Sunday, 28 August 2016

आई.ए.एस. अधिकारी अपनी गरिमा न भूलें


पिछले दिनों आई.ए.एस.आफीसर्स एसोसियेशन के अवैतनिक सचिव श्री संजय भूस रेड्डी ने शिकायत भरे लहजे में ईमानदार अधिकारियों को किसी व्यक्ति जाँच एजेन्सी या संस्था द्वारा उनकी सेवा के दौरान या सेवानिवृत्ति के बाद उत्पीड़न न करने की सलाह दी है। उन्होंने अपनी व्यथा के साथ यह भी जोड़ा कि इस प्रकार के उत्पीड़न से पूरी व्यवस्था पंगु हो जाती है जो अन्ततः देश के हितों के प्रतिकूल है। कोलगेट घोटाले के दौरान कोयला सचिव रहे श्री एस.पी. गुप्ता के विरुद्ध सी.बी.आई. द्वारा दाखिल आरोप पत्र और उस पर विशेष न्यायालय के समक्ष जारी विचारण उनकी इस तात्कालिक व्यथा का कारण है।    
यह सच है कि आई.ए.एस. एसोसियेशन के सदस्य श्री एस.पी.गुप्ता के विरुद्ध सी.बी.आई. ने अपने आरोप पत्र में उन्हें आर्थिक लाभ प्राप्त करने का दोषी नहीं बताया है। उन पर प्राइवेट कम्पनियांे को कोल ब्लाक आवण्टन करने वाली स्क्रीनिंग कमेटी का प्रमुख होने के नाते अपनी विवेकीय शक्तियों का निष्पक्ष प्रयोग न करके कुछ कम्पनियों के साथ पक्षपात करने का आरोप है। इस आरोप के विरुद्ध स्क्रीनिंग कमेटी की मिनट्स बुक में ऐसी कोई टिप्पणी उपलब्ध नहीं है जो दर्शाती हो कि श्री गुप्ता ने स्क्रीनिंग कमेटी की रिपोर्ट पर कभी कोई असहमति जताई है। यह सच है कि उनकी रिपोर्ट पर अन्तिम मोहर तत्कालीन कोयला मन्त्री श्री मनमोहन सिंह ने लगाई थी। उनकी रिपोर्ट कोयला मन्त्री पर बाध्यकर नहीं थी परन्तु यह भी उतना ही सच है कि कोयला मन्त्री का अन्तिम निर्णय स्क्रीनिंग कमेटी की रिपोर्ट पर आधारित है इसलिए श्री गुप्ता को उपलब्ध साक्ष्य के गुण दोष पर विचार किये बिना निर्दोष माने जाने का कोई औचित्य नहीं है। श्री गुप्ता यदि वास्तव में निर्दोष है और पत्रावली में स्क्रीनिंग कमेटी की रिपोर्ट पर उनकी असहमति दर्ज है तो उन्हें या आई.ए.एस. एसोसियेशन को परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है और यदि उनकी असहमति का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है तो उन्हंे अब अपने विरुद्ध अधिरोपित आरोपों के विचारण पर आपत्ति करने का भी कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। 
अपने देश में आई.ए.एस. अधिकारी सर्वशक्तिमान होता है और उसे भ्रष्टाचार निरोधक कानून या व्यवस्था का कोई डर नहीं होता। उनके विरुद्ध सब कुछ सही होने के बावजूद अभियोजन चलाने की अनुमति प्राप्त करना एक टेढ़ी खीर है और यदि विवेचक के अनवरत प्रयास के बावजूद अनुमति प्राप्त भी हो गई तो जाँच एजेन्सियों की तकनीकी कमियों को उजागर करके दोषी सन्देह का लाभ पाकर निर्दोष घोषित हो जाते है जबकि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 की धारा 20 में दोषी होने की अवधारणा का आदेशात्मक प्रावधान है। अर्थात अपने आपको निर्दोष साबित करने का भार स्वयं अभियुक्त पर होता है। दहेज जैसे पारिवारिक विवादों में दोषी होने की अवधारणा के आधार पर सैकड़ो लोग अजीवन कारावास की सजा भुगत रहे है परन्तु उसी सिद्धान्त के आधार पर नौकरशाहो को सजा नहीं मिल पाती।
आई.ए.एस. एसोसियेशन जैसे संघठनांे को श्रमिकों की ट्रेड यूनियन की तरह ” माँग हमारी पूरी हो, चाहे जो मजबूरी हो “ की तर्ज पर काम नहीं करना चाहिये बल्कि उन्हें अपने सदस्यों के बीच पदीय कर्तव्यों के प्रति निष्ठा एवम ईमानदारी को बढ़ाने के लिए सघन मुहिम चलानी चाहिये। कुछ वर्ष पहले अपने बीच के सर्वोच्च भ्रष्ट अधिकारी के चयन के लिए आई.ए.एस. एसोसियेशन ने लखनऊ में मतदान कराया था और उन सबके द्वारा सर्वाधिक भ्रष्ट अधिकारी को उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार ने मुख्य सचिव नियुक्त किया था जिसका  किसी ने कोई विरोध नहीं किया। एक आई.ए.एस. अधिकारी केवल शासकीय कर्मचारी नहीं होता, उसके पद के साथ कई विवेकीय शक्तियाँ निहित होती है। उसे संविधान के अनुरूप कार्य करने के लिए किसी से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं होती इसलिए वह आम जनता के हितों, उनकी सुख, सुविधाओं और देश की एकता, आखण्डता का प्रहरी होता है। उसकी जवाबदेही किसी राजनेता के प्रति नहीं, संविधान के प्रति होती है। उन्हें अपने दायित्वों के निर्वहन के लिए किसी के भी सामने झुकने या दबने के लिए कोई कानून मजबूर नहीं कर सकता परन्तु उनका तात्कालिक निजी स्वार्थ उन्हें अपनी पदीय प्रतिबद्धता, निष्ठा एवम ईमानदारी के साथ समझौता करने को विवश करता है। जानबूझकर चुप रहना और सब कुछ जानते समझते हुये भी यथास्थिति का समर्थन करना भी भ्रष्टाचार है जो रूपये के लेनदेन से ज्यादा गम्भीर एवम घातक है। मायावती के मुख्य मन्त्रित्व के कार्यकाल में तत्कालीन जिलाधिकारी ने मुझे जिला शासकीय अधिवक्ता (दीवानी) का अतिरिक्त कार्यभार सौंपने का आदेश पारित किया था परन्तु तीसरे ही दिन तत्कालीन स्वास्थ्य मन्त्री के अनुचित दबाव मेें उन्होंने अपना ही आदेश रद्द कर दिया जबकि सभी प्रकार की जाँच और प्रक्रियागत औपचारिकतायें पूरी करने के बाद आदेश जारी हुआ था। 
वास्तव में आई.ए.एस.अधिकारियों ने खुद अपनी गरिमा गिराई है। आपातकाल के दिनों में श्री एस.पी. वातल कानपुर के कलक्टर थे। उस समय के एक ताकतवर मन्त्री के स्वागत के लिए वे एयरपोर्ट पर उपस्थित नहीं हुये। इस पर मन्त्री जी की नाराजगी का उत्तर देते हुये  उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि आपके स्वागत के लिए कलक्टर की उपस्थिति आवश्यक नहीं है। प्रोटोकाल के तहत ए.सी.एम. वहाँ उपस्थित था। इस बातचीत के बाद फोन भी स्वयं उन्होंने काट दिया। आई.ए.एस. अधिकारियों में इस प्रकार का साहस अब नहीं दिखता। किसी पद विशेष पर जमें रहने हेतु सम्बन्धित मन्त्री के निजी हितों के लिए अपनी पदीय जिम्मेदारियांे के साथ समझौता करना आज अधिकारियों की आदत हो गई है। वे मन्त्री के आगे नतमस्तक होते समय शर्माते भी नहीं है। राजनेताओं और नौकरशाही के गठजोड़ के कारण देश के सार्वजनिक हितों की अनदेखी हुई है और अरबो, खरबो के घाटाले हुये है इसलिए आई.ए.एस. एसोसियेशन को किसी प्रकार का सार्वजनिक उपदेश देने के पूर्व अने सदस्यों के आचरण को निष्पक्ष पारदर्शी और प्रमाणिक बनाने की दिशा में सार्थक प्रयास प्रारम्भ करना चाहिये ताकि उनकी बिरादरी मंे शामिल हो रहे प्रशिक्षु आई.ए.एस. अधिकारी चुनाव आयुक्त श्री एस.एल.शकधर और श्री टी.एन.षेसन के बीच का अन्तर समझ सके। जिस दिन नये अधिकारियों को इस अन्तर का महत्व और प्रभाव समझ में आ जायेगा और वे इसे अपने जीवन में अपना लंेगे, तब फिर कोेई राजनेता मन्त्री या जाँच एजेन्सी उन्हें उत्पीड़ित करने के बारे में सोच भी नहीं सकेगी। 
आई.ए.एस. एसोसियेशन के सदस्यों को 1991 बैच के आई.ए.एस. अधिकारी श्री प्रमोद कुमार तिवारी की पुस्तक ” उफ्फ “ पढ़नी चाहिये जिसमें उनका मुख्य सचिव पात्र कहता है कि ............... अब तो मैं बिना किसी शंका या झिझक के यह मानता हूँ कि देश की यह सर्वोच्च सिविल सेवा बहुरूपियों की एक जमात है, जो एक अनिश्चित और अस्थिर किस्म के जुगाड़-तन्त्र में विश्वास करती है। ईमानदारी, निर्वैक्तिकता, तटस्थता, आत्म-सम्मान, नियमानुवर्तिता, विधिसम्मतता इत्यादि अब इस सेवा के मूल्य नहीं रहे या ज्यादा ठीक यह कहना होगा कि जुगाड़ के आधारभूत मूल्य के अधीन हो गये है। हर अधिकारी अपनी महत्वाकांक्षाओं, चारित्रिक प्रवृत्तियों और जुगाड़ की क्षमताओं के अनुसार उन्हंे अपना लेता या उपेक्षित कर देता है...............। अवैतनिक सचिव महोदय आप और आपके जैसे प्रभावशाली लोग जिस दिन यह फैसला कर लेंगे कि लोकतन्त्र में राजनीति से अधिक महत्वपूर्ण संस्थायें होती है और नौकरशाही के आधारभूत मूल्यों की सुरक्षा राजनेता नहीं संस्थागत व्यवस्थाएँ ही सुनिश्चित कर सकती है। इन शब्दों में आई.ए.एस. एसोसियेशन की प्रत्येक शिकायत का समाधान निहित है।  

Sunday, 21 August 2016

जूरी ट्रायल आज भी प्रासंगिक है


फिल्म रुस्तम ने दशको पुराने ”नानावती ट्रायल“ और आपराधिक विचारणों में ”जूरी सिस्टम“ की यादें ताजा कर दी है और सार्वजनिक बहस का एक नया आयाम खोला है। ”जूरी सिस्टम“ पर भ्रष्टाचार और जातिवाद के आरोप उसकी शुरुआत से उसकी समाप्ति तक लगते रहे है और शायद इन्हीं आरोपों के कारण ”नानावती ट्रायल“ के प्रेसाइडिंग जज आर.बी.मेहता ने जूरी के फैसले से असहमति जताते हुए उसे पुर्नविचार के लिए उच्च न्यायालय को संदर्भित किया था और उस समय के कानूनी जानकारों ने जूरी के फैसले को ”परवर्स वरडिक्ट“ बताया था। 
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ 18वीं शताब्दी मे जूरी सिस्टम ने भारत में प्रवेश किया। भारत में रह रहे यूरोपियन नागरिकों को ”नेटिव जस्टिस“ का अहसास कराने के लिए जूरी एक्ट 1926 में पारित किया गया। भारत में पूरी तरह ब्रिटिश राज स्थापित हो जाने के बाद 1861 में भारतीय दण्ड संहिता और 1882 में दण्ड प्रक्रिया संहिता बनाई गई और इसके द्वारा जूरी सिस्टम ने औपचारिक रूप से भारत में प्रवेश किया लेकिन इसका लाभ केवल यूरोपियन्स को ही मिलता था। उस दौर में भी ”जूरी सिस्टम“ की आलोचना की जाती थी परन्तु यूरोपियन्स नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के नाम पर इस सिस्टम को बरकरार रखा गया।
स्वतन्त्र भारत में संविधान लागू हो जाने के तत्काल बाद ”जूरी सिस्टम“ के समाप्त करने की माँग तेजी से बढ़ी। मद्रास के संसद सदस्य एस.वी.रामास्वामी ने अगस्त 1953 में लोकसभा में एक निजी विधेयक प्रस्तुत करके इस सिस्टम को समाप्त करने की माँग की थी परन्तु तत्कालीन सरकार द्वारा समर्थन न किये जाने के कारण उनका विधेयक पास नहीं हो सका। तत्कालीन केन्द्र सरकार सम्पूर्ण न्याय के लिए इस सिस्टम को लाभप्रद मानती थी। गृह मन्त्री के. एन. काटजू आपराधिक विचारण में ”जूरी सिस्टम“ के हिमायती थे और उन्होंने इस सिस्टम को प्रत्येक स्तर पर लागू करने का प्रयास किया था परन्तु व्यापक विरोध और कानून व्यवस्था राज्य का विषय होने के कारण वे अपने प्रयासो में सफल नहीं हो सके। 
”जूरी सिस्टम“ को लागू करा पाने में गृह मन्त्री की विफलता के बाद केन्द्र सरकार ने इस सिस्टम को अपने प्रदेशों में लागू करने या न करने का अधिकार राज्यों को दे दिया था। उत्तर प्रदेश और बिहार ने अपने राज्यों में तत्काल इसे समाप्त कर दिया। पंजाब प्रान्त ने भी इसका अनुसरण किया। वर्ष 1956 में खुद बाम्बे स्टेट ने अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत इसे समाप्त कर दिया था परन्तु ग्रेटर बाम्बे ने अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत इसे बनाये रखा परन्तु नानावती ट्रायल के ”परवर्स वरडिक्ट“ के कारण ग्रेटर बाम्बे ने भी इसे अपने यहाँ समाप्त कर दिया है। हलाँकि नानावती ट्रायल के दौरान लाॅ कमीशन आफ इण्डिया ने ”जूरी सिस्टम“ की सार्थकता पर गम्भीर सवाल उठाते हुए इसे समाप्त करने की सिफारिश की थी परन्तु यह सिस्टम 1974 में नई दण्ड प्रक्रिया संहिता लागू होने तक कई स्थानों पर आपराधिक विचारणों में आजमाया जाता रहा है। पारसी समुदाय के लोग आज भी अपने वैवाहिक विवादों को ”जूरी सिस्टम“ के माध्यम से सुलझाते है।
     ”नानावती ट्रायल“ में जूरी द्वारा अपनी प्रेमी की हत्या के आरोपी कामाण्डर कवास मानेक शाॅ नानावती को निर्दोष घोषित किया जाना उस समय के विद्वानों के दृष्टि में न्यायोचित नहीं था सभी ने उसे ”परवर्स वरडिक्ट“ बताया था और यही ”जूरी सिस्टम“ की समाप्ति का तात्कालिक कारण बना था परन्तु अब फिल्म रुस्तम ने         ”जूरी सिस्टम“ की प्रासंगिकता पर एक नई बहस की शुरुआत का अवसर दिया है। ”जूरी सिस्टम“ पर भ्रष्टाचार, जातिवाद और पक्षपात के आरोप आम हो गये थे। अपने देश की आपराधिक न्याय प्रशासन की वर्तमान व्यवस्था भी इन आरोपों से अछूती नहीं है ऐसी दशा में नये सिरे से ”जूरी सिस्टम“ को लागू करने पर विचार किया जाना समय की जरूरत है।   

Sunday, 14 August 2016

अदालती कार्यवाही को हास्य का विषय न बनायें


आज बच्चो की जिद पर रुस्तम पिक्चर देखी। पिक्चर की मूल थीम अदालती कार्यवाही पर आधारित है। फिल्मी स्टाइल में अच्छा चित्रांकन किया गया है परन्तु अदालती कार्यवाही वस्तुस्थिति के एकदम विपरीत दिखाई गई है। अदालत के अन्दर आपराधिक विचारण के दौरान अभियुक्त को किसी भी तरह परीक्षित नहीं किया जाता। इसलिए शासकीय अधिवक्ता द्वारा अभियुक्त से प्रतिपरीक्षा का कोई प्रावधान नहीं है। इस पिक्चर में शासकीय अधिवक्ता को अभियुक्त से जिरह करता हुआ दिखाया गया है और दोनों पक्षों की साक्ष्य समाप्त हो जाने के बाद विवेचक एक नई साक्ष्य लेकर आ जाता है। एक महिला गवाह से उसके विवाहेतर सम्बन्धों के बारे में प्रश्न पूँछा जाता है। अपनी विधि महिला के चरित्र से सम्बन्धित प्रश्नों को पूँछने की इजाजत नहीं देती। इस प्रश्न पर अदालत की आपत्ति दिखायी जानी चाहिए थी ताकि आम महिलाओं को जानकारी हो जाती कि उनसे जिरह के दौरान उनके चरित्र पर लाँछन लगाने वाले सवाल पूँछा ही नहीं जा सकता। इस जानकारी के सहारे आवश्यकता पड़ने पर वे खुद आपत्ति जता सकती। अभियोजन साक्ष्य समाप्त हो जाने के बाद न्यायिक अधिकारी द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के तहत अभियुक्त से कुछ सवाल पूँछे जाते है जिनके उत्तर न्यायाधीश खुद अपने हाथ से लिखते है। पिक्चर में इस प्रक्रिया को दिखाया गया है परन्तु उसे शासकीय अधिवक्ता और अभियुक्त के बीच बहस का विषय बनाकर दिखाया गया है जो एकदम नाटकीय है ऐसा होता ही नहीं। पिक्चर में नाटकीयता स्वाभाविक है परन्तु अदालती प्रक्रिया का अवास्तविक नाटकीय प्रदर्शन अच्छी बात नहीं है। नाटकीयता से अदालती कार्यवाही के बारे में गलत जानकारियों का आदान प्रदान होता है। पिक्चर आम लोगों को जानकारी देने का माध्यम भी है इसलिए मुझे लगता है कि अदालती कार्यवाही का वस्तुस्थिति आधारित प्रदर्शन किया जाना चाहिए ताकि वास्तविक जीवन में आम लोगों को उसका लाभ मिल सके। अदालती कार्यवाही को  किसी भी दशा मंे हास्य का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए। इस प्रकार के प्रयासो को हतोत्साहित करना समय की जरूरत है।