1 जनवरी 2013 को मताधिकार प्राप्त करने वाले युवाओं ने दुनिया के मजदूरों एक हो ‘‘हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’’ ‘‘दम है कितना दमन मे तेरे देख लिया और देखेंगे’’ ‘‘हमसे जो टकरायेगा चूर-चूर हो जायेगा’’ का उद्घोष नही सुना। विश्वविद्यालयों में भी छात्र संघ समाप्त करके सरकार ने विद्यार्थी जीवन में जन संघर्षों को समझने और जानने के अवसर समाप्त कर दिये है। युवा पीढ़ी को अब कोई नही बताता कि श्रमिकों की हड़ताल को सफल बनाने के लिए सड़क मार्ग से यात्रा कर रही दो महिला श्रमिको ने अपने बच्चे खोये थे। एक बच्चा रास्ते में मौसम की खराबी का शिकार हो गया और दूसरा बच्चा अपनी माँ की गोद से उस समय गिर गया जब माँ पुलिस से बचने के लिए नाला पार कर रही थी। दोनों बहादुर माँ इस घटना से विचलित नही हुई और उनमें से एक ने कहा कि हमें तमाम लोगों के दुखों की कीमत पर उसका दुख मनाने से क्या फायदा जो अब लौटकर नही आने वाला है। जो जिन्दा है हमे उनकी बेहतरी के लिए कार्य करना है।
अपने देश में 18 वर्ष से 25 वर्ष की आयु वर्ग का युवा अत्यधिक संवेदनशील है जुझारू है और अपनी मेहनत की मेरिट पर अपने सपने साकार करना चाहता है, परन्तु अपने बच्चों को खोने का गम भूलकर लोगों की बेहतरी के लिए अपना जीवन न्यौछावर करने वाला नेतृत्व अब उसे नही दिखता। जाति के आधार पर लोगों को गोलबन्द करके सत्ता के लिए संघर्षरत नेता आज के पीढ़ी को व्यापक और बहुआयामी मूद्दे पर जन-आन्दोलन के लिए उत्साहित नही करते है। उन्हें जाति और धर्म की राजनीति में उलझाये रखते है बढ़ती सामाजिक समस्याओं के लिए युवा पीढ़ी पर दोष मड़ने वालों ने खुद ‘‘हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’’ की मानसिकता को त्यागा है। व्यवस्था के साथ सामन्जस्य बिठाकर कुछ पाने की प्रवृत्ति को मान्यता दी है।
श्रमिक अधिकारों के प्रति सरकार की उदासीनता और श्रमिक संघटनों के कमजोर हो जाने के कारण श्रमिकों का शोषण तेजी से बढ़ा है। सर्वस्वीकृत सुविधायें भी श्रमिकों को उपलब्ध नही है। नियोजक श्रमिकों के वेतन से ई0एस0आई0 की अनिवार्य कटौती करते है परन्तु ई0एस0आई0 की सुविधाएं अपने कर्मचारियों को उपलब्ध कराने के लिए कभी कोई चिन्ता नहीं करते। देश में आजादी से पहले या आजादी के बाद किसी मिल मालिक या सरकार ने श्रमिकों के हितो के लिए स्वप्रेरणा से अपने स्तर पर कभी कोई पहल नहीं की है 17 दिसम्बर 1906 को सरकार द्वारा गठित सूती मिल मजदूर कमेटी नेे 72 घण्टे का सप्ताह अर्थात 12 घंटे का कार्य दिवस निर्धारित किया था। 8 घण्टे के कार्य दिवस की व्यवस्था श्रमिकों के सतत् संघर्ष और कई श्रमिकों के बलिदान के बाद सम्भव हो सकी है परन्तु जाने अनजाने अब हम सब इस सुविधा को खत्म कराते जा रहे है 12 घण्टे का कार्य दिवस और साप्ताहित अवकाश की समाप्ति का माहौल बनने लगा है। नौकरी पेशा लोगों को सवेतन अवकाश की सुविधा जे.के. जूट मिल केे सात श्रमिको के बलिदान का प्रतिफल है। 6 जनवरी 1947 को कानपुर के जरीब चैकी चैराहें पर श्रमिकों के जुलूस पर पुलिस ने लाठी चार्ज किया गोली चलाई जिसमें सात श्रमिक शहीद हुये थे। इसके पूर्व बोनस की मांग को लेकर कानपुर काटन मिल (जो बाद में इलगिन मिल कं0 के नाम से जानी जाती थी) में श्रमिकों के आन्दोलन को कुचलने के लिए तत्कालीन सरकार ने जालियां वाला काण्ड की तरह श्रमिकों को घेर कर गोली चलायी और जिसमें अनेकोें श्रमिक शहीद हुये थे।
श्रमिक आन्दोलनों के दबाव में वर्ष 1970 में राज्य श्रम आयोग का गठन किया गया और उसकी सिफारिशों पर श्रमिको को निलम्बन की स्थिति में निर्वहन भत्ता और सेवा निवृत्ति पर गेच्युटी देने का निर्णय लिया गया। इसी प्रकार वर्ष 1984 मेे आद्यौगिक विवाद अधिनियम में संशोधन करके प्रावधान किया गया कि यदि श्रम न्यायालय या न्यायाधिकरण किसी निष्कासित श्रमिक को कार्य पर वापस लेने का एवार्ड पारित करते है और यदि सेवायोजक उसके विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिए उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष कोई कार्यवाही संस्थित कराते है तो ऐसी कार्यवाही के लम्बित रहने के दौरान श्रमिक को उसका वेतन प्राप्त होता रहेगा ।
राजनीति में पूँजीपतियों के बढ़ते प्रभाव और राज नेताओं में ही पूँजीपति बनने की होड़ के कारण भी श्रमिकों का शोषण बढ़ा है। अब संसद में ज्योतिर्मय बसु, राज नारायण, मधु दण्डवत,े जार्ज फर्नाडीज, मधुलिमये, भूपेश गुप्ता, ए0के0 गोपालन नही बैठते। अब संसद में जाति की राजनीति करने वाले और टाटा, बिरला, अम्बानी, मित्तल गोदरेज के पैरोकार बैठते है जो अपने निजी व्यापार और समर्थक उद्योग घरानों का हित साधनें के लिए सम्बन्धित संसदीय समितियों का सदस्य बनकर नीतियों को कुप्रभावित करते है। वास्तव में राष्ट्रीय राजनीति में साम्यवादियों और सामाजवादियों का प्रभाव कम हो जाने के कारण रोजी-रोटी के लिए होने वाले जन संघर्षाें को संसद के स्तर पर समर्थन नहीं मिल पाता और श्रमिक मजबूर होकर अन्दोलनों की जगह न्यायालयों का सहारा लेने लगे है और उसके कारण श्रमिक संघटन कमजोर हो रहे है। श्रमिकों को पूँजी और पूँजीपतियों के विरूद्ध संघटित करने के लिए अब गणेश शंकर विद्यार्थी, हरिहर नाथ शास्त्री, संतसिंह युसुफ, गणेश दत्त बाजपेई, राजा राम शास्त्री, विमल मेहरोत्रा, राम आसरे, रवि सिन्हा, मकबूल अहमद खाँ जैसे नेता अब पैदा होने बन्द हो गये।
म्योरमिल अथर्टन वेस्ट मिल लक्ष्मी रतन काटन मिल विक्टोरिया मिल स्वदेशी काटन मिल और गणेश फ्लावर मिल को निजी क्षेत्र से झीनकर उनका सरकारी अधिग्रहण कराने के लिए श्रमिकों के आन्दोलन को संसद के स्तर पर साम्यवादियों और सामाजवादी संसदों ने समर्थन देकर श्रमिकों में ऊर्जा भरी और सरकार को अधिग्रहण करने के लिए मजबूर किया परन्तु जब मनमोहन सिंह के वित्तमंत्रित्व काल में इन मिलों में उत्पादन बद किया गया और फिर एन0डी0ए0 के शासनकाल में घाटे के नाम पर श्रमिकोें को वी0आर0एस0 देकर बेरोजगार किया गया तो संसद ने कोई विरोध नही हुआ। किसी ने संसद में संसद को उसके ही प्रस्ताव की याद नही दिलायी जिसमें कहा गया था कि इन मिलों का अधिग्रहण देश की सैन्य आवश्यकताओं और आम जनता को सस्ती दर पर कपड़ा मुहैया करने के लिए किया जा रहा है। इसलिए इन मिलों से लाभ कमाने की बात सोची भी नही जा सकती थी।
जानबूझकर साजिस के तहत भ्रम फैलाया गया है कि श्रमिक संघटनों विशेषकर लाल झण्डे़ वालों ने कारखाने बन्द करा दिये है। कानपुर का कोई कारखाना श्रमिकों की हड़ताल के कारण बन्द नही हुआ। सभी कारखानें सरकार या मिल मालिकों ने अपने कारणों से बन्द किये है। सच यह है कि श्रमिक आन्दोलन के कमजोर हो जाने के कारण सरकार और मिल मालिक कारखानें बन्द करने में सफल हुए है।
फटा कुर्ता और टूटी चप्पल पहनकर दुनिया के मजदूरों एक हो की भावना और भौतिक अभावों में गर्व महसूस करने वाला नेतृत्व आज कही खो गया है। कुछ लोग है जो त्यागमय परम्परा को जीवित रखे है परन्तु राष्ट्रीय श्रम संगठनोें के पास अपने स्तर पर श्रमिक संगठनांे के प्रति युवा पीढ़ी को आकर्षित करने की कोई रणनीति नही है। कहा जा सकता है कि श्रमिक संगठनों की स्थानीय इकाईयों को जैवीय बनाये रखने के निहित स्वार्थ के कारण जान बूझकर प्रतिभाशाली युवाओं को नेतृत्व से वंचित रखा जाता है।
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