगार मान लेना शर्मनाक है और कतई न्यायसंगत नही है। वास्तव में चैरिटी मे कोई निष्कासित मजदूर की आर्थिक मदद नही करता। उसे जीवन यापन के लिये अपने प्रतिभाशाली बच्चो की पढाई छुडवानी पडती है। बेटियो का विवाह न कर पाने की शर्मिदगी का शिकार होना पडता है। अपने निकटतम सम्बन्धियो से कर्ज लेने को विवश होता है और सड़क किनारे आलू, टमाटर, धनिया, मिर्चा, बेचकर किसी प्रकार सुबह शाम के भोजन का प्रबन्ध करता है।
राष्ट्रीय वस्त्र निगम उत्तर प्रदेश की इकाई लक्ष्मी रतन काटन मिल के महाप्रबन्धक श्री एच.एन. जैन को उनकी  ईमानदार कार्यशैली से चिढ़कर तत्कालीन चेयरमैन ने एकदम मनमाने तरीके से विधिक प्रक्रिया का अनुपालन किये बिना तत्काल प्रभाव से निष्कासित कर दिया था। निष्कासन अवधि में उन्हे अपने समकक्ष अधिकारियों की उपेक्षा और सामाजिक अपमान का शिकार होना पडा और आर्थिक कारणो से उनके दोनो बेटे आई.आई.टी में पढने के लिये अपने आपको असमर्थ मान रहे थे। हलांॅकि उनके दोनो बेटे आई.आई.टी की पढाई के बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित हो गये और इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनके पिता का निष्कासन भी अपास्त कर दिया। महाप्रबन्धक स्तर के अधिकारी को निष्कासन अवधि में आर्थिक संसाधानो का अभाव झेलना पडा है तो एक साधारण मजदूर के लिये निष्कासन अवधि में जीवन यापन करना कितना कठिन हो सकता है, इसकी कल्पना भी रोंगटे खडे कर देती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने मजदूरो की इस स्थिति पर विचार किया है परन्तु इस विषय पर हमारे राजनेताओं की चुप्पी चिन्ता पैदा करती है। किशोरी लाल बनाम चेयरमैन बोर्ड आॅफ डायरेक्टर (2011-2-यू0पी0एल0बी0ई0सी0-1445) मे न्यायालय ने माना था कि निष्कासन के कारण मजदूर और उसका पूरा परिवार आर्थिक रूप से प्रताडित होता है और सामाजिक रूप से अपने आपको अपमानित महसूस करता है। मजदूर और उसके परिवार के सामाजिक अपमान अवैधानिक उत्पीडन पडोसियो की दृष्टि से कमतर हो जाने के भाव को झेलने की क्षतिपूर्ति कोई राशि नही कर सकती। निष्कासन की अवधि मे किसी अन्य रोजगार से अर्जित आय का सिद्धान्त यहाॅ लागू नही होता। देश में भयंकर बेरोजगारी के कारण सामान्यतः किसी को भी सम्मानजनक जीवन जीने लायक कोई नया रोजगार मिलना काफी कठिन है। उच्च शिक्षा प्राप्त लोग भी आज सम्मानजनक वेतन के लिये नौकरी के अवसरो की प्रतीक्षा में युवावस्था में ही जीवन के संध्याकाल की चिन्ताओ से ग्रसित है। रोजगार के अवसर निरन्तर कम होते जा रहे है ऐसी दशा में निष्कासित मजदूर को कोई नई नौकरी मिल जाने की बात सोचना दिन में सपने देखने जैसा है।
अवैधानिक निष्कासन के मामलो में सेवायोजक पूरी तरह दोषी होते है। वे खुद अपने अनुचित आचरण से मजदूर को उसके रोजगार से वंचित करते है ऐसी दशा में यदि न्यायालय के समक्ष सेवायोजको का आचरण और उनकी कार्यवाही अवैधानिक घोषित हो जाती है तो निष्कासित मजदूर को निष्कासन अवधि का सम्पूर्ण वेतन भत्ते आदि सभी सुविधाये मिलनी ही चाहिये। “नो वर्क नो पे” का सिद्धान्त इन मामलो में लागू नही होता।
देश की अर्थ व्यवस्था में मनमोहन सिंह के वित्तमंत्रित्व काल में आये उदारी करण के बाद “नो वर्क नो पे” की अवधारणा तेजी से पनपी है। मनमोहन सिंह के बाद श्री अटल विहारी बाजपेई के प्रधानमंत्रित्व काल में भी इस अवधारणा को कुचला नही गया। जे0के0 सिन्थेटिक्स लिमिटेड बनाम के0पी0 अग्रवाल एण्ड अदर्स(2007-2-एस.सी.पी.-433) में पारित अपने निर्णय के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्वीकार किया है कि पिछले दो दशको में निष्कासन अवधि के वेतन भत्तो आदि सुविधाओ के प्रश्न पर सरकार की नीतियों में अभूतपूर्व परिवर्तन आया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट आॅफ महाराष्ट्र बनाम रेशमा रमेश मेहर आदि(2008-8-एस.सी.पी.-664) में प्रतिपादित किया था कि मजदूर के विरूद्ध पारित निष्कासन आदेश अवैधानिक हो जाने के बाद मजदूर स्वतः निष्कासन अवधि के वेतन भत्तो आदि सुविधाओं का हकदार नही हो जाता। निष्कासन अवधि के वेतन का अधिकार और निष्कासन आदेश का अवैधानिक घोषित होना अपने आप में एक दूसरे से स्वतन्त्र स्थितियां है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार निष्कासन अवधि के वेतन के अधिकार पर विचार करते समय कर्मचारी की नियुक्ति प्रक्रिया रोजगार की प्रकृति और सेवावधि को भी संज्ञान में लिया जाना चाहिये।
किसी भी दल की सरकार अब श्रमिको से ज्यादा सेवायोजको के हितो का ध्यान रखती है। जो सुविधाये टेªड यूनियन आन्दोलन के बल पर संघर्ष करके अर्जित की गई थी आज उनमे कटौती का शर्मनाक अभियान जारी है। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था, उदारीकरण, ग्लोबलाइजेशन, निजीकरण और आउट सोर्सिग पर सरकार के नीतिगत निर्णयो को आधार बनाकर सर्वोच्च न्यायालय ने भी 1970-1980 के दशक में प्रतिपादित सिद्धान्तो के प्रतिकूल नये निर्णय पारित किये है। “सबका साथ सबका विकास ” के उद्घोष के सहारे सत्ता में आई मोदी सरकार से “नो वर्क नो पे” की अवधारणा पर पुर्नविचार की अपेक्षा की जा सकती है?