फिल्म रुस्तम ने दशको पुराने ”नानावती ट्रायल“ और आपराधिक विचारणों में ”जूरी सिस्टम“ की यादें ताजा कर दी है और सार्वजनिक बहस का एक नया आयाम खोला है। ”जूरी सिस्टम“ पर भ्रष्टाचार और जातिवाद के आरोप उसकी शुरुआत से उसकी समाप्ति तक लगते रहे है और शायद इन्हीं आरोपों के कारण ”नानावती ट्रायल“ के प्रेसाइडिंग जज आर.बी.मेहता ने जूरी के फैसले से असहमति जताते हुए उसे पुर्नविचार के लिए उच्च न्यायालय को संदर्भित किया था और उस समय के कानूनी जानकारों ने जूरी के फैसले को ”परवर्स वरडिक्ट“ बताया था।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ 18वीं शताब्दी मे जूरी सिस्टम ने भारत में प्रवेश किया। भारत में रह रहे यूरोपियन नागरिकों को ”नेटिव जस्टिस“ का अहसास कराने के लिए जूरी एक्ट 1926 में पारित किया गया। भारत में पूरी तरह ब्रिटिश राज स्थापित हो जाने के बाद 1861 में भारतीय दण्ड संहिता और 1882 में दण्ड प्रक्रिया संहिता बनाई गई और इसके द्वारा जूरी सिस्टम ने औपचारिक रूप से भारत में प्रवेश किया लेकिन इसका लाभ केवल यूरोपियन्स को ही मिलता था। उस दौर में भी ”जूरी सिस्टम“ की आलोचना की जाती थी परन्तु यूरोपियन्स नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के नाम पर इस सिस्टम को बरकरार रखा गया।
स्वतन्त्र भारत में संविधान लागू हो जाने के तत्काल बाद ”जूरी सिस्टम“ के समाप्त करने की माँग तेजी से बढ़ी। मद्रास के संसद सदस्य एस.वी.रामास्वामी ने अगस्त 1953 में लोकसभा में एक निजी विधेयक प्रस्तुत करके इस सिस्टम को समाप्त करने की माँग की थी परन्तु तत्कालीन सरकार द्वारा समर्थन न किये जाने के कारण उनका विधेयक पास नहीं हो सका। तत्कालीन केन्द्र सरकार सम्पूर्ण न्याय के लिए इस सिस्टम को लाभप्रद मानती थी। गृह मन्त्री के. एन. काटजू आपराधिक विचारण में ”जूरी सिस्टम“ के हिमायती थे और उन्होंने इस सिस्टम को प्रत्येक स्तर पर लागू करने का प्रयास किया था परन्तु व्यापक विरोध और कानून व्यवस्था राज्य का विषय होने के कारण वे अपने प्रयासो में सफल नहीं हो सके।
”जूरी सिस्टम“ को लागू करा पाने में गृह मन्त्री की विफलता के बाद केन्द्र सरकार ने इस सिस्टम को अपने प्रदेशों में लागू करने या न करने का अधिकार राज्यों को दे दिया था। उत्तर प्रदेश और बिहार ने अपने राज्यों में तत्काल इसे समाप्त कर दिया। पंजाब प्रान्त ने भी इसका अनुसरण किया। वर्ष 1956 में खुद बाम्बे स्टेट ने अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत इसे समाप्त कर दिया था परन्तु ग्रेटर बाम्बे ने अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत इसे बनाये रखा परन्तु नानावती ट्रायल के ”परवर्स वरडिक्ट“ के कारण ग्रेटर बाम्बे ने भी इसे अपने यहाँ समाप्त कर दिया है। हलाँकि नानावती ट्रायल के दौरान लाॅ कमीशन आफ इण्डिया ने ”जूरी सिस्टम“ की सार्थकता पर गम्भीर सवाल उठाते हुए इसे समाप्त करने की सिफारिश की थी परन्तु यह सिस्टम 1974 में नई दण्ड प्रक्रिया संहिता लागू होने तक कई स्थानों पर आपराधिक विचारणों में आजमाया जाता रहा है। पारसी समुदाय के लोग आज भी अपने वैवाहिक विवादों को ”जूरी सिस्टम“ के माध्यम से सुलझाते है।
”नानावती ट्रायल“ में जूरी द्वारा अपनी प्रेमी की हत्या के आरोपी कामाण्डर कवास मानेक शाॅ नानावती को निर्दोष घोषित किया जाना उस समय के विद्वानों के दृष्टि में न्यायोचित नहीं था सभी ने उसे ”परवर्स वरडिक्ट“ बताया था और यही ”जूरी सिस्टम“ की समाप्ति का तात्कालिक कारण बना था परन्तु अब फिल्म रुस्तम ने ”जूरी सिस्टम“ की प्रासंगिकता पर एक नई बहस की शुरुआत का अवसर दिया है। ”जूरी सिस्टम“ पर भ्रष्टाचार, जातिवाद और पक्षपात के आरोप आम हो गये थे। अपने देश की आपराधिक न्याय प्रशासन की वर्तमान व्यवस्था भी इन आरोपों से अछूती नहीं है ऐसी दशा में नये सिरे से ”जूरी सिस्टम“ को लागू करने पर विचार किया जाना समय की जरूरत है।
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