Sunday, 7 July 2013

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स्थगन प्रार्थनापत्रों पर लगाम न्यायालय की अपनी जिम्मेदारी..........

इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्डपीठ के समक्ष सुनवाई के दौरान प्रकाश में आया कि जनपद न्यायालय सीतापुर में तीस वर्ष पुरानी क्लोजर रिपोर्टस का निस्तारण अभी नही हुआ है। वर्ष 1981 से जुलाई 2012 के मध्य ग्यारह हजार चैवन क्लोजर रिपोर्टस निस्तारण की बाट जोह रही थी। क्लोजर रिपोर्ट का निस्तारण पत्रावली में उपलब्ध तथ्यों के आधार पर किया जाता है उसके लिए अन्य किसी साक्ष्य की आवश्यकता नही होती है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कई वर्ष पूर्व सर्कुलर जारी करके क्लोजर रिपोर्टस को एक माह के अन्दर निस्तारित करने का आदेश पारित किया है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी कई अवसरों पर इसी आशय के दिशा निर्देश जारी किये है। वास्तव में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयो के कई महत्वपूर्ण फैसलों का प्रभाव अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष आते आते दम तोड़ देता है। इण्डस्इण्ड बैंक के साथ पचास लाख रूपये की धोखाधड़ी के एक मामले में भाजपा नेता के पुत्र के विरूद्ध पंजीकृत प्रथम सूचना रिपोर्ट पर थाना स्वरूप नगर पुलिस ने क्लोजर रिपोर्ट न्यायालय के समक्ष प्रेषित की है। बैंक ने वर्ष 2008 में क्लोजर रिपोर्ट के विरूद्ध उसे अपास्त कराने के लिए प्रोटेस्ट पिटीशन दाखिल किया है, परन्तु क्लोजर रिपोर्ट अभी तक निस्तारित नही हो सकी है। वास्तव में अधिनियम में स्पष्ट प्रावधान होने के बावजूद निश्चित समयावधि के अन्दर मुकदमों का निस्तारण आज भी सपना है।
नेशनल सेन्टर फार एडवोकेसी स्टडीज ने अपनी शोध रिपोर्ट ’’द परसूट आफ इकोनामिक एण्ड सोशल राइटस इन इण्डियास लोवर ज्यूडिसरी’’ में बताया है कि अधीनस्थ न्यायालयो में स्थगन प्रार्थनापत्रों के कारण मुकदमों का बोझ बढ़ता जा रहा है। पुराने और जटिल मामलों में स्वयं न्यायिक अधिकारी स्थगन प्रार्थनापत्रों को प्रोत्साहित करते है।
अपने देश प्रदेश में मुकदमों के बढ़ते अम्बार के पीछे विकाश प्राधिकरण तहसीलदार आदि अर्ध न्यायिक अधिकारियों के समक्ष पक्षकारों को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर न मिल पाना भी एक बड़ा कारण है। गोविन्द नगर कानपुर के सुरेश कपूर अपने पिता की मृत्यु के बाद पिछले सत्तरह वर्षों से घर के नामान्तरण के लिए कानपुर विकास प्राधिकरण के चक्कर लगा रहे है, परन्तु उनके विधिपूर्ण अनुरोध पर विचार नही हो सका। जबकि किसी की भी मृत्यु के बाद उसके वारिसों का नाम उसकी जगह नामान्तरित करना एक साधारण कार्यवाही है और इसमें किसी प्रकार के विधिक ज्ञान या तकनीकी साक्ष्य की आवश्यकता नही होती। इसी प्रकार नगर मजिस्ट्रेट के समक्ष वेतन भुगतान अधिनियम के तहत गिरिजा शंकर गुप्ता का एक मुकदमा वर्ष 1997 से लम्बित है जबकि अधिनिमय में छः माह के अन्दर निस्तारित करने का प्रावधान है।
सिविल और आपराधिक दोनों विधियों में सरकार ने संशोधन करके स्थगन प्रार्थनापत्रों पर लगाम लगाने के नियम बनाये है। तीन से ज्यादा स्थगन प्रार्थनापत्र स्वीकार न करने का स्पष्ट नियम है परन्तु व्यवहारिक स्तर पर उनका कोई लाभ आम वादकारी को नही मिल सका है। मुकदमों का जल्दी निस्तारण न हो पाने के कारण ईमानदार वादकारी और वास्तविक पीडि़त परेशान है और रोज रोज तारीखे लेकर अदालतों के चक्कर लगाने के लिए अभिशप्त है। 
प्रायः देखा जाता है कि एक पक्षीय निषेधाज्ञा आदेश पारित हो जाने के बाद वादी स्वयं गुणदोष के आधार पर मुकदमें के निस्तारण में रूचि लेना बन्द कर देता है और मुकदमों को अनन्तकाल तक लम्बित बनाये रखकर एक पक्षीय निषेधाज्ञा आदेश के लाभ प्राप्त करता रहता है। मेसर्स संजीव ट्रेडर्स ने संविदा जनित विवाद के समाधान के लिए व्हेकिल फैक्ट्री जबलपुर के विरूद्ध वर्ष 2009 में वाद दाखिल किया। इस वाद की पोषणीयता के विरूद्ध प्रतिवादी ने प्रथम नियत तिथि पर आपत्ति दाखिल कर दी थी परन्तु वादी के स्थगन प्रार्थनापत्रों के कारण मुकदमा लम्बित बना हुआ है। इसी प्रकार एक अन्य फर्म ने दिनांक 22.10.2008 को सिविल जज के समक्ष निषेधाज्ञा वाद दाखिल किया। एक पक्षीय निषेधाज्ञा आदेश उनके पक्ष में जारी हो गया और उसके बाद से प्रत्येक नियत तिथि पर उनकी तरफ से स्थगन प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करके गुणदोष के आधार पर मामले के निस्तारण मे अवरोध पैदा किया जा रहा है। एक पक्षीय आदेशों का लाभ लेने वाले वादी जानते है कि गुणदोष के आधार पर सुनवाई के बाद निर्णय उनके पक्ष में पारित नही हो सकता इसीलिए किसी न किसी बहाने वे सुनवाई टलवाते रहते है। समुचित विधि होने के बावजूद स्थगन प्रार्थनापत्रों के चक्रव्यूह को तोड़ने में अपना न्याय प्रशासन बुरी तरह असफल है।
आरबीट्रेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट 1996 प्रभावी हो जाने के बाद सोचा गया था कि अदालतो से मुकदमों का बोझ कुछ कम होगा, परन्तु यह आशा भी मृगतृष्णा साबित हुई है। इस अधिनियम की धारा 9 के तहत अन्तरिम उपचार के लिए दाखिल होने वाले मुकदमों में भी एक पक्षीय आदेश पारित हो जाने के बाद मुकदमों को लम्बित बनाये रखने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। कानपुर की एक फर्म ने इकतिस लाख उन्नीस हजार चार सौ छत्तीस रूपये कस्टम ड्यूटी अदा करके उसका चालान फैक्ट्री में दिया और पूरी कस्टम ड्यूटी फैक्ट्री से वापस ले ली। फर्म ने बैंक आफ इण्डिया की जिस शाखा में कस्टम ड्यूटी जमा करना बताया था उस शाखा का कोई अस्तित्व नही है। मामला स्पष्ट रूप से बेईमानी और धोखाधड़ी होने के कारण सम्बन्धित फैक्ट्री ने फर्म के विरूद्ध प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने की कार्यवाही प्रारम्भ की परन्तु इसी बीच फर्म ने आरबीट्रेशन एण्ड कन्सिलियेशन एक्ट 1996 की धारा 9 के तहत प्रस्तावित आपराधिक कार्यवाही को रोकने के लिए न्यायालय के समक्ष पिटीशन दाखिल किया जिसमें फैक्ट्री के विरूद्ध एक पक्षीय निषेधाज्ञा आदेश पारित हो गया और उसके बाद से फर्म के विद्वान अधिवक्ता की अस्वस्थता के आधार पर लगातार प्रस्तुत स्थगन प्रार्थना पत्रों के कारण गुणदोष के आधार पर पिटीशन की सुनवाई नही हो पा रही है। इस प्रकार के मामलों के लम्बे समय तक लम्बित रहने के कारण भ्रष्टाचार के आरोपों को हवा मिलती है और आम लोगों के विश्वास पर भी उसका बुरा असर पड़ता है।
न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति के लिए वकील के रूप में प्रेक्टिस करने की अनिवार्यता समाप्त कर दिये जाने के कारण अब एकदम फ्रेश विधि स्नातक न्यायिक अधिकारी बन जाता है। नियुक्ति के बाद कुछ वर्षा तक कुशलता, अनुभव और समुचित ज्ञान की कमी रहती है। कुछ अधिकारी लगातार पढ़ते समझते रहकर समुचित कुशलता प्राप्त कर लेते है, परन्तु अधिकांश अधिकारी होने के रूआब में सामने वाले की बात ध्यान से सुनते भी नही और अकारण पूरी व्यवस्था के लिए समस्यायें आमन्त्रित करते है। अधीनस्थ न्यायालय में एक अधिकारी ने अपने पहले निर्णय में अभियुक्तों को छः माह के सश्रम कारावास और पाँच सौ रूपये के अर्थदण्ड की सजा सुनाई और अभियुक्तों को जमानत प्रस्तुत करने का अवसर दिये बिना निर्णय मे ही उन्हें कस्टडी में लेकर जेल भेजने का आदेश पारित कर दिया जबकि तीन वर्षों तक की सजा के मामलों में निर्णय सुनाये जाने के तत्काल बाद अभियुक्तों को जमानत पर रिहा करने का आदेशात्मक प्रावधान है। 
स्थगन प्रार्थनापत्रों पर लगाम लगाने की जिम्मेदारी खुद न्यायालय की है और उसे दण्ड प्रक्रिया संहिता एवं सिविल प्रक्रिया संहिता के प्रावधानों को कड़ायी से लागू करके मुकदमों की समयबद्ध सुनवाई सुनिश्चित करानी होगी। यह उनकी पदीय प्रतिबद्धता और न्यायिक जिम्मेदारी है। उन्हें आगे आकर अपने स्तर पर कुछ ऐसी पहल करनी होगी जिससे आम लोगों का न्यायिक व्यवस्था के प्रति विश्वास और ज्यादा सुदृढ़ हो सके। 

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