वास्तव में नये नये कड़े कानून बनाने की तुलना में विधमान कानूनों का कारगर प्रयोग करने का सदभावपूर्ण माहौल बनाने की ज्यादा आवश्यकता है।
केन्द्र सरकार ने आपराधिक विधि (संशोधन) अधिनियम 2013 पारित करके महिलाओं के विरूद्व जारी दैहिक अपराधों को रोकने के लिए कठोर कानून बना दिये है। इसके पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर कार्य स्थल पर महिलाओं के लैंगिक उत्पीड़न के विरूद्व कर्इ महत्वपूर्ण नियम प्रतिपादित किये गये थे परन्तु कहीं किसी स्तर पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न और सामूहिक बालात्कार की घटनाये कम नहीं हुई है बल्कि उनमें इजाफा हुआ है।
महिलाये कही सुरक्षित नहीं है। घर, दफ्तर, मन्दिर, पार्क, बसस्टैण्ड, रेल, माँल, बैंक, हास्पिटल, स्कूलो और कालेजो के गलियारो में कुत्सित निगाहें हमेशा उनके आस पास मडराती रहती हैं। इन भूखी कुत्सित निगाहों पर केवल कठोर कानूनों से प्रभावी अंकुश सम्भव नहीं है। समाज के सक्रिय सदभावपूर्ण सहयोग के बिना महिलाओं के मान सम्मान और उनकी गरिमा की रक्षा नहीं की जा सकती।
समाज अक्सर महिलाओं को उस अपराध के लिए मानसिक प्रताड़ना देता है जो उसने किया ही नहीं होता। दैहिक अपराधो में उपहास और बदनामी जैसी प्रतिक्रिया देकर आस पास के लोग पीडि़ता को आत्मग्लानि का शिकार बना देते है। एक शोषित महिला को निरपराध होने के बावजूद घ्रणा तिरस्कार और अप्रिय सवालो से जूझना पड़ता है और दूसरी ओर उसके परिजन आजीवन अवसाद में जीने को अभिशप्त हो जाते है। कार्य स्थलो पर पुरूष सहकर्मियो के बीच महिलाओं के प्रति चर्चा का स्तर सदैव घटिया रहता है। माना जाता है कि लड़की हँसी तो समझो फँसी। बेटो को इस मानसिकता से केवल घर के अन्दर किये जाने वाले प्रयासो से ही उबारा जा सकता है। केवल माता पिता ही समझा सकते है कि दो मिनट हसँकर बात कर लेने का यह मतलब नहीं है कि लड़की तुम्हारी तरफ आकर्षित हो गई है या तुममें इन्ट्रस्टेड है। दुर्भाग्य से महिलाओं के प्रति होने वाले तमाम अपराधो के लिए जो कानून है या बनाये जा रहे है, वे दैहिक अपराधो से जुड़े इस सामाजिक पक्ष को नहीं देखते और न इस दृष्टि से अपराधो को रोकने का कोई कारगर उपाय किया जा रहा है।
आपराधिक विधि (संशोधन) अधिनियम 2013 में पिडि़ता की शिकायत पर तत्काल प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करने वाले पुलिस कर्मियों पर मुकदमा चलाने का प्रावधान है। पहले से विधमान कानूनों में भी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना पुलिस का विधिक दायित्व था परन्तु न्यायालयों में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के तहत दाखिल होने वाले प्रार्थना पत्रों की बढती संख्या बताती है कि थानो पर प्रथम सूचना रिपोर्ट आसानी से दर्ज नहीं की जाती है।
दैहिक अपराधो के मामले में पुलिस के स्तर पर महिलाओं को प्राय: मानसिक उत्पीड़न और अपमान का शिकार होना पड़ता है। पूछताँछ के नाम पर पीडि़ता को अनावश्यक असंगत और अप्रिय प्रश्नो का सामना करना पड़ता है।। विचारण के लिए गवाही के दौरान उसे अदालत कक्ष के बाहर पड़ी बेन्चों पर अभियुक्त के आस पास बैठना पड़ता है। अभियुक्त के आवेदन पर गवाही की तिथियाँ स्थगित होती है और पीडि़ता को बार बार अपने खर्चे पर अदालत के चक्कर लगाने पड़ते है और उसके कारण प्राय: पीडि़ता पक्षद्रोही होने के लिए विवश हो जाती है।
वास्तव में नये नये कड़े कानून बनाने की तुलना में विधमान कानूनों का कारगर प्रयोग करने का सदभावपूर्ण माहौल बनाने की ज्यादा आवश्यकता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 309 में प्रावधान है कि महिलाआें के दैहिक अपराधो की दशा में जाँच अथवा विचारण यथासम्भव साक्षियों की परीक्षा प्रारम्भ होने की
तिथि से दो माह की अवधि के अन्दर पूरी की जायेगी। इस धारा में यह भी प्रावधान है कि साक्षियो की परीक्षा एक बार प्रारम्भ हो जाने के बाद सभी साक्षियो की परीक्षा पूरी होने तक गवाही दिन प्रतिदिन जारी रखी जायेगी और अभियुक्त का अधिवक्ता किसी अन्य न्यायालय में व्यस्थ है, के आधार पर सुनवाई स्थगित नहीं की जायेगी। इस प्रावधान का कड़ाई से अनुपालन सुनिश्चित करा दिया जाये तो पीडि़ता को राहत प्राप्त होगी। अभियुक्तो पर प्रभावी अंकुश लगेगा। सजा का प्रतिशत अपने आप बढ जायेगा।
महिलाओं को दैहिक अपराधो से बचाने के लिए घर परिवार के स्तर पर शुरूआत करनी होगी। बहिन भाई के झगड़े में 'गल्ती भाई की डाँट बहन को' की मानसिकता से उबरना होगा और हर माता पिता को बचपन से ही अपने बेटे को सामने वाली लड़की के साथ सम्मानजनक व्यवहार करने की शिक्षा संस्कार देने होगें। उन्हें लड़कियो की इज्जत करना सिखाना होगा।