Saturday, 25 May 2013

वृद्ध माता पिता के गुजारे के प्रति उत्तर प्रदेश असंवेदशील


वृद्ध माता पिताओं का सम्मानजनक जीवन यापन सुनिश्चित बनाये रखने के लिए मेन्टीनेन्स एण्ड वेलफेयर आफ पैरेन्टस एण्ड सिटीजन एक्ट 2007 अपने अपने प्रदेशों में लागू न करके अखिलेश यादव और नीतिश कुमार ने इस सामाजिक समस्या के प्रति अपनी असंवेदनशीलता का परिचय दिया है। अलग अलग विचार धाराओं वाली इन दोनों के नेतृत्व वाली सरकारो ने इस विषय पर एक जैसा रवैया अपनाकर सबको चैकाया है। इस अधिनियम का सहारा लेकर माननीय उच्च न्यायालय के एक सेवा निवृत्त मुख्य न्यायाधीश ने अपने अधिवक्ता पुत्र के विरूद्ध सम्मानजनक देखभाल न करने का आरोप लगाया है। उच्च न्यायालय ने पिटीशन पर सुनवाई के बाद सेवानिवृत्त न्यायाधीश और उनकी पत्नी को समुचित पुलिस प्रोटेक्शन दिये जाने का आदेश पारित किया है।
हम सभी ने बचपन में और फिर विद्यार्थी जीवन में श्रवण कुमार की कहानी कई बार सुनी है और उस समय इस कहानी को सुनकर मन में भावना उठती थी कि हम भी श्रवण कुमार जैसे ही बनेंगे परन्तु अब समाज में अपने माता पिता के प्रति समर्पित श्रवण कुमार जैसे पुत्र दिखाई नही पड़ते। वृद्ध माता पिता की उपेक्षा एक सामान्य सी बात हो गई है। माता पिता की उपेक्षा को लेकर अब समाज उद्वेलित नही होता और न किसी को शर्मिन्दगी का सामना करना पड़ता है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 में भी प्रावधान है कि यदि कोई अपने पिता या माता का भरण पोषण करने में उपेक्षा करता है या भरण पोषण करने से इन्कार करता है तो पिता या माता के आवेदन पर प्रथम वर्ग मजिस्टेªट उपेक्षा करने वाले पुत्र या पुत्री को निर्देश दे सकता है कि वे अपने माता पिता को मासिक दर पर गुजारा भत्ता दें। शुरूआत मेु गुजारा भत्ता की राशि केवल पांच सौ रूपये प्रतिमाह निर्धारित की गई थी जो अब बढ़ाकर तीन हजार रूपये तक कर दी गई है। इस प्रावधान के प्रभावी होने के बावजूद जमीनी स्तर पर माता पिता की उपेक्षा के विरूद्ध कारगर उपाय नही किये जा सके और अप्रिय स्थितियाँ ज्यो की त्यों बनी रहीं।
वर्ष 2007 में भारत सरकार ने मेन्टीनेन्स एण्ड वेलफेयर आफ पैरेन्टस एण्ड सीनियर सिटीजन एक्ट पारित किया है। यह एक्ट संविधान के नीति निर्देशक तत्वों के आधार पर पारित किया गया है जिसके कारण राज्य सरकारों के लिए अपने अपने राज्यों में इस अधिनियम को लागू करने की बाध्यता नही है। संविधान के इस प्रावधान का अनुचित लाभ उठाकर उत्तर प्रदेश, बिहार, सिक्किम और मिजोरम जैसे राज्योे ने केन्द्र सरकार द्वारा कई बार अनुरोध किये जाने के बावजूद अपने अपने प्रदेशों में इस अधिनियम को लागू नही किया है। उत्तर प्रदेश बिहार जैसे बड़े राज्यों मेें इस अधिनियम को लागू न करने का कोई युक्तियुक्त आधार समझ में नही आता।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 की तुलना में इस अधिनियम के प्रावधान ज्यादा कारगर है। इस अधिनियम में प्रावधान है कि यदि किसी माता पिता या वरिष्ठ नागरिक ने अपनी सम्पत्ति उपहार स्वरूप या अन्य किसी माध्यम से हस्तान्तरित कर दी है और इस प्रकार हस्तान्तरित सम्पत्ति प्राप्त करने वाला व्यक्ति माता पिता या वरिष्ठ नागरिक को उनके सम्मानजनक जीवन यापन के लिए मूलभूत भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति नही करेगा तो माना जायेगा कि सम्पत्ति का हस्तान्तरण धोखे दबाव या अनुचित प्रभाव में किया गया है और हस्तान्तरणकर्ता के आवेदन पर हस्तान्तरण अवैध घोषित कर दिया जायेगा।
अधिनियम के तहत गठित न्यायाधिकरण वृद्ध माता पिता या वरिष्ठ नागरिक को प्रतिमाह दस हजार रूपये तक का गुजारा भत्ता दिला सकते है और नब्वे दिन के अन्दर गुजारा भत्ता पिटीशन का निस्तारण भी आवश्यक बनाया गया है। आदेश पारित होने के तीस दिन के अन्दर गुजारा भत्ता राशि न्यायाधिकरण के समक्ष जमा करने का भी प्रावधान है। इसका पालन न करने की दशा मंे बकाया राशि पर पाँच प्रतिशत से 18 प्रतिशत तक ब्याज भी दिलाया जायेगा। 
अधिनियम के तहत गठित न्यायाधिकरण के समक्ष किसी भी पक्षकार को अधिवक्ता के माध्यम से अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अधिकार नही है। पक्षकारों को स्वयं अपना पक्ष प्रस्तुत कराना होगा। सामाजिक कल्याण के लिए गठित न्यायाधिकरणों के समक्ष अधिवक्ताओं की उपस्थिति को प्रतिबन्धित करना आवश्यक है। वास्तव में अधिवक्ताओं की उपस्थिति मेें कई बार वस्तुस्थिति स्पष्ट नही हो पाती और सम्पूर्ण कार्यवाही कानूनी पेचीदगियों में उलझ जाती है और निर्धारित अवधि के अन्दर पिटीशन निर्णीत नही हो पाते। 
वृद्धावस्था में किसी को भी अन्य किसी सुविधा से ज्यादा चिकित्सकीय सहायता की आवश्यकता होती है। साधन सीमित होते है और कई बार बच्चों की भी आर्थिक स्थिति अच्छी नही होती ऐसी दशा में इलाज के लिए बृद्धो को सरकारी अस्पतालो पर निर्भर रहना पड़ता है। अपने देश प्रदेश के सरकारी अस्पताल किसी के भी प्रति संवेदशील नही है। अधिनियम में राज्य सरकारो के लिए वृद्धों को समुचित चिकित्सा सुविधायें उपलब्ध कराना आवश्यक बनाया गया है। राज्य या केन्द्र सरकार द्वारा संचालित अस्पतालों में वृद्धों के लिए बेड आरक्षित रखना आवश्यक बताया गया है।
बृद्धावस्था में माता पिता अपने बच्चों को शार्मिन्दगी का शिकार होने से बचाने के लिए उनके विरूद्ध शिकायत नही करते और घुट घुट कर अपमान सहन करते रहते है। वे अपने आपको असहाय मान लेते है। ऐसी स्थितियों से वृद्धो को उबारने के लिए केवल कानून समक्ष नही है। कानून बनाकर सरकार ने अपनी पीठ थपथपा ली है परन्तु इसके कारण वृद्धो को मूलभूत भौतिक आवश्यकताओं की उपलब्धता का कोई आँकड़ा नही है। सरकार के स्तर पर कोई माँनिटरिग नही की जा रही है। जिसके कारण आम लोगों को इस अधिनियम की जानकारी भी नही है। जबकि अधिनियम में इसके प्रचार प्रसार की कार्य योजना भी बनाई गई है। इसके लिए समाज को आगे आना होगा और सकारात्मक माहौल बनाकर वृद्धो में असहाय होने की मनोदशा को खत्म कराना होगा। कानून अपनी जगह है परन्तु जमीनी स्तर पर समाज के सक्रिय सहयोग के बिना वृद्धो की समुचित देखभाल सम्भव नही है। 


Saturday, 18 May 2013



धारा 66ए पुलिसिया उत्पीड़न का बना एक नया माध्यम...................


इनफार्मेशन टेक्नालाजी एक्ट की धारा 66ए के पुलिसिया दुरूपयोग पर प्रभावी अंकुश बनाये रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में केन्द्र सरकार द्वारा जारी  एडवाइजरी का अनुपालन सुनिश्चित कराने हेतु किसी को भी इस अधिनियम के तहत निरूद्ध करने के पूर्व महानगरों मे पुलिस महानिरीक्षक या डिप्टी कमिश्नर आॅफ पुलिस और जनपद स्तर पर पुलिस अधीक्षक की अनुमति लेना आवश्यक बना दिया है।


अपने देश में कानून व्यवस्था का मामला राज्य सरकारों के कार्यक्षेत्र में आता है और संवैधानिक प्रावधानों के कारण केन्द्र सरकार उसमें हस्तक्षेप नही कर सकती और इसी का अनुचित लाभ उठाकर राज्य सरकारें मनमानी करती है और पुलिस के माध्यम से असहमति रखने वालों का उत्पीड़न करती है। अपनी व्यवस्था में जनपद स्तर पर आम नागरिकों को अपनी व्यक्तिगत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मौलिक अधिकारों के हनन के विरूद्ध कोई कारगर उपचार उपलब्ध नही है। आर्थिक कारणों से हर व्यक्ति उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अर्जी नही दे पाता। इसलिए ऐसी कोई व्यस्था बनाई जानी चाहिये जिसके प्रभाव में आम आदमी को मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए जनपद न्यायालयों के समक्ष भी राहत प्राप्त हो सके।
मेरा अपना अनुभव कहता है कि राज्यों में छोटे शहरों और कस्बों मेें लोगों के मौलिक अधिकारों की कोई चिन्ता नही करता। किसी भी स्तर का पुलिस अधिकारी आम लोगों के मौलिक अधिकारों का अधिकारपूर्वक हनन करता है। इनफार्मेशन टेक्नालाजी एक्ट की धारा 66ए उनके लिए उत्पीड़न का एक नया हथियार है। एन.डी.पी.एस. एक्ट प्रभावी होने के पूर्व सभी राज्यों में पुलिस आम लोगों को शस्त्र अधिनियम की धारा 25 के तहत गिरफ्तार करके जेल भेजती थी परन्तु अब पुलिस ने इस अधिनियम का प्रयोग बन्द कर दिया है और अब बड़े पैमाने पर लोगों को मादक पदार्थों की फर्जी बरामदगी दिखाकर एन.डी.पी.एस. एक्ट के तहत जेल भेजा जाता है।
एन.डी.पी.एस. एक्ट (स्वापक औषधि और मनः प्रभावी पदार्थ अधिनियम 1985) एक विशेष अधिनियम है और उसकी धारा 50 में प्रावधान है कि यदि पुलिस अधिकारी को किसी व्यक्ति के पास मादक पदार्थ होने का शक है और वह उसकी गिरफ्तारी आवश्यक समझता है तो पुलिस अधिकारी को उस व्यक्ति की गिरफ्तारी के पूर्व उसे बताना होगा कि ‘‘आपको अपनी तलाशी किसी मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष कराने का विधिपूर्ण अधिकार प्राप्त है और यदि ऐसा व्यक्ति अपेक्षा करता है तो पुलिस अधिकारी स्वयं उसकी तलाशी नही लेगा और उसे कोई विलम्ब किये बिना निकटतम मजिस्टेªट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष तलाशी के लिए ले जायेगा’’। विधि में स्पष्ट व्यवस्था होने के बावजूद इस आदेशात्मक प्रावधान का प्रतिदिन दुरूपयोग होता है और कभी किसी को कोई पुलिस अधिकारी उसके अधिकार से अवगत नही कराता है और न तलाशी के लिए मजिस्टेªट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष ले जाता है।
एन.डी.पी.एस. एक्ट के तहत गिरफ्तारी के लिए फर्द बरामदगी की भाषा सारे देश में एक जैसी लिखी जाती है। उसमें लिखा जाता है कि ‘‘पकड़े गये व्यक्ति को किसी मजिस्ट्रेट या राजपत्रित अधिकारी के समक्ष तलाशी कराने के उसके अधिकार की जानकारी दी गई परन्तु उसने कहा कि हमे आप पर विश्वास है आप ही हमारी तलाशी ले लीजिए और फिर स्वयं उसने अपने पहने पैन्ट की दाहिनी जेब से एक पुडिया निकाल कर दी और बताया कि उसमें मादक पदार्थ है’’। इस फर्द बरामदगी के आधार पर मुकदमा पंजीकृत किया जाता है और पूरी कहानी पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों के संज्ञान में रहती है परन्तु कभी कोई पुलिस अधिकारी निरूद्ध किये गये व्यक्ति से वस्तु स्थिति जानने का प्रयास नही करता और मानकर चलता है कि निरूद्ध किये गये व्यक्ति ने स्वेच्छा से अपने अधिकार का परित्याग किया है जबकि एन.डी.पी.एस. एक्ट के तहत गिरफ्तारी के पूर्व धारा 50 के प्रावधान का अक्षरशः पालन करना आवश्यक है।
इनफार्मेशन टेक्नालाजी एक्ट के तहत गिरफ्तारी के लिए वरिष्ठ अधिकारियों की पूर्व अनुमति लेने का निर्देश एन.डी.पी.एस. एक्ट की धारा 50 की तरह स्थानीय स्तर पर केवल एक औपचारिकता बनकर रह जायेगा। इसके पहले दहेज हत्या के मामलों में भी क्षेत्राधिकारी स्तर के वरिष्ठ अधिकारी से विवेचना कराने का नियम बनाया गया था परन्तु अपवाद स्वरूप कुछ मामलों को छोड़ दिया जाये तो अधिकांश दहेज हत्या के मामलों में बतौर विवेचक क्षेत्राधिकारी स्वयं केस डायरी में साक्षियों का बयान अंकित नही करते। सब कुछ अपने अधीनस्थ पुलिस कर्मियों से कराते है और इसीलिए दहेज हत्या में सभी नामजद व्यक्तियों के विरूद्ध आरोपपत्र दाखिल करने का अघोषित नियम बना लिया गया है और क्षेत्राधिकारी स्तर पर विवेचना केवल औपचारिकता रह गई है जिसके कारण क्षेत्राधिकारी स्तर के अधिकारी से विवेचना कराने का उद्देश्य ही विफल हो गया है।
राज्यों में आपराधिक विधि के आदेशात्मक प्रावधानों और सर्वाेच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधिक सिद्धान्तों का जानबूझकर उल्लंघन किया जाता है। थाने में तैनात उपनिरीक्षक से लेकर वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक तक उत्पीड़न के मामलों में एक सी भाषा बोलते है और कायदे कानूनों के प्रतिकूल किसी को भी प्रताडि़त करना अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानते है।
राज्यों मंे पुलिसिया कार्यप्रणाली के अनुभव बताते है कि इनफार्मेशन एक्ट की धारा 66ए के सम्बन्ध में केन्द्र सरकार की एडवाइजरी और सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान दिशा निर्देशो से स्थिति में कोई सुधार नही होगा। 66ए का दुरूपयोग यथावत जारी रहेगा। वास्तव में इनफार्मेशन टेक्नालाजी एक्ट जल्दबाजी में बनाया गया अधिनियम है। अधिनियम को बनाने की प्रक्रिया के दौरान इसके सम्भावित दुरूपयोग पर विचार नही किया गया और पुलिस को इसके सहारे लोगों की व्यक्तिगत और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर कुठाराघात करने का एक और माध्यम मिल गया है। स्वतन्त्र भारत में धारा 66ए जैसे प्रावधानों की आवश्यकता नही है उसे विधि से हटाया जाना चाहिये।




Saturday, 11 May 2013


राजनेताओं के पास और भी कई तोते..........................

राज्य सरकारों का विधि विभाग तोता बन गया है। इस तोते पर उच्च न्यायालयों के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय का सीधा नियन्त्रण है इन तोतों को उनके पिंजड़े से मुक्त करने की कोई चर्चा भी नही होती।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सी0बी0आई0 पर तोते की टिप्पणी के बाद विधिमंत्री श्री अश्वनी कुमार को अपने पद से त्याग पत्र देना पड़ा है। इसके पूर्व भी कई राजनेताओं को अपने पद छोड़ने पड़े है, परन्तु राज्य सरकारों के विधि विभाग में तैनात न्यायिक सेवा अधिकारियों के आचरण के विरूद्ध सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय की टिप्पणियों पर न्यायिक सेवा के अधिकारियों को अपने पद नही त्यागने पड़ते। न्यायालय के आदेशों के उल्लंघन में राज्य सरकारों को सक्रिय सहयोग देने के बावजूद वे पदोन्नति पाते है और सेवानिवृत्ति के बाद भी आयोगो में चेयरमैन या सदस्य बनकर राष्ट्र सेवा में तल्लीन रहते है। 
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेन्च ने यू.पी. शासकीय अधिवक्ता कल्याण समिति बनाम स्टेट आॅफ यू.पी. (मिसलेनियस बेन्च नम्बर 7581 सन् 2008) और उसी वाद बिन्दु पर दाखिल अन्य 293 याचिकाओं में अवधारित किया है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रधान सचिव न्याय/विधि परामर्शी के सक्रिय सहयोग से अपनी शक्तियों का दुरूपयोग किया है। न्यायमूर्तिगणों ने प्रधान सचिव न्याय/विधि परामर्शी पर राज्य सरकार को सही सलाह न देने के आरोप की भी पुष्टि की है। न्यायिक सेवा के अधिकारियों पर राज्य सरकार को अपनी शक्तियों का दुरूपयोग करने के लिए सक्रिय सहयोग देने का न्यायिक निष्कर्ष और उसके आधार पर उनके विरूद्ध कोई कार्यवाही न होना गम्भीर चिन्ता का विषय है।
राज्य सरकारों के विधि विभाग में ‘‘निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय’’ की तर्ज पर न्यायिक सेवा के अधिकारियों की पोस्टिंग की जाती है और अपना संविधान और आम जनता उनसे अपेक्षा करती है कि वें अपने न्यायिक विवेक का प्रयोग करके किसी भय लालच या दबाव में आये बिना राज्य सरकार को विधिसम्मत सलाह देगें परन्तु पिछले दो दशकों का इतिहास बताता है कि न्यायिक सेवा के अधिकारी विधि विभाग में अपनी पोस्टिंग के दौरान अपने न्यायिक विवेक को त्याग देते है और राज्य सरकार का तोता बनकर सत्तारूढ़ दल की इच्छापूर्ति का माध्यम बन जाते है।
विधि विभाग के सक्रिय सहयोग से अपने पहले मुख्यमन्त्रित्व काल में श्री मुलायम सिंह यादव ने सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में सत्र न्यायालयों के समक्ष कार्यरत सभी शासकीय अधिवक्ताआंे को किसी नियम या विधिक प्रक्रिया का अनुपालन किये बिना एकदम मनमाने तरीके से हटा दिया था। उनके इस निर्णय को माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विधि विरूद्ध माना और कुमारी श्री लेखा विद्यार्थी बनाम स्टेट आॅफ यू.पी. आदि (1991-ए0आई0आर0, पेज- 537) मेें पारित निर्णय के द्वारा स्पष्ट कर दिया कि शासकीय अधिवक्ता सार्वजनिक दायित्वों का निर्वहन करते है। उनकी नियुक्ति के लिए विधि में निर्धारित प्रक्रिया और नियमों का अक्षरसः पालन किया जाना आवश्यक है, परन्तु मुलायम सिंह यादव की तरह कु0 मायावती ने भी अपने मुख्यमन्त्रित्व काल में सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश के शासकीय अधिवक्ताओं का नवीनीकरण निरस्त कर दिया और मनमाने तरीके से किसी नियम या विधिक प्रक्रिया का अनुपालन किये बिना अपन चहेतो की नियुक्ति कर दी जबकि उनमें से कई नियुक्ति के समय राशन की दुकान चलाते थे, कहीं नौकरी करते थे और उन्हें एक भी सत्र परीक्षण के संचालन का अनुभव नही था। 
उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार द्वारा इस प्रकार के पारित आदेशों पर टिप्पणी करते हुये कहा है कि विशेष सचिव ने प्रधान सचिव न्याय के अनुमोदन से विवेक का प्रयोग किये बिना अति जल्दबाजी में आदेश पारित किये है। न्यायालय ने उनसे उनके अनुचित आचरण के लिए स्पष्टीकरण भी मांगा था। 
शासकीय अधिवक्ताओं की नियुक्ति पर राज्य सरकार की कारगुजारी के कारण उच्च न्यायालय ने प्रधान सचिव न्याय के आचरण को अनुचित बताया था और याचिका की सुनवाई के दौरान अप्रिय टिप्पणियों के कारण खुले न्यायालय में उनकी फजिहत भी हुई थी जिसके कारण सोचा गया था कि विधि विभाग में तैनात न्यायिक अधिकारी राज्य सरकार के कार्याें का विधि के तहत न्यायिक मूल्यांकन करेंगे। वास्तव में उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद राज्य सरकार की मनमानी के विरूद्ध तनकर खड़े होकर सच कहने का अवसर प्राप्त हुआ था परन्तु इस अवसर को गँवा दिया गया और एक बार फिर नये सिरे से प्रधान सचिव न्याय और उनके सहयोगियों ने अखिलेश सरकार को भी वही सब करने में सक्रिय सहयोग दिया है जिसके कारण कु0 मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल मंे उच्च न्यायालय ने उनकी निन्दा की थी।
विधि विभाग की भूमिका सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा प्रतिपादित विधिक सिद्धान्तों के प्रतिकूल रही है। पूरा विधि विभाग राज्य सरकार का तोता बनकर उनके हित साधन का काम करता है उनके इस अनुचित आचरण की निन्दा नही की जाती। उनकी आलोचना में न्यायालय की अवमानना दिखती है। सच भी है कि राज्य सरकार का तोता बने यह अधिकारी पदोन्नति पाकर माननीय न्यायमूर्ति के पद को सुशोभित करते है। सर्वोच्च न्यायालय को अपने इन अधिकारियों के तोतेपन को खत्म करने के लिए स्वयं आगे आना होगा।

Saturday, 4 May 2013

फास्ट ट्रेक कोर्ट कोई निदान नहीं........ आपराधिक न्याय प्रशासन में तेजी के लिए आधारभूत परिवर्तन की जरूरत लोगों को फर्जी मुकदमों में फसाने से बचना होगा और सही मामलों में सजा कराने की मानसिकता बनानी होगी।


पिछले 5-6 अप्रैल को नई दिल्ली में विभिन्न उच्च न्यायालयों के 24 चीफ जस्टिस और सर्वोच्च न्यायालय के 28 न्यायमूर्तिगणों ने न्यायिक व्यवस्था पर चिन्तन किया है। इस बैठक को प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने भी सम्बोधित किया है। बैठक में आपराधिक मुकदमों के त्वरित निस्तारण के लिए नये सिरे से फास्ट ट्रेक कोर्टस बनाये जाने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है।
यह सच है कि एन0डी0ए0 शासनकाल में गठित फास्ट ट्रेक कोर्टस ने आपराधिक मुकदमों के अम्बार को काफी हद तक कम किया था परन्तु इसके पीछे मुकदमें के त्वरित निस्तारण की कोई भावना नहीं थी। कार्य संस्कृति में कोई परिवर्तन नही हुआ बल्कि चैदह मुकदमें निस्तारित करने की अपरिहार्यता के कारण मुकदमें जल्दी निपटाये गये और इसके कारण आम लोग कही न कहीं अपना समुचित पक्ष प्रस्तुत करने के अवसर से वंचित भी हुये है।
आपराधिक मुकदमों के त्वरित निस्तारण के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता में समुचित प्रावधान उपलब्ध है और यदि कड़ाई से उनका पालन सुनिश्चित काराया जाये तो फास्ट ट्रेक कोर्टस के बिना भी मुकदमों को जल्दी निपटाया जा सकता है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 309 में प्रावधान है कि ‘‘जब साक्षियों की परीक्षा एक बार प्रारम्भ हो जाती है तो वह सभी उपस्थित साक्षियों की परीक्षा हो जाने तक दिन प्रतिदिन जारी रखेगी’’ इस धारा मेें यह भी प्रावधान है कि न्यायालय में साक्ष्य के लिए उपस्थित साक्षी को परीक्षित किये बिना कोई स्थगन प्रार्थनापत्र मन्जूर नही किया जायेगा और बालात्कार से सम्बन्धित मुकदमोें को साक्षियों की परीक्षा प्रारम्भ होने की तिथि से दो माह की अवधि के अन्दर निस्तारित किया जायेगा। बड़ी-बड़ी घोषणाओं के बीच इस धारा को भुला दिया गया है जबकि यह अकेली धारा अपराधियों पर सकारात्मक दबाव बनाने में सक्षम है। 
आपराधिक न्याय प्रशासन में साक्षियों के पक्षद्रोहिता एक गम्भीर समस्या है। जघन्य अपराधों के मामलों में साक्षियांे का मुकरना न्याय की आस लगाये लोगों के लिए अन्याय के समान होता है। इसे रोकने की कोई रणनीति किसी के पास नही है। जिलाधिकारी की अध्यक्षता में प्रतिमाह अभियोजन अधिकारियों, शासकीय अधिवक्ताओं और पुलिस अधिकारियों की संयुक्त बैठक होती है। इस बैठक में इस प्रकार के गम्भीर विषयों पर चर्चा नही होती। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधि के कारण पक्ष दोही साक्षी की साक्ष्य पर भी सजा हो सकती है परन्तु पक्षद्रोही साक्ष्य को सजा लायक बनाने के लिए आवश्यक है कि अभियोजन की और से समुचित प्रतिपरीक्षा करके पक्षद्रोही साक्षी को झूठा साबित किया जाये परन्तु प्रायः देखा जाता है कि पक्षद्रोही साक्षी की प्रति परीक्षा पाँच-सात प्रश्नों में सिमटी रहती है। पक्षद्रोही साक्षी को अभियोजन की समस्या माना जाता है इसलिए न्यायालय के स्तर पर उससे कोई जिरह नही की जाती जबकि अपनी विधि में साक्षी की सत्यता परखने के लिए न्यायालय को भी साक्षी से जिरह करने का अधिकार दिया गया है। प्रत्यक्षदर्शी या तथ्य के प्रमुख गवाहांे के पक्षद्रोही हो जाने की स्थिति मे कई बार उसी दिन अभियोजन साक्ष्य समाप्त कर दी जाती है और अभियुक्त दोषमुक्त घोषित हो जाता है। इस प्रक्रिया से न्याय की आस लगाये परिवार को कोई लाभ हो या न हो लेकिन सम्बन्धित पीठासीन अधिकारी को साढ़े तीन दिन के काम का कोटा जरूर मिल जाता है। 
आज आपराधिक न्याय प्रशासन नेगोशियेबल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट की धारा 138 के तहत दाखिल मुकदमों के अम्बार से जूझ रहा है। वित्तीय संस्थानों ने इस धारा को अपनी बकाया राशि की वसूली का माध्यम बना लिया है। एक हजार रूपये की धनराशि वाली चेक के अनादरण पर अदालत से वारण्ट प्राप्त करके वित्तीय संस्थान अपनी पूरी बकाया राशि वसूल करने का दवाब अभियुक्त पर बनाते है। इस प्रकार की समस्याओं के समाधान और जुर्माना अदि में एकरूपता बनाये रखने के लिए माननीय सर्वाेच्च न्यायलय ने दामोदर एस प्रभु बनाम सय्यद बाबा लाल एच (2010-5-सुप्रीम कोर्ट केसेज पेज 663) के द्वारा सभी अधीनरथ न्यायालयों के लिए दिशा निर्देश जारी किया है। इन दिशा निर्देशों के तहत अभियुक्त को प्रेषित किये जाने वाले सम्मनों को संशोधित करके उसमें लिखा जाना है कि यदि अभियुक्त सुनवाई के लिए नियत प्रथम  या द्वितीय तिथि पर उपस्थित होकर कम्पाउन्डिंग के लिए आवेदन करेगा तो उसका प्रार्थना पत्र बिना कोई कास्ट अधिरोपित किये स्वीकार कर लिया जायेगा और यदि इसके बाद करेगा तो चेक पर अंकित राशि का दस प्रतिशत विधिक सेवा प्राधिकरण में जमा कराने की स्थिति में ही स्वीकार किया जायेगा।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के उल्लिखित निर्देश को लागू करने से एन0आई0 एक्ट की धारा 138 के तहत दाखिल मुकदमों के निस्तारण में स्वतः तेजी आ जायेगी परन्तु सम्मन को आज तक संशोधित नही किया गया। मुझे लगता है कि अधिकारिक स्तर पर अब सम्मन की छपाई बन्द कर दी गई है। बाजार में सम्मन बिकते है और सम्बन्धित थानों के पैरोकार सम्मन अपने पैसे से खरीदते है। सभी आपराधिक विचारणों के लिए नियत तिथि पर कितने गवाहों को सम्मन भेजे गये कितने पर तामील हुये कितने साक्षी उपस्थित हुये और परीक्षित हुये या नही इस बाबत कोई रिकार्ड किसी न्यायालय में अब उपलब्ध नही रहता। आपराधिक न्याय प्रशासन में सम्मन भेजना महत्वपूर्ण औपचारिकता है जो पूरी तरह थाने के पैरोकार पर आश्रित है। इस व्यवस्था को सुधार कर प्रभावी बनाने की आवश्यकता है।
आपराधिक न्याय प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने और दिन प्रतिदिन की समस्याओं के त्वरित समाधान के लिए प्रत्येक जिले में जनपद न्यायाधीश की अध्यक्षता में मानिटरिंग सेल बनी हुई है। इस सेल की प्रतिमाह बैठक होती है जिसमें जनपद न्यायाधीश, जिलाधिकारी ज्येष्ठ पुलिस अधीक्षक उपस्थित रहते है परन्तु इस बैठक में विचारण की जमीनी समस्याओं पर कभी चर्चा नही होती और न इसका एजेण्डा सार्वजनिक किया जाता है। इस प्रकार की एक बैठक प्रतिमाह जिलाधिकारी की अध्यक्षता में भी होती है। इन बैठकों में सम्बन्धित लोगों को अपनी समस्याओं पर होमवर्क करके आना चाहिये पहले से एजेण्डा तय होना चाहिये। इस प्रकार की बैठके अब महज औपचारिकता रह गई है। इन बैठकों को एजेण्डा आधारित प्रभावी कार्यवाही में परिवर्तित करने की आवश्यकता है।
बढ़ते अपराधों के प्रभावी रोकथाम के लिए फास्ट ट्रेक कोर्टस को कारगर उपाय बताने का एक फैशन हो गया है। फास्ट ट्रेक कोर्टस से त्वरित निस्तारण का माहौल बन सकता है परन्तु इससे जमीनी हकीकत में कोई सार्थक परिवर्तन सम्भव नही है। अपराधियों पर प्रभावी दबाव और अपराधोें में सजा का प्रतिशत बढ़ाने के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 309 का अनुपालन सुनिश्चित कराना होगा और अभियोजन पैरवी को चुस्त-दुरूस्त करके न्यायालयांे के स्तर पर मुकदमों की नियमित मानिटरिंग करायी जाये। अभियोजन से जुड़े लोगों को जानबूझकर फर्जी मुकदमें पंजीकृत करने से बचना होगा और सही मामलों में अभियुक्तों को सजा दिलाने की मानसिकता बनानी होगी।