Saturday, 27 April 2013

मजदूर को मजबूर बनाया सरकार ने



1 जनवरी 2013 को मताधिकार प्राप्त करने वाले युवाओं ने दुनिया के मजदूरों एक हो ‘‘हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’’ ‘‘दम है कितना दमन मे तेरे देख लिया और देखेंगे’’ ‘‘हमसे जो टकरायेगा चूर-चूर हो जायेगा’’ का उद्घोष नही सुना। विश्वविद्यालयों में भी छात्र संघ समाप्त करके सरकार ने विद्यार्थी जीवन में जन संघर्षों को समझने और जानने के अवसर समाप्त कर दिये है। युवा पीढ़ी को अब कोई नही बताता कि श्रमिकों की हड़ताल को सफल बनाने के लिए सड़क मार्ग से यात्रा कर रही दो महिला श्रमिको ने अपने बच्चे खोये थे। एक बच्चा रास्ते में मौसम की खराबी का शिकार हो गया और दूसरा बच्चा अपनी माँ की गोद से उस समय गिर गया जब माँ पुलिस से बचने के लिए नाला पार कर रही थी। दोनों बहादुर माँ इस घटना से विचलित नही हुई और उनमें से एक ने कहा कि हमें तमाम लोगों के दुखों की कीमत पर उसका दुख मनाने से क्या फायदा जो अब लौटकर नही आने वाला है। जो जिन्दा है हमे उनकी बेहतरी के लिए कार्य करना है।
अपने देश में 18 वर्ष से 25 वर्ष की आयु वर्ग का युवा अत्यधिक संवेदनशील है जुझारू है और अपनी मेहनत की मेरिट पर अपने सपने साकार करना चाहता है, परन्तु अपने बच्चों को खोने का गम भूलकर लोगों की बेहतरी के लिए अपना जीवन न्यौछावर करने वाला नेतृत्व अब उसे नही दिखता। जाति के आधार पर लोगों को गोलबन्द करके सत्ता के लिए संघर्षरत नेता आज के पीढ़ी को व्यापक और बहुआयामी मूद्दे पर जन-आन्दोलन के लिए उत्साहित नही करते है। उन्हें जाति और धर्म की राजनीति में उलझाये रखते है बढ़ती सामाजिक समस्याओं के लिए युवा पीढ़ी पर दोष मड़ने वालों ने खुद ‘‘हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’’ की मानसिकता को त्यागा है। व्यवस्था के साथ सामन्जस्य बिठाकर कुछ पाने की प्रवृत्ति को मान्यता दी है।
श्रमिक अधिकारों के प्रति सरकार की उदासीनता और श्रमिक संघटनों के कमजोर हो जाने के कारण श्रमिकों का शोषण तेजी से बढ़ा है। सर्वस्वीकृत सुविधायें भी श्रमिकों को उपलब्ध नही है। नियोजक श्रमिकों के वेतन से ई0एस0आई0 की अनिवार्य कटौती करते है परन्तु ई0एस0आई0 की सुविधाएं अपने कर्मचारियों को उपलब्ध कराने के लिए कभी कोई चिन्ता नहीं करते। देश में आजादी से पहले या आजादी के बाद किसी मिल मालिक या सरकार ने श्रमिकों के हितो के लिए स्वप्रेरणा से अपने स्तर पर कभी कोई पहल नहीं की है 17 दिसम्बर 1906 को सरकार द्वारा गठित सूती मिल मजदूर कमेटी नेे 72 घण्टे का सप्ताह अर्थात 12 घंटे का कार्य दिवस निर्धारित किया था। 8 घण्टे के कार्य दिवस की  व्यवस्था श्रमिकों के सतत् संघर्ष और कई श्रमिकों के बलिदान के बाद सम्भव हो सकी है परन्तु जाने अनजाने अब हम सब इस सुविधा को खत्म कराते जा रहे है 12 घण्टे का कार्य दिवस और साप्ताहित अवकाश की समाप्ति का माहौल बनने लगा है। नौकरी पेशा लोगों को सवेतन अवकाश की सुविधा जे.के. जूट मिल केे सात श्रमिको के बलिदान का प्रतिफल है। 6 जनवरी 1947 को कानपुर के जरीब चैकी चैराहें पर श्रमिकों के जुलूस पर पुलिस ने लाठी चार्ज किया गोली चलाई जिसमें सात श्रमिक शहीद हुये थे। इसके पूर्व बोनस की मांग को लेकर कानपुर काटन मिल (जो बाद में इलगिन मिल कं0 के नाम से जानी जाती थी) में श्रमिकों के आन्दोलन को कुचलने के लिए तत्कालीन सरकार ने जालियां वाला काण्ड की तरह श्रमिकों को घेर कर गोली चलायी और जिसमें अनेकोें श्रमिक शहीद हुये थे।
श्रमिक आन्दोलनों के दबाव में वर्ष 1970 में राज्य श्रम आयोग का गठन किया गया और उसकी सिफारिशों पर श्रमिको को निलम्बन की स्थिति में निर्वहन भत्ता और सेवा निवृत्ति पर गेच्युटी देने का निर्णय लिया गया। इसी प्रकार वर्ष 1984 मेे आद्यौगिक विवाद अधिनियम में संशोधन करके प्रावधान किया गया कि यदि श्रम न्यायालय या न्यायाधिकरण किसी निष्कासित श्रमिक को कार्य पर वापस लेने का एवार्ड पारित करते है और यदि सेवायोजक उसके विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिए उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष कोई कार्यवाही संस्थित कराते है तो ऐसी कार्यवाही के लम्बित रहने के दौरान श्रमिक को उसका वेतन प्राप्त होता रहेगा ।
राजनीति में पूँजीपतियों के बढ़ते प्रभाव और राज नेताओं में ही पूँजीपति बनने की होड़ के कारण भी श्रमिकों का शोषण बढ़ा है। अब संसद में ज्योतिर्मय बसु, राज नारायण, मधु दण्डवत,े जार्ज फर्नाडीज, मधुलिमये, भूपेश गुप्ता, ए0के0 गोपालन नही बैठते। अब संसद में जाति की राजनीति करने वाले और टाटा, बिरला, अम्बानी, मित्तल गोदरेज के पैरोकार बैठते है जो अपने निजी व्यापार और समर्थक उद्योग घरानों का हित साधनें के लिए सम्बन्धित संसदीय समितियों का सदस्य बनकर नीतियों को कुप्रभावित करते है। वास्तव में राष्ट्रीय राजनीति में साम्यवादियों और सामाजवादियों का प्रभाव कम हो जाने के कारण रोजी-रोटी के लिए होने वाले जन संघर्षाें को संसद के स्तर पर समर्थन नहीं मिल पाता और श्रमिक मजबूर होकर अन्दोलनों की जगह न्यायालयों का सहारा लेने लगे है और उसके कारण श्रमिक संघटन कमजोर हो रहे है। श्रमिकों को पूँजी और पूँजीपतियों के विरूद्ध संघटित करने के लिए अब गणेश शंकर विद्यार्थी, हरिहर नाथ शास्त्री, संतसिंह युसुफ, गणेश दत्त बाजपेई, राजा राम शास्त्री, विमल मेहरोत्रा, राम आसरे, रवि सिन्हा, मकबूल अहमद खाँ जैसे नेता अब पैदा होने बन्द हो गये।
म्योरमिल अथर्टन वेस्ट मिल लक्ष्मी रतन काटन मिल विक्टोरिया मिल स्वदेशी काटन मिल और गणेश फ्लावर मिल को निजी क्षेत्र से झीनकर उनका सरकारी अधिग्रहण कराने के लिए श्रमिकों के आन्दोलन को संसद के स्तर पर साम्यवादियों और सामाजवादी संसदों ने समर्थन देकर श्रमिकों में ऊर्जा भरी और सरकार को अधिग्रहण करने के लिए मजबूर किया परन्तु जब मनमोहन सिंह के वित्तमंत्रित्व काल में इन मिलों में उत्पादन बद किया गया और फिर एन0डी0ए0 के शासनकाल में घाटे के नाम पर श्रमिकोें को वी0आर0एस0 देकर बेरोजगार किया गया तो संसद ने कोई विरोध नही हुआ। किसी ने संसद में संसद को उसके ही प्रस्ताव की याद नही दिलायी जिसमें कहा गया था कि इन मिलों का अधिग्रहण देश की सैन्य आवश्यकताओं और आम जनता को सस्ती दर पर कपड़ा मुहैया करने के लिए किया जा रहा है। इसलिए इन मिलों से लाभ कमाने की बात सोची भी नही जा सकती थी।
जानबूझकर साजिस के तहत भ्रम फैलाया गया है कि श्रमिक संघटनों विशेषकर लाल झण्डे़ वालों ने कारखाने बन्द करा दिये है। कानपुर का कोई कारखाना श्रमिकों की हड़ताल के कारण बन्द नही हुआ। सभी कारखानें सरकार या मिल मालिकों ने अपने कारणों से बन्द किये है। सच यह है कि श्रमिक आन्दोलन के कमजोर हो जाने के कारण सरकार और मिल मालिक कारखानें बन्द करने में सफल हुए है।
फटा कुर्ता और टूटी चप्पल पहनकर दुनिया के मजदूरों एक हो की भावना और भौतिक अभावों में गर्व महसूस करने वाला नेतृत्व आज कही खो गया है। कुछ लोग है जो त्यागमय परम्परा को जीवित रखे है परन्तु राष्ट्रीय श्रम संगठनोें के पास अपने स्तर पर श्रमिक संगठनांे के प्रति युवा पीढ़ी को आकर्षित करने की कोई रणनीति नही है। कहा जा सकता है कि श्रमिक संगठनों की स्थानीय इकाईयों को जैवीय बनाये रखने के निहित स्वार्थ के कारण जान बूझकर प्रतिभाशाली युवाओं को नेतृत्व से वंचित रखा जाता है।


Saturday, 20 April 2013

आदरणीय प्रधानमन्त्री जी


आदरणीय प्रधानमन्त्री जी
आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम 2013 के द्वारा महिलाओं के दैहिक अपराधों के विरूद्ध कड़े कानून बना दिये जाने के बाद आपकी अपनी दिल्ली में फिर से एक शर्मनाक हादसा घटित हो गया। इसके पहले देश के अन्य कई शहरों में भी ऐसी ही दरिन्दगी के समाचार आये थे। इन घटनाओं का विरोध कर रहीं युवतियों और वृद्व महिलाओें पर आपकी पुलिस ने हमला करने में कोई कसर नहीं बरती। गाहे-बगाहे वे हमें बताते रहते है कि वे ही शासन है और उन्हें प्रतिरोध किसी भी दशा मेें बर्दास्त नहीं है।
आदरणीय प्रधानमन्त्री जी भारतीय दण्ड संहिता मंे किसी भी अपराध के लिए कठोर सजा का प्रावधान बना देने मात्र से उस अपराध पर नियन्त्रण सम्भव नहीं है। अपराण पर नियन्त्रण के लिए आपकी पुलिस को आम लोगों के प्रति संवेदशील होना होेगा। अपने सदाचरण से अपने प्रति उनके मन में विश्वास जगाना होगा। राजनैतिक कारणों से उपके दुरूपयोग पर लगाम लगानी होगी। आप जानते है कि समाज के साथ पुलिस का तालमेल बुुरी तरह बिगड़ा हुआ है। पुलिसकर्मी एक दूसरे पर आपस में ही विश्वास नहीं करते। मैं तो कहता हूँ कि यदि पिता जी दरोगा हो जाये तो मान लेना चाहिये कि वे दरोगा पहले है पिता जी बाद में।
पुलिस फोर्स की समीक्षा के लिए वर्ष 1902 में गठित पुलिस आयेग ने माना था कि पुलिस में भारी असन्तोष है। पूरा सिस्टम फेल हो गया है और उसमे आमूलचूल परिवर्तन की आवश्यकता है। परन्तु पुलिस की असंवेदनशीलता और दमनात्मक रवैया विदेशी शासकों के लिए उपयोगी था। सोचा गया था कि आजाद भारत में पुलिस की भूमिका और उसके चाल चरित्र और चेहरे को बदलने के लिए सार्थक पहल की जायेगी परन्तु आपकी पार्टी ने पुलिस में बदलाव के लिए कुछ नहीं किया। आजादी के पहले के विदेशी शासन और पुलिस के सम्बन्धों को यथावत बनाये रखा गया। आप सब ने पुलिस को उसके शासक स्वभाव और दमनात्मक रवैये को तिलांजलि देने के लिए विवश नही किया और उसी का परिणाम है कि अपराधी बेलगाम हो गये है और पुलिस निरंकुश होकर आम जनता को उत्पीडि़त करने का माध्यम बन गई है।
शायद आपको पता नहीं होगा कि प्रत्येक विधायक अपने विधान सभा क्षेत्र के सभी थानांे में अपने मनपसन्द थानेदारों की पोस्टिंग चाहता है। राज्य स्तर पर वरिष्ठ अधिकारियों की नियुक्ति पदोन्नति और स्थानान्तरण सत्तारूढ़ दल की आवश्यकता को दृष्टिगत रखकर किये जाते है। कमिटमेन्ट इन एडमिनिस्ट्रेशन का दौर जारी है। बड़े पदों पर तैनाती के लिए पदीय कर्तव्यों के प्रति निष्ठा, ईमानदारी और प्रतिबद्धता जैसे गुण अकुशलता का पर्याय हो गये है और इसी कारण जिलांे के 75 प्रतिशत थानांे में एक ही जाति के थानेदार नियुक्ति पाने में सफल हो जाते है। एक ही जाति के इन थानेदारें से कानून व्यवस्था को सुधारने की अपेक्षा करना अपने आपको धोखा देना है।
आपतो जानते है कि अपनी पुलिस फोर्स को संवेदनीशील और सर्विस ओरियन्टेड बनाने  के लिए विभिन्न समयों पर कई आयोग गठित किये गये है। केरल, पश्चिम बंगाल, पंजाब, दिल्ली और तमिलनाडू आदि कई राज्य सरकारों ने भी अपने-अपने स्तर पर पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार के लिए आयोग गठित किये है परन्तु इन सभी आयोगों की अनुशंसायें और अब माननीय सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देश क्रियान्वयन की प्रतीक्षा में दम तोड़ रहे है।
आपकी पार्टी सहित कोई भी राजनैतिक दल पुलिस फोर्स को सर्विस ओरियन्टेड नहीं बनाना चाहता। सभी उस पर अपना एकाधिकार चाहते है। उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, जम्मूकश्मीर, कर्नाटक, तमिलनाडू और आन्ध्र प्रदेश की तत्कालीन राज्य सरकारो ने पुलिस सुधारों के लिए प्रकाश सिंह बनाम यूनियन आॅफ इण्डिया के मामले में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने के तत्काल बाद उसे अपास्त कराने के लिए रिव्यूपिटीशन दाखिल किया था। हलाकि इस पिटीशन को सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल खारिज कर दिया था परन्तु पिटीशन से सुधारों के प्रति राज्य सरकारों की अरूचि स्पष्ट रूप से दिखती है।
आदरणीय प्रधानमन्त्री जी अभी समय है। कठोर कानून बनाने शर्मनाक घटनाओं के बाद उसकी निन्दा करने और केवल भाषण में समाज को जगाने से कुछ नहीं होने वाला है। यह सच है कि पुलिस और कानून व्यवस्था राज्यों का विषय है। आप उसमें प्रत्यक्ष हस्तक्षेप नही कर सकते। सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों को केन्द्र सरकार के स्तर पर आदेशात्मक प्रभाव दिलाने के लिए सार्थक पहल की आवश्यकता है।

Sunday, 14 April 2013

Hi-tech Aparadhi, Bailgaadi Yug ke Vivechak


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Sunday, 7 April 2013

दरोगा की लाठी ही संविधान है




 पिछले दिनो देर रात चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं प्राघौगिक विश्वविद्यालय कानपुर के छात्रावासो में कमरो के दरवाजो को तोड़कर स्थानीय पुलिस ने निहत्थे छात्रो को कायरतापूर्वक बुरी तरह मारा पीटा और सैकड़ो छात्रो पर गम्भीर धाराओ में मुकदमा पंजीकृत किया और कइयों को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया है। 
प्रायः हिंसक भीड़ के सामने कायरता पूर्वक पलायन करने वाले पुलिस कर्मियों ने छात्रावासो में सो रहें निहत्थे छात्रो पर निर्दयतापूर्वक लाठी चलाकर अपनी पदीय शक्तियों का आपराधिक अतिक्रमण किया है और आम छात्रो की गरिमा और सम्मान को चोट पहुँचाकर उनके मानवाधिकारो का हनन किया है। 

      व्यवस्था विरोधी जन आन्दोलनों के दौरान आन्दोलन कारियो को दुश्मन मानने की पुलिसिया प्रवृत्ति पर        
 अंकुश लगाने की चिन्ता किसी राज्य सरकार को नहीं है जबकि पुलिस की इस मानसिकता के कारण फर्जी मुकदमों में गिरफ्तार करके जेल भेजे गये कई राजनेता आज विभिन्न राज्य सरकारो में माननीय मंत्री है और वे पुलिसिया गुण्डई को रोकने में पूरी तरह सक्षम है। 

    ’’ नेहरू तेरे राज्य में पुलिस डकैती करती है ’’ का उदघोष करने वाले MkW0 राम मनोहर लोहिया के अनुयायी आज उत्तर प्रदेश और बिहार में सरकार चला रहे है।  उनके कई वर्तमान मन्त्री काँग्रेसी शासन में कई बार पुलिस से पिटे है कोई आपराधिक इतिहास न होने के बावजूद केवल काँग्रेसी विरोधी छात्र या श्रमिक संघटनो का सदस्य होने के नाते राजनैतिक कारणो से फर्जी मुकदमो में जेल भेजे गये है परन्तु आज वे सबके सब अपना गौरवशाली संर्घषमय अतीत भूल गये है। सक्षम और प्रभावी होने के बावजूद निहत्थे नागरिको पर पुलिसिया दमनात्मक कार्यवाही के लिए दोषी पुलिस कर्मियो को सजा दिलाने का कोई प्रयास नहीं करते है बल्कि अब मंत्री होने के नाते पुलिस अधिकारियो के बचाव में सामने आकर अपने चिरकुट दौर के साथियो को चिढाते है।  

    सर्वोच्च न्यायालय ने डी.के. बसु बनाम स्टेट आफ वेस्ट बंगाल (1997-1-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज 416) में प्रतिपादित किया था कि आम नागरिको के साथ निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण व्यवहार सरकारी अधिकारियो का विधिक दायित्व है। आम जनता का हित सरकार का उद्देश्य है। उसके प्रत्येक कार्य में ईमानदारी सदभाव और पारदर्शिता आवश्यक है। 

     राम लीला मैदान में रात में सो रहे बाबा रामदेव के समर्थको के विरूध की गई दमनात्मक कार्यवाही के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने फिर से दुहराया है कि आम नागरिको की गरिमा और सम्मान को सुरक्षित रखना राज्य का प्राथमिक कर्तब्य है। अपने संविधान में राज्य के किसी अंग को अपनी संवैधानिक सीमाओ का अतिक्रमण करने की अनुमति नहीं है। खाने पीने रहने कही आने जाने के अधिकार की तरह निजता एवं सोने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है परन्तु अपने देश प्रदेश में पुलिस फोर्स पर सर्वोच्च न्यायालय की इन नजीरो का कोई असर नही है। 

     देर रात बिना किसी सूचना के छात्रावासो में जबरन घुसना और दरवाजे तोड़कर सो रहे निहत्थे छात्रो के साथ मार पीट करके उत्तर प्रदेश पुलिस ने राम लीला मैदान इनसीडेन्ट इन रे (2012-1-सुप्रीम कोर्ट केसेज-एल.एण्ड.एस.-पेज 810) में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधि का उल्लघंन किया है परन्तु राज्य सरकार के किसी ea=h या जिम्मेदार अधिकारी ने स्थानीय पुलिस के इस अमानवीय आचरण की निन्दा नहीं की है बल्कि आई.जी.जोन. श्री सुनील गुप्ता ने छात्रो पर फायरिंग करने का आरोप लगाया और बताया कि अगर किसी को गोली लगती तो छात्र धारा 302 के मुजरिम हो जाते। उन्होनें यह भी बताया कि अपराधी किस्म के छात्रो को ही नामजद किया गया है परन्तु उन्होनें छात्रावासो में सो रहे निहत्थे छात्रो में अपराधी और गैर अपराधी छात्रो को वर्गीकृत करने का कोई तर्कसंगत आधार नहीं बताया। उन्होने यह भी नहीं बताया कि पुलिस ने रात्रि सवा दो बजे भगत सिंह, कर्पूरी ठाकुर, तिलक एवं आर.बी.आर.एस. छात्रावास से 90 छात्रो को कोई कारण बताये बिना गिरफ्तार किया है। इन छात्रो में गोल्ड मैडल के सम्भावित दावेदार जवाहर लाल को रात में सोते समय भगत सिंह छात्रावास से उनके कमरे का दरवाजा तोड़कर गिरफ्तार किया, उन्हें मारा पीटा जिससे उनके हाथ की उगँली टूट गई। पदक के  एक अन्य दावेदार ब्रजेश मेहता को पुलिस की पिटाई से चोट आई, छात्र जितेन्द्र का पैर फट गया, पुलिस की बर्बरता के कारण अतुल कुमार के हाथो में चोट आई है। वास्तव में पुलिस थाने के अन्दर दरोगा की लाठी ही संविधान होती है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेशात्मक दिशा निर्देश थानो की pkS[kV पर दम तोड़ देते है। एक पुलिस वाला जब जहाँ जिसको चाहे अपमानित कर सकता है। उसे किसी का भय नहीं वह कानून से ऊपर है। उसे मालुम है कि उसका पूरा तन्त्र लोक के विरूध उसका ही साथ देगा। 

     अपने देश में पुलिस को बल प्रयोग करने की मनमानी शक्तियाँ प्राप्त नहीं है। बल प्रयोग के लिए प्रत्येक राज्य में अपने रूल्स रेगुलेशन है और उसके पालन की बाध्यता है परन्तु प्रत्येक अवसर पर देखा गया है कि पुलिस अपनी पदीय शक्तियों का बेजा इस्तेमाल करती है और अपने आपको कानून से ऊपर मानना उसकी आदत है। 

     पुलिस वालो द्वारा किये गये अमानवीय कार्यो और उत्पीड़न की प्रायः शिकायत नहीं की जाती। लोग चुपचाप सहन कर लेते है और यदि कभी किसी ने शिकायत करने का साहस किया तो उसे पूरी व्यवस्था में हर स्तर पर असहयोग और उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। पुलिस के बड़े से बड़े अधिकारी को अपने मातहत में दोष नहीं दिखता। पीडि़त को दोषी बताने की मुहिम चला दी जाती है। तरनतारन (पंजाब) में सरे आम सड़क पर एक महिला की पिटाई के मामले में पंजाब पुलिस की रिपोर्ट पर सर्वोच्च न्यायालय ने नाराजगी दिखाई है। जबकि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने स्तर पर संज्ञान लिया था।