पिछले दिनों आई.ए.एस.आफीसर्स एसोसियेशन के अवैतनिक सचिव श्री संजय भूस रेड्डी ने शिकायत भरे लहजे में ईमानदार अधिकारियों को किसी व्यक्ति जाँच एजेन्सी या संस्था द्वारा उनकी सेवा के दौरान या सेवानिवृत्ति के बाद उत्पीड़न न करने की सलाह दी है। उन्होंने अपनी व्यथा के साथ यह भी जोड़ा कि इस प्रकार के उत्पीड़न से पूरी व्यवस्था पंगु हो जाती है जो अन्ततः देश के हितों के प्रतिकूल है। कोलगेट घोटाले के दौरान कोयला सचिव रहे श्री एस.पी. गुप्ता के विरुद्ध सी.बी.आई. द्वारा दाखिल आरोप पत्र और उस पर विशेष न्यायालय के समक्ष जारी विचारण उनकी इस तात्कालिक व्यथा का कारण है।
यह सच है कि आई.ए.एस. एसोसियेशन के सदस्य श्री एस.पी.गुप्ता के विरुद्ध सी.बी.आई. ने अपने आरोप पत्र में उन्हें आर्थिक लाभ प्राप्त करने का दोषी नहीं बताया है। उन पर प्राइवेट कम्पनियांे को कोल ब्लाक आवण्टन करने वाली स्क्रीनिंग कमेटी का प्रमुख होने के नाते अपनी विवेकीय शक्तियों का निष्पक्ष प्रयोग न करके कुछ कम्पनियों के साथ पक्षपात करने का आरोप है। इस आरोप के विरुद्ध स्क्रीनिंग कमेटी की मिनट्स बुक में ऐसी कोई टिप्पणी उपलब्ध नहीं है जो दर्शाती हो कि श्री गुप्ता ने स्क्रीनिंग कमेटी की रिपोर्ट पर कभी कोई असहमति जताई है। यह सच है कि उनकी रिपोर्ट पर अन्तिम मोहर तत्कालीन कोयला मन्त्री श्री मनमोहन सिंह ने लगाई थी। उनकी रिपोर्ट कोयला मन्त्री पर बाध्यकर नहीं थी परन्तु यह भी उतना ही सच है कि कोयला मन्त्री का अन्तिम निर्णय स्क्रीनिंग कमेटी की रिपोर्ट पर आधारित है इसलिए श्री गुप्ता को उपलब्ध साक्ष्य के गुण दोष पर विचार किये बिना निर्दोष माने जाने का कोई औचित्य नहीं है। श्री गुप्ता यदि वास्तव में निर्दोष है और पत्रावली में स्क्रीनिंग कमेटी की रिपोर्ट पर उनकी असहमति दर्ज है तो उन्हें या आई.ए.एस. एसोसियेशन को परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है और यदि उनकी असहमति का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है तो उन्हंे अब अपने विरुद्ध अधिरोपित आरोपों के विचारण पर आपत्ति करने का भी कोई अधिकार प्राप्त नहीं है।
अपने देश में आई.ए.एस. अधिकारी सर्वशक्तिमान होता है और उसे भ्रष्टाचार निरोधक कानून या व्यवस्था का कोई डर नहीं होता। उनके विरुद्ध सब कुछ सही होने के बावजूद अभियोजन चलाने की अनुमति प्राप्त करना एक टेढ़ी खीर है और यदि विवेचक के अनवरत प्रयास के बावजूद अनुमति प्राप्त भी हो गई तो जाँच एजेन्सियों की तकनीकी कमियों को उजागर करके दोषी सन्देह का लाभ पाकर निर्दोष घोषित हो जाते है जबकि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 की धारा 20 में दोषी होने की अवधारणा का आदेशात्मक प्रावधान है। अर्थात अपने आपको निर्दोष साबित करने का भार स्वयं अभियुक्त पर होता है। दहेज जैसे पारिवारिक विवादों में दोषी होने की अवधारणा के आधार पर सैकड़ो लोग अजीवन कारावास की सजा भुगत रहे है परन्तु उसी सिद्धान्त के आधार पर नौकरशाहो को सजा नहीं मिल पाती।
आई.ए.एस. एसोसियेशन जैसे संघठनांे को श्रमिकों की ट्रेड यूनियन की तरह ” माँग हमारी पूरी हो, चाहे जो मजबूरी हो “ की तर्ज पर काम नहीं करना चाहिये बल्कि उन्हें अपने सदस्यों के बीच पदीय कर्तव्यों के प्रति निष्ठा एवम ईमानदारी को बढ़ाने के लिए सघन मुहिम चलानी चाहिये। कुछ वर्ष पहले अपने बीच के सर्वोच्च भ्रष्ट अधिकारी के चयन के लिए आई.ए.एस. एसोसियेशन ने लखनऊ में मतदान कराया था और उन सबके द्वारा सर्वाधिक भ्रष्ट अधिकारी को उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की सरकार ने मुख्य सचिव नियुक्त किया था जिसका किसी ने कोई विरोध नहीं किया। एक आई.ए.एस. अधिकारी केवल शासकीय कर्मचारी नहीं होता, उसके पद के साथ कई विवेकीय शक्तियाँ निहित होती है। उसे संविधान के अनुरूप कार्य करने के लिए किसी से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं होती इसलिए वह आम जनता के हितों, उनकी सुख, सुविधाओं और देश की एकता, आखण्डता का प्रहरी होता है। उसकी जवाबदेही किसी राजनेता के प्रति नहीं, संविधान के प्रति होती है। उन्हें अपने दायित्वों के निर्वहन के लिए किसी के भी सामने झुकने या दबने के लिए कोई कानून मजबूर नहीं कर सकता परन्तु उनका तात्कालिक निजी स्वार्थ उन्हें अपनी पदीय प्रतिबद्धता, निष्ठा एवम ईमानदारी के साथ समझौता करने को विवश करता है। जानबूझकर चुप रहना और सब कुछ जानते समझते हुये भी यथास्थिति का समर्थन करना भी भ्रष्टाचार है जो रूपये के लेनदेन से ज्यादा गम्भीर एवम घातक है। मायावती के मुख्य मन्त्रित्व के कार्यकाल में तत्कालीन जिलाधिकारी ने मुझे जिला शासकीय अधिवक्ता (दीवानी) का अतिरिक्त कार्यभार सौंपने का आदेश पारित किया था परन्तु तीसरे ही दिन तत्कालीन स्वास्थ्य मन्त्री के अनुचित दबाव मेें उन्होंने अपना ही आदेश रद्द कर दिया जबकि सभी प्रकार की जाँच और प्रक्रियागत औपचारिकतायें पूरी करने के बाद आदेश जारी हुआ था।
वास्तव में आई.ए.एस.अधिकारियों ने खुद अपनी गरिमा गिराई है। आपातकाल के दिनों में श्री एस.पी. वातल कानपुर के कलक्टर थे। उस समय के एक ताकतवर मन्त्री के स्वागत के लिए वे एयरपोर्ट पर उपस्थित नहीं हुये। इस पर मन्त्री जी की नाराजगी का उत्तर देते हुये उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि आपके स्वागत के लिए कलक्टर की उपस्थिति आवश्यक नहीं है। प्रोटोकाल के तहत ए.सी.एम. वहाँ उपस्थित था। इस बातचीत के बाद फोन भी स्वयं उन्होंने काट दिया। आई.ए.एस. अधिकारियों में इस प्रकार का साहस अब नहीं दिखता। किसी पद विशेष पर जमें रहने हेतु सम्बन्धित मन्त्री के निजी हितों के लिए अपनी पदीय जिम्मेदारियांे के साथ समझौता करना आज अधिकारियों की आदत हो गई है। वे मन्त्री के आगे नतमस्तक होते समय शर्माते भी नहीं है। राजनेताओं और नौकरशाही के गठजोड़ के कारण देश के सार्वजनिक हितों की अनदेखी हुई है और अरबो, खरबो के घाटाले हुये है इसलिए आई.ए.एस. एसोसियेशन को किसी प्रकार का सार्वजनिक उपदेश देने के पूर्व अने सदस्यों के आचरण को निष्पक्ष पारदर्शी और प्रमाणिक बनाने की दिशा में सार्थक प्रयास प्रारम्भ करना चाहिये ताकि उनकी बिरादरी मंे शामिल हो रहे प्रशिक्षु आई.ए.एस. अधिकारी चुनाव आयुक्त श्री एस.एल.शकधर और श्री टी.एन.षेसन के बीच का अन्तर समझ सके। जिस दिन नये अधिकारियों को इस अन्तर का महत्व और प्रभाव समझ में आ जायेगा और वे इसे अपने जीवन में अपना लंेगे, तब फिर कोेई राजनेता मन्त्री या जाँच एजेन्सी उन्हें उत्पीड़ित करने के बारे में सोच भी नहीं सकेगी।
आई.ए.एस. एसोसियेशन के सदस्यों को 1991 बैच के आई.ए.एस. अधिकारी श्री प्रमोद कुमार तिवारी की पुस्तक ” उफ्फ “ पढ़नी चाहिये जिसमें उनका मुख्य सचिव पात्र कहता है कि ............... अब तो मैं बिना किसी शंका या झिझक के यह मानता हूँ कि देश की यह सर्वोच्च सिविल सेवा बहुरूपियों की एक जमात है, जो एक अनिश्चित और अस्थिर किस्म के जुगाड़-तन्त्र में विश्वास करती है। ईमानदारी, निर्वैक्तिकता, तटस्थता, आत्म-सम्मान, नियमानुवर्तिता, विधिसम्मतता इत्यादि अब इस सेवा के मूल्य नहीं रहे या ज्यादा ठीक यह कहना होगा कि जुगाड़ के आधारभूत मूल्य के अधीन हो गये है। हर अधिकारी अपनी महत्वाकांक्षाओं, चारित्रिक प्रवृत्तियों और जुगाड़ की क्षमताओं के अनुसार उन्हंे अपना लेता या उपेक्षित कर देता है...............। अवैतनिक सचिव महोदय आप और आपके जैसे प्रभावशाली लोग जिस दिन यह फैसला कर लेंगे कि लोकतन्त्र में राजनीति से अधिक महत्वपूर्ण संस्थायें होती है और नौकरशाही के आधारभूत मूल्यों की सुरक्षा राजनेता नहीं संस्थागत व्यवस्थाएँ ही सुनिश्चित कर सकती है। इन शब्दों में आई.ए.एस. एसोसियेशन की प्रत्येक शिकायत का समाधान निहित है।