कहाँ सो रहे हो ?, जल्दी जागो और एक बार फिर से याद करो कि स्कूलों के प्रबन्धकों द्वारा किये जा रहे आर्थिक सामाजिक शोषण और अन्याय के खिलाफ आपके अपने संघर्ष और बलिदान के बाद आम शिक्षकों को शोषण से मुक्ति मिली और राजकोष से सीधे वेतन मिलने का मार्ग प्रशस्त हुआ था लेकिन अब स्थितियाँ बदल रही हैं, निजी क्षेत्र पर हमारी आर्थिक निर्भरता बढ़ायी जा रही है। सरकारी स्कूल, अस्पताल, कारखानें और अब तो रेलवे स्टेशन भी पूँजीपतियों को सौंपे जा रहे है अर्थात एक बार फिर हम पूँजीपतियों के शोषणवादी कुचक्र में फँसने जा रहे है, हमें पहले की तरह उनकी कृपा पर जिन्दा रहना होगा। आप तो जानते हो कि वित्तविहीन विद्यालयों में शिक्षकों की अपनी कोई आवाज नहीं होती। उन्हें शिक्षाविहीन पूँजीपतियों का यश मैन बनना पड़ता है कि फिर भी उनकी नौकरी हर समय खतरे में रहती है। आप में से अधिकांश सेवानिवृत्त की दहलीज पर खड़े है और कई लोग जीवन के संध्याकाल में है इसलिए अब आप आगे आइये और अपने अनुभव को लाभ देकर नई पीढ़ी को बताइये कि निजी क्षेत्र सुनने में बहुत सुहावना लगता है लेकिन इसके पीछे शोषण का एक ऐसा दुष्चक्र होता है जो हमें अपने ही देश में किरायेदार बनने के लिए मजबूर कर देता है। नई पीढ़ी समझ नही पा रही है और शमशान, कब्रिस्तान, तीन तलाक, गाय और सेना के पराक्रम की कहानियों में उलझी है। आपको ही उसे बताना होगा कि भावनात्मक मुद्दों के ध्रुवीकरण से घर का चूल्हा नहीं जलेगा। घर में चूल्हे को जलने के लिए घर के लोगों के लिए रोजगार चाहिए और रोजगार कारखानों में मिलता है पिछले पच्चीस वर्षो में कोई नया कारखाना स्थापित नही किया गया जबकि केवल अपने कानपुर में सरकारी नीतियों के तहत कम से कम पन्द्रह बड़े कारखाने बन्द किये गये है इसलिए समाज को आपकी की जरूरत है और हम आपसे प्रार्थना करते है कि ” शिक्षक, गुरुजन, बुद्धिजीवियों अनुभव भरा सहारा दो, फिर देखें हम सत्ता कितनी बर्बर है बौराई है। “
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