डाक्टर पति और इन्जिनियर पत्नी के मध्य वैवाहिक विवाद परिवार न्यायालय में लम्बित है। अपर प्रमुख न्यायाधीश सुश्री कुमुदनी वर्मा की सलाह और आग्रह पर झगड़ रहे युवा दम्पत्ति एक साथ रहने पर राजी हो गये। किराये का मकान लेकर दोनो एक साथ रहने लगे। पिछले दिनों इस दम्पत्ति को पुत्र रत्न का सुख प्राप्त हुआ। न्यायालय के सामने मामला आने के पहले दोनों के बीच भयंकर गलतफहमियाँ थी। डाक्टर पति ने अपने से ज्यादा वेतन पाने वाली इन्जिनियर पत्नी को अपनी बहिन के घर में कई लोगों की उपस्थिति मे मारा पीटा, घर से भगा दिया और उसके बाद उसी दिन उसके मायके जाकर उसके माता पिता को भी अपमानित किया था। इन परिस्थितियों में मुकदमा अदालत में आया, सम्भावना तलाक की थी परन्तु न्यायाधीश सुश्री कुमुदनी वर्मा की व्यक्तिगत रूचि और पहल के कारण दोनो ने अपने मनभेद भुलाये और एक साथ रहने के लिए राजी हुये और अब पुत्र रत्न की साझा खुशी से अभिभूत है।
कैरियर की चिन्ता, अत्यधिक व्यस्थता और उसके कारण उत्पन्न संवादहीनता के कारण युवादम्पत्तियों में वैवाहिक विवाद बढ़ते जा रहे है। समय बदल गया है अब विवाह निकटम सम्बन्धियों की सलाह और मध्यस्थता में नही होते बल्कि समाचार पत्रों में प्रकाशित वैवाहिक विज्ञापनो के माध्यम से किये जाते है। इसलिए दाम्पत्य जीवन में किसी भी प्रकार की गलतफहमी उत्पन्न होने की स्थिति में दोनों पक्षों को उनकी ब्यथा सुनने वाला कोई आत्मीय नही मिलता। दोनों अन्दर ही अन्दर बातचीत करने के लिए तड़पा करते है परन्तु अपने अपने अहं के चक्कर में चाहते हुये भी कोई बातचीत की पहल के लिए खुद आगे नही बढ़ता और फिर छोटी गलतफहमियाँ विवाद का रूप ले लेती है।
प्रायः वैवाहिक विवाद दोनो पक्षो के बुजुर्गो के आपसी झगड़े से उत्पन्न होते है और इन झगड़ो की शुरूआत मे पति और पत्नी शामिल नही होते। दोनो पक्षो के बुजुर्गो का अहम सामान्य गलतफहमियों को विवाद बना देता है। इस अवधि में आशंकाओं के कारण बचाव के लिए किसी तीसरे पक्ष से ली गई सलाह भी कई बार विवाद को बढ़ाने का कारण बनती है। सास या ननद से झगड कर बहू के मायके जाने के बाद कोई उपचार पाने के लिए नही बल्कि केवल बचाव मे हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 9 के तहत पिटीशन दाखिल किया जाता है और बहू दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता के लिए आवेदन करती है। इन पिटीशनो में एक दूसरे पर क्रूरता के आरोप और उसके तरीके प्रायः बढ़ा चढ़ा कर लिखाये जाते है। किसी युक्तियुक्त आधार के बिना क्रूरता के आरोप वैवाहिक सम्बन्धों के विश्वास को तोड़कर सदा सदा के लिए सम्बन्धों को सुधारने के रास्ते बन्द कर देते है।
बेटी दामाद या पुत्र, पुत्रवधू के मध्य दाम्पत्य सम्बन्धों की कडुवाहट के लिए एक दूसरे की मातायें जिम्मेदार होती है। मातायें अपनी बेटी के मामले मे निष्कपट भाव से हस्तक्षेप करती है परन्तु उनका यह निष्कपट भाव अनुचित हस्तक्षेप माना जाता है और दामाद या उसके परिजन इसे पसन्द नही करते और यही से शुरू होता है बहू पर अपने घर की बातांे को मायके मे शेयर करने के आरोपो का सिलसिला। सास भूल जाती है कि इस उम्र मे भी वे अपने पति गृह की तुलना में अपने मायके और मायके वालों को ज्यादा तरजीह देती है, परन्तु नई नवेली बहू से वे अपने मायके को भूल जाने की अपेक्षा करती है। इन परिस्थितियों में पति बेचारा माँ और पत्नी के बीच पिसने लगता है। कोई उसकी ब्यथा नही सुनता और न उसकी भावनाओं को समझना चाहता है। लड़की की माँ दामाद की भावनाओं को और लड़के की माँ बहू की भावनाओं को समझने का प्रयास करें तो निश्चित रूप से वैवाहिक गलतफहमियों को विवाद बनने से रोका जा सकता है।
अब घर के बड़े बुजुर्गो को अपनी चिर परिचित भूमिका में बदलाव लाने की जरूरत है। डाक्टर इन्जिनियर आदि उच्च पदस्थ बहुओं से घूँघट करने या बुर्का पहनने की अपेक्षा करना किसी भी दृष्टि से उचित नही है बिट्रेन में शिक्षित एक चिकित्सक बहू ने विवाह के पूर्व पारम्परिक पहनावे के प्रति अपने परहेज से अपने पति को स्पष्ट रूप से बता दिया था। अपने पति से पहली बार वह स्कर्ट टाप पहन कर मिली थी। सास ससुर से सलवार कमीज पहनकर मिली और उस दौरान उसने अपना दुपट्टा कन्धे पर लटकाये रखा। उस समय किसी ने भी उसकी वेशभूषा पर कोई आपत्ति नही की परन्तु अब शादी के बाद लड़के के माता पिता चिकित्सक बहू से पारम्परिक कपड़े जेवर पहनने की अपेक्षा करते है। लड़की के पिता अपनी पुत्री पर अपने ससुराल वालों की भावनाओं के साथ सामन्जस्य बैठाने का नैतिक दबाव बना रहे है परन्तु लड़के के माता पिता अपनी पारम्परिक मानसिकता में बदलाव के लिए कतई तैयार नही है। पति पत्नी मे निजी स्तर पर पारस्परिक प्यार और आत्मीयता मे कोई कमी नही है। दोनों एक दूसरे के दाम्पत्य साहचर्य में सुखमय जीवन बिताना चाहते है, परन्तु पारिवारिक परम्पराओं और दकियानूसी विचारो के कारण उनके सम्बन्ध बिगड गये और अब मामला तलाक की ओर बढ रहा है और एक घर बसने के पहले ही उजड़ने की स्थिति में आ गया है।
फालतू गलत फहमियो मे बढ़ते वैवाहिक विवादो को रोकना आज समय की माँग है। परिवार न्यायालयो मे मुकदमे बढ़ते जा रहे है। किसी युक्तियुक्त कारण के बिना भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 ए और दहेज प्रतिषेध अधिनियम की धारा 3/4 के तहत मुकदमे पंजीकृत करा देना आम बात है। आपराधिक धाराओं में पंजीकृत मुकदमों के लिए समझौते का प्रावधान न होने के कारण आपसी सहमति नही बन पाती। सर्वोच्च न्यायालय ने इन स्थितियों पर विचार किया और ज्ञान सिंह बनाम स्टेट आफ पंजाब एण्ड अदर्स (जजमेन्ट टुडे-2012-09-एस.सी.-पेज 426) में प्रतिपादित किया है कि आपराधिक धाराओं में पंजीकृत मुकदमों के विचारण के दौरान वैवाहिक विवादों में उभय पक्षों के मध्य आपसी सहमति और समझदारी विकसित होने की तनिक भी सम्भावना प्रतीत होती है तो मुकदमे को समझौते के लिए मिडियेशन सेन्टर के समक्ष भेजा जाना चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्देश की प्रकृति आदेशात्मक है।
के. श्रीनिवास राव बनाम डी.ए.दीपा (2013-2-जे.सी.एल.आर.-पेज 825-एस.सी.) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालयों को निर्देशित किया है कि मध्यस्थो द्वारा फेल्योर रिपोर्ट प्रस्तुत किये जाने के बावजूद उन्हें अपने स्तर पर परिवार न्यायालय अधिनियम की धारा 9 के तहत अपने में निहित क्षेत्राधिकार का प्रयोग करके विवाद को सुलझाने के लिए मीडियेशन सेन्टर मे भेजना ही चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने इसी निर्णय मे वैवाहिक विवादों में पंजीकृत आपराधिक मुकदमो को भी आपसी समझौते के आधार पर समाप्त करने का भी सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। समझौते के बावजूद वैवाहिक सम्बन्धों और उभय पक्षों के सुखद दाम्पत्य जीवन के हित में पति और उसके माता पिता के विरूद्ध आपराधिक मुकदमा चलाये रखना न्यायसंगत नही है।
सर्वोच्च न्यायालय ने वैवाहिक विवादो को आपसी सहमति से सुलझाने को वरीयता देने के लिए अपने निर्णय (2010-13-एस.सी.सी.-पेज 540) के द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 ए को कम्पाउन्डेबल बनाने का भी निर्देश भारत सरकार को दिया है। दण्ड प्रक्रिया संहिता में संशोधन करके केन्द्र सरकार ने धारा 41 ए जोड दी है और उसके तहत सात वर्ष तक की सजा वाले मामलो में विश्वसनीय साक्ष्य संकलित किये बिना नामजद लोगों की तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगा दी गई है। गिरफ्तारी के पहले अभिुक्त को नोटिस भेजकर अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर देने की भी व्यवस्था है। इस प्रावधान के कारण थानों के स्तर पर भी वैवाहिक विवादो मे बातचीत और समझौते को वरीयता दी जाने लगी है। इसी प्रकार प्ली आफ बारगेनिग का विकल्प भी आपसी समझौते का माध्यम बन सकता है। वैवाहिक विवादो के आपराधिक विचारण में विचारण प्रारम्भ होने के पूर्व प्ली आफ बारगेनिंग का उपयोग किया जाना चाहियें। इस प्रक्रिया के तहत सुलझाये गये विवादो में किसी को भी हारने या जीतने का अहसास नही होता बल्कि दोनों पक्षों को एक दूसरे के प्रति आत्मीय होने का अवसर मिलता है।
सर्वोच्च न्यायालय के अपने प्रयासों के कारण अब प्रत्येक स्तर पर वैवाहिक विवादो को आपसी समझदारी और समझौते से सुलझाने को वरीयता दी जाने लगी है। अब बुआ, मौसी, चाची जैसे निकटतम सम्बन्धी दम्पत्तियों की आपसी गलतफहमियो को सुलझाने के लिए आगे नही आते इसलिए मीडियेशन सेन्टर की महत्ता बढ़ी है। बुआ, मौसी, चाची का विकल्प बन गये मीडियेशन केन्द्रों में पति पत्नी की संवादहीनता टूटती है। शुरूआती ना नुकुर के बाद दोनों बातचीत करते है। अपने आपको सही साबित करने की चाह में दोनों शालीनता का प्रदर्शन करते है और बाद में यही शालीनता उन्हें सामने वाले की मजबूरी समझने और अपनी गल्तियों का अहसास करने में सहायक होती है। दहेज हत्या के एक मामले में विचारण के दौरान साक्षी सास की गोद से लपककर चार वर्षीय बेटी अपने अभियुक्त पिता की गोद में चली गई और अपने पिता को चूमने लगी। इस दृश्य को देखकर अदालत के अन्दर ही सास और दामाद दोनों खूब रोये। इन आँसुओ के बीच सभी गलतफहमियाँ बह गई और फिर सास ने अदालत को बताया कि मेरा दामाद निर्दोष है और उसने मेरी बेटी को नही जलाया। वैवाहिक विवादो में आपसी संवाद स्थापित करने का अवसर देने से किसी पक्ष को कोई क्षति नही होती। आपसी बातचीत से विवाद सुलझने की स्थिति में परिवार में सुख शान्ति स्थायी रूप से वापस आती है जो सम्बन्धित परिवार के साथ साथ समाज के व्यापक हितो के लिए भी जरूरी है।