‘‘गिरती कानून व्यवस्था में बढ़ते अपराध’’ विषय पर स्थानीय हिन्दी दैनिक ‘‘अमर उजाला’’ द्वारा आयोजित परिचर्चा में सेवानिवृत्त आई.ए.एस. अधिकारी श्री आर.एन. त्रिवेदी ने दण्ड प्रक्रिया संहिता 1973 और उसके पूर्व की दण्ड प्रक्रिया संहिता के कई प्रावधानों का उदाहरण देते हुये बताया कि पुरानी दण्ड प्रक्रिया संहिता में छोटे अपराधी को माफिया बनने से रोकने के लिए कई प्रावधान उपलब्ध थे। अपराधी को उसके पहले अपराध के समय तत्काल दण्ड देने की शक्तियाँ कार्यपालिका को प्राप्त थी और उसके कारण अपराध को नियन्त्रित रखना आसान हुआ करता था। नई दण्ड प्रक्रिया संहिता में दोषी को दण्डित करने की सम्पूर्ण शक्ति न्यायपालिका में निहित कर दिये जाने के कारण छोटे अपराधियों को भी तत्काल दण्डित करना सम्भव नही हो पाता और फिर उन्हें महिमामण्डित होने का अवसर मिल जाता है।
परिचर्चा में कहा गया कि गिरती कानून व्यवस्था और बढ़ते अपराधों के लिए हम सभी सरकार पुलिस और जिला प्रशासन को तत्काल कटघरे में खड़ा कर देते है। कोई जनपद न्यायाधीश या मुख्य न्यायिक मजिस्टेªट से कुछ भी नही पूछता जबकि दोषी को दण्डित करने का सम्पूर्ण क्षेत्राधिकार केवल और केवल उन्हें प्राप्त है। अपराध घटित होने के बाद दोषी को गिरफ्तार करना और साक्ष्य संकलित करके उसके विरूद्ध केवल आरोप पत्र प्रेषित करने का अधिकार पुलिस को प्राप्त है। पुलिस आरोप पत्र दाखिल करती है परन्तु दाखिल आरोप पत्रों की तुलना में दोषियों को दण्डित करने का प्रतिशत काफी कम है। सजा के गिरते ग्राफ के कारणों पर खुलकर चर्चा करने के लिए केाई तैयार नही है। सभी अपने अपने स्तरों पर दूसरे को दोषी बताकर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते है।
कौन नही जानता है कि दोषियों की सजा का प्रतिशत बढ़ते से ही समाज में कानून का भय पैदा होगा और फिर अपराध करने से पहने अपराधी को खुद कई बार सोचने के लिए मजबूर होना पडेगा। आज अपराधियों के मन से अदालत का भय खत्म सा हो गया है। चार्ज शीट को वर्षों हाजिरी में ही बनाये रखने मे वे सफल हो जाते है। चार्ज शीट दाखिल होने के बाद उसे विचारण के लिए सत्र न्यायालय या अन्य किसी सक्षम न्यायालय को सुपुर्द करने की प्रक्रिया काफी धीमी है। इसे तेज करने की कोई रणनीति नही है। जनपद न्यायाधीश मुख्य न्याययिक मजिस्ट्रेट जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक की प्रतिमाह एक संयुक्त बैठक आयोजित होती है परन्तु मुझे नही लगता कि उसमे दिन प्रतिदिन की प्रक्रियागत समस्याओं पर कोई चर्चा होती होगी क्योंकि यदि चर्चा होती तो निश्चित रूप से दिन प्रतिदिन की गतिविधियों में उसके परिणाम दिखने लगते।
आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम 2013 विधायिका द्वारा पारित करने और तत्काल प्रभाव से उसे लागू कर दिये जाने के बाद अदालत में उपस्थित साक्षी को उसी दिन परीक्षित करने का नियम बना दिया गया है और इस नियम को लागू करने की जिम्मेदारी अदालतों की है। विधायिका या कार्यपालिका की इसमें कोई भूमिका नही है। रोज रोज साक्ष्य के लिए अदालत आना और सुबह से शाम तक प्रतीक्षा में बैठे रहने के बाद बिना परीक्षित वापस लौटा दिये जाने के कारण साक्षी पक्षद्रोही होने के लिए विवश हो जाता है। इलाहाबाद हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति श्री सुधीर कुमार सक्सेना ने अपने एक निर्णय (2012-1-जे.आई.सी.-748-इलाहाबाद-लखनऊ बेन्च) के द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को आदेशित किया है कि साक्षी की उपस्थिति के बाद स्थगन आदेश विशेष कारणों से अपवाद स्वरूप ही स्वीकार किये जाये और इस स्थिति में अगले दिन की तिथि साक्ष्य के लिए नियत की जाये। इस आशय के स्पष्ट आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने भी कई बार पारित किये है परन्तु अधीनस्थ न्यायालयों के समक्ष उसे लागू कराना आज भी टेढ़ी खीर बना हुआ है। उच्च न्यायालय ने अपने इस निर्णय के द्वारा जिला अदालतों में साथियों के साथ बढ़ती मारपीट की घटनाओं पर भी चिन्ता व्यक्त की और साक्षियों के आहार भत्ते की राशि को बढाये जाने का भी निर्देश दिया है।
परिचर्चा में प्रकाश में आया कि थानों में प्रथम सूचना रिपोर्ट उच्च स्तरीय अघोषित आदेश के तहत दर्ज नही की जाती। थानों में दर्ज मुकदमें सरकार की कानून व्यवस्था पर पकड़ का पैमाना है। प्रत्येक सरकार अपनी पूर्ववर्ती सरकार से अपराध के आँकड़ों में कम दिखना चाहती है और इसी कारण अपराधों को छिपाने और प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। लोगों में जागरूकता आयी है और लोग अब पुलिस के इस रवैये के विरूद्ध अदालतो का सहारा लेने लगे है। जिसके कारण दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के तहत प्रार्थनापत्रों का बोझ अदालतों पर बढ़ा है।
परिचर्चा में उपस्थित पुलिस अधिकारियों ने स्वीकार किया कि समाज में पुलिस की साख तेजी से गिर रही है। कोई जिम्मेदार नागरिक आज पुलिस पर विश्वास करने को तैयार नही है। सभी को लगता है कि आम लोगों को झूठे मामलों में फँसाकर जेल भिजवा देने में पुलिस को महारथ हासिल है। उस पर सार्वजनिक स्थानों पर बढ़ रहे हमले उसकी घटती विश्वसनीयता का परिचायक है।
अपराधों पर नियन्त्रण के लिए थाना एक महत्वपूर्ण इकाई है जिसे पुलिस अधीक्षक नियन्त्रित एवं संचालित करते है परन्तु अब राजनैतिक और जातिगत कारणों से थाना अध्यक्षों की नियुक्ति में पंचम तल के अफसरों का हस्तक्षेप बढ़ा है। अधिकांश जिलों में एक ही जाति के थानाध्यक्षों की नियुक्ति की अपरिहार्यता ने स्थानीय स्तर पर ज्येष्ठ पुलिस अधीक्षक की शक्तियों को सीमित कर दिया है। उनके लिए अकुशल थानाध्यक्षों को हटा पाना सम्भव नही है। थाने नीलाम होने के भी समाचार प्रकाशित होते रहते है और उस सब के कारण आम लोगों को थाना स्तर पर न्याय मिलने का विश्वास नही रह गया है। कानपुर के थाना शिवली परिसर में राज्यमन्त्री श्री सन्तोष शुक्ला की हत्या दिन दहाड़े की गई थी परन्तु किसी पुलिसकर्मी ने अदालत में दोषियों की पहचान नही की जबकि आन रिकार्ड सभी अपनी ड्यूटी पर थाने में उपस्थित थे। इस स्थिति के बावजूद केवल राजनैनिक कारणों से किसी पुलिसकर्मी को उसकी कायरता के लिए दण्डित नही किया गया। सभी कायर पुलिसकर्मी आज भी सेवा में है।
राज्य सरकार को आम लोगों में कानून के राज के प्रति विश्वास बनाये रखने के लिए जातिगत लाभों को दरकिनार करके अपनी पुलिस को आम जनता से सीधे संवाद बनाने के लिए मजबूर करना होगा और कुछ ऐसे थानाध्यक्ष खोजने होंगे जो अपनी ज्ञात आय पर अपने परिवार का पालन पोषण करने में सक्षम हो। मुलायम सिंह यादव ने अपने मुख्मंत्रित्वकाल में पुलिसकर्मियों के वेतन और सुविधाओं को सम्मानजनक बना दिया है और अब उन्हें पुलिसकर्मियों से स्पष्ठ रूप से कहना चाहिये कि अपने वेतन में अपना गुजारा करो और पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ अपने थानाक्षेत्र को अपराधियों से मुक्त करो।
No comments:
Post a Comment