छात्र संघो को अराजकता का पर्याय बताने वाले राजनेताओं को छात्र संघो के गौरवमयी अतीत का ज्ञान नही है। प्रथम प्रधान मन्त्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने कानपुर में डी.
ए.वी. कालेज छात्र संघ के उद्घाटन सत्र में अपने सम्बोधन के दौरान एक मिल के उद्घाटन में देरी होने की याद दिलाये जाने पर अपने पी.ए. पर झूंझलाते हुये कहा था कि ‘‘इस मुल्क में बड़े बड़े कारखाने रोज लग रहे है। कारखाना लगना कोई नई बात नही है लेकिन ये लोग देश का भविष्य है, आगे मुल्क इन्हीं को चलाना है। मुझे इनसे अभी और बाते करनी है, आज इस समय भारत के पास इससे बड़ा कोई दूसरा काम नही है।’’ इसी कालेज छात्र संघ में अहिन्दी भाषी दक्षिण भारतीय छात्र श्री एन.के. नायर के अध्यक्ष चुने जाने को प्रख्यात समाजवादी विचारक डा. राम मनोहर लोहिया ने राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता का प्रतीक बताया था। उन्होंने कहा था कि उत्तर भारत के सबसे बड़े महाविद्यालय में दक्षित भारतीय छात्र का अध्यक्ष चुना जाना लोकतंत्र की मजबूती का परिचायक है। यह थी उस समय छात्र संघ की हैसियत। राजनेता उसमे देश का भविष्य तलाशते थे और आज के राजनेता उसे अराजकता का पर्याय बताते है।
आज के राजनेताओं को नही मालूम कि आजादी के बाद सामाजिक सरोकारों के प्रति छात्रों की प्रतिबद्धता जगजाहिर रही है। पचास साठ के दशक में कई कालेजो विश्वविद्यालयों के छात्रावासो में सवर्ण एवं दलित छात्रों की अलग अलग मेस हुआ करती थी। छुआ छूत और भेद भाव की इस समस्या से डी.ए.वी. कालेज छात्रावास भी ग्रसित था। यहाँ पर भी दलित छात्र सवर्ण छात्रों के साथ मेस में खाना नही खा सकते थे। इस व्यवस्था के खिलाफ कोई राजनीतिक दल बोलने की हिम्मत नही कर पा रहा था। सामाजिक समरस्ता के लिए इस व्यवस्था का विरोध तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष श्री एन.के. नायर के नेतृत्व में शुरू हुआ। सबसे पहले हस्ताक्षर अभियान चलाया गया और फिर एक दिन हरिजन छात्रों ने जबरदस्ती सवर्ण मेस में खाना खाया। भारी विरोध हुआ सारे नौकर और महाराज नौकरी छोड़कर चले गये। छात्रों ने खुद अपने बर्तन मांजे इसी बीच उस समय के पोंगा पन्थियों ने श्री एन.के. नायर पर जानलेवा हमला किया और उसके तत्काल बाद भेदभाव और अस्पृश्यता का यह मामला राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन गया और फिर मजबूरी मे दयानन्द शिक्षा संस्थान के प्रबन्धक डा. ब्रजेन्द स्वरूप विधायक, डा. जवाहर लाल जाटव, गंगा प्रसाद चैबे, मुरारी लाल कुरील, को छात्र नेताओं के साथ बैठक करनी पड़ी और उसके बाद कालेज के प्रास्पेक्टस में लिखा गया कि छात्रावास मे रहने वाले छात्र मेस में किसी भी धर्म, जाति या वर्ग के छात्र के खाने पीने पर एतराज नही जता सकेंगे। प्रख्यात राजनेता स्वर्गीय के.पी. उन्नीकृष्णन इसी अन्दोलन की उपज है।
छात्रावास के इस आन्दोलन ने तत्कालीन राजनैतिक और सामाजिक नेतृत्व को जता दिया था कि छात्र कल का नही आज का नागरिक है। सामाजिक सरोकारों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता समाज के अन्य किसी वर्ग से किसी भी प्रकार कमतर नही है। समाज की हर गतिविधि से वह प्रभावित होता है और उससे छात्र जीवन के दौरान तटस्थ रहने की अपेक्षा नही की जा सकती। मामला चाहे आम आदमी की भूख से जुड़ा हो या फिर नारी अस्मिता से। सामाजिक सरोकारों से छात्रनेताओ का गहरा जुड़ाव रहा है। जनता को आन्दोलित करने वाले मुद्दो की कमान सदा छात्रनेताओं ने सँभाली और उसकी कीमत भी चुकायी। 1959 मे पुलिसिया दुष्कर्म के लिए चर्चित शन्तिया काण्ड के विरूद्ध जबर्दस्त जनआन्दोलन डी.ए.वी. कालेज छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष स्वर्गीय श्याम मिश्रा के नेतृत्व मे शुरू हुआ था। इस आन्दोलन के दौरान पुलिस फायरिंग से कई लोगों की जाने गई और श्याम मिश्रा के विरूद्ध चैदह अपराधिक मुकदमें दर्ज किये गये थे। ग्रीनपार्क मे टेस्ट मैच के लिए स्टूडैण्ट गैलरी छात्र आन्दोलन का प्रतिफल है।
मताधिकार की आयु 18 वर्ष किये जाने का आन्दोलन शैक्षिक परिसरों से ही शुरू हुआ था और जब यह माँग स्वीकार कर ली गई है तो छात्र संघों पर प्रतिबन्ध लगाने का अभियान शुरू हो गया है। स्नातक प्रथम वर्ष का छात्र संसद और विधान सभा के चुनाव में जिम्मेदार नागरिक माना जाता है परन्तु छात्रसंघ का चयन करने के उसके अधिकार से उसे वंचित रखने मे कोई संकोच नही करता।
शैक्षिक परिसरों में छात्रसंघों का विरोध करने वाले शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों के दुश्मन है। छात्रसंघों के कारण शिक्षा को व्यापार बनाने वाले लोग बेनकाब होते रहे है। आज हर बड़ा राजनेता शिक्षा के साथ व्यापारी के नाते जुडा हुआ है और स्कूल कालेज उनकी अवैध कमाई का साधन बन गये है। शुल्क माफी सस्ते छात्रावास और पुस्तकालय आदि की उपलब्ध सुविधायें छात्रों से छीन ली गई है। डी.ए.वी. कालेज छात्रावास प्रबन्ध तन्त्र के कब्जे में है और बी.एन.एस.डी. इण्टर कालेज के छात्रावास में बी.एन.एस.डी शिक्षा निकेतन विद्यालय चलाया जा रहा है। शिक्षा को व्यापार बनाने वाले राजनेता छात्रसंघों का विरोध करते है।
210 दिन की अनिवार्य न्यूनतम पढ़ाई, परीक्षा समाप्ति के तीस दिन के अन्दर परीक्षाफल की घोषणा, सत्र प्रारम्भ होने के पूर्व एकेडेमिक कैलेण्डर का प्रकाशन और छात्र जीवन की आयु निर्धारित करने की माँग आज कही सुनाई नही पड़ती। इन माँगों के लिए आन्दोलन करने वाले छात्रों को अराजक बताने वाले लोगों से पूँछा जाना चाहिये कि छात्रसंघों के न होने पर 210 दिन की न्यूनतम पढाई की अनिवार्यता लागू करने के लिए उन्होंने अपने स्तर पर कोई प्रयास क्यों नही किये है। कालेजों में नियमित कक्षायें न लगने के कारण छात्रों ने मजबूरी मे कालेजो से मुँह फेरा है। आज हर अध्यापक कोचिंग के व्यवसाय में रोज नये कीर्तिमान स्थापित करने का दावा करता घूमता है परन्तु अपने कालेज, जहाँ से उसे वेतन मिलता है, के छात्रों के शैक्षिक स्तर को बढ़ाने का कोई प्रयास नही करता। इण्टर कालेजों में पढ़ाई एकदम चैपट है। श्रमिकों और किसानों के बच्चां के सामने बेहतर पढ़ाई के विकल्प सीमित हो गये है। प्रायवेट स्कूलो की फीस उनके माता पिता की आर्थिक सीमाओं के बाहर है। छात्रों की कमी का रोना रोकर पहले कक्षायें कम की गई और अब कालेज बन्द करके उसकी जमीन बेचने की तैयारी की जा रही है। दुर्भाग्य से पूँजीपतियों के इस साजिस का शिकार अध्यापक भी हो गये है परन्तु शिक्षक संगठन इन मुद्दो पर मौन रहकर भावी पीढि़यों के साथ अन्याय कर रहे है। जिसके लिए इतिहास उन्हें कभी क्षमा नही करेगा।
यह सच है कि राजनैतिक दलों के अनुचित हस्तक्षेप के कारण छात्रसंघ के चुनावों में गैर छात्र पेशेवर छात्रनेताओं और धन बल का प्रभाव बढ़ा है परन्तु समाजवादी युवजन सभा स्टूडेन्ट फेडरेशन आफ इण्डिया और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे छात्र संघटनों ने सदैव इन बुराइयों का विरोध किया और कालेजो विश्वविद्यालयों में विचाराधारा आधारित राजनीति को वरीयता दी और उसके कारण जनेश्वर मिश्रा, लालू यादव, अरूण जेटली, अतुल अन्जान, प्रकाश करात, सीताराम येचुरी जैसे कई छात्रनेता आज भारतीय राजनीति की मुख्य धारा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है। अंग्रेजी दैनिक हिन्दु के सम्पादक श्री एन. राम और प्रख्यात पत्रकार श्री राम बहादुर राय छात्र राजनीति की उपज है। इन्दिरा गाँधी के शासनकाल में मीसा के तहत सबसे पहली गिरफ्तारी छात्रनेता राम बहादुर राय की हुयी थी।
सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर गठित लिंगदोह समिति ने भी छात्रसंघो की उपयोगिता स्वीकार की है। लिंगदोह समिति की सिफारिशों के आधार पर छात्रसंघो के चुनाव कराने में कोई कठिनाई नही है। इन सिफारिशों को लागू करके धनबल और पेशेवर छात्रनेताओं पर प्रभावी अंकुश लगाया जा सकता है परन्तु कई राज्य सरकारे छात्र संघ चुनाव नही करा रही है जो इस तथ्य का परिचायक है भारतीय लोकतन्त्र की नर्सरी के प्रति सत्तारूढ़ राजनेता अपने पूर्वाग्रहों से ग्रसित है और वे अपने अपने राजनैतिक कारणो से कालेजों एवं विश्वविद्यालयों के स्तर पर छात्रों को संघटित नही होने देना चाहते है। आज अलग अलग राज्यों में अलग अलग दलो की सरकारे है परन्तु छात्रसंघो पर प्रतिबन्ध के मामले मे सभी का रवैया एक समान है। इन राजनेताओं को छात्र शक्ति से डर लगता है उन्होंने देखा है कि छात्रावास मे मेस की फीस बढ़ाये जाने के विरोध मे शुरू हुआ छात्र आन्दोलन अन्ततः गुजरात के तत्कालीन मुख्य मन्त्री चिमन भाई पटेल और उनकी पार्टी कांग्रेस की पराजय का कारण बना था। उन्हें डर है कि शैक्षिक परिसरो से निकले छात्रनेता जाति और धर्म के झाँसे मे नही आयेगें और संविधान के नीति निर्देशक सिद्धान्तो को लागू कराने की मुहिम का सूत्रपात करेंगे जो उनकी अपनी राजनीति और उनके परिवार वाद के हित मे नही है।
आपातकाल के दौरान देश में एक परिवार का शासन स्थापित करने की कोशिशों को छात्रनेताओं ने ही धूल धुसरित किया था। स्थानीय स्तरों पर उस समय का स्थापित राजनैतिक नेतृत्व हताश हो गया था और बुद्धम शरणम गच्छामि की तर्ज पर इन्दिरा शरणम गच्छामि करने लगा था। सड़को पर विरोध का स्वर सुनाई नही देता था। उस समय शैक्षिक परिसरो में बड़े पैमाने पर छात्रों ने सत्याग्रह किया और जेल भरकर इन्दिरा गाँधी के अधिनायकवादी रवैये का विरोध किया और उन्हें चुनाव कराने के लिए मजबूर कर दिया जो उनकी पराजय का कारण बना।
हमारे देश की तरूणाई कालेजों, विश्वविद्यालयों में बसती है। उसे निजी पसन्द नापसन्द से ऊपर उठकर एक बार फिर सड़क पर आकर आम लोगों से कहना होगा ‘‘आवो श्रमिक कृषक नागरिको इन्कलाब का नारा दो, शिक्षक, गुरूजन, बुद्धिजीवियों अनुभव भरा सहारो दो, फिर देंखें हम सत्ता कितनी बर्बर है बौराई है।’’