Sunday, 14 August 2016

अदालती कार्यवाही को हास्य का विषय न बनायें


आज बच्चो की जिद पर रुस्तम पिक्चर देखी। पिक्चर की मूल थीम अदालती कार्यवाही पर आधारित है। फिल्मी स्टाइल में अच्छा चित्रांकन किया गया है परन्तु अदालती कार्यवाही वस्तुस्थिति के एकदम विपरीत दिखाई गई है। अदालत के अन्दर आपराधिक विचारण के दौरान अभियुक्त को किसी भी तरह परीक्षित नहीं किया जाता। इसलिए शासकीय अधिवक्ता द्वारा अभियुक्त से प्रतिपरीक्षा का कोई प्रावधान नहीं है। इस पिक्चर में शासकीय अधिवक्ता को अभियुक्त से जिरह करता हुआ दिखाया गया है और दोनों पक्षों की साक्ष्य समाप्त हो जाने के बाद विवेचक एक नई साक्ष्य लेकर आ जाता है। एक महिला गवाह से उसके विवाहेतर सम्बन्धों के बारे में प्रश्न पूँछा जाता है। अपनी विधि महिला के चरित्र से सम्बन्धित प्रश्नों को पूँछने की इजाजत नहीं देती। इस प्रश्न पर अदालत की आपत्ति दिखायी जानी चाहिए थी ताकि आम महिलाओं को जानकारी हो जाती कि उनसे जिरह के दौरान उनके चरित्र पर लाँछन लगाने वाले सवाल पूँछा ही नहीं जा सकता। इस जानकारी के सहारे आवश्यकता पड़ने पर वे खुद आपत्ति जता सकती। अभियोजन साक्ष्य समाप्त हो जाने के बाद न्यायिक अधिकारी द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के तहत अभियुक्त से कुछ सवाल पूँछे जाते है जिनके उत्तर न्यायाधीश खुद अपने हाथ से लिखते है। पिक्चर में इस प्रक्रिया को दिखाया गया है परन्तु उसे शासकीय अधिवक्ता और अभियुक्त के बीच बहस का विषय बनाकर दिखाया गया है जो एकदम नाटकीय है ऐसा होता ही नहीं। पिक्चर में नाटकीयता स्वाभाविक है परन्तु अदालती प्रक्रिया का अवास्तविक नाटकीय प्रदर्शन अच्छी बात नहीं है। नाटकीयता से अदालती कार्यवाही के बारे में गलत जानकारियों का आदान प्रदान होता है। पिक्चर आम लोगों को जानकारी देने का माध्यम भी है इसलिए मुझे लगता है कि अदालती कार्यवाही का वस्तुस्थिति आधारित प्रदर्शन किया जाना चाहिए ताकि वास्तविक जीवन में आम लोगों को उसका लाभ मिल सके। अदालती कार्यवाही को  किसी भी दशा मंे हास्य का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए। इस प्रकार के प्रयासो को हतोत्साहित करना समय की जरूरत है।

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