Saturday, 14 September 2013

नाबालिग की आयु का पुनर्निधारण जरूरी...........


दिल्ली दुष्कर्म काण्ड मे नौ महीने बाद फैसला आ गया। अदालत ने चार दोषियों विनय, मुकेश, पवन और अक्षय को मृत्युदण्ड से दणिडत किया है। एक अभियुक्त राम सिंह ने जेल में खुदकशी कर ली। इस दुष्कर्म को जघन्य से जघन्यतम बनाने वाले मुख्य अधिभयुक्त को नाबालिग होने का लाभ मिला और उसे केवल तीन वर्ष की सजा सुनाकर सुधरने के लिए रिमाण्ड होम भेज दिया गया है। रिमाण्ड होम मे उसे टेलीविजन आदि कर्इ प्रकार की सुविधाओं को भोगने का सुख भी दिया जायेगा। 
आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम 2013 पारित होने के बाद देश की असिमता को हिला देने वाले इस दुष्कर्म के आरोपियो का विचारण दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 309 के तहत दो माह के अन्दर पूरा नही किया जा सका। इससे इस धारा की व्यवहारिकता पर सवाल उठना लाजिमी है। माना जाना चाहिये कि अभियुक्त को अपने बचाव के लिए समुचित अवसर उपलब्ध कराने की अनिवार्यता के कारण गम्भीर अपराधों में दो माह के अन्दर विचारण पूरा हो पाना सम्भव नही है। आज के विधि निर्माता जनमानस के दबाव में सस्ती लोक प्रियता के लिए कोर्इ भी कानून बना देते है। कानून बनाने के पहले उसके लागू हो पाने की जमीनी हकीकत पर विचार नही करते। अभी समय है कि धारा 309 के विभिन्न पहलुओं पर अधीनस्थ न्यायालयों के स्तर पर चर्चा की जाये और व्यवहारिक दिक्कतो का समाधान खोजकर अपेक्षित संशोधन किये जाये ताकि कानून केवल किताबों की शोभा न बना रहे। 
इस काण्ड ने किशोर न्याय (बालको की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम 2002 में नाबालिग की परिभाषा और उसकी आयु को लेकर भी सवाल उठाये है। मूल अधिनियम 1992 में 16 वर्ष से कम आयु वालो को नाबालिग माना गया था। संयुक्त राष्ट्र संघ के दिशा निर्देशो के तहत अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर 18 वर्ष तक की आयु वर्ग के लोगों को नाबालिग माना गया है। दिल्ली दुष्कर्म काण्ड में पीडि़ता के साथ जघन्य से जघन्यतम अत्याचार करने वाले को इस अधिनियम का लाभ देकर केवल तीन वर्ष की सजा से दणिडत किया गया है और उसके कारण सम्पूर्ण देश में आक्रोश है और घरों के स्तर पर इस अधिनियम में संशोधन की जरूरत महसूस की गर्इ है।
सबको पता है कि प्रायमरी स्कूलो में प्रवेश के समय प्राय: बच्चो की उम्र कम लिखार्इ जाती है। कानपुर के थाना फीलखाना थाना क्षेत्र के अन्दर फूलबाग में एक व्यकित को एक किलो चरस के साथ गिरफ्तार किया गया था। गिरफ्तारी के समय से सत्र न्यायालय के समक्ष आरोप फ्रेम किये जाने के समय तक आरोपी ने कभी किसी अवसर पर अपने आपको नाबालिग नही बताया। विचारण के दौरान उसने हार्इस्कूल की परीक्षा दी जिसमें उसने अपनी उम्र कम लिखार्इ और फिर किशोर होने का दावा प्रस्तुत करके अपना मुकदमा किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष भेजने के लिए आवेदन किया। अधिनियम के आदेशात्मक प्रावधानों के कारण उसका मुकदमा किशोर न्यायबोर्ड के समक्ष स्थानान्तरित किया गया। अपने देश में अदालतें हार्इ स्कूल के प्रमाणपत्र पर अंकित जन्म तिथि को आयु के निर्धारण के लिए सुसंगत साक्ष्य मानती है। विदेशों में किसी की भी जन्म तिथि मैनेज नही हो सकती और अपने देश में जन्म तिथि मैनेज होना आम बात है।
आज का वातावरण खान पान रहन सहन और साइबर साधनों ने बच्चो को छोटी उम्र में युवा बना दिया है। अब वे कक्षा 11-12 का विधार्थी होने के दौरान महज पन्द्रह सोलह वर्ष की आयु में सेक्स सम्बन्धो के प्रति जागरूक हो जाते है। उसके दुष्परिणामों का उन्हें ज्ञान हो जाता है। ऐसे बच्चों द्वारा अपराध कारित किये जाने की सिथति में उन्हें नाबालिग मानने का कोर्इ औचित्य नही है। उनके आचरण और कारित अपराध की प्रकृ ति को संज्ञान में लेकर उन्हें दणिडत किया जाना चाहिये। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकडे बताते है कि बालिगों की तुलना में नाबालिग महिलाओं के साथ ज्यादा अपराध करते है। वर्ष 2010 में 858 और वर्ष 2011 में 1149 बालात्कार नाबालिगों द्वारा किये गये है। इनके द्वारा किये जा रहे गम्भीर अपराधों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। शहरो मे राहजनी की अधिकांश घटनाओं में नाबालिगों की संलिप्तता जग जाहिर है। किशोर आरोपियों पर उनके माता पिता का नियन्त्रण समाप्त हो गया है। केवल कानून और जेल जाने का भय उन्हें अपराध करने से रोक सकता है। 
जघन्य अपराधों विशेषत: बालात्कार के मामलो में किशोर अपराधियो की बढ़ती संलिप्तता से विश्व के अनेक देश रूबरू है। अमेरिका और बिट्रेन जैसे देश इस समस्या से सबसे ज्यादा पीडि़त है और इसीलिए उन्होंने अपने कानून में संशोधन किया है। इन देशो में किशोर अपराधियों को बाल अदालतो के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है और वहां पर उनके रिहेविलेशन पर फोकश किया जाता है परन्तु दण्ड अधिरोपित करने का अधिकार उन्हें नही दिया गया है।
अमेरिका के अधिकांश राज्यों में 13 से 15 वर्ष की आयुवर्ग के किशोरों द्वारा किये गये जघन्य अपराधो का विचारण नियमित न्यायालय द्वारा किया जाता है। जघन्य अपराध के मामले अपने आप नियमित न्यायालय में स्थानान्तरित हो जाते है और वहां किशोर अपराधी को स्थानान्तरण के औचित्य के गुणदोष पर अपना पक्ष प्रस्तुत करने के लिए अटार्नी की सेवायें उपलब्ध करार्इ जाती है। अभियोजन को भी स्थानान्तरण का औचित्य सिद्ध करने का अवसर दिया जाता है।
बिटे्रन में 10 से 18 वर्ष की आयुवर्ग के किशोरों द्वारा कारित साधारण अपराधों के विचारण के लिए ''यूथ कोर्ट का गठन किया गया है। इस कोर्ट में नियुकित के लिए मजिस्टे्रट को एक अलग प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाता है। इस कोर्ट मे किशोर अपराधी को कम्यूनिटी सेन्टेन्स रिपारेशन आदेश डिटेन्शन आदि से दणिडत किया जाता है परन्तु हत्या या बालात्कार जैसे जघन्य अपराधों में विचारण क्राउन कोर्ट (अपने देश के सत्र न्यायालय) में स्थानान्तरित कर दिया जाता है और क्राउन कोर्ट अपराध की गम्भीरता और उसकी प्रकृ ति को दृषिटगत रखकर दोषी को दणिडत करती है। किशोर अपराधी को नाबालिग होने का कोर्इ लाभ नही दिया जाता। उसे बालिग अपराधी की ही तरह दणिडत किया जाता है। अमेरिका मे भी इसी तरह की व्यवस्था लागू है।
यू.एन. कन्वेन्शन और बीजिंग रूल्स जैसे अन्तराष्ट्रीय प्रतिबद्धतायें किशोर अपराधियो द्वारा कारित जघन्य अपराधों का विचारण नियमित न्यायालयों के समक्ष किया जाना प्रतिबनिधत नही करते। यू.एन. कन्वेन्शन की धारा 40 किशोर अपराधियों को उसके विरूद्ध लगाये गये आरोप की तत्काल जानकारी देने,  अपने बचाव की तैयारी के लिए विधिक सहायता उपलब्ध कराने, बिना कोर्इ बिलम्ब किये तत्काल विचारण शुरू करने, साक्षियो से प्रतिपरीक्षा के लिए समुचित अवसर देने, अपराध की संस्वीकृ ति के लिए मजबूर न करने और न्यायालय द्वारा दोषी बताये जाने तक उसे निर्दोष मानने के नियमों को लागू करने की अनिवार्यता अधिरोपित की है। अपने देश में पहले से ही सभी तरह के आरोपियो को इस तरह की सुविधाये उपलब्ध करार्इ जाती है और विचारण न्यायालय खुद अपनी निगरानी में इस प्रकार की सुविधाओ की उपलब्धता सुनिशिचत कराते है। अपने देश की परिसिथतियों के अनुकूल किशोर की आयु के निर्धारण का अधिकार भी सभी को प्राप्त है। 18 वर्ष से कम आयु के आरोपी का विचारण नियमित कोर्ट में करने से यू.एन. कन्वेन्शन में किसी को प्रतिबनिधत नही किया है। यह सोचना गलत है कि अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के कारण अपने देश में किशोर की परिभाषा और उसकी आयु का निर्धारण अपने स्तर पर नहीं किया जा सकता है। अपने देश काल और परिसिथतियों के अनुरूप हमें अपने कानूनों में संशोधन करने का पूरा अधिकार प्राप्त है परन्तु अपनी सरकार इस दिशा में अपने स्तर पर पहल करने के लिए तैयार नही है और उसके कारण जघन्य से जघन्यतम अपराध करने वाले दोषी अपने द्वारा कारित अपराध की तुलना में कम दण्ड पाने का लाभ प्राप्त कर रहे है। आंकड़े बताते है कि किशोर न्याय अधिनियम पारित होने के बाद किशोर अपराधियों द्वारा अपहरण और बालात्कार का अपराध कारित करने की घटनायें बढ़ी है।
बाल अधिकारों की रक्षा के लिए निर्मित बीजिंग रूल्स के तहत 18 वर्ष की आयुवर्ग के लोगों का नाबालिग मानने की बाध्यता नही है। उन्होंने केवल 7 वर्ष से 18 वर्ष के किशोरो के अधिकारो को मान्यता देने का नियम बनाया है। कोर्इ भी अन्तर्राष्ट्रीय संविदा या प्रतिबद्धता भारत को किशोर न्याय अधिनियम में संशोधन करने से नही रोकती है। 16 से 18 वर्ष की आयु वर्ग के किशोरो का विचारण नियमित कोर्ट में किये जाने के लिए अपेक्षित संशोधन किया ही जाना चाहिये।
18 वर्ष से ज्यादा आयु के दोषियो को रिमाण्ड होम मे रखना भी अपने आप में एक समस्या है। पहले जेलों में बच्चा बैरक हुआ करती थी जिसमें किशोर अपराधी रखे जाते थे। इन बैरको में बड़ी आयु के किशोरों द्वारा छोटी आयु के किशोरों के यौन उत्पीड़न की कर्इ घटनायें प्रकाश में आयी थी। सरकारी व्यवस्थायों में भ्रष्टाचार आम बात है इसलिए रिमाण्ड होम के द्वारा किसी बड़े सामाजिक बदलाव की अपेक्षा नही की जा सकती। अपने देश करीब 815 रिमाण्ड हाऊस है और उनमें नियुक्त अधिकारियों का आचरण और व्यवहार जेल अधिकारियों से भिन्न नही होता। इसलिए किशोर अपराधियों में सुधार और रिहेविलेशन में कर्इ प्रकार की व्यवहारिक दिक्कतें उत्पन्न होंगी जिससे बड़ी आयु के अपराधियों के सानिध्य में छोटी आयु के अपराधियों के और ज्यादा बिगड़ जाने की सम्भावना है। ऐसी दशा में 16 से 18 वर्ष आयु के आरोपियों का जघन्य अपराध के मामलों में किशोर न्याय बोर्ड के समक्ष उनका विचारण करने और दोषी सिद्ध होने पर उन्हें रिमाण्ड होम में रखे जाने के लिए नये सिरे से विचार की आवश्यकता है।

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