धारा 66ए पुलिसिया उत्पीड़न का बना एक नया माध्यम...................
इनफार्मेशन टेक्नालाजी एक्ट की धारा 66ए के पुलिसिया दुरूपयोग पर प्रभावी अंकुश बनाये रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में केन्द्र सरकार द्वारा जारी एडवाइजरी का अनुपालन सुनिश्चित कराने हेतु किसी को भी इस अधिनियम के तहत निरूद्ध करने के पूर्व महानगरों मे पुलिस महानिरीक्षक या डिप्टी कमिश्नर आॅफ पुलिस और जनपद स्तर पर पुलिस अधीक्षक की अनुमति लेना आवश्यक बना दिया है।
अपने देश में कानून व्यवस्था का मामला राज्य सरकारों के कार्यक्षेत्र में आता है और संवैधानिक प्रावधानों के कारण केन्द्र सरकार उसमें हस्तक्षेप नही कर सकती और इसी का अनुचित लाभ उठाकर राज्य सरकारें मनमानी करती है और पुलिस के माध्यम से असहमति रखने वालों का उत्पीड़न करती है। अपनी व्यवस्था में जनपद स्तर पर आम नागरिकों को अपनी व्यक्तिगत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों के हनन के विरूद्ध कोई कारगर उपचार उपलब्ध नही है। आर्थिक कारणों से हर व्यक्ति उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अर्जी नही दे पाता। इसलिए ऐसी कोई व्यस्था बनाई जानी चाहिये जिसके प्रभाव में आम आदमी को मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए जनपद न्यायालयों के समक्ष भी राहत प्राप्त हो सके।
मेरा अपना अनुभव कहता है कि राज्यों में छोटे शहरों और कस्बों मेें लोगों के मौलिक अधिकारों की कोई चिन्ता नही करता। किसी भी स्तर का पुलिस अधिकारी आम लोगों के मौलिक अधिकारों का अधिकारपूर्वक हनन करता है। इनफार्मेशन टेक्नालाजी एक्ट की धारा 66ए उनके लिए उत्पीड़न का एक नया हथियार है। एन.डी.पी.एस. एक्ट प्रभावी होने के पूर्व सभी राज्यों में पुलिस आम लोगों को शस्त्र अधिनियम की धारा 25 के तहत गिरफ्तार करके जेल भेजती थी परन्तु अब पुलिस ने इस अधिनियम का प्रयोग बन्द कर दिया है और अब बड़े पैमाने पर लोगों को मादक पदार्थों की फर्जी बरामदगी दिखाकर एन.डी.पी.एस. एक्ट के तहत जेल भेजा जाता है।
एन.डी.पी.एस. एक्ट (स्वापक औषधि और मनः प्रभावी पदार्थ अधिनियम 1985) एक विशेष अधिनियम है और उसकी धारा 50 में प्रावधान है कि यदि पुलिस अधिकारी को किसी व्यक्ति के पास मादक पदार्थ होने का शक है और वह उसकी गिरफ्तारी आवश्यक समझता है तो पुलिस अधिकारी को उस व्यक्ति की गिरफ्तारी के पूर्व उसे बताना होगा कि ‘‘आपको अपनी तलाशी किसी मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष कराने का विधिपूर्ण अधिकार प्राप्त है और यदि ऐसा व्यक्ति अपेक्षा करता है तो पुलिस अधिकारी स्वयं उसकी तलाशी नही लेगा और उसे कोई विलम्ब किये बिना निकटतम मजिस्टेªट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष तलाशी के लिए ले जायेगा’’। विधि में स्पष्ट व्यवस्था होने के बावजूद इस आदेशात्मक प्रावधान का प्रतिदिन दुरूपयोग होता है और कभी किसी को कोई पुलिस अधिकारी उसके अधिकार से अवगत नही कराता है और न तलाशी के लिए मजिस्टेªट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष ले जाता है।
एन.डी.पी.एस. एक्ट के तहत गिरफ्तारी के लिए फर्द बरामदगी की भाषा सारे देश में एक जैसी लिखी जाती है। उसमें लिखा जाता है कि ‘‘पकड़े गये व्यक्ति को किसी मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष तलाशी कराने के उसके अधिकार की जानकारी दी गई परन्तु उसने कहा कि हमे आप पर विश्वास है आप ही हमारी तलाशी ले लीजिए और फिर स्वयं उसने अपने पहने पैन्ट की दाहिनी जेब से एक पुडिया निकाल कर दी और बताया कि उसमें मादक पदार्थ है’’। इस फर्द बरामदगी के आधार पर मुकदमा पंजीकृत किया जाता है और पूरी कहानी पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों के संज्ञान में रहती है परन्तु कभी कोई पुलिस अधिकारी निरूद्ध किये गये व्यक्ति से वस्तु स्थिति जानने का प्रयास नही करता और मानकर चलता है कि निरूद्ध किये गये व्यक्ति ने स्वेच्छा से अपने अधिकार का परित्याग किया है जबकि एन.डी.पी.एस. एक्ट के तहत गिरफ्तारी के पूर्व धारा 50 के प्रावधान का अक्षरशः पालन करना आवश्यक है।
इनफार्मेशन टेक्नालाजी एक्ट के तहत गिरफ्तारी के लिए वरिष्ठ अधिकारियों की पूर्व अनुमति लेने का निर्देश एन.डी.पी.एस. एक्ट की धारा 50 की तरह स्थानीय स्तर पर केवल एक औपचारिकता बनकर रह जायेगा। इसके पहले दहेज हत्या के मामलों में भी क्षेत्राधिकारी स्तर के वरिष्ठ अधिकारी से विवेचना कराने का नियम बनाया गया था परन्तु अपवाद स्वरूप कुछ मामलों को छोड़ दिया जाये तो अधिकांश दहेज हत्या के मामलों में बतौर विवेचक क्षेत्राधिकारी स्वयं केस डायरी में साक्षियों का बयान अंकित नही करते। सब कुछ अपने अधीनस्थ पुलिस कर्मियों से कराते है और इसीलिए दहेज हत्या में सभी नामजद व्यक्तियों के विरूद्ध आरोपपत्र दाखिल करने का अघोषित नियम बना लिया गया है और क्षेत्राधिकारी स्तर पर विवेचना केवल औपचारिकता रह गई है जिसके कारण क्षेत्राधिकारी स्तर के अधिकारी से विवेचना कराने का उद्देश्य ही विफल हो गया है।
राज्यों में आपराधिक विधि के आदेशात्मक प्रावधानों और सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधिक सिद्धान्तों का जानबूझकर उल्लंघन किया जाता है। थाने में तैनात उपनिरीक्षक से लेकर वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक तक उत्पीड़न के मामलों में एक सी भाषा बोलते है और कायदे कानूनों के प्रतिकूल किसी को भी प्रताडि़त करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते है।
राज्यों मंे पुलिसिया कार्यप्रणाली के अनुभव बताते है कि इनफार्मेशन एक्ट की धारा 66ए के सम्बन्ध में केन्द्र सरकार की एडवाइजरी और सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान दिशा निर्देशो से स्थिति में कोई सुधार नही होगा। 66ए का दुरूपयोग यथावत जारी रहेगा। वास्तव में इनफार्मेशन टेक्नालाजी एक्ट जल्दबाजी में बनाया गया अधिनियम है। अधिनियम को बनाने की प्रक्रिया के दौरान इसके सम्भावित दुरूपयोग पर विचार नही किया गया और पुलिस को इसके सहारे लोगों की व्यक्तिगत और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर कुठाराघात करने का एक और माध्यम मिल गया है। स्वतन्त्र भारत में धारा 66ए जैसे प्रावधानों की आवश्यकता नही है उसे विधि से हटाया जाना चाहिये।
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