Sunday, 31 March 2013

कुछ नहीं होगा कानून से मानसिकता बदलनी होगी


वास्तव में नये नये कड़े कानून बनाने की तुलना में विधमान कानूनों का कारगर प्रयोग करने का सदभावपूर्ण माहौल बनाने की ज्यादा आवश्यकता है।

केन्द्र सरकार ने आपराधिक विधि (संशोधन) अधिनियम 2013 पारित करके महिलाओं के विरूद्व जारी दैहिक अपराधों को रोकने के लिए कठोर कानून बना दिये है। इसके पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर कार्य स्थल पर महिलाओं के लैंगिक उत्पीड़न के विरूद्व कर्इ महत्वपूर्ण नियम प्रतिपादित किये गये थे परन्तु कहीं किसी स्तर पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न और सामूहिक बालात्कार की घटनाये कम नहीं हुई है बल्कि उनमें इजाफा हुआ है।  


महिलाये कही सुरक्षित नहीं है। घर, दफ्तर, मन्दिर, पार्क, बसस्टैण्ड, रेल, माँल, बैंक, हास्पिटल, स्कूलो और कालेजो के गलियारो में कुत्सित निगाहें हमेशा उनके आस पास मडराती रहती हैं। इन भूखी कुत्सित निगाहों पर केवल कठोर कानूनों से प्रभावी अंकुश सम्भव नहीं है। समाज के सक्रिय सदभावपूर्ण सहयोग के बिना महिलाओं के मान सम्मान और उनकी गरिमा की रक्षा नहीं की जा सकती।  

समाज अक्सर महिलाओं को उस अपराध के लिए मानसिक प्रताड़ना देता है जो उसने किया ही नहीं होता। दैहिक अपराधो में उपहास और बदनामी जैसी प्रतिक्रिया देकर आस पास के लोग पीडि़ता को आत्मग्लानि का शिकार बना देते है। एक शोषित महिला को निरपराध होने के बावजूद घ्रणा तिरस्कार और अप्रिय सवालो से जूझना पड़ता है और दूसरी ओर उसके परिजन आजीवन अवसाद में जीने को अभिशप्त हो जाते है। कार्य स्थलो पर पुरूष सहकर्मियो के बीच महिलाओं के प्रति चर्चा का स्तर सदैव घटिया रहता है। माना जाता है कि लड़की हँसी तो समझो फँसी। बेटो को इस मानसिकता से केवल घर के अन्दर किये जाने वाले प्रयासो से ही उबारा जा सकता है। केवल माता पिता ही समझा सकते है कि दो मिनट हसँकर बात कर लेने का यह मतलब नहीं है कि लड़की तुम्हारी तरफ आकर्षित हो गई है या तुममें इन्ट्रस्टेड है। दुर्भाग्य से महिलाओं के प्रति होने वाले तमाम अपराधो के लिए जो कानून है या बनाये जा रहे है, वे दैहिक अपराधो से जुड़े इस सामाजिक पक्ष को नहीं देखते और न इस दृष्टि से अपराधो को रोकने का कोई कारगर उपाय किया जा रहा है। 

आपराधिक विधि (संशोधन) अधिनियम 2013 में पिडि़ता की शिकायत पर तत्काल प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करने वाले पुलिस कर्मियों पर मुकदमा चलाने का प्रावधान है। पहले से विधमान कानूनों में भी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना पुलिस का विधिक दायित्व था परन्तु न्यायालयों में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के तहत दाखिल होने वाले प्रार्थना पत्रों की बढती संख्या बताती है कि थानो पर प्रथम सूचना रिपोर्ट आसानी से दर्ज नहीं की जाती है। 

दैहिक अपराधो के मामले में पुलिस के स्तर पर महिलाओं को प्राय: मानसिक उत्पीड़न और अपमान का शिकार होना पड़ता है। पूछताँछ के नाम पर पीडि़ता को अनावश्यक असंगत और अप्रिय प्रश्नो का सामना करना पड़ता है।। विचारण के लिए गवाही के दौरान उसे अदालत कक्ष के बाहर पड़ी बेन्चों पर अभियुक्त के आस पास बैठना पड़ता है। अभियुक्त के आवेदन पर गवाही की तिथियाँ स्थगित होती है और पीडि़ता को बार बार अपने खर्चे पर अदालत के चक्कर लगाने पड़ते है और उसके कारण प्राय: पीडि़ता पक्षद्रोही होने के लिए विवश हो जाती है। 

वास्तव में नये नये कड़े कानून बनाने की तुलना में विधमान कानूनों का कारगर प्रयोग करने का सदभावपूर्ण माहौल बनाने की ज्यादा आवश्यकता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 309 में प्रावधान है कि महिलाआें के दैहिक अपराधो की दशा में जाँच अथवा विचारण यथासम्भव साक्षियों की परीक्षा प्रारम्भ होने की
तिथि से दो माह की अवधि के अन्दर पूरी की जायेगी। इस धारा में यह भी प्रावधान है कि साक्षियो की परीक्षा एक बार प्रारम्भ हो जाने के बाद सभी साक्षियो की परीक्षा पूरी होने तक गवाही दिन प्रतिदिन जारी रखी जायेगी और अभियुक्त का अधिवक्ता किसी अन्य न्यायालय में व्यस्थ है, के आधार पर सुनवाई स्थगित नहीं की जायेगी। इस प्रावधान का कड़ाई से अनुपालन सुनिश्चित करा दिया जाये तो पीडि़ता को राहत प्राप्त होगी। अभियुक्तो पर प्रभावी अंकुश लगेगा। सजा का प्रतिशत अपने आप बढ जायेगा। 

महिलाओं को दैहिक अपराधो से बचाने के लिए घर परिवार के स्तर पर शुरूआत करनी होगी। बहिन भाई के झगड़े में  'गल्ती भाई की डाँट बहन को'  की मानसिकता से उबरना होगा और हर माता पिता को बचपन से ही अपने बेटे को सामने वाली लड़की के साथ सम्मानजनक व्यवहार करने की शिक्षा संस्कार देने होगें। उन्हें लड़कियो की इज्जत करना सिखाना होगा। 

Sunday, 24 March 2013



Let law blind 




 कानून को अन्धा ही रहने दो 

सर्वोच्च न्यायालय के सेवा निवृत्त न्यायाधीश ने संजय दत्त को पाँच वर्ष के सश्रम कारावास की सजा सुनाये जाने के तत्काल बाद उन्हें माफ करने की वकालत करके कानून की आँखो में बँधी पट्टी को सुविधानुसार खोलने और बन्द करने का रास्ता सुझाया है। माना जाता है कि कानून अन्धा होता है और उसके लिए सभी एकसमान होते है। उसके निर्णय केवल और केवल सबूतों और गवाहो पर आधारित होते है। अन्य कोई कारण उसे प्रभावित नहीं करता है। 

अपने देश में पूर्व प्रधानमंत्री स्व0 नरसिंह राव सहित कई नामचीन हस्तियों को न्यायालय के निर्णयो के तहत जेल की हवा खानी पड़ी है। पूर्व मुख्यमंत्री श्री ओम प्रकाश चैटाला, मधु कोड़ा, पूर्व संासद आनन्द मोहन सिंह पूर्व मन्त्री अमर मणि त्रिपाठी जैसे कई राजनेता कारावास की सजा भुगत रहे है। 

हम सब जानते है कि महामहिम राज्यपाल प्रदेश सरकार की सलाह पर कार्य करते है। आज कई सरकारे हिस्ट्रीशीटर विधायको के समर्थन पर जिन्दा है। सेवानिवृत्त न्यायाधीश श्री मार्केण्डे काटजू और संासद श्रीमती जया बच्चन जैसी नामचीन हस्तियों ने संजय दत्त की माफी के लिए अनुच्छेद 161 का रास्ता सुझाकर राज्य सरकारो को निर्लज्जता पूर्वक ओमप्रकाश चैटाला, मधु कोड़ा, जैसे राजनेताओं की सजा माफ करने की खिड़की दिखाई है। नानावटी मामला अपवाद था और देश ने उसे नियम नहीं बनने दिया। परन्तु आज के राजनेता इसे नियम बनायेगें और फिर ओम प्रकाश चैटाला, मधु कोड़ा, आनन्द मोहन सिंह, अमरमणि त्रिपाठी जैसें महान राजनेताओं को जेल से बाहर लाने के लिए इसका निर्लज्जतापूर्वक प्रयोग करेगें। 

दंण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के तहत अभियोजन वापस लेने के प्रावधान का राज्य सरकारो ने भरपूर दुरूपयोग किया है। विधिवेत्ताओं ने इस धारा को सांसदो विधायको या अन्य क्षेत्र के प्रभावशाली व्यक्तियों के विरूद्व आपराधिक धाराओं में पंजीकृत मुकदमों को वापस लेने के लिए नहीं बनाया था परन्तु श्री मुलायम सिंह यादव ने अपने मुख्यमन्त्रित्व काल में इस धारा का अनुचित लाभ उठाकर फूलन देवी सहित कई आपराधिक चरित्र के लोगों के मुकदमें वापस लिये थे। उनके पुत्र अखिलेश यादव ने भी अपने एक वर्ष के कार्यकाल में आपराधिक धाराओं में पंजीकृत औसतन बीस पच्चीस मुकदमें प्रत्येक जिले में वापस लेने के लिए आदेश जारी किये है और इनमें से कई हत्या से सम्बन्धित और प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य से समर्थित हैं।  

      मुझे याद है कि दीवाली के अवसर पर जिला प्रशासन से अनुमति प्राप्त किये बिना सड़क किनारे पटाखो की दुकान लगाये पाँच व्यक्तियों को विस्फोटक अधिनियम 1884 के तहत तीन वर्ष के सश्रम कारावास और जुर्माने से दंण्डित किया गया था। संजय दत्त के मामले को देखने के बाद तो लगता है कि उनके विरूद्व अधिरोपित आरोप विस्फोटक अधिनियम की भावना के प्रतिकूल थे परन्तु तकनीकी दृष्टि से विधिपूर्ण अनुमति प्राप्त किये बिना किसी भी प्रकार के विस्फोटक पदार्थ को अपने कब्जे में रखना और उसे बेचना अपराध की परिधि में आता है और उसके कारण उन्हें सजा दी गई जबकि उनके पास से बरामद विस्फोटक का उपयोग केवल आतिशबाजी के लिए किया जाना था। 

अपने देश में सुस्थापित परम्परा के तहत न्यायालय का निर्णय पारित हो जाने बाद सार्वजनिक मंच पर उसके गुण दोष की चर्चा नहीं की जाती। सभी उसका सम्मान करते है, पालन करते है। विधि में कारावास के दौरान सजा की अवधि कम करने की एक निश्चित प्रक्रिया है और उसका लाभ आम कैदियो को मिलता रहता है। संजय दत्त को भी इस प्रक्रिया का लाभ मिलेगा मिलना चाहिए। लेकिन अनुच्छेद 161 के तहत उन्हें या न्यायालय द्वारा दोषी घोषित किसी को भी माफ करने के रास्ते नहीं खोले जाने चाहिए। कानून अन्धा है और उसे अन्धा ही रहने देना चाहिए।    

Sunday, 17 March 2013


Criminal Law (amendmend) Act -2013


  सहमति की आयु विरोधाभासो का पिटारा  




देश में पहली बार शादी ब्याह सेक्स जैसे संवेदनशील सामाजिक विषय पर दूरगामी परिणामों की चिन्ता किये बिना सरकार ने आपसी सहमति से शारीरिक सम्बन्धो के लिए आयु सीमा घटाने का निर्णय किया है। दिल्ली के चर्चित दुष्कर्म काण्ड के बाद उपजे भारी जन विरोध के दबाव में सदमें में आई सरकार अभी उससे उबरी नहीं है और इसीलिए वह भारतीय समाज को पढने में गलती कर रहीं है। सरकार का यह निर्णय भारतीय समाज मंे कई तरह की पारिवारिक, सामाजिक और भावनात्मक समस्याओं को बढाने का मार्ग प्रसस्त करेगा। 

यह सच है कि आज शहरी समाज में बच्चो का शारीरिक एवं मानसिक विकास बहुत तेजी से हुआ है और उनमें कई ऐसी चीजो के लिए भी समझदारी विकसित हुई है जिन पर सार्वजनिक चर्चा अपने समाज में आज भी वर्जित है। अपने देश में 16 वर्ष की आयु का किशोर प्रायः कक्षा 10 या कक्षा 11 का विद्यार्थी होता है। इस कक्षा के विद्यार्थी में शारीरिक सम्बन्धो की सहमति, असहमति और उसके दुष्परिणामों को नियन्त्रित करने की परिपक्वता नहीं होती। विवाह की आयु 18 वर्ष और विवाह पूर्व शारीरिक सम्बन्धो की आयु 16 वर्ष करके सरकार ने गर्भपात की दुखद घटनाओं और अविवाहित माताओं की संख्या बढाने का मार्ग प्रशस्त किया है।

सहमति से सम्बन्धो की आयु सीमा घटाने से लड़कियों के साथ दुष्कर्म की घटनाये कम नहीं होगी। स्कूल कालेज स्तर पर विवाह पूर्व सम्बन्धो की स्वीकृति समाज और परिवार में कई तरह की समस्याओं का कारण बनेगी और उससे सुखद दाम्पत्य जीवन के लिए आवश्यक परस्पर विश्वास पर संकट खड़ा होगा और विवाहेतर सम्बन्धो की स्वीकार्यता का मार्ग प्रशस्त होगा जिसकी अनुमति अभी भारतीय समाज में सम्भव नहीं है।

वर्तमान विधि व्यवस्था में अपनी गर्लफैन्ड को बहला फुसला कर या फिर धमकाकर उसके साथ जबरन शारीरिक सम्बन्ध बना लेने के आदी बिगड़ैल बच्चों को अदालतो से राहत नहीं मिल पाती और उन्हें जेल जाना ही पड़ता है। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल के सदस्यो को छोड़कर सभी जानते है कि इस आयु में शारीरिक सम्बन्धो के लिए लड़कियों की सहमति बहला फुसलाकर, प्रलोभन देकर, दबाव में या धमकाकर प्राप्त की जाती है और इस स्थिति में इसका लाभ केवल और केवल दुष्कर्मियों को प्राप्त होगा। भारतीय दंण्ड संहिता की धारा 363, 366, और 376 के मुकदमों में कथित सहमति उनके बचाव का तर्कसंगत आधार होगा।

वैज्ञानिक अवधाराणायें बताती है कि 16 वर्ष की आयु माँ बनने के लिए उपयुक्त नहीं है इस आयु में शारीरिक सम्बध बनाने की स्थिति में गर्भ धारण की सम्भावनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता है। जबकि उसी लड़के साथ शादी की सम्भावनाये न्यूनतम होगी। केन्द्रीय सरकार ने निर्णय लेते समय इस बिन्दु के  दूरगामी परिणामों पर विचार नहीं किया है और न राष्ट्रीय स्तर पर कोई सर्वे कराया है। पूरी कवायद कुछ माननीयो की निजी पसन्द नापसन्द पर आधारित है।

अमेरिका और इंग्लैण्ड जैसे पश्चिमी देशो ने भी सहमति में सम्बन्धों की आयु सीमा बढा दी है। जबकि उनके खुले समाज में शुरूआती दौर में आयु सीमा 7 वर्ष और फिर 12 वर्ष की थी। पेरू में अभी छः वर्षो पूर्व दिनाँक 27 जून 2007 को कानून बनाकर आयु सीमा 18 वर्ष की है। रूस आदि कई देशो ने भी अपने यहाॅ आयु सीमा बढायी है। अपने देश में वर्ष 2012 में आयु सीमा 16 वर्ष से बढाकर 18 वर्ष करने के बाद उसे घटाने का प्रतिगामी निर्णय लिया गया है जो भारतीय परिस्थितियों में स्पष्ट रूप से समाज विरोधी है।

कक्षा 11 एवं 12 के विद्यार्थियो में सेक्स के प्रति जिज्ञासा या ललक को उनकी परिपक्वता की निशानी मान लेने का कोई तर्क संगत आधार किसी के पास नहीं है। शारीरिक सम्बन्धो के दुष्पारिणाम लड़को की तुलना में लड़कियो को ज्यादा झेलने पड़ते है। वे ताजिन्दगी अपमानबोध से ग्रसित रहती है। सम्बन्धो के बाद गर्भ धारण की स्वाभाविक परिणति और उसके दुष्परिणामांे पर किसी ने विचार नहीं किया है। अपने समाज में प्रेम विवाहो को हँसी खुशी स्वीकार करने का प्रचलन अभी तक नहीं आ पाया है। कुँवारी माँओं को अपना समाज कैसे बर्दाश्त करेगा?

सरकार ने मान लिया है कि 16 वर्षीय किशोर शारीरिक सम्बन्धो की सहमति के लिए स्वविवेक से निर्णय लेने के लिए परिपक्व हो जाता है इसलिए अब सरकार को बालिग की आयु सीमा भी कम कर देनी चाहिए ताकि दुष्कर्मियों को नाबालिग होने का अनुचित लाभ प्राप्त न हो सके। सरकार को विधि में सशोधन करके दुष्कर्म के मामलों में सार्थक सहमति सिद्व करने का भार उस पार्टनर पर डालना चाहिये जिसकी उम्र ज्यादा हो।












Sunday, 10 March 2013

Credible Evidence


साक्ष्य नष्ट की गई सी.बी.आइ.जाँच के बहाने


प्रतापगढ में अपने क्षेत्राधिकारी जियाउल हक को हिंसक भीड़ के बीच अकेला छोड़कर भाग जाने पुलिस कर्मियो ने उत्तर प्रदेश पुलिस के साथ साथ सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश की मानवीय संवदेनाओं को भी शर्मिन्दा किया है। इसके पूर्व कानपुर में थाना शिवली के अन्दर श्रम संविदा बोर्ड के चेयरमैन सन्तोष शुक्ला को थाने में अपनी ड्यूटी पर तैनात पुलिस कर्मी स्थानीय गुण्डो के बीच छोड़कर भाग गये थे और भरी दुपहरिया में थाने के अन्दर ही उनकी हत्या कर दी गई थी। 

अपने पदीय कर्तब्यो के प्रति आपराधिक लापरवाही करने वाले भगोड़े पुलिस कर्मियो के विरूद्व राजनैतिक जातिगत कारणो के कारण विभागीय स्तर पर कार्यवाही नहीं की जाती जिसके कारण ऐसे पुलिस कर्मी विचारण के समय अदालत के समक्ष भी कायरता दिखाते है और अभियुक्त को लाभ पहुँचाने के आशय से पक्षद्रोही हो जाते है। सन्तोष शुक्ला हत्या काण्ड में उनका सरकारी गनर, ड्राइवर और थाना शिवली में अपनी ड्यूटी पर तैनात पुलिस कर्मियों ने अभियोजन कथानक का समर्थन नहीं किया जबकि हत्या थाने के कमरे के अन्दर हुई थी और उस कमरे में हर समय कम से कम पाँच सिपाही और एक दरोगा उपस्थित रहते है। सबने घटना देखी थी और हत्यारो को पहले से पहचानते थे। इस सब के बावजूद ऐसे कायर पुलिस कर्मियो के विरूद्व विभागीय स्तर पर नियमानुसार अनुशाशनात्मक कार्यवाही नही की गई और सभी पुलिस कर्मी आज भी नौकरी में है। 

आज कोई मुख्यमंत्री कोई राज नेता या पुलिस अधिकारी कुछ भी घोषणा करेें लेकिन अपनी न्यायिक व्यवस्था में क्षेत्राधिकारी जियाउल हक की हत्या के दोषियो को उनके किये की सजा दिलाने के लिए अदालत के समक्ष सुसंगत साक्ष्य और विश्वसनीय साक्षियो की जरूरत होगी। उनकी पत्नी श्रीमती परवीन आजाद मौके पर नहीं थी। मौके पर गाॅव वाले और भाग जाने वाले कायर पुलिस कर्मी थे। गाॅव वालो पर राजा भैया का दबाव सर्वविदित है, कोई उनकी इच्छा के प्रतिकूल कुछ भी नहीं कहेगा परन्तु पिछले अनुभवो के आधार पर यह भी विश्वास करने का मन नहीं करता कि उत्तर प्रदेश पुलिस अपने स्थानीय थानाध्यक्ष, चैकी इन्चार्ज और मृतक क्षेत्राधिकारी के हमराही सिपाहियो से अदालत के सामने राजा भैया और उनके सहयोगियो की करतूत का सच कहलवा पायेगी। विचारण के दौरान थाना कुंडा का पैरोकार और राजा भैया जैसे किसी महान राजनेता की सिफारिस पर नियुक्त विचारण न्यायालय का ए.डी.जी.सी. मृतक क्षेत्राधिकारी की पत्नी के साथ खड़े दिखायी देगें परन्तु राजा भैया के दबाव के बीच शासन की ओर से उन्हें कितनी ताकत मिल सकेगी यह कहना आज मुश्किल है।

मृतक क्षेत्राधिकारी की पत्नी के अनुरोध का बहाना लेकर अखिलेश सरकार ने अपने स्तर पर दोषियो की पहचान सुनिश्चित करने और मौके पर उपलब्ध परिस्थितिजन्य साक्ष्य को संकलित करने में कोई रूचि नहीं ली बल्कि प्रस्तावित   सी.बी.आइ. जाँच का अनुचित सहारा लेकर घटना के तत्काल बाद मौके पर उपलब्ध सुसंगत साक्ष्य को नष्ट करने का मार्ग प्रशस्त किया है। सभी जानते है कि अपने प्रदेश में विवेचको को घटना के तत्काल बाद घटनास्थल पर उपलब्ध साक्ष्य को संकलित करने का समुचित प्रशिक्षण न दिये जाने के कारण प्रायः मौके की विश्वसनीय साक्ष्य नष्ट हो जाती है और फिर विवेचक अपने तरीके से प्रत्यक्षदर्शी साक्षी ईजाद करता है जो अदालत के समक्ष ठहर नही पाते और इसी कामचलाऊ विवेचना के कारण कानपुर में अपर जिलाधिकारी नगर सी.पी. पाठक की हत्या के दोषियो को अदालत ने दोष मुक्त घोषित कर दिया था। क्षेत्राधिकारी जियाउल हक के मामले में भी यह सब न दोहराया जाये, इसकी चिन्ता अखिलेश सरकार को नहीं है। 

अपने ईमानदार अधिकारियो और आम जनता को खतरे में छोड़कर भाग जाने वाले कायर पुलिस कर्मियो के विरूद्व विभागीय स्तर पर अनुशाशनात्मक कार्यवाही करने में भी उत्तर प्रदेश पुलिस का रिकार्ड निराशाजनक है। बड़ी से बड़ी घटना पर भी अनुशाशानात्मक कार्यवाही करने के लिए समुचित तैयारी नही की जाती। विभागीय जाँच में भी आरोपो के समर्थन के लिए सुसंगत साक्ष्य और विश्वसनीय साक्षियो की आवश्यक्ता होती है जिसे उपलब्ध कराने की कोई सोची समझी रणनीति नहीं है। इन स्थितियो में कायर पुलिस कर्मियो की बर्खास्तगी का आदेश भी अदालत के सामने फुस्स हो जाता है और दोषी पुलिस कर्मी निलम्बन काल से सम्पूर्ण वेतन भत्तों सहित नौकरी में वापस आ जाते है और फिर ताजिन्दगी उन्हें अपनी कायरता पर कभी पाश्चाताप नहीं होता। 

उत्तर प्रदेश में पुलिस कर्मी कम है, ब्राह्मण, ठाकुर, यादव, हरिजन, मुसलमान ज्यादा है। इसीलिए पिछले दो दशको में राजनेताओं और पुलिस अधिकारियो में अपनी ही जाति के अंग रक्षको और हमराहियों को साथ रखने की प्रवृत्ति तेजी से बढी है। दूसरी जाति के सक्षम बहादुर ईमानदार निष्ठावान पुलिस कर्मियो की उपेक्षा आम बात हो गई है जिसके कारण पुलिस कर्मियो का मनोबल बुरी तरह गिरा हुआ है। उनमें एक अजीब तरह की निराशा ब्याप्त है और शायद इसीलिए ए.डी.जी. लाॅ एण्ड आर्डर श्री अरूण कुमार ने अपने अधीनस्थ पुलिस कर्मियो को प्रतिकूल परिस्थितियो में मजबूत सहारा देने का विश्वास दिलाया है परन्तु अधिकांश शहरो के 75 प्रतिशत थानो में एक ही जाति के थानाध्यक्षो की नियुक्ति की सच्चाई के सामने कागजी घोषणाओ पर किसे विश्वास हो सकता है।




Sunday, 3 March 2013

Capital Punishment

घातक होगा विधि से फाँसी को हटाना


मुम्बई पर हमले के आरोपी मोहम्मद अफजल कसाब और संसद पर हमले के आरोपी अफजल गुरू को फाँसी दिये जाने के बाद फाँसी की सजा समाप्त करने के लिए जारी चर्चाओं के बीच राजीव गाॅधी की हत्या के दोषियो को फाँसी की सजा की पुष्टि करने वाली सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खण्ड पीठ के अध्यक्ष न्यायमूर्ति श्री के.टी. थामस ने राजीव गाॅधी के हत्यारो को फाँसी न देने की वकालत करके इन चर्चाओं को नई उर्जा दी है। 

 कसाब और अफजल गुरू की फाँसी को असंगत बताने वाले भूल जाते है कि अपना इतिहास बताता है कि मुहम्मद गौरी को पराजित करने के बाद पहली बार यदि प्रथ्वीराज चैहान ने भारत पर आक्रमण करने के अपराध के लिए उसे फाँसी दे दी होती तो भारत को सत्त्रह विदेशी आक्रमण और प्रथ्वीराज चैहान को पराजय का सामना नहीं करना पड़ता। 

      अपने देश में सर्वोच्च न्यायालय ने बचान सिंह बनाम स्टेट आॅफ पंजाब (ए.आइ.आर.1980 सुप्रीम कोर्ट 898) माची सिंह एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आॅफ पंजाब (ए.आइ.आर 1983 सुप्रीम कोर्ट 957) के द्वारा जघन्य से जघन्यत्म अपराधो में ही फाँसी की सजा देने की विधि प्रतिपादित की है। एन.डी.पी.एस. एक्ट की धारा 31ए के तहत द्वितीय अपराध की दशा में मृत्यु दण्ड के प्रावधान को भी न्यायालय ने अनुच्छेद 21 का उल्लंघन बताकर अवैध घोषित कर दिया है। आजीवन कारावाश के दण्डादेश के अधीन होते हुये पुनः हत्या करने की स्थिति में फाँसी की सजा के प्रावधान को भी माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विधिविरूद्व घोषित कर रखा है। अर्थात अपने देश में विचारण न्यायालय सामान्य परिस्थितियों में फाँसी की सजा नहीं दे सकते ऐसी दशा में फाँसी की सजा को समाप्त करने की बहस असंगत है और उसे किसी भी दशा में न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता है। 

     फाँसी की सजा को समाप्त करने की बाते करना एक फैशन है। फाँसी की सजा समाप्त हो जाने के बाद 75 वर्षीय वृद्व महिला के साथ बालात्कार करने और फिर गला दबाकर उसकी हत्या करने वाले सिरसा के निका सिंह जैसे लोगो को किस दण्ड से दण्डित किया जायेगा। 22 लोगो की हत्या करने वाले वीरप्पन के सहयोगी साइमन, गण प्रकाश, मदेया और विलवेन्द्र को किसी आधार पर दया का पात्र माना जा सकता है। 

     अपने ही परिवार के 13 सदस्यो की हत्या करने वाले गुरमीत सिंह, दुष्कर्म के एक मामलें में जमानत पर छूटने के बाद परिवार के पाँच लोगो की हत्या करने वाले धरम पाल अपने पाँच निकटतम सम्बन्धियों की हत्या करने वाले सुरेश एवं राम जी, एक ही परिवार के चार सदस्यो की हत्या करने वाले प्रवीण कुमार, अपनी पत्नी और पाँच बेटियो की हत्या करने वाले जफर अली, आठ लोगो की हत्या करने वाले सोनिया एवं संजीव, भाई के परिवार के पाँच लोगो हत्या करने वाले सुन्दर सिंह, की दया याचिकाओं सहित 26 दया याचिकाएं राष्ट्रपति के समक्ष लम्बित है। इनमें से कुछ पर वर्ष 1992 से कोई निर्णय नहीं लिया जा सका है। 

        दया याचिकाओं के निस्तारण की कोई निश्चित समयावधि न होने के कारण राजीव गाॅधी की हत्या के दोषियो एवं पंजाब के मुख्य मंत्री बेअंत सिंह की हत्या के दोषी बलवन्त सिंह राजोना को अभी तक फाँसी नही दी जा सकी है और इसी कारण राजीव गाॅधी की हत्या के दोषियो के लिए मृत्यु दण्ड की पुष्टि करने वाली सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खण्ड पीठ के अध्यक्ष न्याय मूर्ति श्री के.टी. थामस ने दोषियो को मृत्यु दण्ड न देने की वकालत करके फाँसी की सजा को समाप्त करने की चर्चाओं को नये सिरे से ताकत दी है जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ जनरल एसेम्बली में भारत सरकार ने अपने नीतिगत निर्णय के तहत दिसम्बर 2007 एवं नवम्बर 2012 में फाँसी की सजा को समाप्त करने के प्रस्तावों का विरोध किया है।

  
         फाँसी की सजा को समाप्त करने की वकालत करने वाले प्रायः आरोप लगाते है कि विचारण न्यायालयो के समक्ष आर्थिक रूप से विपन्न होने के कारण अभियुक्त अपना समुचित बचाव नहीं कर पाते और उसके कारण वे मृत्यु दण्ड से दण्डित हो जाते है। जबकि विचारण न्यायालयो के समक्ष राज्य के व्यय पर आर्थिक रूप से कमजोर अभियुक्तो को अधिवक्ता उपलब्ध कराया जाता है और कोई नहीं कह सकता कि राज्य के व्यय पर नियुक्त किये गये अधिवक्ता अपने क्लाइन्ट अभियुक्त का समुचित बचाव करने में लापरवाही बरतते है। 

        अपने देश में फाँसी की सजा केवल उन्हीं अभियुक्तो को दी जाती है जिनका अपराध जघन्य से जघन्यतम की श्रेणी में आता है और दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 366 के तहत विचारण न्यायालय द्वारा फाँसी की सजा को पुष्टि के लिए उच्च न्यायालय के समक्ष प्रेषित करने का आदेशात्मक प्रावधान है। सर्वोच्च न्यायालय के स्तर पर अभियुक्त और उसके द्वारा कारित अपराध के हर पहलू पर गहन विचार विमर्श के बाद ही फाँसी की पुष्टि की जाती है ऐसी दशा मंे फाँसी की सजा पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करना या उसे अमानवीय बताना न्यायसंगत नहीं है। वास्तव में भारतीय विधि से फाँसी की सजा के प्रावधान को हटाना आवश्यक नहीं है बल्कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 366 में संशोधन की आवश्यकता है। उच्च न्यायालय द्वारा फाँसी की सजा की पुष्टि हो जाने के बाद अभियुक्त आवेदन करे या न करे परन्तु फाँसी की सजा को पुष्टि के लिए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रेषित करना आवश्यक बना दिया जाना चाहिए। राष्ट्रपति के समक्ष दया याचिका के निस्तारण के लिए भी निश्चित समयावधि का प्रावधान किया जाना चाहिए परन्तु किसी भी दशा में फाँसी की सजा को समाप्त किया जाना समाज एवं राष्ट्र के हित में नहीं है।