Monday, 2 February 2015

“नो वर्क नो पे” की अवधारणा मजदूर विरोधी

                   
अवैधानिक निष्कासन के मामलो मे “नो वर्क नो पे” की अवधारणा मजदूर विरोधी और प्राकृतिक न्याय के प्रतिकूल है। इसके द्वारा मजदूरो को उनके विधिपूर्ण  अधिकारो से वंचित रखने का षडयन्त्र किया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट आॅफ यू0पी0 बनाम माधव प्रसाद शर्मा (जजमेन्ट टूडे-2011-1-326) में स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है कि वस्तु स्थिति पर निष्पक्षता पूर्वक विचार दिये बिना मनमाने तरीके “नो वर्क नो पे” का सिद्धान्त लागू करना न्यायसंगत नही है। श्रमिक को दण्डित करने या उन्हे सबक सिखाने के रूप मे दूसरा प्रयोग नही किया जाना चाहिये।
प्रायः देखा जाता है कि मजदूरो को निष्कासित करने की कार्यवाही अवैधानिक धोषित हो जाने के बाद सेवायोजक निष्कासन अवधि में मजदूर को किसी दूसरे रोजगार में संलिप्त बताकर उसे दूसरे विधिपूर्ण देयो से वंचित करते है। सेवायोजको का यह तर्क शुरूआत से ही दोषपूर्ण होता है और वे निष्कासन अवधि मे मजदूर और उसके परिवार के सामने जीविकोपार्जन की उत्पन्न कठिनाइयो पर विचार नही करते और मजदूर को उत्पीडित बनाये रखने के लिये “नो वर्क नो पे” के सिद्धान्त का अनुचित सहारा लेते है।
यह सच है कि निष्कासित मजदूर और उसका परिवार अपने जीवन यापन के लिये कोई न कोई साधन तो जुटाता ही है परन्तु इस प्रकार के साधनो को लाभप्रद रोजगार मान लेना शर्मनाक है और कतई न्यायसंगत नही है। वास्तव में चैरिटी मे कोई निष्कासित मजदूर की आर्थिक मदद नही करता। उसे जीवन यापन के लिये अपने प्रतिभाशाली बच्चो की पढाई छुडवानी पडती है। बेटियो का विवाह न कर पाने की शर्मिदगी का शिकार होना पडता है। अपने निकटतम सम्बन्धियो से कर्ज लेने को विवश होता है और सड़क किनारे आलू, टमाटर, धनिया, मिर्चा, बेचकर किसी प्रकार सुबह शाम के भोजन का प्रबन्ध करता है।
राष्ट्रीय वस्त्र निगम उत्तर प्रदेश की इकाई लक्ष्मी रतन काटन मिल के महाप्रबन्धक श्री एच.एन. जैन को उनकी  ईमानदार कार्यशैली से चिढ़कर तत्कालीन चेयरमैन ने एकदम मनमाने तरीके से विधिक प्रक्रिया का अनुपालन किये बिना तत्काल प्रभाव से निष्कासित कर दिया था। निष्कासन अवधि में उन्हे अपने समकक्ष अधिकारियों की उपेक्षा और सामाजिक अपमान का शिकार होना पडा और आर्थिक कारणो से उनके दोनो बेटे आई.आई.टी में पढने के लिये अपने आपको असमर्थ मान रहे थे। हलांॅकि उनके दोनो बेटे आई.आई.टी की पढाई के बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित हो गये और इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उनके पिता का निष्कासन भी अपास्त कर दिया। महाप्रबन्धक स्तर के अधिकारी को निष्कासन अवधि में आर्थिक संसाधानो का अभाव झेलना पडा है तो एक साधारण मजदूर के लिये निष्कासन अवधि में जीवन यापन करना कितना कठिन हो सकता है, इसकी कल्पना भी रोंगटे खडे कर देती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने मजदूरो की इस स्थिति पर विचार किया है परन्तु इस विषय पर हमारे राजनेताओं की चुप्पी चिन्ता पैदा करती है। किशोरी लाल बनाम चेयरमैन बोर्ड आॅफ डायरेक्टर (2011-2-यू0पी0एल0बी0ई0सी0-1445) मे न्यायालय ने माना था कि निष्कासन के कारण मजदूर और उसका पूरा परिवार आर्थिक रूप से प्रताडित होता है और सामाजिक रूप से अपने आपको अपमानित महसूस करता है। मजदूर और उसके परिवार के सामाजिक अपमान अवैधानिक उत्पीडन पडोसियो की दृष्टि से कमतर हो जाने के भाव को झेलने की क्षतिपूर्ति कोई राशि नही कर सकती। निष्कासन की अवधि मे किसी अन्य रोजगार से अर्जित आय का सिद्धान्त यहाॅ लागू नही होता। देश में भयंकर बेरोजगारी के कारण सामान्यतः किसी को भी सम्मानजनक जीवन जीने लायक कोई नया रोजगार मिलना काफी कठिन है। उच्च शिक्षा प्राप्त लोग भी आज सम्मानजनक वेतन के लिये नौकरी के अवसरो की प्रतीक्षा में युवावस्था में ही जीवन के संध्याकाल की चिन्ताओ से ग्रसित है। रोजगार के अवसर निरन्तर कम होते जा रहे है ऐसी दशा में निष्कासित मजदूर को कोई नई नौकरी मिल जाने की बात सोचना दिन में सपने देखने जैसा है।
अवैधानिक निष्कासन के मामलो में सेवायोजक पूरी तरह दोषी होते है। वे खुद अपने अनुचित आचरण से मजदूर को उसके रोजगार से वंचित करते है ऐसी दशा में यदि न्यायालय के समक्ष सेवायोजको का आचरण और उनकी कार्यवाही अवैधानिक घोषित हो जाती है तो निष्कासित मजदूर को निष्कासन अवधि का सम्पूर्ण वेतन भत्ते आदि सभी सुविधाये मिलनी ही चाहिये। “नो वर्क नो पे” का सिद्धान्त इन मामलो में लागू नही होता।
देश की अर्थ व्यवस्था में मनमोहन सिंह के वित्तमंत्रित्व काल में आये उदारी करण के बाद “नो वर्क नो पे” की अवधारणा तेजी से पनपी है। मनमोहन सिंह के बाद श्री अटल विहारी बाजपेई के प्रधानमंत्रित्व काल में भी इस अवधारणा को कुचला नही गया। जे0के0 सिन्थेटिक्स लिमिटेड बनाम के0पी0 अग्रवाल एण्ड अदर्स(2007-2-एस.सी.पी.-433) में पारित अपने निर्णय के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्वीकार किया है कि पिछले दो दशको में निष्कासन अवधि के वेतन भत्तो आदि सुविधाओ के प्रश्न पर सरकार की नीतियों में अभूतपूर्व परिवर्तन आया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने स्टेट आॅफ महाराष्ट्र बनाम रेशमा रमेश मेहर आदि(2008-8-एस.सी.पी.-664) में प्रतिपादित किया था कि मजदूर के विरूद्ध पारित निष्कासन आदेश अवैधानिक हो जाने के बाद मजदूर स्वतः निष्कासन अवधि के वेतन भत्तो आदि सुविधाओं का हकदार नही हो जाता। निष्कासन अवधि के वेतन का अधिकार और निष्कासन आदेश का अवैधानिक घोषित होना अपने आप में एक दूसरे से स्वतन्त्र स्थितियां है। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार निष्कासन अवधि के वेतन के अधिकार पर विचार करते समय कर्मचारी की नियुक्ति प्रक्रिया रोजगार की प्रकृति और सेवावधि को भी संज्ञान में लिया जाना चाहिये।
किसी भी दल की सरकार अब श्रमिको से ज्यादा सेवायोजको के हितो का ध्यान रखती है। जो सुविधाये टेªड यूनियन आन्दोलन के बल पर संघर्ष करके अर्जित की गई थी आज उनमे कटौती का शर्मनाक अभियान जारी है। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था, उदारीकरण, ग्लोबलाइजेशन, निजीकरण और आउट सोर्सिग पर सरकार के नीतिगत निर्णयो को आधार बनाकर सर्वोच्च न्यायालय ने भी 1970-1980 के दशक में प्रतिपादित सिद्धान्तो के प्रतिकूल नये निर्णय पारित किये है। “सबका साथ सबका विकास ” के उद्घोष के सहारे सत्ता में आई मोदी सरकार से “नो वर्क नो पे” की अवधारणा पर पुर्नविचार की अपेक्षा की जा सकती है?

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