Sunday, 7 April 2013

दरोगा की लाठी ही संविधान है




 पिछले दिनो देर रात चन्द्रशेखर आजाद कृषि एवं प्राघौगिक विश्वविद्यालय कानपुर के छात्रावासो में कमरो के दरवाजो को तोड़कर स्थानीय पुलिस ने निहत्थे छात्रो को कायरतापूर्वक बुरी तरह मारा पीटा और सैकड़ो छात्रो पर गम्भीर धाराओ में मुकदमा पंजीकृत किया और कइयों को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया है। 
प्रायः हिंसक भीड़ के सामने कायरता पूर्वक पलायन करने वाले पुलिस कर्मियों ने छात्रावासो में सो रहें निहत्थे छात्रो पर निर्दयतापूर्वक लाठी चलाकर अपनी पदीय शक्तियों का आपराधिक अतिक्रमण किया है और आम छात्रो की गरिमा और सम्मान को चोट पहुँचाकर उनके मानवाधिकारो का हनन किया है। 

      व्यवस्था विरोधी जन आन्दोलनों के दौरान आन्दोलन कारियो को दुश्मन मानने की पुलिसिया प्रवृत्ति पर        
 अंकुश लगाने की चिन्ता किसी राज्य सरकार को नहीं है जबकि पुलिस की इस मानसिकता के कारण फर्जी मुकदमों में गिरफ्तार करके जेल भेजे गये कई राजनेता आज विभिन्न राज्य सरकारो में माननीय मंत्री है और वे पुलिसिया गुण्डई को रोकने में पूरी तरह सक्षम है। 

    ’’ नेहरू तेरे राज्य में पुलिस डकैती करती है ’’ का उदघोष करने वाले MkW0 राम मनोहर लोहिया के अनुयायी आज उत्तर प्रदेश और बिहार में सरकार चला रहे है।  उनके कई वर्तमान मन्त्री काँग्रेसी शासन में कई बार पुलिस से पिटे है कोई आपराधिक इतिहास न होने के बावजूद केवल काँग्रेसी विरोधी छात्र या श्रमिक संघटनो का सदस्य होने के नाते राजनैतिक कारणो से फर्जी मुकदमो में जेल भेजे गये है परन्तु आज वे सबके सब अपना गौरवशाली संर्घषमय अतीत भूल गये है। सक्षम और प्रभावी होने के बावजूद निहत्थे नागरिको पर पुलिसिया दमनात्मक कार्यवाही के लिए दोषी पुलिस कर्मियो को सजा दिलाने का कोई प्रयास नहीं करते है बल्कि अब मंत्री होने के नाते पुलिस अधिकारियो के बचाव में सामने आकर अपने चिरकुट दौर के साथियो को चिढाते है।  

    सर्वोच्च न्यायालय ने डी.के. बसु बनाम स्टेट आफ वेस्ट बंगाल (1997-1-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज 416) में प्रतिपादित किया था कि आम नागरिको के साथ निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण व्यवहार सरकारी अधिकारियो का विधिक दायित्व है। आम जनता का हित सरकार का उद्देश्य है। उसके प्रत्येक कार्य में ईमानदारी सदभाव और पारदर्शिता आवश्यक है। 

     राम लीला मैदान में रात में सो रहे बाबा रामदेव के समर्थको के विरूध की गई दमनात्मक कार्यवाही के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने फिर से दुहराया है कि आम नागरिको की गरिमा और सम्मान को सुरक्षित रखना राज्य का प्राथमिक कर्तब्य है। अपने संविधान में राज्य के किसी अंग को अपनी संवैधानिक सीमाओ का अतिक्रमण करने की अनुमति नहीं है। खाने पीने रहने कही आने जाने के अधिकार की तरह निजता एवं सोने के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता दी गई है परन्तु अपने देश प्रदेश में पुलिस फोर्स पर सर्वोच्च न्यायालय की इन नजीरो का कोई असर नही है। 

     देर रात बिना किसी सूचना के छात्रावासो में जबरन घुसना और दरवाजे तोड़कर सो रहे निहत्थे छात्रो के साथ मार पीट करके उत्तर प्रदेश पुलिस ने राम लीला मैदान इनसीडेन्ट इन रे (2012-1-सुप्रीम कोर्ट केसेज-एल.एण्ड.एस.-पेज 810) में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधि का उल्लघंन किया है परन्तु राज्य सरकार के किसी ea=h या जिम्मेदार अधिकारी ने स्थानीय पुलिस के इस अमानवीय आचरण की निन्दा नहीं की है बल्कि आई.जी.जोन. श्री सुनील गुप्ता ने छात्रो पर फायरिंग करने का आरोप लगाया और बताया कि अगर किसी को गोली लगती तो छात्र धारा 302 के मुजरिम हो जाते। उन्होनें यह भी बताया कि अपराधी किस्म के छात्रो को ही नामजद किया गया है परन्तु उन्होनें छात्रावासो में सो रहे निहत्थे छात्रो में अपराधी और गैर अपराधी छात्रो को वर्गीकृत करने का कोई तर्कसंगत आधार नहीं बताया। उन्होने यह भी नहीं बताया कि पुलिस ने रात्रि सवा दो बजे भगत सिंह, कर्पूरी ठाकुर, तिलक एवं आर.बी.आर.एस. छात्रावास से 90 छात्रो को कोई कारण बताये बिना गिरफ्तार किया है। इन छात्रो में गोल्ड मैडल के सम्भावित दावेदार जवाहर लाल को रात में सोते समय भगत सिंह छात्रावास से उनके कमरे का दरवाजा तोड़कर गिरफ्तार किया, उन्हें मारा पीटा जिससे उनके हाथ की उगँली टूट गई। पदक के  एक अन्य दावेदार ब्रजेश मेहता को पुलिस की पिटाई से चोट आई, छात्र जितेन्द्र का पैर फट गया, पुलिस की बर्बरता के कारण अतुल कुमार के हाथो में चोट आई है। वास्तव में पुलिस थाने के अन्दर दरोगा की लाठी ही संविधान होती है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेशात्मक दिशा निर्देश थानो की pkS[kV पर दम तोड़ देते है। एक पुलिस वाला जब जहाँ जिसको चाहे अपमानित कर सकता है। उसे किसी का भय नहीं वह कानून से ऊपर है। उसे मालुम है कि उसका पूरा तन्त्र लोक के विरूध उसका ही साथ देगा। 

     अपने देश में पुलिस को बल प्रयोग करने की मनमानी शक्तियाँ प्राप्त नहीं है। बल प्रयोग के लिए प्रत्येक राज्य में अपने रूल्स रेगुलेशन है और उसके पालन की बाध्यता है परन्तु प्रत्येक अवसर पर देखा गया है कि पुलिस अपनी पदीय शक्तियों का बेजा इस्तेमाल करती है और अपने आपको कानून से ऊपर मानना उसकी आदत है। 

     पुलिस वालो द्वारा किये गये अमानवीय कार्यो और उत्पीड़न की प्रायः शिकायत नहीं की जाती। लोग चुपचाप सहन कर लेते है और यदि कभी किसी ने शिकायत करने का साहस किया तो उसे पूरी व्यवस्था में हर स्तर पर असहयोग और उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। पुलिस के बड़े से बड़े अधिकारी को अपने मातहत में दोष नहीं दिखता। पीडि़त को दोषी बताने की मुहिम चला दी जाती है। तरनतारन (पंजाब) में सरे आम सड़क पर एक महिला की पिटाई के मामले में पंजाब पुलिस की रिपोर्ट पर सर्वोच्च न्यायालय ने नाराजगी दिखाई है। जबकि इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने स्तर पर संज्ञान लिया था।

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