Sunday, 29 September 2013

बुआ, मौसी, चाची का विकल्प है मीडियेशन सेन्टर ...........


डाक्टर पति और इन्जिनियर पत्नी के मध्य वैवाहिक विवाद परिवार न्यायालय में लम्बित है। अपर प्रमुख न्यायाधीश सुश्री कुमुदनी वर्मा की सलाह और आग्रह पर झगड़ रहे युवा दम्पत्ति एक साथ रहने पर राजी हो गये। किराये का मकान लेकर दोनो एक साथ रहने लगे। पिछले दिनों इस दम्पत्ति को पुत्र रत्न का सुख प्राप्त हुआ। न्यायालय के सामने मामला आने के पहले दोनों के बीच भयंकर गलतफहमियाँ थी। डाक्टर पति ने अपने से ज्यादा वेतन पाने वाली इन्जिनियर पत्नी को अपनी बहिन के घर में कई लोगों की उपस्थिति मे मारा पीटा, घर से भगा दिया और उसके बाद उसी दिन उसके मायके जाकर उसके माता पिता को भी अपमानित किया था। इन परिस्थितियों में मुकदमा अदालत में आया, सम्भावना तलाक की थी परन्तु न्यायाधीश सुश्री कुमुदनी वर्मा की व्यक्तिगत रूचि और पहल के कारण दोनो ने अपने मनभेद भुलाये और एक साथ रहने के लिए राजी हुये और अब पुत्र रत्न की साझा खुशी से अभिभूत है।

          कैरियर की चिन्ता, अत्यधिक व्यस्थता और उसके कारण उत्पन्न संवादहीनता के कारण युवादम्पत्तियों में वैवाहिक विवाद बढ़ते जा रहे है। समय बदल गया है अब विवाह निकटम सम्बन्धियों की सलाह और मध्यस्थता में नही होते बल्कि समाचार पत्रों में प्रकाशित वैवाहिक विज्ञापनो के माध्यम से किये जाते है। इसलिए दाम्पत्य जीवन में किसी भी प्रकार की गलतफहमी उत्पन्न होने की स्थिति में दोनों पक्षों को उनकी ब्यथा सुनने वाला कोई आत्मीय नही मिलता। दोनों अन्दर ही अन्दर बातचीत करने के लिए तड़पा करते है परन्तु अपने अपने अहं के चक्कर में चाहते हुये भी कोई बातचीत की पहल के लिए खुद आगे नही बढ़ता और फिर छोटी गलतफहमियाँ विवाद का रूप ले लेती है।

         प्रायः वैवाहिक विवाद दोनो पक्षो के बुजुर्गो के आपसी झगड़े से उत्पन्न होते है और इन झगड़ो की शुरूआत मे पति और पत्नी शामिल नही होते। दोनो पक्षो के बुजुर्गो का अहम सामान्य गलतफहमियों को विवाद बना देता है। इस अवधि में आशंकाओं के कारण बचाव के लिए किसी तीसरे पक्ष से ली गई सलाह भी कई बार विवाद को बढ़ाने का कारण बनती है। सास या ननद से झगड कर बहू के मायके जाने के बाद कोई उपचार पाने के लिए नही बल्कि केवल बचाव मे हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 9 के तहत पिटीशन दाखिल किया जाता है और बहू दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता के लिए आवेदन करती है। इन पिटीशनो में एक दूसरे पर क्रूरता के आरोप और उसके तरीके प्रायः बढ़ा चढ़ा कर लिखाये जाते है। किसी युक्तियुक्त आधार के बिना क्रूरता के आरोप वैवाहिक सम्बन्धों के विश्वास को तोड़कर सदा सदा के लिए सम्बन्धों को सुधारने के रास्ते बन्द कर देते है। 

       
बेटी दामाद या पुत्र, पुत्रवधू के मध्य दाम्पत्य सम्बन्धों की कडुवाहट के लिए एक दूसरे की मातायें जिम्मेदार होती है। मातायें अपनी बेटी के मामले मे निष्कपट भाव से हस्तक्षेप करती है परन्तु उनका यह निष्कपट भाव अनुचित हस्तक्षेप माना जाता है और दामाद या उसके परिजन इसे पसन्द नही करते और यही से शुरू होता है बहू पर अपने घर की बातांे को मायके मे शेयर करने के आरोपो का सिलसिला। सास भूल जाती है कि इस उम्र मे भी वे अपने पति गृह की तुलना में अपने मायके और मायके वालों को ज्यादा तरजीह देती है, परन्तु नई नवेली बहू से वे अपने मायके को भूल जाने की अपेक्षा करती है। इन परिस्थितियों में पति बेचारा माँ और पत्नी के बीच पिसने लगता है। कोई उसकी ब्यथा नही सुनता और न उसकी भावनाओं को समझना चाहता है। लड़की की माँ दामाद की भावनाओं को और लड़के की माँ बहू की भावनाओं को समझने का प्रयास करें तो निश्चित रूप से वैवाहिक गलतफहमियों को विवाद बनने से रोका जा सकता है।

         अब घर के बड़े बुजुर्गो को अपनी चिर परिचित भूमिका में बदलाव लाने की जरूरत है। डाक्टर इन्जिनियर आदि उच्च पदस्थ बहुओं से घूँघट करने या बुर्का पहनने की अपेक्षा करना किसी भी दृष्टि से उचित नही है बिट्रेन में शिक्षित एक चिकित्सक बहू ने विवाह के पूर्व पारम्परिक पहनावे के प्रति अपने परहेज से अपने पति को स्पष्ट रूप से बता दिया था। अपने पति से पहली बार वह स्कर्ट टाप पहन कर मिली थी। सास ससुर से सलवार कमीज पहनकर मिली और उस दौरान उसने अपना दुपट्टा कन्धे पर लटकाये रखा। उस समय किसी ने भी उसकी वेशभूषा पर कोई आपत्ति नही की परन्तु अब शादी के बाद लड़के के माता पिता चिकित्सक बहू से पारम्परिक कपड़े जेवर पहनने की अपेक्षा करते है। लड़की के पिता अपनी पुत्री पर अपने ससुराल वालों की भावनाओं के साथ सामन्जस्य बैठाने का नैतिक दबाव बना रहे है परन्तु लड़के के माता पिता अपनी पारम्परिक मानसिकता में बदलाव के लिए कतई तैयार नही है। पति पत्नी मे निजी स्तर पर पारस्परिक प्यार और आत्मीयता मे कोई कमी नही है। दोनों एक दूसरे के दाम्पत्य साहचर्य में सुखमय जीवन बिताना चाहते है, परन्तु पारिवारिक परम्पराओं और दकियानूसी विचारो के कारण उनके सम्बन्ध बिगड गये और अब मामला तलाक की ओर बढ रहा है और एक घर बसने के पहले ही उजड़ने की स्थिति में आ गया है। 

          फालतू गलत फहमियो मे बढ़ते वैवाहिक विवादो को रोकना आज समय की माँग है। परिवार न्यायालयो मे मुकदमे बढ़ते जा रहे है। किसी युक्तियुक्त कारण के बिना भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 ए और दहेज प्रतिषेध अधिनियम की धारा 3/4 के तहत मुकदमे पंजीकृत करा देना आम बात है। आपराधिक धाराओं में पंजीकृत मुकदमों के लिए समझौते का प्रावधान न होने के कारण आपसी सहमति नही बन पाती। सर्वोच्च न्यायालय ने इन स्थितियों पर विचार किया और ज्ञान सिंह बनाम स्टेट आफ पंजाब एण्ड अदर्स (जजमेन्ट टुडे-2012-09-एस.सी.-पेज 426) में प्रतिपादित किया है कि आपराधिक धाराओं में पंजीकृत मुकदमों के विचारण के दौरान वैवाहिक विवादों में उभय पक्षों के मध्य आपसी सहमति और समझदारी विकसित होने की तनिक भी सम्भावना प्रतीत होती है तो मुकदमे को समझौते के लिए मिडियेशन सेन्टर के समक्ष भेजा जाना चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्देश की प्रकृति आदेशात्मक है।

      के. श्रीनिवास राव बनाम डी.ए.दीपा (2013-2-जे.सी.एल.आर.-पेज 825-एस.सी.) के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय ने अधीनस्थ न्यायालयों को निर्देशित किया है कि मध्यस्थो द्वारा फेल्योर रिपोर्ट प्रस्तुत किये जाने के बावजूद उन्हें अपने स्तर पर परिवार न्यायालय अधिनियम की धारा 9 के तहत अपने में निहित क्षेत्राधिकार का प्रयोग करके विवाद को सुलझाने के लिए मीडियेशन सेन्टर मे भेजना ही चाहिये। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने इसी निर्णय मे वैवाहिक विवादों में पंजीकृत आपराधिक मुकदमो को भी आपसी समझौते के आधार पर समाप्त करने का भी सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। समझौते के बावजूद वैवाहिक सम्बन्धों और उभय पक्षों के सुखद दाम्पत्य जीवन के हित में पति और उसके माता पिता के विरूद्ध आपराधिक मुकदमा चलाये रखना न्यायसंगत नही है।

        सर्वोच्च न्यायालय ने वैवाहिक विवादो को आपसी सहमति से सुलझाने को वरीयता देने के लिए अपने निर्णय (2010-13-एस.सी.सी.-पेज 540) के द्वारा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 ए को कम्पाउन्डेबल बनाने का भी निर्देश भारत सरकार को दिया है। दण्ड प्रक्रिया संहिता में संशोधन करके केन्द्र सरकार ने धारा 41 ए जोड दी है और उसके तहत सात वर्ष तक की सजा वाले मामलो में विश्वसनीय साक्ष्य संकलित किये बिना नामजद लोगों की तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगा दी गई है। गिरफ्तारी के पहले अभिुक्त को नोटिस भेजकर अपना पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर देने की भी व्यवस्था है। इस प्रावधान के कारण थानों के स्तर पर भी वैवाहिक विवादो मे बातचीत और समझौते को वरीयता दी जाने लगी है। इसी प्रकार प्ली आफ बारगेनिग का विकल्प भी आपसी समझौते का माध्यम बन सकता है। वैवाहिक विवादो के आपराधिक विचारण में विचारण प्रारम्भ होने के पूर्व प्ली आफ बारगेनिंग का उपयोग किया जाना चाहियें। इस प्रक्रिया के तहत सुलझाये गये विवादो में किसी को भी हारने या जीतने का अहसास नही होता बल्कि दोनों पक्षों को एक दूसरे के प्रति आत्मीय होने का अवसर मिलता है।

       सर्वोच्च न्यायालय के अपने प्रयासों के कारण अब प्रत्येक स्तर पर वैवाहिक विवादो को आपसी समझदारी और समझौते से सुलझाने को वरीयता दी जाने लगी है। अब बुआ, मौसी, चाची जैसे निकटतम सम्बन्धी दम्पत्तियों की आपसी गलतफहमियो को सुलझाने के लिए आगे नही आते इसलिए मीडियेशन सेन्टर की महत्ता बढ़ी है। बुआ, मौसी, चाची का विकल्प बन गये मीडियेशन केन्द्रों में पति पत्नी की संवादहीनता टूटती है। शुरूआती ना नुकुर के बाद दोनों बातचीत करते है। अपने आपको सही साबित करने की चाह में दोनों शालीनता का प्रदर्शन करते है और बाद में यही शालीनता उन्हें सामने वाले की मजबूरी समझने और अपनी गल्तियों का अहसास करने में सहायक होती है। दहेज हत्या के एक मामले में विचारण के दौरान साक्षी सास की गोद से लपककर चार वर्षीय बेटी अपने अभियुक्त पिता की गोद में चली गई और अपने पिता को चूमने लगी। इस दृश्य को देखकर अदालत के अन्दर ही सास और दामाद दोनों खूब रोये। इन आँसुओ के बीच सभी गलतफहमियाँ बह गई और फिर सास ने अदालत को बताया कि मेरा दामाद निर्दोष है और उसने मेरी बेटी को नही जलाया। वैवाहिक विवादो में आपसी संवाद स्थापित करने का अवसर देने से किसी पक्ष को कोई क्षति नही होती। आपसी बातचीत से विवाद सुलझने की स्थिति में परिवार में सुख शान्ति स्थायी रूप से वापस आती है जो सम्बन्धित परिवार के साथ साथ समाज के व्यापक हितो के लिए भी जरूरी है।



Sunday, 22 September 2013

सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार


केन्द्र सरकार ने पुरजोर प्रयास करके खाद्य सुरक्षा विधेयक संसद में पारित करा लिया है। विधेयक बनने से पहले ही जरिये अध्यादेश उसे लागू भी करा दिया परन्तु उसका लाभ आम लोगों तक पहुँचाने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली में फैले भ्रष्टाचार और उसकी खामियों को दूर करने की कोई सार्थक पहल अभी तक नही की है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से सस्ता खाद्यान्न आम लोगों तक पहुँचाना केन्द्र और राज्य दोनों सरकारों की संयुक्त जिम्मेदारी है। केन्द्र सरकार सस्ता खाद्यान्न उपलब्ध कराती है और उसका वितरण राज्य सरकारंे नियन्त्रित एवं संचालित करती है और उन्होंने इसे अपने कार्यकर्ताओ को उपकृत करने का माध्यम बना लिया है जिसके कारण सस्तें खाद्यान्न की ब्लेक मार्केिटंग पर अंकुश नही लग पा रहा है।
अपने देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली खाद्यान्न वितरण के लिए विश्व में सबसे बड़ा नेटवर्क है। सम्पूर्ण देश में ग्राम पंचायतों के स्तर तक राशन की दुकानों का नेटवर्क भ्रष्टाचार के जाल में उलझा हुआ है। फेयर प्राइज शाप के दुकानदार, ट्रान्सपोटर्स ब्यूरोक्रेटस, और राजनेताओं का संघटित गिरोह इस व्यवस्था का लाभ आम लोगो तक पहुँचने नही देता और इसे अपने तरीके से प्रयोग करके अपनी अवैध कमाई का माध्यम बनाये हुये है। इस नेटवर्क के भ्रष्टाचार पर प्रभावी अंकुश के लिए राज्य सरकारों के स्तर पर कभी कोई प्रयास नही किये जाते। आम लोगों को दिखाने के लिए कार्यवाही का ढिंढोरा पीटा जाता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने खाद्य पदार्थो के अपमिश्रण से सम्बन्धित भारतीय दण्ड संहिता की धाराओं 272, 273, 274, 275 एवं 276 में संशोधन करके 6 माह के दण्ड की अवधि को बढ़ाकर आजीवन कारावास कर दिया है। इन धाराओं में मुकदमें भी पंजीकृत होते है परन्तु उनमें अभियुक्तों को सजा दिलाने के लिए रणनीति के तहत कोई प्रयास नही किया जाता और उसके कारण विभिन्न अवसरों पर विभिन्न उद्देश्यों के लिए बनाये गये कानून आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955, प्रिवेन्शन आफ ब्लेक मार्केटिंग एण्ड मेन्टीनेन्स आफ सप्लाइस आफ इसेन्सियल कमोडिटीज एक्ट 1980, प्रिवेन्शन आफ फूड एडल्टेरेशन एक्ट 1954, पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम (कन्ट्रोल) आर्डर 2001, लीगल मेट्रोलाजी एक्ट 2009, एग्रीकल्चर प्रोड्यूस (ग्रेडिंग एण्ड मार्केटिंग) एक्ट 1937 भ्रष्टाचारियो पर कोई अंकुश नही लगा सके। कमोवेश सभी कानून सस्ता और शुद्ध खाद्यान्न आम जनता तक पहुँचा पाने मंे असफल सिद्ध हुये है। 
आम लोगों को सस्ता और शुद्ध खाद्यान्न उपलब्ध कराना केन्द्र और राज्य सरकारों का दायित्व है परन्तु सभी सरकारें अपने अपने कारणों से अपने इस दायित्व का ईमानदारी से निर्वहन नही कर रही है। सर्वोच्च न्यायालय ने पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज बनाम यूनियन आफ इण्डिया (2013-2-एस.सी.सी.-पेज 682) के द्वारा सार्वजनिक वितरण प्रणाली को चुस्त दुरूस्त और भ्रष्टाचारमुक्त बनाये रखने के लिए आधुनिक टेक्नालाजी का प्रयोग किये जाने का ओदश पारित किया है ताकि सम्पूर्ण व्यवस्था पारदर्शी हो सके। आधुनिक टेक्नालाजी की मदद से खाद्यान्न वितरण की खामियो को दूर किया जा सकता है। पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम (कन्ट्रोल) आर्डर 2001 में इस आशय का प्रावधान है। सम्पूर्ण व्यवस्था को कम्प्यूटराइज्ड करके उसकी खामियों को दूर करना आसान हो सकता है। इस व्यवस्था के तहत प्रत्येक फेयर प्राइज शाप (राशन की दुकान) के लिए एक कम्प्यूटराइज्ड कोड आवंटित किया जाना है। मूलभूत संरचना के लिए आवश्यक धनराशि केन्द्र सरकार उपलब्ध कराने को तैयार है परन्तु किसी राज्य सरकार ने इसे अपने संज्ञान में नही लिया और न अपने स्तर पर इसे लागू करने के लिए कोई रूचि ली है। 
सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अधीन केन्द्र सरकार ने स्वयं पहल करके वर्ष 2008 में केन्द्र शासित चण्डीगढ़ और हरियाणा को आधुनिक टेक्नालाजी का सहारा लेकर सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कम्प्यूटराइज्ड करने के लिए कहा और उसके व्यय के लिए अपेक्षित धनराशि रूपया 142.29 करोड रूपये स्वीकृत भी कर दिया, परन्तु कम्प्यूटराइजेशन की दिशा में कोई सार्थक काम नही किया गया। इस काम के लिए दोनों जगहों पर प्रायवेट वेन्डर्स को भी जोड़ा गया परन्तु प्रायवेट वेन्डर्स सरकारी अधिकारी और नेशलन इन्फारमेटिक सेन्टर के प्रतिनिधियों ने एक दूसरे पर दोषारोपण करके पूरी योजना को फुस्स कर दिया। सिस्टम कम्प्यूटराइज्ड न हो पाने के कारण राशन की दुकानों के स्तर पर फैले भ्रष्टाचार पर कोई अंकुश नही लग पा रहा है और आम जनता भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सहज स्वाभाविक लाभों से वंचित है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पूर्व आदेशों का अनुपालन न होने पर नाराजगी जताते हुये आदेश (2010-11-एस0सी0सी0-पेज- 719) दिनांक 27.07.2010 के द्वारा केन्द्र सरकार को खाद्यान्न वितरण मे फैले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सम्पूर्ण देश मे राशन की दुकानों के स्तर पर कम्प्यूटराइज्ड करने हेतु एक साफ्टवेयर बनाने को वरीयता देने का आदेश दिया और सभी राज्य सरकारो को भी इसी साफ्टवेयर का प्रयोग करने के लिए कहा। इस आदेश के अनुपालन में केन्द्र सरकार ने नेशनल इनफारमेटिक्स सेन्टर के डाइरेक्टर जनरल की अध्यक्षता मे एक टास्क फोर्स का गठन किया है। इस टास्क फोर्स में डिपार्टमेन्ट आफ इनफार्मेशन टेक्नालाजी, यूनिक आइडेन्टिफिकेशन आफ इण्डिया डिस्ट्रीब्यूशन, फूड कारपोरशन आफ इण्डिया के प्रतिनिधि और राज्यों आन्ध्र प्रदेश, आसाम, चण्डीगढ़, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हरियाणा, तमिलनाडू, उत्तर प्रदेश के सचिव शामिल किये गये और इस टास्क फोर्स ने विचार विमर्श में काफी धनराशि खर्च करके अपनी रिपोर्ट दिनांक 01.11.2010 को प्रस्तुत कर दी। रिपोर्ट में कई तरह के सुझाव दिये गये थे परन्तु किसी राज्य सरकार ने टास्क फोर्स की अनुशंसाओं को लागू करने के लिए कम्प्यूटराइजेशन की दिशा मे एक कदम भी आगे नही बढ़ाया है।
सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट दिशा निर्देशों के बावजूद सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कम्प्यूटराइज्ड करने के लिए केन्द्र सरकार और राज्य सरकारो के मध्य कोई तालमेल स्थापित नही हो पा रहा है। तालमेल न हो पाने के लिए सभी एक दूसरे पर दोषारोपण करते है। दिनांक 14.09.2011 एवं दिनांक 03.02.2012 को सर्वोच्च न्यायालय ने अपने अलग अलग आदेश (2011-14-एस.सी.सी. -पेज 331 एवं 2012-12-एस.सी.सी. -पेज 357) के द्वारा भारत सरकार के कन्ज्यूमर एफेयर्स फूड एण्ड पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सचिव को कम्प्यूटरीकरण की  योजना का प्रभारी बनाने का निर्देश जारी किया। वास्तव में इतना सब हो जाने के बावजूद आज तक सार्वजनिक वितरण प्रणाली कम्प्यूटराइज्ड नही की जा सकी है।
सार्वजनिक वितरण प्रणाली को चुस्त दुरूस्त और भ्रष्टाचार मुक्त किये बिना सस्ते खाद्यान्न का लाभ आम लोगों तक नही पहुँचाया जा सकता है। पूरी व्यवस्था राज्य सरकारों के माध्यम से जिला प्रशासन द्वारा नियन्त्रित एवम संचालित की जाती है। केन्द्र सरकार सस्ता खाद्यान्न उपलब्ध कराती है और उसका वितरण स्थानीय स्तर पर राज्य सरकारों द्वारा आवंटित फेयर प्राइज शाप (राशन की दुकान) के द्वारा किया जाता है और इसी स्तर पर पूरा भ्रष्टाचार फैला हुआ है। राशन की दुकाने समय से नही खुलती। खाद्यान्न कब आया कब बँट गया, जैसी आवश्यक सूचनायें उपभोक्ता को नही मिल पाती। मास के प्रथम सप्ताह तक खाद्यान्न राशन की दुकान में पहुँच जाना और निर्धारित समयावधि मे दुकान का खुले रहना आज भी सपना है। स्टाक रजिस्टर इश्यू रजिस्टर लाभार्थियो की सूची सम्बन्धित अधिकारियों के टोल फ्री नम्बर राशन की दुकानों के स्तर पर उपलब्ध नही कराये जाते। उपभोक्ता को इन सूचनाओं से वंचित रखा जाता है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (कन्ट्रोल) आर्डर 2001 में इस आशय का स्पष्ट प्रावधान है। रसोई गैस एजेन्सियाँ भी कन्ट्रोल आर्डर 2001 की परिधि में आती है। सभी गैस एजेन्सियाँ कम्प्यूटराइज्ड है परन्तु उनकी गतिविधियाँ पारदर्शी नही है और न आम उपभोक्ताओ की पहुँच में है। गैस एजेन्सियों के स्तर पर भी उपभोक्ताओं के साथ धोखाधड़ी करके ब्लेक मार्केट में धडल्ले से घरेलू गैस बेची जाती है। 
सार्वजनिक वितरण प्रणाली को चुस्त दुरूस्त और भ्रष्टाचार मुक्त बनाये रखना राज्य सरकारों का महत्वपूर्ण दायित्व है परन्तु राज्य सरकारे आम उपभोक्ताओं के हित मे अपने इस दायित्व का पालन नही कर रही है। पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिवर्टीज की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों को सिविल सप्लाई कारपोरेशन स्थापित करने की सलाह दी है। इस कारपोरेशन के माध्यम से सार्वजनिक वितरण प्रणाली को नियन्त्रित एवं संचालित किया जाना है। आज पूरे देश मे लगभग पाँच लाख की सस्ते राशन की दुकाने है जो राजनैतिक कारणो से सत्तारूढ़ दल के कार्यकर्ताओं को उपकृत करने के लिए आवंटित की गई है। सभी दुकानदार राज्य सरकारांे द्वारा दिये जाने वाले कमीशन से संतुष्ट नही होते। आम उप भोक्ताआंे के हितो के मूल्य पर फर्जी राशन कार्ड बनवाकर और अन्य कई तरीकों से सस्ता खाद्यान्न ब्लेक मार्केट मे बेचते है। इस अवैध कमाई का हिस्सा सम्बन्धित विभागीय अधिकारियों को ईमानदारी से दिया जाता है। 
राज्य सरकारें अपने निहित स्वार्थवश सिविल सप्लाई कारपोरेशन स्थापित नही करना चाहती। वे पूरी व्यवस्था को अपने तरीके से नियन्त्रित एवं संचालित करना चाहती है और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर प्रस्तावित सिविल सप्लाई कारपोरेशन को अपने हितों के प्रतिकूल मानती है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के तहत स्थानीय स्तर पर राशन की दुकानो का आवंटन सिविल सप्लाई कारपोरेशन के अधीन किया जाना है। इन दुकानों को प्रायवेट इन्डीविजुअल्स द्वारा संचालित नही किया जायेगा। राशन की दुकाने पंचायती राज संस्थाओं, कोआपरेटिव्स और स्वयं सहायता प्राप्त महिला समूहों द्वारा संचालित की जायेंगी। प्रायवेट इन्डीविजुअल्स द्वारा संचालित दुकानों को कारपोरेशन अपने अधिपत्य में लेंगे। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में दो कारपोरेशन बनाये जाने और उनके मध्य की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा पैदा करके सार्वजनिक वितरण प्रणाली की खामियो पर प्रभावी अंकुश लगाने की योजना है। वर्तमान व्यवस्था के तहत राशन की दुकानो का कमीशन सीधे दुकानदार को दिया जाता है। इस व्यवस्था को भी समाप्त किया जायेगा और राशन की दुकान का कमीशन राज्य सरकार सीधे कारपोरेशन के खाते में स्थानान्तरित करेगी और कारपोरेशन अपने नियमो परिनियमों के तहत उसका भुगतान सम्बन्धित लोगों को करेगा। ग्रामीण क्षेत्रों और अतिपिछड़े क्षेत्रों में मदर डेयरी आउटलेट ए.टी.एम. या पोस्ट आफिस की तर्ज पर राशन की दुकानें बनाई जायेंगी। इन दुकानों को वित्तीय दृष्टि से लाभप्रद बनाने के लिए रखने के लिए इन दुकानों पर अन्य उपभोक्ता सामानों को भी बेचने की अनुमति दी जायेगी। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कम्प्यूटराइज्ड किये बिना खाद्य सुरक्षा विधेयक 2013 का लाभ आम लोगों को प्राप्त नही हो सकेगा। इसलिए सरकार को इस दिशा में तत्काल सार्थक कार्यवाही करनी चाहिये।

Saturday, 14 September 2013

नाबालिग की आयु का पुनर्निधारण जरूरी...........


दिल्ली दुष्कर्म काण्ड मे नौ महीने बाद फैसला आ गया। अदालत ने चार दोषियों विनय, मुकेश, पवन और अक्षय को मृत्युदण्ड से दणिडत किया है। एक अभियुक्त राम सिंह ने जेल में खुदकशी कर ली। इस दुष्कर्म को जघन्य से जघन्यतम बनाने वाले मुख्य अधिभयुक्त को नाबालिग होने का लाभ मिला और उसे केवल तीन वर्ष की सजा सुनाकर सुधरने के लिए रिमाण्ड होम भेज दिया गया है। रिमाण्ड होम मे उसे टेलीविजन आदि कर्इ प्रकार की सुविधाओं को भोगने का सुख भी दिया जायेगा। 
आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम 2013 पारित होने के बाद देश की असिमता को हिला देने वाले इस दुष्कर्म के आरोपियो का विचारण दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 309 के तहत दो माह के अन्दर पूरा नही किया जा सका। इससे इस धारा की व्यवहारिकता पर सवाल उठना लाजिमी है। माना जाना चाहिये कि अभियुक्त को अपने बचाव के लिए समुचित अवसर उपलब्ध कराने की अनिवार्यता के कारण गम्भीर अपराधों में दो माह के अन्दर विचारण पूरा हो पाना सम्भव नही है। आज के विधि निर्माता जनमानस के दबाव में सस्ती लोक प्रियता के लिए कोर्इ भी कानून बना देते है। कानून बनाने के पहले उसके लागू हो पाने की जमीनी हकीकत पर विचार नही करते। अभी समय है कि धारा 309 के विभिन्न पहलुओं पर अधीनस्थ न्यायालयों के स्तर पर चर्चा की जाये और व्यवहारिक दिक्कतो का समाधान खोजकर अपेक्षित संशोधन किये जाये ताकि कानून केवल किताबों की शोभा न बना रहे। 
इस काण्ड ने किशोर न्याय (बालको की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम 2002 में नाबालिग की परिभाषा और उसकी आयु को लेकर भी सवाल उठाये है। मूल अधिनियम 1992 में 16 वर्ष से कम आयु वालो को नाबालिग माना गया था। संयुक्त राष्ट्र संघ के दिशा निर्देशो के तहत अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर 18 वर्ष तक की आयु वर्ग के लोगों को नाबालिग माना गया है। दिल्ली दुष्कर्म काण्ड में पीडि़ता के साथ जघन्य से जघन्यतम अत्याचार करने वाले को इस अधिनियम का लाभ देकर केवल तीन वर्ष की सजा से दणिडत किया गया है और उसके कारण सम्पूर्ण देश में आक्रोश है और घरों के स्तर पर इस अधिनियम में संशोधन की जरूरत महसूस की गर्इ है।
सबको पता है कि प्रायमरी स्कूलो में प्रवेश के समय प्राय: बच्चो की उम्र कम लिखार्इ जाती है। कानपुर के थाना फीलखाना थाना क्षेत्र के अन्दर फूलबाग में एक व्यकित को एक किलो चरस के साथ गिरफ्तार किया गया था। गिरफ्तारी के समय से सत्र न्यायालय के समक्ष आरोप फ्रेम किये जाने के समय तक आरोपी ने कभी किसी अवसर पर अपने आपको नाबालिग नही बताया। विचारण के दौरान उसने हार्इस्कूल की परीक्षा दी जिसमें उसने अपनी उम्र कम लिखार्इ और फिर किशोर होने का दावा प्रस्तुत करके अपना मुकदमा किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष भेजने के लिए आवेदन किया। अधिनियम के आदेशात्मक प्रावधानों के कारण उसका मुकदमा किशोर न्यायबोर्ड के समक्ष स्थानान्तरित किया गया। अपने देश में अदालतें हार्इ स्कूल के प्रमाणपत्र पर अंकित जन्म तिथि को आयु के निर्धारण के लिए सुसंगत साक्ष्य मानती है। विदेशों में किसी की भी जन्म तिथि मैनेज नही हो सकती और अपने देश में जन्म तिथि मैनेज होना आम बात है।
आज का वातावरण खान पान रहन सहन और साइबर साधनों ने बच्चो को छोटी उम्र में युवा बना दिया है। अब वे कक्षा 11-12 का विधार्थी होने के दौरान महज पन्द्रह सोलह वर्ष की आयु में सेक्स सम्बन्धो के प्रति जागरूक हो जाते है। उसके दुष्परिणामों का उन्हें ज्ञान हो जाता है। ऐसे बच्चों द्वारा अपराध कारित किये जाने की सिथति में उन्हें नाबालिग मानने का कोर्इ औचित्य नही है। उनके आचरण और कारित अपराध की प्रकृ ति को संज्ञान में लेकर उन्हें दणिडत किया जाना चाहिये। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकडे बताते है कि बालिगों की तुलना में नाबालिग महिलाओं के साथ ज्यादा अपराध करते है। वर्ष 2010 में 858 और वर्ष 2011 में 1149 बालात्कार नाबालिगों द्वारा किये गये है। इनके द्वारा किये जा रहे गम्भीर अपराधों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। शहरो मे राहजनी की अधिकांश घटनाओं में नाबालिगों की संलिप्तता जग जाहिर है। किशोर आरोपियों पर उनके माता पिता का नियन्त्रण समाप्त हो गया है। केवल कानून और जेल जाने का भय उन्हें अपराध करने से रोक सकता है। 
जघन्य अपराधों विशेषत: बालात्कार के मामलो में किशोर अपराधियो की बढ़ती संलिप्तता से विश्व के अनेक देश रूबरू है। अमेरिका और बिट्रेन जैसे देश इस समस्या से सबसे ज्यादा पीडि़त है और इसीलिए उन्होंने अपने कानून में संशोधन किया है। इन देशो में किशोर अपराधियों को बाल अदालतो के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है और वहां पर उनके रिहेविलेशन पर फोकश किया जाता है परन्तु दण्ड अधिरोपित करने का अधिकार उन्हें नही दिया गया है।
अमेरिका के अधिकांश राज्यों में 13 से 15 वर्ष की आयुवर्ग के किशोरों द्वारा किये गये जघन्य अपराधो का विचारण नियमित न्यायालय द्वारा किया जाता है। जघन्य अपराध के मामले अपने आप नियमित न्यायालय में स्थानान्तरित हो जाते है और वहां किशोर अपराधी को स्थानान्तरण के औचित्य के गुणदोष पर अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए अटार्नी की सेवायें उपलब्ध करार्इ जाती है। अभियोजन को भी स्थानान्तरण का औचित्य सिद्ध करने का अवसर दिया जाता है।
बिटे्रन में 10 से 18 वर्ष की आयुवर्ग के किशोरों द्वारा कारित साधारण अपराधों के विचारण के लिए ''यूथ कोर्ट का गठन किया गया है। इस कोर्ट में नियुकित के लिए मजिस्टे्रट को एक अलग प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस कोर्ट मे किशोर अपराधी को कम्यूनिटी सेन्टेन्स रिपारेशन आदेश डिटेन्शन आदि से दणिडत किया जाता है परन्तु हत्या या बालात्कार जैसे जघन्य अपराधों में विचारण क्राउन कोर्ट (अपने देश के सत्र न्यायालय) में स्थानान्तरित कर दिया जाता है और क्राउन कोर्ट अपराध की गम्भीरता और उसकी प्रकृ ति को दृषिटगत रखकर दोषी को दणिडत करती है। किशोर अपराधी को नाबालिग होने का कोर्इ लाभ नही दिया जाता। उसे बालिग अपराधी की ही तरह दणिडत किया जाता है। अमेरिका मे भी इसी तरह की व्यवस्था लागू है।
यू.एन. कन्वेन्शन और बीजिंग रूल्स जैसे अन्तराष्ट्रीय प्रतिबद्धतायें किशोर अपराधियो द्वारा कारित जघन्य अपराधों का विचारण नियमित न्यायालयों के समक्ष किया जाना प्रतिबनिधत नही करते। यू.एन. कन्वेन्शन की धारा 40 किशोर अपराधियों को उसके विरूद्ध लगाये गये आरोप की तत्काल जानकारी देने,  अपने बचाव की तैयारी के लिए विधिक सहायता उपलब्ध कराने, बिना कोर्इ बिलम्ब किये तत्काल विचारण शुरू करने, साक्षियो से प्रतिपरीक्षा के लिए समुचित अवसर देने, अपराध की संस्वीकृ ति के लिए मजबूर न करने और न्यायालय द्वारा दोषी बताये जाने तक उसे निर्दोष मानने के नियमों को लागू करने की अनिवार्यता अधिरोपित की है। अपने देश में पहले से ही सभी तरह के आरोपियो को इस तरह की सुविधाये उपलब्ध करार्इ जाती है और विचारण न्यायालय खुद अपनी निगरानी में इस प्रकार की सुविधाओ की उपलब्धता सुनिशिचत कराते है। अपने देश की परिसिथतियों के अनुकूल किशोर की आयु के निर्धारण का अधिकार भी सभी को प्राप्त है। 18 वर्ष से कम आयु के आरोपी का विचारण नियमित कोर्ट में करने से यू.एन. कन्वेन्शन में किसी को प्रतिबनिधत नही किया है। यह सोचना गलत है कि अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के कारण अपने देश में किशोर की परिभाषा और उसकी आयु का निर्धारण अपने स्तर पर नहीं किया जा सकता है। अपने देश काल और परिसिथतियों के अनुरूप हमें अपने कानूनों में संशोधन करने का पूरा अधिकार प्राप्त है परन्तु अपनी सरकार इस दिशा में अपने स्तर पर पहल करने के लिए तैयार नही है और उसके कारण जघन्य से जघन्यतम अपराध करने वाले दोषी अपने द्वारा कारित अपराध की तुलना में कम दण्ड पाने का लाभ प्राप्त कर रहे है। आंकड़े बताते है कि किशोर न्याय अधिनियम पारित होने के बाद किशोर अपराधियों द्वारा अपहरण और बालात्कार का अपराध कारित करने की घटनायें बढ़ी है।
बाल अधिकारों की रक्षा के लिए निर्मित बीजिंग रूल्स के तहत 18 वर्ष की आयुवर्ग के लोगों का नाबालिग मानने की बाध्यता नही है। उन्होंने केवल 7 वर्ष से 18 वर्ष के किशोरो के अधिकारो को मान्यता देने का नियम बनाया है। कोर्इ भी अन्तर्राष्ट्रीय संविदा या प्रतिबद्धता भारत को किशोर न्याय अधिनियम में संशोधन करने से नही रोकती है। 16 से 18 वर्ष की आयु वर्ग के किशोरो का विचारण नियमित कोर्ट में किये जाने के लिए अपेक्षित संशोधन किया ही जाना चाहिये।
18 वर्ष से ज्यादा आयु के दोषियो को रिमाण्ड होम मे रखना भी अपने आप में एक समस्या है। पहले जेलों में बच्चा बैरक हुआ करती थी जिसमें किशोर अपराधी रखे जाते थे। इन बैरको में बड़ी आयु के किशोरों द्वारा छोटी आयु के किशोरों के यौन उत्पीड़न की कर्इ घटनायें प्रकाश में आयी थी। सरकारी व्यवस्थायों में भ्रष्टाचार आम बात है इसलिए रिमाण्ड होम के द्वारा किसी बड़े सामाजिक बदलाव की अपेक्षा नही की जा सकती। अपने देश करीब 815 रिमाण्ड हाऊस है और उनमें नियुक्त अधिकारियों का आचरण और व्यवहार जेल अधिकारियों से भिन्न नही होता। इसलिए किशोर अपराधियों में सुधार और रिहेविलेशन में कर्इ प्रकार की व्यवहारिक दिक्कतें उत्पन्न होंगी जिससे बड़ी आयु के अपराधियों के सानिध्य में छोटी आयु के अपराधियों के और ज्यादा बिगड़ जाने की सम्भावना है। ऐसी दशा में 16 से 18 वर्ष आयु के आरोपियों का जघन्य अपराध के मामलों में किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष उनका विचारण करने और दोषी सिद्ध होने पर उन्हें रिमाण्ड होम में रखे जाने के लिए नये सिरे से विचार की आवश्यकता है।

Sunday, 8 September 2013

वित्तपोषित वाहनों पर एकीकृत विधि की जरूरत

        सर्वोच्च न्यायालय के स्पष्ट दिशा निर्देशों के बावजूद वित्तीय संस्थानों द्वारा वित्तपोषित वाहनों को रिपजेस करने की विधिपूर्ण कार्यवाही को सम्पूर्ण देश में थाना स्तरों पर अपराध माना जाता है और वाहन पर कर्ज लेने वाले आदतन बकायेदारों की फर्जी शिकायत पर आपराधिक धाराओं मे मुकदमा पंजीकृत करके वित्तीय संस्थानो के अधिकारियों को प्रताडि़त करना आम बात हो गयी है। 

         सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय खण्ड पीठ ने अनूप शरमाह बनाम भोलानाथ शर्मा एण्ड अदर्स (2013-1-जे.आई.सी. पेज 515-एस.सी.) में  ज्यूडिशियल मजिस्टेªट गौहाटी के द्वारा आपराधिक परिवाद संख्या 608 सन् 2009 में पारित आदेश की पुष्टि करते हुये उच्च न्यायालय के आदेश को अपास्त कर दिया है और प्रतिपादित किया है कि अनुबन्ध के तहत नियत तिथि पर देय कर्ज राशि अदा न करने की दशा में वित्तपोषित वाहन को रिपजेस करना अपराध की परिधि में नही आता। वित्त पोषित वाहन बाबत सम्पूर्ण कर्ज राशि अदा न होने तक परचेजर केवल उसका बेली होता है और उसे वाहन पर कोई मालिकाना अधिकार प्राप्त नही होता। स्वामित्व सम्बन्धी सभी अधिकार वित्तपोषक में निहित होते है। ऐसी दशा में अनुबन्ध के तहत देय किश्तो की अदायगी न होने की दशा में वित्तपोषित वाहन रिपजेस करने पर फाइनेन्सर के विरूद्ध आपराधिक कार्यवाही संस्थित नही की जा सकती है। इस निर्णय के पारित होने के काफी पहले वाहन रिपजेस करने पर फाइनेन्सर के विरूद्ध भारतीय दण्ड संहिता की धारा 395, 467, 468, 471, 120 बी सपठित धारा 34 के तहत पंजीकृत प्रथम सूचना रिपोर्ट को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा खारिज करने से इन्कार कर दिये जाने के बाद फाइनेन्सर द्वारा दाखिल विशेष अनुमति याचिका त्रिलोक सिंह एण्ड अदर्स बनाम सत्यदेव त्रिपाठी (ए.आई.आर.-1979-सुप्रीम कोर्ट- पेज-850) में सर्वोच्च न्यायालय ने आपराधिक धाराओं में मुकदमा पंजीकरण की कार्यवाही को विधिक प्रक्रिया का दुरूपयोग घोषित करके प्रथम सूचना रिपोर्ट निरस्त कर दी थी। 

         इसी प्रकार एक अन्य मामले के.ए. मथाई एलाइज बाबू एण्ड अदर्स बनाम कोरा बीबी कुट्टी एण्ड अदर्स (1996-7-सुप्रीम कोर्ट केसेज-पेज-212) में पुनः प्रतिपादित किया गया है कि हायर पर्चेज सिस्टम के तहत वित्तपोषित वाहनों को अनुबन्ध के तहत देय मासिक किश्ते अदा न किये जाने की दशा में फायनेन्सर को रिपजेस करने का विधिपूर्ण अधिकार प्राप्त है। चरणजीत सिंह चढ्ढ़ा बनाम सुधीर मेहरा (20017-7-एस.सी.सी.-पेज-417) में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने कई पूर्व निर्णयों का उल्लेख करते हुये हायर पर्चेज एग्रीमेन्ट की प्रकृति को विश्लेषित किया है। सर्वोच्च न्यायालय के विश्लेषण से स्पष्ट हो जाता है कि हायर पर्चेज सिस्टम के तहत निष्पादित संविदा एक विशेष प्रकार की संविदा होती है और संविदाजनित संव्यवहारों में उभयपक्षो को निर्धारित शर्तो का पालन करना आवश्यक होता है। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा था कि वाहन रिपजेस करते समय यदि कोई अपराध घटित हो जाता है तो उसे अपराध नही माना जायेगा क्योंकि रिपजेसन की कार्यवाही विधिपूर्ण कर्तव्यों के निर्वहन में की जाती है। इस स्पष्ट विश्लेषण के बावजूद थाने के स्तर पर दरोगा जी कुछ भी नही सुनते और अपनी लाठी के संविधान से सबको हाँकते है। 

         सर्वोच्च न्यायालय के उल्लिखित निर्णयों की प्रकृति आदेशात्मक है परन्तु सम्पूर्ण देश में थाना स्तरो पर पुलिस अधिकारी फाइनेन्सर द्वारा रिपजेशन की कार्यवाही करने पर डकैती जैसी गम्भीर धाराओं में मुकदमा पंजीकृत करना अपनी शान समझते है और जानबूझकर विधिक प्रक्रिया का दुरूपयोग करते है। पिछले दिनों रायबरेली जनपद में सत्तारूढ दल के एक नेता द्वारा कर्ज लेकर वाहन खरीदने के बाद एक भी पैसा अदा न करने की दशा मे वाहन रिपजेस करने की कार्यवाही के विरूद्ध थाना धधोकर में फाइनेन्सर के कर्मचारियों के विरूद्ध डकैती का मुकदमा पंजीकृत किया गया है। इसी प्रकार  एक अन्य आदतन डिफाल्टर की शिकायत पर जनपद कन्नौज में एक निजी बैंक के प्रबन्ध निदेशक के विरूद्ध आपराधिक धाराओं में मुकदमा पंजीकृत किया गया जबकि मुकदमा वादी से लेकर पुलिस अधीक्षक तक सभी जानते है कि पाँच लाख रूपये की वसूली हेतु ट्रक रिपजेस करने के समय मौके पर किसी बैंक के प्रबन्ध निदेशक के उपस्थित रहने का कोई सवाल ही नही उठता परन्तु उत्तर प्रदेश पुलिस के विद्वान विवेचक ने उनके विरूद्ध विचारण के लिए आरोपत्र दाखिल किया है। हलाँकि उच्च न्यायालय इलाहाबाद ने आरोपपत्र पर किसी भी प्रकार की कोई कार्यवाही करने के पर रोक लगा दी है।

         व्यवसायिक वाहनो पर कर्ज देने के बाद उसकी वसूली से प्रताडि़त होकर आज सार्वजनिक क्षेत्र के वित्तीय संस्थानों ने इस क्षेत्र से अपने हाथ खीच लिये है। व्यवसायिक वाहनों के फाइनेन्स में निजी वित्तीय संस्थान अग्रणी भूमिका मे है। उनका सराहनीय योगदान है जो देश की आर्थिक व्यवस्था के लिए रीड़ की हड्डी है। लाखो ड्राइवरों को ट्रक, टेक्सी खरीदने के लिए आवश्यक पूँजी उपलब्ध कराके फाइनेन्स कम्पनियों ने ड्राइवरों को अपने वाहन का खुद मालिक बनने का हौसला और सपने को हकीकत में बदलने का अवसर दिया है। इस प्रकार के मेहनतकश लोगों को वित्तीय संस्थानों से कभी कोई शिकायत नही होती और वे नियत अवधि के अन्दर ऋण राशि अदा करके एक दूसरा ट्रक खरीद लेते है। शिकायत सदैव राजनैनिक पृष्ठभूमि के लोगो को होती है जो तत्काल पूँजीपति बनने के लालच मे कर्ज लेकर ट्रक या बस खरीद लेते है और फिर अपेक्षित मेहनत न कर पाने के कारण फेल हो जाते है। फेल हो जाने पर वे ऋण अदा करने की स्थिति में नही रह जाते। इन स्थितियों में यदि फाइनेन्सर वित्तपोषित वाहन रिपजेस करता है तो वे अपने आपको अपमानित महसूस करते है और फिर बदले की भावना से स्थानीय राजनैतिक प्रभाव के बल पर वे पुलिस का सहारा लेते है। फर्जी कथानक गढ़कर रिपोर्ट दर्ज कराके फाइनेन्सर पर ऋण भूल जाने का अनुचित दबाव बनाते है। इन लोगों के कारण फाइनेन्स कम्पनियों का करोड़ो रूपया एन.पी.ए. में तब्दील हो गया है जिसके वसूल हो पाने की कोई सम्भावना नही है।

          सभी को मालुम है कि किसी भी वाहन को खरीदने के लिए कर्ज देने के पूर्व उभय पक्षो के मध्य रिजर्व बैंक आफ इण्डिया द्वारा अनुमोदित अनुबन्ध निष्पादित किया जाता है और उसमें नियत तिथि पर देय राशि अदा न करने की दशा में वाहन को रिपजेस करने का प्रावधान होता है। मोटर वाहन अधिनियम के तहत वित्तपोषित वाहन के पंजीयन प्रमाणपत्र में अनुबन्ध के निष्पादन की प्रविष्टि अंकित की जाती है। इस प्रावधान के तहत वाहन रिपजेस करने के वाद सम्बन्धित परिवहन अधिकारी से वाहन का फ्रेश पंजीयन प्रमाण पत्र लेना फाइनेन्सर के लिए आवश्यक होता है। फ्रेश पंजीयन प्रमाणपत्र जारी करने के पूर्व सम्बन्धित परिवहन अधिकारी के लिए पंजीकृत स्वामी को रजिस्टर्ड डाक से नोटिस भेजना और रिपजेसन की सम्पूर्ण प्रक्रिया के गुणदोष पर सुनवाई करना अधिनियम मे आवश्यक बनाया गया है अर्थात रिपजेशन कार्यवाही में किसी भी प्रकार की अनियमितता या अनुबन्ध का उल्लंघन पाये जाने की दशा मे फ्रेश पंजीयन प्रमाण पत्र जारी नही किया जा सकता। यह एक महत्वपूर्ण सुसंगत कारगर उपचार है परन्तु नोटिस तामील हो जाने के बावजूद परिवहन अधिकारी के समक्ष पंजीकृत स्वामी उपस्थित नही होता और येनकेन प्रकारेण फर्जी कथानक बनाकर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने और उसके द्वारा जेल भिजवा देने का भय दिखाकर बकाया राशि अदा किये बिना वाहन वापस लेने पर सारा जोर लगाता है। मोटर वाहन अधिनियम के तहत रिपजेशन की कार्यवाही पर थाना पुलिस को हस्तक्षेप करने के लिए अधिकृत नही किया गया है परन्तु डिफाल्टरो पर स्थानीय पुलिस की कृपा फाइनेन्स कम्पनियों के लिए कहर बनकर आती है और उन्हें गम्भीर अर्थदण्ड का शिकार बनाती है।

         सार्वजनिक वित्तीय संस्थानों से कर्ज लेकर उसे निश्चित अवधि में अदा न किये जाने के कारण बढ़ते नान परफार्मिंग एसेट से चिन्तित होकर त्वरित वसूली सुनिश्चित कराने के लिए केन्द्र सरकार ने वित्तीय संस्थानों की कठिनाइयों पर विचार के लिए अलग अलग अवसरों पर नरसिंघम और अनध्यारूजिना की अध्यक्षता में कमेटियों का गठन किया और दोनों कमेटियों ने अपनी अलग अलग रिपोर्टो में वसूली के प्रचलित तरीकों को अपर्याप्त बताया और कठोर प्रावधानों की वकालत की। इन कमेटियों के आधार पर केन्द्र सरकार ने सिक्यूरिटाइजेशन एण्ड रिकन्स्ट्रक्शन आफ फाइनेन्सियल एसेटस एण्ड इनफोर्समेन्ट आफ सिक्यूरिटी इन्टेरेस्ट एक्ट 2002 पारित किया है। इस अधिनियम के कठोर प्रावधानों पर सर्वोच्च न्यायालय ने भी मेसर्स मारडिया केमिकल्स लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया एण्ड अदर्स (ए.आई.आर-2004-सुप्रीमकोर्ट-पेज-2371) में पारित निर्णय के द्वारा अपनी मोहर लगाई है। इस अधिनियम के तहत कर्ज वसूली की कार्यवाही से सम्बन्धित विवादो को सुनने व निर्णीत करने का कोई क्षेत्राधिकार सिविल न्यायालय को नही दिया गया। सम्पूर्ण क्षेत्राधिकार कर्ज वसूली अधिकरणों में निहित किया गया है और इन कठोर प्रावधानों के कारण कर्ज वसूली में तेजी आई है और आदतन डिफाल्टर्स पर प्रभावी अंकुश लगा है।

          व्यवसायिक वाहनो के फाइनेन्स में अग्रणी भूमिका निभा रहे निजी क्षेत्र के वित्तीय संस्थानों के समक्ष भी कर्ज वसूली एक गम्भीर समस्या है। स्थानीय पुलिस के हस्तक्षेप के कारण वित्तपोषित वाहन को रिपजेस करना अब जी का जंजाल बन  गया है। किसी भी बैंकिग या नान बैंकिग संस्थान का अधिकारी जेल जाने के भय से वाहन रिपजेस करने में रूचि नही लेता। सभी जानते है कि सिविल न्यायालय के माध्यम से कर्ज वसूली में लम्बा समय लगता है और काफी धन व्यय होता है। रिजर्व बैंक आफ इण्डिया ने अपने स्तर पर दिशा निर्देश जारी किये है जो कारगर सिद्ध नही हो सके। कठिनाइयाँ ज्यों की त्यों बनी हुयी है।

            केन्द्र सरकार ने हायर पर्चेज एक्ट 1972 पारित करके समस्या के समाधान की दिशा में एक कारगर कदम उठाया था परन्तु न मालुम क्यों संसद से पारित हो जाने के बावजूद उसे लागू करने की अधिसूचना जारी नही की गयी और एन.डी.ए. शासनकाल में उसे निरसित भी कर दिया गया है जबकि  हायर पर्चेज सिस्टम के तहत वित्तपोषित वाहनो के क्षेत्र में कर्ज वसूली की समस्याऐं दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। एन.पी.ए. तेजी से बढ़ा है परन्तु उनके समाधान के लिए कोई एकीकृत विधि मौजूद नही है। वर्तमान कानून डिफाल्टर्स पर प्रभावी अंकुश के लिए पर्याप्त नही है। कर्ज वसूली अधिकरण जैसे उपचारों की यहाँ भी सख्त आवश्यकता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णयो और प्रतिपादित विधिक सिद्धान्तों को आधार बनाकर कोई केन्द्रीयकृत कानून बनाया जाना समय की माँग है।