पिछले दिनों नई दिल्ली में एक विवाह समारोह में शामिल हुआ। अपने बाल सखाओं, निकटतम रिश्तेदारों के पारिवारिक समारोहो से पृथक अपरिचित परिवार और एकदम नये लोगों के बीच मेरे लिए एक नया अवसर था, मैं झिझक रहा था, इकोनाॅमिक टाइम्स के अमित और स्वाती को छोड़कर मुझे पहले से वहाँ कोई जानता नहीं था लेकिन सभी लोगों ने खुद ब खुद मुझसे परिचय किया, उन सबके खुले व्यवहार के कारण कुछ ही क्षणों में आत्मीयता हो गई, मुझे अहसास ही नही होने दिया कि उन सबके बीच अभी कुछ ही देर पहले तक हम एक दूसरे से अपरिचित थे। उन सबने बच्चों जैसी खिलखिलाहट और जिन्दादिली मेें अपना बचपन बरकरार रखा है। विवाह के अवसरों पर फूफा, मामा, चाचा, ताऊ को नाराज होते मैंने कई बार देखा है लेकिन इन सबके बीच कोई नाराज दिखा ही नहीं, सभी खुश थे, नाच रहे थे, गा रहे थे। मेंहदी रश्म के दौरान पूरा परिवार (पुत्रवधु ससुर सहित) एक साथ हँसी, खुशी नाचा गाया। उन सबने खुश होने के हर अवसर को भरपूर जिया। अमित के पापा ने उनकी मम्मी को जाने से रोकने के लिए ”रुक जा ओ जाने वाली रुक जा.......“ गीत गाया, गीत सुनकर सभी झूम उठे, माहौल पहले से ही खुशनुमा था, उसमें चार चाँद लग गये। मेरे लिए सब कुछ नया सा था, कुछ वर्ष पहले मैंने एक फिल्म का प्रीमियम देखा था, वहाँ अभिनेता शाहरुख खान, अनिल कपूर अभिनेत्री गौतमी आदि कई ग्लैमरस लोगों के बीच बैठकर मुझे जो खुशी मिली थी, उससे कहीं ज्यादा खुशी इस परिवार के बीच में बैठकर मुझे मिली है। मैं नही जानता कि मेरे किस कर्म के प्रतिफल में भगवान ने मुझे इस परिवार का सानिध्य सुख प्रदान किया लेकिन अब इतना तो निश्चित है कि जो बच्चे मेरी अँगुली पकड़कर चलने में खुश होते थे, उनकी अँगुली मेरे हाथ से कब छूट गई पता ही नही चला और अब वे अँगुलियाँ मेरी कलाई पर सहारा बनने को आतुर है।
Tuesday, 27 June 2017
Saturday, 10 June 2017
शिक्षक, गुरुजन, बुद्धिजीवियों.........
कहाँ सो रहे हो ?, जल्दी जागो और एक बार फिर से याद करो कि स्कूलों के प्रबन्धकों द्वारा किये जा रहे आर्थिक सामाजिक शोषण और अन्याय के खिलाफ आपके अपने संघर्ष और बलिदान के बाद आम शिक्षकों को शोषण से मुक्ति मिली और राजकोष से सीधे वेतन मिलने का मार्ग प्रशस्त हुआ था लेकिन अब स्थितियाँ बदल रही हैं, निजी क्षेत्र पर हमारी आर्थिक निर्भरता बढ़ायी जा रही है। सरकारी स्कूल, अस्पताल, कारखानें और अब तो रेलवे स्टेशन भी पूँजीपतियों को सौंपे जा रहे है अर्थात एक बार फिर हम पूँजीपतियों के शोषणवादी कुचक्र में फँसने जा रहे है, हमें पहले की तरह उनकी कृपा पर जिन्दा रहना होगा। आप तो जानते हो कि वित्तविहीन विद्यालयों में शिक्षकों की अपनी कोई आवाज नहीं होती। उन्हें शिक्षाविहीन पूँजीपतियों का यश मैन बनना पड़ता है कि फिर भी उनकी नौकरी हर समय खतरे में रहती है। आप में से अधिकांश सेवानिवृत्त की दहलीज पर खड़े है और कई लोग जीवन के संध्याकाल में है इसलिए अब आप आगे आइये और अपने अनुभव को लाभ देकर नई पीढ़ी को बताइये कि निजी क्षेत्र सुनने में बहुत सुहावना लगता है लेकिन इसके पीछे शोषण का एक ऐसा दुष्चक्र होता है जो हमें अपने ही देश में किरायेदार बनने के लिए मजबूर कर देता है। नई पीढ़ी समझ नही पा रही है और शमशान, कब्रिस्तान, तीन तलाक, गाय और सेना के पराक्रम की कहानियों में उलझी है। आपको ही उसे बताना होगा कि भावनात्मक मुद्दों के ध्रुवीकरण से घर का चूल्हा नहीं जलेगा। घर में चूल्हे को जलने के लिए घर के लोगों के लिए रोजगार चाहिए और रोजगार कारखानों में मिलता है पिछले पच्चीस वर्षो में कोई नया कारखाना स्थापित नही किया गया जबकि केवल अपने कानपुर में सरकारी नीतियों के तहत कम से कम पन्द्रह बड़े कारखाने बन्द किये गये है इसलिए समाज को आपकी की जरूरत है और हम आपसे प्रार्थना करते है कि ” शिक्षक, गुरुजन, बुद्धिजीवियों अनुभव भरा सहारा दो, फिर देखें हम सत्ता कितनी बर्बर है बौराई है। “
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