Saturday, 11 May 2013


राजनेताओं के पास और भी कई तोते..........................

राज्य सरकारों का विधि विभाग तोता बन गया है। इस तोते पर उच्च न्यायालयों के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय का सीधा नियन्त्रण है इन तोतों को उनके पिंजड़े से मुक्त करने की कोई चर्चा भी नही होती।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सी0बी0आई0 पर तोते की टिप्पणी के बाद विधिमंत्री श्री अश्वनी कुमार को अपने पद से त्याग पत्र देना पड़ा है। इसके पूर्व भी कई राजनेताओं को अपने पद छोड़ने पड़े है, परन्तु राज्य सरकारों के विधि विभाग में तैनात न्यायिक सेवा अधिकारियों के आचरण के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय की टिप्पणियों पर न्यायिक सेवा के अधिकारियों को अपने पद नही त्यागने पड़ते। न्यायालय के आदेशों के उल्लंघन में राज्य सरकारों को सक्रिय सहयोग देने के बावजूद वे पदोन्नति पाते है और सेवानिवृत्ति के बाद भी आयोगो में चेयरमैन या सदस्य बनकर राष्ट्र सेवा में तल्लीन रहते है। 
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेन्च ने यू.पी. शासकीय अधिवक्ता कल्याण समिति बनाम स्टेट आॅफ यू.पी. (मिसलेनियस बेन्च नम्बर 7581 सन् 2008) और उसी वाद बिन्दु पर दाखिल अन्य 293 याचिकाओं में अवधारित किया है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रधान सचिव न्याय/विधि परामर्शी के सक्रिय सहयोग से अपनी शक्तियों का दुरूपयोग किया है। न्यायमूर्तिगणों ने प्रधान सचिव न्याय/विधि परामर्शी पर राज्य सरकार को सही सलाह न देने के आरोप की भी पुष्टि की है। न्यायिक सेवा के अधिकारियों पर राज्य सरकार को अपनी शक्तियों का दुरूपयोग करने के लिए सक्रिय सहयोग देने का न्यायिक निष्कर्ष और उसके आधार पर उनके विरूद्ध कोई कार्यवाही न होना गम्भीर चिन्ता का विषय है।
राज्य सरकारों के विधि विभाग में ‘‘निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय’’ की तर्ज पर न्यायिक सेवा के अधिकारियों की पोस्टिंग की जाती है और अपना संविधान और आम जनता उनसे अपेक्षा करती है कि वें अपने न्यायिक विवेक का प्रयोग करके किसी भय लालच या दबाव में आये बिना राज्य सरकार को विधिसम्मत सलाह देगें परन्तु पिछले दो दशकों का इतिहास बताता है कि न्यायिक सेवा के अधिकारी विधि विभाग में अपनी पोस्टिंग के दौरान अपने न्यायिक विवेक को त्याग देते है और राज्य सरकार का तोता बनकर सत्तारूढ़ दल की इच्छापूर्ति का माध्यम बन जाते है।
विधि विभाग के सक्रिय सहयोग से अपने पहले मुख्यमन्त्रित्व काल में श्री मुलायम सिंह यादव ने सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में सत्र न्यायालयों के समक्ष कार्यरत सभी शासकीय अधिवक्ताआंे को किसी नियम या विधिक प्रक्रिया का अनुपालन किये बिना एकदम मनमाने तरीके से हटा दिया था। उनके इस निर्णय को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विधि विरूद्ध माना और कुमारी श्री लेखा विद्यार्थी बनाम स्टेट आॅफ यू.पी. आदि (1991-ए0आई0आर0, पेज- 537) मेें पारित निर्णय के द्वारा स्पष्ट कर दिया कि शासकीय अधिवक्ता सार्वजनिक दायित्वों का निर्वहन करते है। उनकी नियुक्ति के लिए विधि में निर्धारित प्रक्रिया और नियमों का अक्षरसः पालन किया जाना आवश्यक है, परन्तु मुलायम सिंह यादव की तरह कु0 मायावती ने भी अपने मुख्यमन्त्रित्व काल में सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश के शासकीय अधिवक्ताओं का नवीनीकरण निरस्त कर दिया और मनमाने तरीके से किसी नियम या विधिक प्रक्रिया का अनुपालन किये बिना अपन चहेतो की नियुक्ति कर दी जबकि उनमें से कई नियुक्ति के समय राशन की दुकान चलाते थे, कहीं नौकरी करते थे और उन्हें एक भी सत्र परीक्षण के संचालन का अनुभव नही था। 
उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार द्वारा इस प्रकार के पारित आदेशों पर टिप्पणी करते हुये कहा है कि विशेष सचिव ने प्रधान सचिव न्याय के अनुमोदन से विवेक का प्रयोग किये बिना अति जल्दबाजी में आदेश पारित किये है। न्यायालय ने उनसे उनके अनुचित आचरण के लिए स्पष्टीकरण भी मांगा था। 
शासकीय अधिवक्ताओं की नियुक्ति पर राज्य सरकार की कारगुजारी के कारण उच्च न्यायालय ने प्रधान सचिव न्याय के आचरण को अनुचित बताया था और याचिका की सुनवाई के दौरान अप्रिय टिप्पणियों के कारण खुले न्यायालय में उनकी फजिहत भी हुई थी जिसके कारण सोचा गया था कि विधि विभाग में तैनात न्यायिक अधिकारी राज्य सरकार के कार्याें का विधि के तहत न्यायिक मूल्यांकन करेंगे। वास्तव में उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद राज्य सरकार की मनमानी के विरूद्ध तनकर खड़े होकर सच कहने का अवसर प्राप्त हुआ था परन्तु इस अवसर को गँवा दिया गया और एक बार फिर नये सिरे से प्रधान सचिव न्याय और उनके सहयोगियों ने अखिलेश सरकार को भी वही सब करने में सक्रिय सहयोग दिया है जिसके कारण कु0 मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल मंे उच्च न्यायालय ने उनकी निन्दा की थी।
विधि विभाग की भूमिका सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा प्रतिपादित विधिक सिद्धान्तों के प्रतिकूल रही है। पूरा विधि विभाग राज्य सरकार का तोता बनकर उनके हित साधन का काम करता है उनके इस अनुचित आचरण की निन्दा नही की जाती। उनकी आलोचना में न्यायालय की अवमानना दिखती है। सच भी है कि राज्य सरकार का तोता बने यह अधिकारी पदोन्नति पाकर माननीय न्यायमूर्ति के पद को सुशोभित करते है। सर्वोच्च न्यायालय को अपने इन अधिकारियों के तोतेपन को खत्म करने के लिए स्वयं आगे आना होगा।

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