Saturday, 4 May 2013

फास्ट ट्रेक कोर्ट कोई निदान नहीं........ आपराधिक न्याय प्रशासन में तेजी के लिए आधारभूत परिवर्तन की जरूरत लोगों को फर्जी मुकदमों में फसाने से बचना होगा और सही मामलों में सजा कराने की मानसिकता बनानी होगी।


पिछले 5-6 अप्रैल को नई दिल्ली में विभिन्न उच्च न्यायालयों के 24 चीफ जस्टिस और सर्वोच्च न्यायालय के 28 न्यायमूर्तिगणों ने न्यायिक व्यवस्था पर चिन्तन किया है। इस बैठक को प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने भी सम्बोधित किया है। बैठक में आपराधिक मुकदमों के त्वरित निस्तारण के लिए नये सिरे से फास्ट ट्रेक कोर्टस बनाये जाने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है।
यह सच है कि एन0डी0ए0 शासनकाल में गठित फास्ट ट्रेक कोर्टस ने आपराधिक मुकदमों के अम्बार को काफी हद तक कम किया था परन्तु इसके पीछे मुकदमें के त्वरित निस्तारण की कोई भावना नहीं थी। कार्य संस्कृति में कोई परिवर्तन नही हुआ बल्कि चैदह मुकदमें निस्तारित करने की अपरिहार्यता के कारण मुकदमें जल्दी निपटाये गये और इसके कारण आम लोग कही न कहीं अपना समुचित पक्ष प्रस्तुत करने के अवसर से वंचित भी हुये है।
आपराधिक मुकदमों के त्वरित निस्तारण के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता में समुचित प्रावधान उपलब्ध है और यदि कड़ाई से उनका पालन सुनिश्चित काराया जाये तो फास्ट ट्रेक कोर्टस के बिना भी मुकदमों को जल्दी निपटाया जा सकता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 309 में प्रावधान है कि ‘‘जब साक्षियों की परीक्षा एक बार प्रारम्भ हो जाती है तो वह सभी उपस्थित साक्षियों की परीक्षा हो जाने तक दिन प्रतिदिन जारी रखेगी’’ इस धारा मेें यह भी प्रावधान है कि न्यायालय में साक्ष्य के लिए उपस्थित साक्षी को परीक्षित किये बिना कोई स्थगन प्रार्थनापत्र मन्जूर नही किया जायेगा और बालात्कार से सम्बन्धित मुकदमोें को साक्षियों की परीक्षा प्रारम्भ होने की तिथि से दो माह की अवधि के अन्दर निस्तारित किया जायेगा। बड़ी-बड़ी घोषणाओं के बीच इस धारा को भुला दिया गया है जबकि यह अकेली धारा अपराधियों पर सकारात्मक दबाव बनाने में सक्षम है। 
आपराधिक न्याय प्रशासन में साक्षियों के पक्षद्रोहिता एक गम्भीर समस्या है। जघन्य अपराधों के मामलों में साक्षियांे का मुकरना न्याय की आस लगाये लोगों के लिए अन्याय के समान होता है। इसे रोकने की कोई रणनीति किसी के पास नही है। जिलाधिकारी की अध्यक्षता में प्रतिमाह अभियोजन अधिकारियों, शासकीय अधिवक्ताओं और पुलिस अधिकारियों की संयुक्त बैठक होती है। इस बैठक में इस प्रकार के गम्भीर विषयों पर चर्चा नही होती। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधि के कारण पक्ष दोही साक्षी की साक्ष्य पर भी सजा हो सकती है परन्तु पक्षद्रोही साक्ष्य को सजा लायक बनाने के लिए आवश्यक है कि अभियोजन की और से समुचित प्रतिपरीक्षा करके पक्षद्रोही साक्षी को झूठा साबित किया जाये परन्तु प्रायः देखा जाता है कि पक्षद्रोही साक्षी की प्रति परीक्षा पाँच-सात प्रश्नों में सिमटी रहती है। पक्षद्रोही साक्षी को अभियोजन की समस्या माना जाता है इसलिए न्यायालय के स्तर पर उससे कोई जिरह नही की जाती जबकि अपनी विधि में साक्षी की सत्यता परखने के लिए न्यायालय को भी साक्षी से जिरह करने का अधिकार दिया गया है। प्रत्यक्षदर्शी या तथ्य के प्रमुख गवाहांे के पक्षद्रोही हो जाने की स्थिति मे कई बार उसी दिन अभियोजन साक्ष्य समाप्त कर दी जाती है और अभियुक्त दोषमुक्त घोषित हो जाता है। इस प्रक्रिया से न्याय की आस लगाये परिवार को कोई लाभ हो या न हो लेकिन सम्बन्धित पीठासीन अधिकारी को साढ़े तीन दिन के काम का कोटा जरूर मिल जाता है। 
आज आपराधिक न्याय प्रशासन नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट की धारा 138 के तहत दाखिल मुकदमों के अम्बार से जूझ रहा है। वित्तीय संस्थानों ने इस धारा को अपनी बकाया राशि की वसूली का माध्यम बना लिया है। एक हजार रूपये की धनराशि वाली चेक के अनादरण पर अदालत से वारण्ट प्राप्त करके वित्तीय संस्थान अपनी पूरी बकाया राशि वसूल करने का दवाब अभियुक्त पर बनाते है। इस प्रकार की समस्याओं के समाधान और जुर्माना अदि में एकरूपता बनाये रखने के लिए माननीय सर्वाेच्च न्यायलय ने दामोदर एस प्रभु बनाम सय्यद बाबा लाल एच (2010-5-सुप्रीम कोर्ट केसेज पेज 663) के द्वारा सभी अधीनरथ न्यायालयों के लिए दिशा निर्देश जारी किया है। इन दिशा निर्देशों के तहत अभियुक्त को प्रेषित किये जाने वाले सम्मनों को संशोधित करके उसमें लिखा जाना है कि यदि अभियुक्त सुनवाई के लिए नियत प्रथम  या द्वितीय तिथि पर उपस्थित होकर कम्पाउन्डिंग के लिए आवेदन करेगा तो उसका प्रार्थना पत्र बिना कोई कास्ट अधिरोपित किये स्वीकार कर लिया जायेगा और यदि इसके बाद करेगा तो चेक पर अंकित राशि का दस प्रतिशत विधिक सेवा प्राधिकरण में जमा कराने की स्थिति में ही स्वीकार किया जायेगा।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के उल्लिखित निर्देश को लागू करने से एन0आई0 एक्ट की धारा 138 के तहत दाखिल मुकदमों के निस्तारण में स्वतः तेजी आ जायेगी परन्तु सम्मन को आज तक संशोधित नही किया गया। मुझे लगता है कि अधिकारिक स्तर पर अब सम्मन की छपाई बन्द कर दी गई है। बाजार में सम्मन बिकते है और सम्बन्धित थानों के पैरोकार सम्मन अपने पैसे से खरीदते है। सभी आपराधिक विचारणों के लिए नियत तिथि पर कितने गवाहों को सम्मन भेजे गये कितने पर तामील हुये कितने साक्षी उपस्थित हुये और परीक्षित हुये या नही इस बाबत कोई रिकार्ड किसी न्यायालय में अब उपलब्ध नही रहता। आपराधिक न्याय प्रशासन में सम्मन भेजना महत्वपूर्ण औपचारिकता है जो पूरी तरह थाने के पैरोकार पर आश्रित है। इस व्यवस्था को सुधार कर प्रभावी बनाने की आवश्यकता है।
आपराधिक न्याय प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने और दिन प्रतिदिन की समस्याओं के त्वरित समाधान के लिए प्रत्येक जिले में जनपद न्यायाधीश की अध्यक्षता में मानिटरिंग सेल बनी हुई है। इस सेल की प्रतिमाह बैठक होती है जिसमें जनपद न्यायाधीश, जिलाधिकारी ज्येष्ठ पुलिस अधीक्षक उपस्थित रहते है परन्तु इस बैठक में विचारण की जमीनी समस्याओं पर कभी चर्चा नही होती और न इसका एजेण्डा सार्वजनिक किया जाता है। इस प्रकार की एक बैठक प्रतिमाह जिलाधिकारी की अध्यक्षता में भी होती है। इन बैठकों में सम्बन्धित लोगों को अपनी समस्याओं पर होमवर्क करके आना चाहिये पहले से एजेण्डा तय होना चाहिये। इस प्रकार की बैठके अब महज औपचारिकता रह गई है। इन बैठकों को एजेण्डा आधारित प्रभावी कार्यवाही में परिवर्तित करने की आवश्यकता है।
बढ़ते अपराधों के प्रभावी रोकथाम के लिए फास्ट ट्रेक कोर्टस को कारगर उपाय बताने का एक फैशन हो गया है। फास्ट ट्रेक कोर्टस से त्वरित निस्तारण का माहौल बन सकता है परन्तु इससे जमीनी हकीकत में कोई सार्थक परिवर्तन सम्भव नही है। अपराधियों पर प्रभावी दबाव और अपराधोें में सजा का प्रतिशत बढ़ाने के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 309 का अनुपालन सुनिश्चित कराना होगा और अभियोजन पैरवी को चुस्त-दुरूस्त करके न्यायालयांे के स्तर पर मुकदमों की नियमित मानिटरिंग करायी जाये। अभियोजन से जुड़े लोगों को जानबूझकर फर्जी मुकदमें पंजीकृत करने से बचना होगा और सही मामलों में अभियुक्तों को सजा दिलाने की मानसिकता बनानी होगी।

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