Saturday, 27 July 2013

स्वस्थ राजनीति की नर्सरी है छात्रसंघ ..................

छात्र संघो को अराजकता का पर्याय बताने वाले राजनेताओं को छात्र संघो के गौरवमयी अतीत का ज्ञान नही है। प्रथम प्रधान मन्त्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने कानपुर में डी.
ए.वी. कालेज छात्र संघ के उद्घाटन सत्र में अपने सम्बोधन के दौरान एक मिल के उद्घाटन में देरी होने की याद दिलाये जाने पर अपने पी.ए. पर झूंझलाते हुये कहा था कि ‘‘इस मुल्क में बड़े बड़े कारखाने रोज लग रहे है। कारखाना लगना कोई नई बात नही है लेकिन ये लोग देश का भविष्य है, आगे मुल्क इन्हीं को चलाना है। मुझे इनसे अभी और बाते करनी है, आज इस समय भारत के पास इससे बड़ा कोई दूसरा काम नही है।’’ इसी कालेज छात्र संघ में अहिन्दी भाषी दक्षिण भारतीय छात्र श्री एन.के. नायर के अध्यक्ष चुने जाने को प्रख्यात समाजवादी विचारक डा. राम मनोहर लोहिया ने राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता का प्रतीक बताया था। उन्होंने कहा था कि उत्तर भारत के सबसे बड़े महाविद्यालय में दक्षित भारतीय छात्र का अध्यक्ष चुना जाना लोकतंत्र की मजबूती का परिचायक है। यह थी उस समय छात्र संघ की हैसियत। राजनेता उसमे देश का भविष्य तलाशते थे और आज के राजनेता उसे अराजकता का पर्याय बताते है। 
आज के राजनेताओं को नही मालूम कि आजादी के बाद सामाजिक सरोकारों के प्रति छात्रों की प्रतिबद्धता जगजाहिर रही है। पचास साठ के दशक में कई कालेजो विश्वविद्यालयों के छात्रावासो में सवर्ण एवं दलित छात्रों की अलग अलग मेस हुआ करती थी। छुआ छूत और भेद भाव की इस समस्या से डी.ए.वी. कालेज छात्रावास भी ग्रसित था। यहाँ पर भी दलित छात्र सवर्ण छात्रों के साथ मेस में खाना नही खा सकते थे। इस व्यवस्था के खिलाफ कोई राजनीतिक दल बोलने की हिम्मत नही कर पा रहा था। सामाजिक समरस्ता के लिए इस व्यवस्था का विरोध तत्कालीन छात्रसंघ अध्यक्ष श्री एन.के. नायर के नेतृत्व में शुरू हुआ। सबसे पहले हस्ताक्षर अभियान चलाया गया और फिर एक दिन हरिजन छात्रों ने जबरदस्ती सवर्ण मेस में खाना खाया। भारी विरोध हुआ सारे नौकर और महाराज नौकरी छोड़कर चले गये। छात्रों ने खुद अपने बर्तन मांजे इसी बीच उस समय के पोंगा पन्थियों ने श्री एन.के. नायर पर जानलेवा हमला किया और उसके तत्काल बाद भेदभाव और अस्पृश्यता का यह मामला राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन गया और फिर मजबूरी मे दयानन्द शिक्षा संस्थान के प्रबन्धक डा. ब्रजेन्द स्वरूप विधायक, डा. जवाहर लाल जाटव, गंगा प्रसाद चैबे, मुरारी लाल कुरील, को छात्र नेताओं के साथ बैठक करनी पड़ी और उसके बाद कालेज के प्रास्पेक्टस में लिखा गया कि छात्रावास मे रहने वाले छात्र मेस में किसी भी धर्म, जाति या वर्ग के छात्र के खाने पीने पर एतराज नही जता सकेंगे। प्रख्यात राजनेता स्वर्गीय के.पी. उन्नीकृष्णन इसी अन्दोलन की उपज है। 
छात्रावास के इस आन्दोलन ने तत्कालीन राजनैतिक और सामाजिक नेतृत्व को जता दिया था कि छात्र कल का नही आज का नागरिक है। सामाजिक सरोकारों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता समाज के अन्य किसी वर्ग से किसी भी प्रकार कमतर नही है। समाज की हर गतिविधि से वह प्रभावित होता है और उससे छात्र जीवन के दौरान तटस्थ रहने की अपेक्षा नही की जा सकती। मामला चाहे आम आदमी की भूख से जुड़ा हो या फिर नारी अस्मिता से। सामाजिक सरोकारों से छात्रनेताओ का गहरा जुड़ाव रहा है। जनता को आन्दोलित करने वाले मुद्दो की कमान सदा छात्रनेताओं ने सँभाली और उसकी कीमत भी चुकायी। 1959 मे पुलिसिया दुष्कर्म के लिए चर्चित शन्तिया काण्ड के विरूद्ध जबर्दस्त जनआन्दोलन डी.ए.वी. कालेज छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष स्वर्गीय श्याम मिश्रा के नेतृत्व मे शुरू हुआ था। इस आन्दोलन के दौरान पुलिस फायरिंग से कई लोगों की जाने गई और श्याम मिश्रा के विरूद्ध चैदह अपराधिक मुकदमें दर्ज किये गये थे। ग्रीनपार्क मे टेस्ट मैच के लिए स्टूडैण्ट गैलरी छात्र आन्दोलन का प्रतिफल है।
मताधिकार की आयु 18 वर्ष किये जाने का आन्दोलन शैक्षिक परिसरों से ही शुरू हुआ था और जब यह माँग स्वीकार कर ली गई है तो छात्र संघों पर प्रतिबन्ध लगाने का अभियान शुरू हो गया है। स्नातक प्रथम वर्ष का छात्र संसद और विधान सभा के चुनाव में जिम्मेदार नागरिक माना जाता है परन्तु छात्रसंघ का चयन करने के उसके अधिकार से उसे वंचित रखने मे कोई संकोच नही करता।
शैक्षिक परिसरों में छात्रसंघों का विरोध करने वाले शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों के दुश्मन है। छात्रसंघों के कारण शिक्षा को व्यापार बनाने वाले लोग बेनकाब होते रहे है। आज हर बड़ा राजनेता शिक्षा के साथ व्यापारी के नाते जुडा हुआ है और स्कूल कालेज उनकी अवैध कमाई का साधन बन गये है। शुल्क माफी सस्ते छात्रावास और पुस्तकालय आदि की उपलब्ध सुविधायें छात्रों से छीन ली गई है। डी.ए.वी. कालेज छात्रावास प्रबन्ध तन्त्र के कब्जे में है और बी.एन.एस.डी. इण्टर कालेज के छात्रावास में बी.एन.एस.डी शिक्षा निकेतन विद्यालय चलाया जा रहा है। शिक्षा को व्यापार बनाने वाले राजनेता छात्रसंघों का विरोध करते है।
210 दिन की अनिवार्य न्यूनतम पढ़ाई, परीक्षा समाप्ति के तीस दिन के अन्दर परीक्षाफल की घोषणा, सत्र प्रारम्भ होने के पूर्व एकेडेमिक कैलेण्डर का प्रकाशन और छात्र जीवन की आयु निर्धारित करने की माँग आज कही सुनाई नही पड़ती। इन माँगों के लिए आन्दोलन करने वाले छात्रों को अराजक बताने वाले लोगों से पूँछा जाना चाहिये कि छात्रसंघों के न होने पर 210 दिन की न्यूनतम पढाई की अनिवार्यता लागू करने के लिए उन्होंने अपने स्तर पर कोई प्रयास क्यों नही किये है। कालेजों में नियमित कक्षायें न लगने के कारण छात्रों ने मजबूरी मे कालेजो से मुँह फेरा है। आज हर अध्यापक कोचिंग के व्यवसाय में रोज नये कीर्तिमान स्थापित करने का दावा करता घूमता है परन्तु अपने कालेज, जहाँ से उसे वेतन मिलता है, के छात्रों के शैक्षिक स्तर को बढ़ाने का कोई प्रयास नही करता। इण्टर कालेजों में पढ़ाई एकदम चैपट है। श्रमिकों और किसानों के बच्चां के सामने बेहतर पढ़ाई के विकल्प सीमित हो गये है। प्रायवेट स्कूलो की फीस उनके माता पिता की आर्थिक सीमाओं के बाहर है। छात्रों की कमी का रोना रोकर पहले कक्षायें कम की गई और अब कालेज बन्द करके उसकी जमीन बेचने की तैयारी की जा रही है। दुर्भाग्य से पूँजीपतियों के इस साजिस का शिकार अध्यापक भी हो गये है परन्तु शिक्षक संगठन इन मुद्दो पर मौन रहकर भावी पीढि़यों के साथ अन्याय कर रहे है। जिसके लिए इतिहास उन्हें कभी क्षमा नही करेगा। 

यह सच है कि राजनैतिक दलों के अनुचित हस्तक्षेप के कारण छात्रसंघ के चुनावों में गैर छात्र पेशेवर छात्रनेताओं और धन बल का प्रभाव बढ़ा है परन्तु समाजवादी युवजन सभा स्टूडेन्ट फेडरेशन आफ इण्डिया और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे छात्र संघटनों ने सदैव इन बुराइयों का विरोध किया और कालेजो विश्वविद्यालयों में विचाराधारा आधारित राजनीति को वरीयता दी और उसके कारण जनेश्वर मिश्रा, लालू यादव, अरूण  जेटली, अतुल अन्जान, प्रकाश करात, सीताराम येचुरी जैसे कई छात्रनेता आज भारतीय राजनीति की मुख्य धारा के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है। अंग्रेजी दैनिक हिन्दु के सम्पादक श्री एन. राम और प्रख्यात पत्रकार श्री राम बहादुर राय छात्र राजनीति की उपज है। इन्दिरा गाँधी के शासनकाल में मीसा के तहत सबसे पहली गिरफ्तारी छात्रनेता राम बहादुर राय की हुयी थी। 
सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर गठित लिंगदोह समिति ने भी छात्रसंघो की उपयोगिता स्वीकार की है। लिंगदोह समिति की सिफारिशों के आधार पर छात्रसंघो के चुनाव कराने में कोई कठिनाई नही है। इन सिफारिशों को लागू करके धनबल और पेशेवर छात्रनेताओं पर प्रभावी अंकुश लगाया जा सकता है परन्तु कई राज्य सरकारे छात्र संघ चुनाव नही करा रही है जो इस तथ्य का परिचायक है भारतीय लोकतन्त्र की नर्सरी के प्रति सत्तारूढ़ राजनेता अपने पूर्वाग्रहों से ग्रसित है और वे अपने अपने राजनैतिक कारणो से कालेजों एवं विश्वविद्यालयों के स्तर पर छात्रों को संघटित नही होने देना चाहते है। आज अलग अलग राज्यों में अलग अलग दलो की सरकारे है परन्तु छात्रसंघो पर प्रतिबन्ध के मामले मे सभी का रवैया एक समान है। इन राजनेताओं को छात्र शक्ति से डर लगता है उन्होंने देखा है कि छात्रावास मे मेस की फीस बढ़ाये जाने के विरोध मे शुरू हुआ छात्र आन्दोलन अन्ततः गुजरात के तत्कालीन मुख्य मन्त्री चिमन भाई पटेल और उनकी पार्टी कांग्रेस की पराजय का कारण बना था। उन्हें डर है कि शैक्षिक परिसरो से निकले छात्रनेता जाति और धर्म के झाँसे मे नही आयेगें और संविधान के नीति निर्देशक सिद्धान्तो को लागू कराने की मुहिम का सूत्रपात करेंगे जो उनकी अपनी राजनीति और उनके परिवार वाद के हित मे नही है।
आपातकाल के दौरान देश में एक परिवार का शासन स्थापित करने की कोशिशों को छात्रनेताओं ने ही धूल धुसरित किया था। स्थानीय स्तरों पर उस समय का स्थापित राजनैतिक नेतृत्व हताश हो गया था और बुद्धम शरणम गच्छामि की तर्ज पर इन्दिरा शरणम गच्छामि करने लगा था। सड़को पर विरोध का स्वर सुनाई नही देता था। उस समय शैक्षिक परिसरो में बड़े पैमाने पर छात्रों ने सत्याग्रह किया और जेल भरकर इन्दिरा गाँधी के अधिनायकवादी रवैये का विरोध किया और उन्हें चुनाव कराने के लिए मजबूर कर दिया जो उनकी पराजय का कारण बना।
हमारे देश की तरूणाई कालेजों, विश्वविद्यालयों में बसती है। उसे निजी पसन्द नापसन्द से ऊपर उठकर एक बार फिर सड़क पर आकर आम लोगों से कहना होगा ‘‘आवो श्रमिक कृषक नागरिको इन्कलाब का नारा दो, शिक्षक, गुरूजन, बुद्धिजीवियों अनुभव भरा सहारो दो, फिर देंखें हम सत्ता कितनी बर्बर है बौराई है।’’

Sunday, 21 July 2013

खोजने होंगे अपनी ज्ञात आय पर गुजारा करने वाले दरोगा ..................

‘‘गिरती कानून व्यवस्था में बढ़ते अपराध’’ विषय पर स्थानीय हिन्दी दैनिक ‘‘अमर उजाला’’ द्वारा आयोजित परिचर्चा में सेवानिवृत्त आई.ए.एस. अधिकारी श्री आर.एन. त्रिवेदी ने दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 और उसके पूर्व की दण्ड प्रक्रिया संहिता के कई प्रावधानों का उदाहरण देते हुये बताया कि पुरानी दण्ड प्रक्रिया संहिता में छोटे अपराधी को माफिया बनने से रोकने के लिए कई प्रावधान उपलब्ध थे।  अपराधी को उसके पहले अपराध के समय तत्काल दण्ड देने की शक्तियाँ कार्यपालिका को प्राप्त थी और उसके कारण अपराध को नियन्त्रित रखना आसान हुआ करता था। नई दण्ड प्रक्रिया संहिता में दोषी को दण्डित करने की सम्पूर्ण शक्ति न्यायपालिका में निहित कर दिये जाने के कारण छोटे अपराधियों को भी तत्काल दण्डित करना सम्भव नही हो पाता और फिर उन्हें महिमामण्डित होने का अवसर मिल जाता है।
परिचर्चा में कहा गया कि गिरती कानून व्यवस्था और बढ़ते अपराधों के लिए हम सभी सरकार पुलिस और जिला प्रशासन को तत्काल कटघरे में खड़ा कर देते है। कोई जनपद न्यायाधीश या मुख्य न्यायिक मजिस्टेªट से कुछ भी नही पूछता जबकि दोषी को दण्डित करने का सम्पूर्ण क्षेत्राधिकार केवल और केवल उन्हें प्राप्त है। अपराध घटित होने के बाद दोषी को गिरफ्तार करना और साक्ष्य संकलित करके उसके विरूद्ध केवल आरोप पत्र प्रेषित करने का अधिकार पुलिस को प्राप्त है। पुलिस आरोप पत्र दाखिल करती है परन्तु दाखिल आरोप पत्रों की तुलना में दोषियों को दण्डित करने का प्रतिशत काफी कम है। सजा के गिरते ग्राफ के कारणों पर खुलकर चर्चा करने के लिए केाई तैयार नही है। सभी अपने अपने स्तरों पर दूसरे को दोषी बताकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते है।
कौन नही जानता है कि दोषियों की सजा का प्रतिशत बढ़ते से ही समाज में कानून का भय पैदा होगा और फिर अपराध करने से पहने अपराधी को खुद कई बार सोचने के लिए मजबूर होना पडेगा। आज अपराधियों के मन से अदालत का भय खत्म सा हो गया है। चार्ज शीट को वर्षों हाजिरी में ही बनाये रखने मे वे सफल हो जाते है। चार्ज शीट दाखिल होने के बाद उसे विचारण के लिए सत्र न्यायालय या अन्य किसी सक्षम न्यायालय को सुपुर्द करने की प्रक्रिया काफी धीमी है। इसे तेज करने की कोई रणनीति नही है। जनपद न्यायाधीश  मुख्य न्याययिक मजिस्ट्रेट जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक की प्रतिमाह एक संयुक्त बैठक आयोजित होती है परन्तु मुझे नही लगता कि उसमे दिन प्रतिदिन की प्रक्रियागत समस्याओं पर कोई चर्चा होती होगी क्योंकि यदि चर्चा होती तो निश्चित रूप से दिन प्रतिदिन की गतिविधियों में उसके परिणाम दिखने लगते।
आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम 2013 विधायिका द्वारा पारित करने और तत्काल प्रभाव से उसे लागू कर दिये जाने के बाद अदालत में उपस्थित साक्षी को उसी दिन परीक्षित करने का नियम बना दिया गया है और इस नियम को लागू करने की जिम्मेदारी अदालतों की है। विधायिका या कार्यपालिका की इसमें कोई भूमिका नही है। रोज रोज साक्ष्य के लिए अदालत आना और सुबह से शाम तक प्रतीक्षा में बैठे रहने के बाद बिना परीक्षित वापस लौटा दिये जाने के कारण साक्षी पक्षद्रोही होने के लिए विवश हो जाता है। इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति श्री सुधीर कुमार सक्सेना ने अपने एक निर्णय (2012-1-जे.आई.सी.-748-इलाहाबाद-लखनऊ बेन्च) के द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को आदेशित किया है कि साक्षी की उपस्थिति के बाद स्थगन आदेश विशेष कारणों से अपवाद स्वरूप ही स्वीकार किये जाये और इस स्थिति में अगले दिन की तिथि साक्ष्य के लिए नियत की जाये। इस आशय के स्पष्ट आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने भी कई बार पारित किये है परन्तु अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष उसे लागू कराना आज भी टेढ़ी खीर बना हुआ है। उच्च न्यायालय ने अपने इस निर्णय के द्वारा जिला अदालतों में साथियों के साथ बढ़ती मारपीट की घटनाओं पर भी चिन्ता व्यक्त की और साक्षियों के आहार भत्ते की राशि को बढाये जाने का भी निर्देश दिया है।
परिचर्चा में प्रकाश में आया कि थानों में प्रथम सूचना रिपोर्ट उच्च स्तरीय अघोषित आदेश के तहत दर्ज नही की जाती। थानों में दर्ज मुकदमें सरकार की कानून व्यवस्था पर पकड़ का पैमाना है। प्रत्येक सरकार अपनी पूर्ववर्ती सरकार से अपराध के आँकड़ों में कम दिखना चाहती है और इसी कारण अपराधों को छिपाने और प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। लोगों में जागरूकता आयी है और लोग अब पुलिस के इस रवैये के विरूद्ध अदालतो का सहारा लेने लगे है। जिसके कारण दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के तहत प्रार्थनापत्रों का बोझ अदालतों पर बढ़ा है। 
परिचर्चा में उपस्थित पुलिस अधिकारियों ने स्वीकार किया कि समाज में पुलिस की साख तेजी से गिर रही है। कोई जिम्मेदार नागरिक आज पुलिस पर विश्वास करने को तैयार नही है। सभी को लगता है कि आम लोगों को झूठे मामलों में फँसाकर जेल भिजवा देने में पुलिस को महारथ हासिल है। उस पर सार्वजनिक स्थानों पर बढ़ रहे हमले उसकी घटती विश्वसनीयता का परिचायक है।
अपराधों पर नियन्त्रण के लिए थाना एक महत्वपूर्ण इकाई है जिसे पुलिस अधीक्षक नियन्त्रित एवं संचालित करते है परन्तु अब राजनैतिक और जातिगत कारणों से थाना अध्यक्षों की नियुक्ति में पंचम तल के अफसरों का हस्तक्षेप बढ़ा है। अधिकांश जिलों में एक ही जाति के थानाध्यक्षों की नियुक्ति की अपरिहार्यता ने स्थानीय स्तर पर ज्येष्ठ पुलिस अधीक्षक की शक्तियों को सीमित कर दिया है। उनके लिए अकुशल थानाध्यक्षों को हटा पाना सम्भव नही है। थाने नीलाम होने के भी समाचार प्रकाशित होते रहते है और उस सब के कारण आम लोगों को थाना स्तर पर न्याय मिलने का विश्वास नही रह गया है। कानपुर के थाना शिवली परिसर में राज्यमन्त्री श्री सन्तोष शुक्ला की हत्या दिन दहाड़े की गई थी परन्तु किसी पुलिसकर्मी ने अदालत में दोषियों की पहचान नही की जबकि आन रिकार्ड सभी अपनी ड्यूटी पर थाने में उपस्थित थे। इस स्थिति के बावजूद केवल राजनैनिक कारणों से किसी पुलिसकर्मी को उसकी कायरता के लिए दण्डित नही किया गया। सभी कायर पुलिसकर्मी आज भी सेवा में है। 
राज्य सरकार को आम लोगों में कानून के राज के प्रति विश्वास बनाये रखने के लिए जातिगत लाभों को दरकिनार करके अपनी पुलिस को आम जनता से सीधे संवाद बनाने के लिए मजबूर करना होगा और कुछ ऐसे थानाध्यक्ष खोजने होंगे जो अपनी ज्ञात आय पर अपने परिवार का पालन पोषण करने में सक्षम हो। मुलायम सिंह यादव ने अपने मुख्मंत्रित्वकाल में पुलिसकर्मियों के वेतन और सुविधाओं को सम्मानजनक बना दिया है और अब उन्हें पुलिसकर्मियों से स्पष्ठ रूप से कहना चाहिये कि अपने वेतन में अपना गुजारा करो और पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ अपने थानाक्षेत्र को अपराधियों से मुक्त करो। 

Saturday, 13 July 2013

ट्रेड यूनियन खुद में ही एक आन्दोलन है..............


उत्तर प्रदेश में अब श्रमिकों को अपनी यूनियन बनाने के विधिपूर्ण अधिकार से वंचित रखने
की मुहिम शुरू हो गई है। रजिस्ट्रार ट्रेड यूनियन्स स्वयं कारखाना मालिको और सत्तारूढ़ दल के नेताओं के दबाव में गैर सदस्यों की फर्जी शिकायतो को आधार बनाकर पंजीकृत श्रमिक यूनियनों को पंजीयन रद्द करने का अभियान जारी किये हुये है।
श्रमिको को ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार किसी राजनैतिक पार्टी या उसकी सरकार की कृपा से नही मिला है। श्रमिको ने अपनी यूनियन बनाने के लिए संघर्ष किया और लाठी गोली खाकर अधिकार हासिल किया है। कानपुर में वर्ष 1918 में इलगिन मिल के श्रमिक पण्डित कामदत्त ने अपने सहयोगी लाला देवी दयाल के साथ मिलकर श्रमिको को संघटित करने की शुरूआत की और उनके प्रयास से कानपुर मजदूर सभा का जन्म हुआ और उसके आवाहन 4 नवम्बर 1919 श्रमिको ने वेतन बढ़ोत्तरी की माँग को लेकर हड़ताल की। इस हड़ताल के बाद श्रमिको के वेतन में पच्चीस प्रतिशत बढ़ोत्ती दस घण्टे का कार्य दिवस और दो आना प्रति रूपया की दर से बोनस की माँग स्वीकार की गई थी। कानपुर का यह प्रयास आगे चलकर कई मूलभूत सुविधायें पाने का कारण बना।
श्रमिक संघो के गठन और श्रमिक आन्दोलन के मजबूत होने के पहले देश में क्रुर शोषण वाली स्थितियों में श्रमिको को कठिन परिश्रम करना पड़ता था। कारखानों में श्रमिकों को चैदह घण्टे से ज्यादा काम करना पड़ता था। भडौच में साढ़े चैदह  घण्टे, आगरा में पौने चैदह घण्टे, शोलापुर में साढ़े बारह से साढ़े तेरह घण्टे, दिल्ली में चैदह घण्टे से साढ़े चैदह घण्टे और अमृतसर एवं लाहौर में तेरह से पौने चैदह घण्टे का कार्य दिवस निर्धारित था। आज के आठ घण्टे का कार्य दिवस एक लम्बे संघर्ष और कई श्रमिकों के बलिदान का प्रतिफल है।
श्रमिक संघो का गठन और उसका पंजीयन ट्रेड यूनियन एक्ट 1926 के तहत किया जाता है और उसमें सम्बन्धित उद्योग के सेवायोजक की कोई भूमिका नही है और न उसमें श्रमिक संघ की गतिविधियों के विरूद्ध किसी गैर सदस्य को आपत्ति करने का कोई अधिकार दिया गया है। सदस्यों द्वारा निर्वाचित कार्यकारिणी को अपने विधान और नियमों के तहत अपनी समस्त गतिविधियों को नियन्त्रित और संचालित करने का सम्पूर्ण क्षेत्राधिकार प्राप्त हैै। बलरामपुर हिन्द मजदूर यूनियन के विरूद्ध सेवायाजको की शह पर गैर सदस्य की शिकायत पर यूनियन को अपना पक्ष रखने का अवसर दिये बिना रजिस्ट्रार ने यूनियन का पंजीयन निरस्त कर दिया। इस आदेश के विरूद्ध यूनियन द्वारा प्रस्तुत अपील में बलराम चीनी मिल के मालिको ने पक्षकर बनने के लिए आवेदन किया है और उससे सिद्व हो जाता है कि सेवायोजक नही चाहते कि श्रमिक संघ मजबूत हो और उनकी ही शह पर यूनियन का पंजीयन निरस्त किया गया है।
लोहिया स्टार लिंगर कर्मचारी संघ किला मजदूर यूनियन, हार्नेस फैक्ट्री मजदूर संघ आदि कई श्रमिक संघों में सेवायोजको की शह पर निर्वाचन सम्बन्धी विवाद पैदा कराये गये है। रजिस्ट्रार ने ट्रेड यूनियन एक्ट के तहत दोनों गुटो की निर्वाचन प्रक्रिया की जाँच अपने अधीनस्थ अधिकारियों से कराई। सभी दस्तावेजों का परीक्षण किया गया। सदस्यों से शपथपत्र पर बयान लिये गये परन्तु जाँच के निष्कर्षाे के सार्वजनिक किये बिना दोनो गुटों को सलाह दे दी कि वे अपने विवाद का निपटारा सिविल कोर्ट से करायें। यह सच है कि ट्रेड यूनियन एक्ट में निर्वाचन सम्बन्धी विवादों के निस्तारण की कोई स्पष्ट प्रक्रिया निर्धारित नही की गयी है, परन्तु निर्वाचन के बाद निर्वाचित कार्यकारिणी द्वारा रजिस्ट्रार के समक्ष फार्म जे. प्रस्तुत करने का प्रावधान है। फार्म जे. के साथ निर्वाचन प्रक्रिया सम्बन्धी सम्पूर्ण कार्यवाही का विवरण प्रस्तुत किया जाता है। जिसकी जाँच ट्रेड यूनियन एक्ट के तहत की जाती है। सम्पूर्ण प्रक्रिया की जाँच होती है। सम्बद्ध पक्षों के शपथपत्र पर बयान लिये जाते है, इस स्थिति में जाँच का निष्कर्ष बताये बिना सिविल न्यायालय से विवाद का निपटारा कराने की सलाह का कोई विधिक औचित्व नही है। जाँच के निष्कर्षों के आधार पर सही गलत का निर्धारण रजिस्ट्रार की पदीय प्रतिबद्धता है ताकि स्पष्ट हो सके कि किस गुट ने अपने विधान में निर्धारित प्रक्रिया के तहत कार्यकारिणी का चुनाव किया और किस गुट ने विधान का उल्लंघन किया है। 
कई प्रदेशों ने अपने स्तर पर ट्रेड यूनियन एक्ट में संशोधन करके निर्वाचन सम्बन्धी विवादों को अभिनिर्णय के लिए श्रम न्यायालय के समक्ष संदर्भित करने के नियम बनाये है। परन्तु उत्तर प्रदेश सरकार ने इस दिशा मे कोई कार्यवाही नही की है। रजिस्ट्रार ट्रेड यूनियन्स इसका अनुचित लाभ उठाकर अपने दायित्व का पालन नही करते और कई बार सेवायोजकों की शह पर उत्पन्न कृत्रिम विवादों पर निर्वाचित कार्यकारिणी को उसके विधिपूर्ण अधिकारों से वंचित करते है। लोहिया स्ट्रार लिंगर कर्मचारी संघ के मामले में नियमानुसार चुनाव कराने वाली कार्यकारिणी को रजिस्ट्रार ने कृत्रिम विवाद का अनुचित सहारा लेकर पंजीकृत नही किया है और उसके बाद निर्वाचित पदाधिकारियों को सेवायोजकों ने नौकरी से भी निकाल दिया है ताकि अन्य कोई श्रमिक यूनियन बनाने का साहस न कर सके।
दुर्भाग्य से संघटित क्षेत्रों के कारखानें के बन्द हो जाने और असंघटित क्षेत्र में श्रमिकों की दयनीय दशा होने के बावजूद मजदूर आन्दोलन के मजबूत न हो पाने के कारण रजिस्ट्रार ट्रेड यूनियन्स सहित श्रम विभाग के अधिकारी अपनी पदीय प्रतिबद्धता भूलकर सेवायोजकों को श्रम कानूनों का उल्लंघन करने के लिए प्रोत्साहित करते है। श्रम विभाग के अधिकारियों को न्यायालय के समक्ष भी झूठ बोलने में कोई डर नही लगता। जनपद न्यायाधीश कानपुर नगर श्रीमती रंजना पाण्ड्या ने प्रकीर्ण अपील संख्या 23 सन् 2013 कानपुर टेम्पो टैक्सी कर्मचारी सभा बनाम रजिस्ट्रार ट्रेड यूनियन्स में अपने निर्णय दिनांक 10.07.2013 के द्वारा रजिस्ट्रार की गलत बयानी को इंगित किया है। रजिस्ट्रार ने उनके समक्ष शपथपत्र पर बताया है कि ट्रेड यूनियन सम्बन्धी विवादों को सुनने व निर्णीत करने का कोई क्षेत्राधिकार जनपद न्यायाधीश में निहित नही है। सम्पूर्ण क्षेत्राधिकार श्रम न्यायालय में निहित है जबकि इसके पूर्व स्वयं रजिस्ट्रार ने श्रम न्यायालय के समक्ष प्रकीर्ण केस संख्या 2 सन्  2012 शुगर मिल इम्प्लाइज यूनियन बरकतपुर बिजनौर के मामले में प्रस्तुत लिखित कथन में बताया था कि यूनियन के पंजीयन या पंजीयन निरस्तीकरण सम्बन्धी विवादों को सुनने का क्षेत्राधिकार केवल जनपद न्यायाधीश कानपुर नगर में निहित है। रजिस्ट्रार के इस आचरण से सिद्ध होता है कि वे अपने पदीय कर्तव्यों को ट्रेड यूनियन एक्ट के तहत नही बल्कि निजी पसन्द नापसन्द के अधार पर नियन्त्रित एवं संचालित करते है। रजिस्ट्रार ने इस यूनियन का पंजीयन समाजवादी पार्टी के नेता श्री राम गोपाल पुरी की शिकायत पर उसकी जाँच कराये बिना निरस्त किया है। श्री पुरी कानपुर टेम्पो टैक्सी कर्मचारी सभा के कभी सदस्य नही रहें और न अन्य किसी रूप में जुडे रहे है। इसी प्रकार बजाज चीनी मिल कर्मचारी यूनियन, मकसूदाबाद, शाहजहाँपुर को सेवायोजकों की शिकायत पर पंजीकृत नही किया गया जबकि यूनियन पंजीयन के लिए सभी अर्हतायें पूरी करती है और जाँच के दौरान उसके द्वारा प्रस्तुत सभी कागजात सही पायें गये है।
आद्यौगीकरण की शुरूआत से ही सेवायोजक और नौकरशाह श्रमिक संघो के विरोधी रहे है। इन लोगों ने पहले छात्र संघों को आराजकता का पर्याय बताने का अभियान चलाया और अब उनकी क ुदृष्टि श्रमिक संघों पर है। वास्तव मे कई महत्वपूर्ण राजनेता कारपोरेट घरानों के एजेण्ट के नाते संसद और विधानसभा में बैठते है और वे अपने निहित स्वार्थवश श्रमिक संघों को कमजोर करने की मुहिम चलाते रहते है। ट्रेड यूनियन एक्ट श्रमिकों और श्रमिक संघों के हितों की सुरक्षा करने के लिए पारित किया गया था, परन्तु अब कारपोरेट घरानों की शह पर विशुद्ध तकनीकि कारणों का अनुचित सहारा लेकर ट्रेड यूनियन बनाने के अधिकार को ही छीनने का षड्यन्त्र किया जा रहा है। 
साम्यवादी विचारक ई.एम.एस. नंबूदिरिपाद ने अपनी पुस्तक ‘‘भारत का स्वाधीतना संग्राम’’ मे बताया है कि वेतन में बढ़ोत्तरी और अपनी यूनियन को मान्यता दिये जाने की माँग को लेकर जुलाई 1937 में कानपुर की एक ब्रिटिश स्वामित्व वाली कपड़ा मिल की हड़ताल श्रमिक संघर्षो का शानदार उदाहरण है। हलांकि इस हड़ताल को संघटित करने और दिशा देने मे कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट सबसे आगे थे लेकिन स्थानीय काँग्रेस कमेटी ने भी इसमें सक्रिय भूमिका निभाई। कानपुर की इस हड़ताल ने देश भर में मजदूरों के संघर्ष के लिए माडल का काम किया। इसने पूरे भारत में साम्राज्यवाद विरोधी तत्वों को इस तथ्य से भी अवगत कराया कि अगर कम्युनिस्ट सोशलिस्ट और साधारण काँग्रेस जन मिलजुल कर मजदूरो के संघर्ष में हिस्सा ले तो कितना शानदार नतीजा निकल सकता है। श्रमिकों को एक बार फिर अपनी दलीय निष्ठाओं से ऊपर उठकर एक जुटता दिखानी होगी और कारपोरेट घरानों, उनके एजेण्ट राजनेताओं को बताना होगा कि हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है। हम लड़ेगें जीतेंगे और किसी भी श्रमिक के हितों के साथ कोई समझौता नही करेंगे।

Sunday, 7 July 2013

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स्थगन प्रार्थनापत्रों पर लगाम न्यायालय की अपनी जिम्मेदारी..........

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ के समक्ष सुनवाई के दौरान प्रकाश में आया कि जनपद न्यायालय सीतापुर में तीस वर्ष पुरानी क्लोजर रिपोर्टस का निस्तारण अभी नही हुआ है। वर्ष 1981 से जुलाई 2012 के मध्य ग्यारह हजार चैवन क्लोजर रिपोर्टस निस्तारण की बाट जोह रही थी। क्लोजर रिपोर्ट का निस्तारण पत्रावली में उपलब्ध तथ्यों के आधार पर किया जाता है उसके लिए अन्य किसी साक्ष्य की आवश्यकता नही होती है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कई वर्ष पूर्व सर्कुलर जारी करके क्लोजर रिपोर्टस को एक माह के अन्दर निस्तारित करने का आदेश पारित किया है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी कई अवसरों पर इसी आशय के दिशा निर्देश जारी किये है। वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयो के कई महत्वपूर्ण फैसलों का प्रभाव अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष आते आते दम तोड़ देता है। इण्डस्इण्ड बैंक के साथ पचास लाख रूपये की धोखाधड़ी के एक मामले में भाजपा नेता के पुत्र के विरूद्ध पंजीकृत प्रथम सूचना रिपोर्ट पर थाना स्वरूप नगर पुलिस ने क्लोजर रिपोर्ट न्यायालय के समक्ष प्रेषित की है। बैंक ने वर्ष 2008 में क्लोजर रिपोर्ट के विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिए प्रोटेस्ट पिटीशन दाखिल किया है, परन्तु क्लोजर रिपोर्ट अभी तक निस्तारित नही हो सकी है। वास्तव में अधिनियम में स्पष्ट प्रावधान होने के बावजूद निश्चित समयावधि के अन्दर मुकदमों का निस्तारण आज भी सपना है।
नेशनल सेन्टर फार एडवोकेसी स्टडीज ने अपनी शोध रिपोर्ट ’’द परसूट आफ इकोनामिक एण्ड सोशल राइटस इन इण्डियास लोवर ज्यूडिसरी’’ में बताया है कि अधीनस्थ न्यायालयो में स्थगन प्रार्थनापत्रों के कारण मुकदमों का बोझ बढ़ता जा रहा है। पुराने और जटिल मामलों में स्वयं न्यायिक अधिकारी स्थगन प्रार्थनापत्रों को प्रोत्साहित करते है।
अपने देश प्रदेश में मुकदमों के बढ़ते अम्बार के पीछे विकाश प्राधिकरण तहसीलदार आदि अर्ध न्यायिक अधिकारियों के समक्ष पक्षकारों को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर न मिल पाना भी एक बड़ा कारण है। गोविन्द नगर कानपुर के सुरेश कपूर अपने पिता की मृत्यु के बाद पिछले सत्तरह वर्षों से घर के नामान्तरण के लिए कानपुर विकास प्राधिकरण के चक्कर लगा रहे है, परन्तु उनके विधिपूर्ण अनुरोध पर विचार नही हो सका। जबकि किसी की भी मृत्यु के बाद उसके वारिसों का नाम उसकी जगह नामान्तरित करना एक साधारण कार्यवाही है और इसमें किसी प्रकार के विधिक ज्ञान या तकनीकी साक्ष्य की आवश्यकता नही होती। इसी प्रकार नगर मजिस्ट्रेट के समक्ष वेतन भुगतान अधिनियम के तहत गिरिजा शंकर गुप्ता का एक मुकदमा वर्ष 1997 से लम्बित है जबकि अधिनिमय में छः माह के अन्दर निस्तारित करने का प्रावधान है।
सिविल और आपराधिक दोनों विधियों में सरकार ने संशोधन करके स्थगन प्रार्थनापत्रों पर लगाम लगाने के नियम बनाये है। तीन से ज्यादा स्थगन प्रार्थनापत्र स्वीकार न करने का स्पष्ट नियम है परन्तु व्यवहारिक स्तर पर उनका कोई लाभ आम वादकारी को नही मिल सका है। मुकदमों का जल्दी निस्तारण न हो पाने के कारण ईमानदार वादकारी और वास्तविक पीडि़त परेशान है और रोज रोज तारीखे लेकर अदालतों के चक्कर लगाने के लिए अभिशप्त है। 
प्रायः देखा जाता है कि एक पक्षीय निषेधाज्ञा आदेश पारित हो जाने के बाद वादी स्वयं गुणदोष के आधार पर मुकदमें के निस्तारण में रूचि लेना बन्द कर देता है और मुकदमों को अनन्तकाल तक लम्बित बनाये रखकर एक पक्षीय निषेधाज्ञा आदेश के लाभ प्राप्त करता रहता है। मेसर्स संजीव ट्रेडर्स ने संविदा जनित विवाद के समाधान के लिए व्हेकिल फैक्ट्री जबलपुर के विरूद्ध वर्ष 2009 में वाद दाखिल किया। इस वाद की पोषणीयता के विरूद्ध प्रतिवादी ने प्रथम नियत तिथि पर आपत्ति दाखिल कर दी थी परन्तु वादी के स्थगन प्रार्थनापत्रों के कारण मुकदमा लम्बित बना हुआ है। इसी प्रकार एक अन्य फर्म ने दिनांक 22.10.2008 को सिविल जज के समक्ष निषेधाज्ञा वाद दाखिल किया। एक पक्षीय निषेधाज्ञा आदेश उनके पक्ष में जारी हो गया और उसके बाद से प्रत्येक नियत तिथि पर उनकी तरफ से स्थगन प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करके गुणदोष के आधार पर मामले के निस्तारण मे अवरोध पैदा किया जा रहा है। एक पक्षीय आदेशों का लाभ लेने वाले वादी जानते है कि गुणदोष के आधार पर सुनवाई के बाद निर्णय उनके पक्ष में पारित नही हो सकता इसीलिए किसी न किसी बहाने वे सुनवाई टलवाते रहते है। समुचित विधि होने के बावजूद स्थगन प्रार्थनापत्रों के चक्रव्यूह को तोड़ने में अपना न्याय प्रशासन बुरी तरह असफल है।
आरबीट्रेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट 1996 प्रभावी हो जाने के बाद सोचा गया था कि अदालतो से मुकदमों का बोझ कुछ कम होगा, परन्तु यह आशा भी मृगतृष्णा साबित हुई है। इस अधिनियम की धारा 9 के तहत अन्तरिम उपचार के लिए दाखिल होने वाले मुकदमों में भी एक पक्षीय आदेश पारित हो जाने के बाद मुकदमों को लम्बित बनाये रखने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। कानपुर की एक फर्म ने इकतिस लाख उन्नीस हजार चार सौ छत्तीस रूपये कस्टम ड्यूटी अदा करके उसका चालान फैक्ट्री में दिया और पूरी कस्टम ड्यूटी फैक्ट्री से वापस ले ली। फर्म ने बैंक आफ इण्डिया की जिस शाखा में कस्टम ड्यूटी जमा करना बताया था उस शाखा का कोई अस्तित्व नही है। मामला स्पष्ट रूप से बेईमानी और धोखाधड़ी होने के कारण सम्बन्धित फैक्ट्री ने फर्म के विरूद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने की कार्यवाही प्रारम्भ की परन्तु इसी बीच फर्म ने आरबीट्रेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट 1996 की धारा 9 के तहत प्रस्तावित आपराधिक कार्यवाही को रोकने के लिए न्यायालय के समक्ष पिटीशन दाखिल किया जिसमें फैक्ट्री के विरूद्ध एक पक्षीय निषेधाज्ञा आदेश पारित हो गया और उसके बाद से फर्म के विद्वान अधिवक्ता की अस्वस्थता के आधार पर लगातार प्रस्तुत स्थगन प्रार्थना पत्रों के कारण गुणदोष के आधार पर पिटीशन की सुनवाई नही हो पा रही है। इस प्रकार के मामलों के लम्बे समय तक लम्बित रहने के कारण भ्रष्टाचार के आरोपों को हवा मिलती है और आम लोगों के विश्वास पर भी उसका बुरा असर पड़ता है।
न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति के लिए वकील के रूप में प्रेक्टिस करने की अनिवार्यता समाप्त कर दिये जाने के कारण अब एकदम फ्रेश विधि स्नातक न्यायिक अधिकारी बन जाता है। नियुक्ति के बाद कुछ वर्षा तक कुशलता, अनुभव और समुचित ज्ञान की कमी रहती है। कुछ अधिकारी लगातार पढ़ते समझते रहकर समुचित कुशलता प्राप्त कर लेते है, परन्तु अधिकांश अधिकारी होने के रूआब में सामने वाले की बात ध्यान से सुनते भी नही और अकारण पूरी व्यवस्था के लिए समस्यायें आमन्त्रित करते है। अधीनस्थ न्यायालय में एक अधिकारी ने अपने पहले निर्णय में अभियुक्तों को छः माह के सश्रम कारावास और पाँच सौ रूपये के अर्थदण्ड की सजा सुनाई और अभियुक्तों को जमानत प्रस्तुत करने का अवसर दिये बिना निर्णय मे ही उन्हें कस्टडी में लेकर जेल भेजने का आदेश पारित कर दिया जबकि तीन वर्षों तक की सजा के मामलों में निर्णय सुनाये जाने के तत्काल बाद अभियुक्तों को जमानत पर रिहा करने का आदेशात्मक प्रावधान है। 
स्थगन प्रार्थनापत्रों पर लगाम लगाने की जिम्मेदारी खुद न्यायालय की है और उसे दण्ड प्रक्रिया संहिता एवं सिविल प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों को कड़ायी से लागू करके मुकदमों की समयबद्ध सुनवाई सुनिश्चित करानी होगी। यह उनकी पदीय प्रतिबद्धता और न्यायिक जिम्मेदारी है। उन्हें आगे आकर अपने स्तर पर कुछ ऐसी पहल करनी होगी जिससे आम लोगों का न्यायिक व्यवस्था के प्रति विश्वास और ज्यादा सुदृढ़ हो सके।