Sunday, 24 November 2013

लैगिक उत्पीड़न कानून से नही समाज के सहयोग से रूकेगा ..........

आदि संहिता मनुस्मृति से लेकर एकदम नये बने कानून कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम निषेध एवं निवारण) अधिनियम 2013 तक में महिलाओं के प्रति अपराध की तमाम सजाये लिखी है। आपराधिक विधि संधोधन अधिनियम 2013 के द्वारा भारतीय दण्ड संहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, लैगिक अपराधों से बालको का संरक्षण अधिनियम 2012 में संशोधन करके सजा के प्रावधानो को और ज्यादा कठोर बना दिया गया है। इस सबके बावजूद महानगरो से लेकर छोटे कस्बो तक महिलाओं के लैगिक उत्पीड़न मे कोई कमी नही आई है बल्कि कहा जा सकता है कि उत्पीड़न तेजी से बढ़ा है। कथित धर्माचार्य  आशाराम, तहलका के सम्पादक तरूण तेजपाल और सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति द्वारा कारित यौन उत्पीड़न की घटनाओं से प्रतीत होता है कि हम आज भी महिलाओं को द्वितीय श्रेणी का नागरिक मानते है और उनकी मेघा से ज्यादा उनके शरीर को महत्व देते है। महिलाओ के लिए महानगरो से लेकर ग्रामीण कस्बो तक कहीं भी काम करना खतरे से खाली नही है। कहा नही जा सकता कि कब कहाँ कौन से अंकल आशाराम, तरूण तेजपाल या जज साहब का घिनौना चेहरा लेकर बालात्कारी के रूप में सामने आ जाये और उसकी पूरी अस्मिता को धूलधूसरित कर दें। 
कार्यस्थलों पर महिलाओं के लैगिक उत्पीड़न को रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने विशाखा बनाम स्टेट आफ राजस्थान के मामले में आदेशात्मक दिशा निर्देश जारी किये थे, जिन्हें किसी राज्य सरकार ने अपने स्तर पर लागू करने की पहल नही की। इन दिशा निर्देशों के आधार पर कानून बनाने के लिए केन्द्र सरकार ने वर्ष 2007 में पहल की, प्रारूप घोषित किया जिसे वर्ष 2010 में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल से स्वीकृति प्राप्त हो सकी। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की अनुमति के बाद इसे लोक सभा में प्रस्तुत किया गया और फिर व्यापक विचार विमर्श के लिए संसदीय स्थायी समिति के समक्ष प्रेषित किया गया। समिति ने अपनी रिपोर्ट 30 नवम्बर 2011 को प्रस्तुत की। उसके बाद दिनांक 3 सितम्बर 2012 को लोक सभा और दिनांक 26 फरवरी 2013 को राज्य सभा ने इसे पास कर दिया। दिनांक 23 अप्रैल 2013 को शासकीय गजट में इसे प्रकाशित भी कर दिया गया है, परन्तु अधिनियम को लागू करने की अधिसूचना अभी जारी नही की गई है। अधिनियम विधि मन्त्रालय और महिला एवं बाल विकाश मन्त्रालय के बीच झूल रहा है जबकि इसे तत्काल लागू करने की जरूरत है। इस अधिनियम के लागू हो जाने के बाद दस या इससे ज्यादा कर्मचारियों वाले सभी प्रतिष्ठानों के लिए यौन उत्पीड़न की शिकायतों से निपटने के लिए आन्तरिक शिकायत निवारण समिति का गठन करना अनिवार्य हो जायेगा।
विशाखा गाइड लाइन और उसके आधार पर बने कानून महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम निषेध एवं निवारण) अधिनियम 2013 में कार्य स्थल को परिभाषित किया गया है। सार्वजनिक या निजी क्षेत्र के सभी प्रतिष्ठानों, संघटित या असंघटित क्षेत्र, अस्पताल नर्सिग होम, शैक्षिक संस्थान, खेल संस्थान, स्टेडियम, स्पोर्टस काम्प्लेक्स आदि को कार्य स्थल की परिधि में लाया गया है और सभी प्रकार के प्रतिष्ठानों के लिए लैगिक उत्पीड़न से निपटने के लिए आन्तरिक शिकायत निवारण समितियो का गठन आवश्यक बना दिया गया है। समिति को नब्बे दिन के अन्दर जाँच पूरी करके अपनी रिपोर्ट डिस्ट्रिक आफीसर के समक्ष प्रस्तुत करना होगा। डिस्ट्रिक आफिसर रिपोर्ट पाने के साठ दिन के अन्दर कार्यवाही सुनिश्चित करायेंगे। डिस्ट्रिक आफीसर को प्रत्येक जनपद और ब्लाक स्तर पर शिकायत निवारण समिति का गठन करना होगा। शिकायत कमेटी को साक्ष्य संकलित करने के लिए सिविल न्यायालय की शक्तियाँ प्रदान की गयी है। शिकायतकर्ता के अनुरोध पर कन्सिलियेशन का भी सहारा लिया जा सकता है। अधिनियम में व्यवस्था है कि यदि कोई सेवायोजक शिकायत निवारण समिति का गठन नही करेगा या अधिनियम का उल्लंघन करेगा तो उसके विरूद्ध पचास हजार रूपये तक का दण्ड अधिरोपित किया जायेगा और यदि इस आशय का अपराध दोबारा हुआ तो पचास हजार रूपये से ज्यादा का अर्थ दण्ड और व्यापार करने का लायसेन्स भी निरस्त किया जा सकता है। दोषी कर्मचारी को विधि के तहत अन्य सजाओं के अतिरिक्त तीन वर्ष तक की सजा से दण्डित किया जायेगा। लैगिक उत्पीड़न की सूचना सम्बन्धित अधिकारियों को उपलब्ध कराना सेवायोजको का दायित्व है।
पिछले दिनों घटित सभी घटनाये कार्यस्थलो से सम्बन्धित है, परन्तु यौन उत्पीड़न (रोकथाम निषेध एवं निवारण ) अधिनियम लागू न होने के कारण इस अधिनियम के तहत किसी के विरूद्ध कार्यवाही नही हो सकेगी। सेवानिवृत्त न्यायाधीश के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने खुद जाँच समिति गठित कर दी है परन्तु तरूण तेजपाल के मामले में तहलका की प्रबन्ध निदेशक शोभा चैधरी का बयान एवं आचरण घोर आपत्ति जनक है। अभी कुछ दिन पहले वे ज्यादा बोलने के कारण इसी प्रकार के एक मामले में फँसे सी.बी.आई. के डाइरेक्टर को पद से हटा देने की बात कर रही थी परन्तु अपने सम्पादक के मामले में दूसरा मापदण्ड अपनाकर एक महिला के नाते उन्होने स्वयं को अपमानित किया है। अपनी ही बेटी की सहेली के साथ यौन उत्पीड़न की घटना को तहलका का अन्दरूनी मामला बताने का दुस्साहस करके उन्होंने समाज को उस युग की याद दिलाई है जब राजा महाराजाओं और सामन्तो के यहाँ काम करने वाली महिला यौन उत्पीडन और अपने साथ हुये बालात्कार की घटनाओं को किसी से भी न कहने के लिए अभिशप्त थी। उनकी आर्थिक सामाजिक मजबूरियाँ उन्हें शिकायत करने से रोकती थी। अब युग बदला है। आज आमघरो की लड़कियाँ भी समाज के हर क्षेत्र में अपनी शिक्षा, कुशलता, ईमानदारी और परिश्रम के बल पर सफलता के झण्ड़े गाड रही रही है और उनके साथ मनमानी करने की छूट किसी को भी नही है। यह सच है कि सरमायदारों के पास बेईमानी से  अर्जित अकूल सम्पत्ति है, रोजगार देने की ताकत है, परन्तु सभी को याद रखना चाहिये कि मीडिया घरानों या व्यवसायिक प्रतिष्ठानों की सफलता उसके कर्मचारियों की ईमानदारी और परिश्रम पर निर्भर है इसलिए उन्हें अपनी सामन्ती प्रवृत्तियो और दाता बनने की श्रेष्ठता को त्यागना होगा। सेवायोजक के नाते उन्हें अधिकार है कि वे सामने खड़ी लड़की को अपनी बहिन या बेटी माने या न माने परन्तु उसे अपनी प्रेमिका या अपनी लैगिक फंतासियो का खिलौना मानने का उन्हें कोई अधिकार प्राप्त नही है। 
संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित विधि भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर सभी पर आबद्धकर होती है और उसके अनुसार विशाखा एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ राजस्थान में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय का अनुपालन सुनिश्चित कराना सभी सरकारो अधिकारियों और प्राधिकारियों की पदीय प्रतिबद्धता है। केन्द्र सरकार के प्रतिष्ठानों में लैगिक उत्पीड़न से निपटने के लिए समितियाँ बनाई गई है, जो निष्प्रभावी है। राज्य सरकारो के किसी कार्यालय, सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय, बार काउन्सिल और मेडिकल काउन्सिल जैसी प्रमुख संस्थानों में लैगिक उत्पीड़न से निपटने के लिए विशाखा गाइड लाइन के आधार पर कोई आन्तरिक व्यवस्था नही की गई है।
कार्यस्थलों पर महिलाओं के प्रति चर्चा का स्तर सदैव घटिया होता है। शिकायत करने की स्थिति में दोषी की तुलना में महिला को ज्यादा अपमान का शिकार होना पड़ता है और उसे उस दण्ड की सजा दी जाती है, जो उसने कभी किया ही नही होता इसलिए महिलायें प्रायः शिकायत नही करती और उसके कारण उनकी खामोसी का गलत अर्थ लगाया जाता है और उसे उनके विरूद्ध उनकी चरित्र हत्या के लिए प्रयोग किया जाता है। समाज की आन्तरिक संरचना में गहरी जड़े जमाये महिला विरोधी संस्कार और सामने वाली महिला को कुत्सित नजरों से देखने की आम प्रवृत्ति के कारण लैगिक उत्पीड़न को कठोर कानूनो से खत्म नही किया जा सकता। इसको खत्म करने के लिए समाज के हर व्यक्ति और संस्था को स्वयं पहल करके आगे आना होगा और अपनी फैक्ट्री कार्यालय या मोहल्ले में इस प्रकार की घटनाओं की रोकथाम सुनिश्चित करानी होगी।

Sunday, 17 November 2013

सपना ही लगता है एफ.आई.आर. का अनिवार्य पंजीयन.........

कानून व्यवस्था के प्रश्न पर सत्तारूढ़ नेताओं मे पूर्ववर्ती सरकारों से बेहतर दिखने की होड़ के कारण विश्वास नही होता कि थानो पर सर्वोच्च न्यायालय की पाँच सदस्यीय खण्डपीठ द्वारा दिनांक 12 नवम्बर 2013 को पारित निर्णय का अनुपालन किया जायेगा और अब कोई पुलिसकर्मी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने से इन्कार का साहस नही करेगा। अपराधों के पंजीयन से सम्बन्धित दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 की प्रकृति शुरूआत से ही आदेशात्मक रही है और उसकी उपधारा (3) में प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति जो किसी थाने के भारसाधक अधिकारी के उपधारा (1) में निर्दिष्ट सूचना को अभिलिखित करने से इन्कार करने से व्यथित है, ऐसी सूचना का सार लिखित रूप में और डाक द्वारा सम्बद्ध पुलिस अधीक्षक को भेज सकता है जो, यदि उनका यह समाधान हो जाता कि ऐसी सूचना से किसी संज्ञेय अपराध का किया जाना प्रकट होता है तो या तो स्वयं मामले का अन्वेषण करेगा या अपने अधीनस्थ किसी पुलिस अधिकारी को विवेचना करने का निर्देश देगा। सम्पूर्ण देश में मजिस्टेªट के न्यायालयों के समक्ष प्रथम सूचना रिपार्ट दर्ज कराने के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के तहत दाखिल प्रार्थना पत्रों की बढ़ती संख्या से स्पष्ट होता है कि थाना स्तरों पर या पुलिस अधीक्षक के स्तर पर संज्ञेय अपराधों के कारित होने की सूचना पाने के बावजूद प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज नही की जाती।
सर्वोच्च न्यायालय की पाँच सदस्यीय खण्ड पीठ ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 154 का मंतव्य स्पष्ट करते हुये सबको जता दिया है कि संज्ञेय अपराध की सूचना प्राप्त होते ही उसे दर्ज करना थाना प्रभारी के लिए आवश्यक है। प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने से इन्कार करना उसकी पदीय प्रतिबद्धता के प्रतिकूल है। हालिया निर्णय के तहत रिपोर्ट दर्ज करने से इन्कार करने वाले पुलिस कर्मियों को दण्डित करने का भी सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है। इस निर्णय के पूर्व विभिन्न उच्च न्यायालयों ने इस आशय के निर्णय पारित किये थे, परन्तु थाना स्तरो पर कभी उनका पालन नही किया गया और सदैव रिपोर्ट लिखने में आना कानी की गई है। थानों पर पुलिस कर्मियों की अपनी कार्यशैली है। मनमानी करना उनकी आदत और आम लोगों को उत्पीडि़त करना उनका शौक है। इसे कैसे नियन्त्रित किया जाये इस दिशा में सरकार के स्तर पर कभी कोई पहल नही की गई और न अपनी पदीय प्रतिबद्धताओं के प्रतिकूल कार्य करने वाले पुलिस कर्मियों को कभी दण्डित किया जाता है। थाना हरवंश मोहाल कानपुर में एक कम्प्यूटर व्यवसायी की शिकायत पर सम्बन्धित मजिस्ट्रेट के आदेश पर प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत की गई। रिपोर्ट में फर्जी कागजात बनाने और उनके फर्जी होने की जानकारी के बावजूद सही कागज के रूप में उन्हें प्रयोग करने का अपराध प्रश्नगत था। चूँकि दरोगा जी पहले रिपोर्ट लिखने से इन्कार कर चुके थे इसलिए उन्होंने फर्जी कागजातों को अभिरक्षा में लिये बिना कुछ वर्ष पूर्व स्वर्ग सिधार गये लोगो के बयान लिखकर मामला खत्म कर दिया और मुकदमा वादी के विरूद्ध फर्जी रिपोर्ट लिखाने का अभियोग संस्थित करने की अनुशंशा कर दी। स्थानीय समाचार पत्रों में प्रमुखता से यह समाचार प्रकाशित हुआ परन्तु सम्बन्धित विवेचक के विरूद्ध आज तक काई कार्यवाही नही की गई है और वह आज भी उसी थाने में बैठकर पूरी व्यवस्था को ठेंगा दिखा रहा है।
दण्ड प्रक्रिया संहिता में प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत किये बिना विवेचना करने का कोई प्रावधान नही है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया फैसले में वैवाहिक विवादों, व्यवसायिक अपराधो और चिकित्सकीय लापरवाही जैसे मसलो पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के पूर्व प्रारम्भिक जाँच करने की छूट दी है परन्तु इस प्रकार की जाँच को एक सप्ताह के अन्दर पूरा करने और उसके परिणामों से वादी को अवगत कराने का भी निर्देश जारी किया है। अन्य सभी मामलों में संज्ञेय अपराध की सूचना प्राप्त होते ही प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत करना अनिवार्य बना दिया है। संज्ञेय अपराध के मामलों में प्रारम्भिक जाँच की अनुमति नही है। निर्णय में कहा गया है कि रिपोर्ट दर्ज करते समय सूचना की सत्यता या असत्यता को जानना महत्वपूर्ण नही है। सूचना सही है या गलत? उस पर विश्वास किया जा सकता है या नही? इन सबकी जाँच रिपोर्ट पंजीकृत करने के बाद विवेचना के दौरान साक्ष्य संकलित करते समय की जायेगी। विधि में व्यवस्था है कि यदि विवेचना के दौरान शिकायत असत्य पायी जाये तो शिकायतकर्ता के विरूद्ध झूठी प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत कराने का मुकदमा चलाया जा सकता है, परन्तु पहले से ही पीडि़त को झूठा मानकर प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत करने से इन्कार नही किया जा सकता।
कानपुर में पिछले दिनों कुछ लोगों द्वारा किय गये स्टिंग आपरेशन की सी.डी. को आधार बनाकर ज्येष्ठ पुलिस अधीक्षक के निर्देश पर कई डाक्टरों, नर्सिग होमो और पासपोर्ट विभाग के अधिकारियों के विरूद्ध सी.डी. की सत्यता परखे बिना प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत की गई है और कथित अभियुक्तों की गिरफ्तारी भी की गई है। इन मामलों में प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत किये जाने के पूर्व पुलिस के स्तर पर स्टिंग आपरेशन करने वालों की पृष्ठभूमि एवं उनके आशय को जानने का कोई प्रयास नही किया गया जबकि दूसरी ओर निजी क्षेत्र की एक बैंक के साथ विदेशी मुद्रा में किये गये संव्यवहार में पचास लाख रूपये की धोखाधड़ी के द्वारा किये गये अपराध की रिपोर्ट दर्ज नही की गई और फिर न्यायालय के आदेश से प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत करने के बाद उसमें फाइनल रिपोर्ट लगा दी गई। पुलिस ने यह जानने का प्रयास नही किया कि बैंक के समक्ष फर्जी विदेशी मुद्रा प्रस्तुत करने वाले लोगों के पास मुद्रा कहाँ से आई ? और जब मुद्रा आई और बैंक के खाते से 50 लाख रूपये निकल भी गये, तब मुद्रा प्रस्तुत करने वाले लोग निर्दोष कैसे हो गये ?
अपने थाना क्षेत्र में कारित अपराधों को छिपाना थानाध्यक्षों की मजबूरी भी है। थानाध्यक्षों की कुशलता का आकलन अपराधों को नियन्त्रित रखने के लिए उनके द्वारा किये गये प्रयासो के आधार पर नही किया जाता बल्कि दर्ज मुकदमों की संख्या के आधार पर किया जाता है। अब विवेचक अपराध के कारणो को जानने विवेचना मे वैज्ञानिक तरीको को अपनाने या परिस्थितिजन्य साक्ष्य एकत्र मे महारथ हासिल करने का प्रयास नही करता। उसका पूरा ध्यान अपने क्षेत्र के आर्थिक अपराधियों को ज्यादा से ज्यादा संरक्षण देने और उससे होने वाली कमाई पर केन्द्रित रहता है। कमाऊ थानों की पोस्टिंग के लिए उसे भारी रकम चुकानी पड़ती है। प्रत्येक अपराध की सूचना दर्ज करने से उनकी कमाई कुप्रभावित हो जाती है। थानों पर रिपोर्ट दर्ज न करने का यह भी एक बड़ा कारण है। केन्द्र सरकार ने आन लाइन प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने के लिए पहल की थी। इस पर व्यय के लिए समुचित धनराशि भी निर्मुक्त की गई है, परन्तु राज्य सरकारों की अरूचि के कारण आम लोगो को राहत पहुँचाने वाली यह योजना क्रियान्वयन के पहले ही दम तोड़ चुकी है।
प्रथम सूचना रिपोर्ट के अनिवार्य पंजीयन से आपराधिक न्याय प्रशासन में पारदर्शिता का मार्ग प्रशस्त होगा और इससे आम लोगों की न्याय तक पहुँच सुगम हो जाती है। सभी मानते है कि थाने में रिपोर्ट दर्ज नही हो सकती इसीलिए प्रायः स्थानीय दबंग सीधे साधे सम्भ्रान्त व्यक्तियों को आतंकित करने मे सफल हो जाते है। प्रापर्टी डीलिंग का बढ़ता कारोबार और जबरन मकान खाली कराने की बढ़ती घटनायें प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकृत न करने का प्रतिफल है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में बताया गया है कि प्रतिवर्ष लगभग साठ लाख मुकदमें पंजीकृत नही किये जाते है। रिपोर्ट दर्ज न करने से कानून व्यवस्था के प्रति आम लोगो का विश्वास घटता है। अपराध की विवेचना और अपराधियों को दण्डित कराना राज्य की जिम्मेदारी है और इसके निर्वहन के लिए थानों में अपराध की सूचना पंजीकृत करना पहला कदम है। प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करने से आम पीडि़तो के मौलिक अधिकारों का हनन होता है।
आपराधिक विधि संशोधन अधिनियम 2013 में भी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने की अनिवार्यता का प्रावधान है। पुलिसकर्मी अपनी शक्तियों के प्रति सचेष्ट और अपनी पदीय प्रतिबद्धताओ के प्रति सदैव उदासीन रहते है। राज्य सरकारे अपने राजनैतिक स्वार्थ पूर्ति के लिए प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज न करने के लिए उन्हें प्रोत्साहित करती है। सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले का क्रियान्वयन राज्य सरकरो के रवैये पर निर्भर है। राज्य सरकारों को खुद पहल करके दर्ज मुकदमो की संख्या पर पूर्ववर्ती सरकारों से अपना तुलनात्मक आकलन बन्द करना होगा और अघोषित आदेशों को वापस लेकर थानों पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने की अनिवार्यता लागू करनी होगी। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के तहत प्रार्थनापत्र प्रस्तुत होने की दशा में सम्बन्धित थानाध्यक्ष के आचरण की अनिवार्य जाँच कराके दोषी पाये जाने पर उनके विरूद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही सुनिश्चित कराये बिना प्रथम सूचना रिपोर्ट का पंजीयन सपना ही बना रहेगा। 

Saturday, 9 November 2013

आर्थिक परिस्थितियों पर हो जमानत राशि का निर्धारण...........


कोई माने या न माने लेकिन गरीबी रेखा के स्तर पर जीवन यापन करने वाले लोगों के बीच रहने वाले सभी लोग जानते है कि आर्थिक विपन्नता के कारण अदालत द्वारा निर्धारित जमानत राशि के जमानतगीरो का बन्दोबस्त न कर पाने से अनेको विचाराधीन बन्दी कारागार में निरूद्ध रहने को अभिशप्त है। अमेरिका सहित विश्व के अनेक देश इस समस्या से रूबरू हुये है। अमेरिकी राष्ट्रपति लिन्डन बी जानसन ने अपने देश के लिए बेल रिफार्मस एक्ट 1966 पर हस्ताक्षर करने के अवसर पर धनराशि आधारित जमानत की प्रचलित व्यवस्था को गरीब विरोधी बताया था। इस व्यवस्था के तहत जमानत खरीदनी पड़ती है। गरीब आदमी अपनी गरीबी के कारण जमानत के लिए अपेक्षित कीमत अदा नही कर पाता और उसके कारण उसे विचारण प्रारम्भ होने के पहले सप्ताहों, महीनों और कई बार वर्षों जेल में रहना पड़ता है। राष्ट्रपति जानसन ने कहा था कि विचाराधीन बन्दी दोषी होने के कारण जेल में नही होते, उनके विरूद्ध अदालत में कोई दण्डादेश पारित नही किया, विचारण के समय उनके फरार होने की कोई सम्भावना नही है वह केवल और केवल गरीब होने के कारण जेल में है। वास्तव में यदि हम आपराधिक न्याय प्रशासन में सभी के साथ एक समान न्यायसंगत व्यवहार करना चाहते है तो हमे बेल सिस्टम में आधारभूत परिवर्तन करने होंगे ताकि अमीरों की तरह गरीब आदमी भी विचारण प्रारम्भ होने के पूर्व बिना किसी कठिनाई के अपनी रिहाई के लिए जमानतगीरो का बन्दोबस्त कर सकें।

         अपने देश में भी सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री आर.एस. पाठक ने केन्द्र सरकार को प्रतिभू सहित या रहित बन्धपत्रों के बिना केवल व्यक्तिगत बन्ध पत्र के आधार पर जमानत देने के लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता में अपेक्षित संशोधन करने की सलाह दी थी। उन्होंने भी माना था कि बड़ी संख्या में विचाराधीन बन्दी विचारण के समय अपनी उपस्थिति सुनिश्चित रखने का विश्वास दिलाने के लिए अधीनस्थ न्यायालयों की संतुष्टि के लिए निर्धारित की जाने वाली फाइनेन्सियल गारण्टी का बन्दोबस्त न कर पाने के कारण कारागार में निरूद्ध है। दण्ड प्रक्रिया संहिता में इस आशय का कोई प्रावधान न होने के कारण अदालते चाहकर भी किसी को प्रतिभू सहित बन्धपत्रों के बिना केवल उसके व्यक्तिगत बन्धपत्र के आधार पर जमानत नही दे सकती। अपने देश में सभी  को समान रूप से सामाजिक न्याय और समानता का संवैधानिक अधिकार प्राप्त है। केवल आर्थिक विपन्नता के कारण किसी को भी उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता से वंचित रखना स्पष्ट रूप से भेदभाव की परिधि में आता है। केवल गरीबी के कारण अपेक्षित धनराशि के जमानतगीरो का प्रबन्ध न कर पाने वाले विचाराधीन बन्दियों की स्वतन्त्रता के अधिकार की रक्षा के लिए सुस्पष्ट विधि की जरूरत है।

       सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय मोतीराम बनाम स्टेट आफ मध्य प्रदेश (ए.आई.आर.-1978-एस.सी.-पेज 1549) में धनराशि आधारित जमानत के प्रचलित सिद्धान्त को गरीबो के प्रतिकूल बताया था। न्यायमूर्ति श्री वी.आर. कृष्णा अय्यर ने अभियुक्त की आर्थिक पृष्ठभूमि को दृष्टिगत रखे बिना जमानत राशि के निर्धारण को संविधान के प्रतिकूल घोषित किया है। मोती लाल एक साधारण व्यक्ति था और किसी मामले में गिरफ्तार के बाद जमानत पर उसकी रिहाई के लिए मुख्य न्यायिक मजिस्टेªट ने दस हजार रूपये की दो श्योरिटीज और इतनी ही राशि के एक व्यक्तिगत बन्धपत्र प्रस्तुत करने का आदेश पारित किया। मोतीराम इस राशि की श्योरिटीज का प्रबन्ध नही कर सका। मामला सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत हुआ। न्यायमूर्ति श्री अय्यर ने उसकी आर्थिक पृष्ठभूमि को दृष्टिगत रखकर जमानत राशि घटाकर एक हजार रूपये कर दी। इसी प्रकार एक अन्य मामले में विचारण न्यायालय ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 के तहत गिरफ्तार एस.डी. मदान को तीन करोड़ रूपये की दो श्योरिटीज और इसी राशि का एक बन्धपत्र जमानत के लिए प्रस्तुत करने हेतु आदेशित किया। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने जमानत के लिए निर्धारित इस राशि को जमानत से इन्कार करने के समान बताया।

       न्यायमूर्ति श्री पी.एन. भगवती ने भी हुसैन आरा खातून बनाम स्टेट आफ बिहार (1979-ए0आई0आर0-एस0सी0 - पेज 1369) में प्रतिपादित किया था कि धनराशि आधारित श्योरिटीज की व्यवस्था के कारण गरीबो के साथ अन्याय होता है। आर्थिक कारणो से अपने स्तर पर श्योरिटीज का बन्दोबस्त न कर पाने के कारण अभियुक्त या उसके परिजन पेशेवर जमानतगीरो का सहारा लेने को विवश होते है और कई बार कर्ज लेकर अपनी रिहाई का मार्ग प्रशस्त करते है। इस सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी स्पष्ट दिशा निर्देशो के बावजूद केन्द्र सरकार ने अपने स्तर पर कोई सकारात्मक पहल नही की है और उसके कारण जमानत स्वीकृत हो जाने के बावजूद अभियुक्त जेल से बाहर नही आ पाता और विचारण प्रारम्भ होने की प्रतीक्षा में कई बार उसे विधि में निर्धारित सजा से ज्यादा अवधि का कारावास झेलना पड़ता है।

          विचारण के समय अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित कराना धनराशि आधारित जमानत का प्रमुख उद्देश्य है। माना जाता है कि जमानत राशि जब्त हो जाने के भय से जमानत पर रिहा हो जाने के बाद अभियुक्त विचारण के समय फरार नही होगा। जमानत के मूल उद्देश्य को ध्यान में रखकर अमेरिका आदि कई देशों में धनराशि आधारित जमानत की व्यवस्था में सुधार किये गये है। इन देशों मे मानेटरी श्योरिटीज प्रस्तुत करने का आदेश पारित करने के पूर्व अन्य तरीको पर विचार किया जाता है और यदि मामले की परिस्थितियों और उसकी प्रकृति के अनुरूप अन्य साधारण तरीकों से अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित हो सकती है तो मानेटरी श्योरिटीज प्रस्तुत करने के लिए नही कहा जाता है। विचारण न्यायालय अपनी संतुष्टि के लिए अभियुक्त की पृष्टभूमि की जाँच कराते है और यदि अपने समाज में अभियुक्त की गहरी पहचान है और उसके फरार होने की सम्भावना नही है तो अभियुक्त को उसकी अपनी जमानत (रिकगनिजैन्स) पर रिहा कर दिया जाता है। न्यायमूर्ति श्री कृष्णा अय्यर ने भी मोतीराम के मामले में पारित अपने निर्णय के द्वारा अधीनस्थ न्यायालयों को सलाह दी है कि आपराधिक विधि में धनराशि आधारित जमानत महत्वपूर्ण तत्व नही है। सामाजिक न्याय के इस युग में अब मानेटरी बेल का सिद्धान्त निष्प्रयोज्य हो चुका है और अनुभव बताता है कि इससे व्यक्ति और समाज दोनों को नुकसान हो रहा है।

        न्यायमूर्ति श्री अय्यर मानते है कि विचारण के समय उपस्थिति की गारण्टी समाज में कानून की पकड़ और आम जनता में उसके विश्वास में निहित है। धनराशि आधारित जमानत उपस्थिति की गारण्टी नही है। आदतन अपराधी किसी भी राशि की जमानत का प्रबन्ध कर लेते है और उन्ही के फरार होने की ज्यादा सम्भावना होती है। ऐसे अपराधियों के जमानतगीर बाद में खोजने पर भी नही मिलते। सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार दो लाख तीन लाख रूपये की श्योरिटीज प्रस्तुत किये जाने के आदेशों को निरस्त किया है। जमानत राशि को कम कराने के लिए गरीब आदमी के लिए उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल कर पाना सम्भव नही है इसलिए गरीब विचाराधीन बन्दियो से धनराशि आधारित श्योरिटीज के स्थान पर उनकी आर्थिक सामाजिक पृष्ठभूमि को दृष्टिगत रखकर उन्हें जमानत पर रिहा करने के लिए अन्य तरीको पर विचार करना होगा। अन्य तरीको के लिए समाज में अभियुक्त की पहचान, उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, प्रतिष्ठित सामाजिक संघटनों में उसकी सहभागिता और पूर्व में उसका सामाजिक आचरण विचार के लिए सुसंगत आधार हो सकते है। निश्चित मानिये कि इन आधारो पर जमानत देने की स्थिति में अभियुक्तो के फरार होने की सम्भावना बिल्कुल नही है। आम आदमी अपने समाज परिवार और सामाजिक परिवेश से पलायन करने की हिम्मत नही जुटा सकता और समाज में रहकर हर प्रकार के परिणामों को अपना भाग्य मानकर झेलने के लिए सदा तैयार रहता है।

         गुजरात उच्च न्यायालय के तत्कालीन चीफ जस्टिस श्री पी.एन. भगवती की अध्यक्षता में गठित लीगत एड कमेटी ने धनराशि आधारित जमानत के विभिन्न पहलुओं पर विचार किया है। गुजरात कमेटी के नाम से चर्चित इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में जमानत की प्रचलित व्यवस्था को असन्तोषजनक बताया और उसमें मूलभूत परिवर्तन का सुझाव दिया है। आर्थिक क्षति के भय से अभियुक्त के फरार न होने की मान्यता प्रमाणिक नही है। विचारण के समय अभियुक्त की अनुपस्थिति या फरार हो जाने के कई कारण है, परन्तु किसी भी दशा में आर्थिक क्षति महत्वपूर्ण कारण नही है। मानेटरी बेल के अतिरिक्त अन्य तरीको से भी विचारण के समय अभियुक्त की उपस्थिति सुनिश्चित करायी जा सकती है। समिति ने माना है कि प्रचलित बेल सिस्टम में गरीब आदमी अपनी गरीबी के कारण जमानत नही दे पाता, जबकि उसी स्थिति में अमीर लोग अपनी जमानत का प्रबन्ध कर लेते है और रिहा हो जाते है। इस प्रकार आम आदमी के साथ उनकी गरीबी के कारण भेदभाव होता है। इस भेदभाव को समाप्त करने के लिए आवश्यक है कि अधीनस्थ न्यायालय जमानत राशि निर्धारित करते समय अभियुक्त की आर्थिक सामाजिक और पारिवारिक पृष्ठभूमि को भी सुसंगत आधार बनाये ताकि गरीबी के कारण किसी को भी अपनी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के संवैधानिक अधिकार से वंचित न होना पड़े।

Sunday, 3 November 2013

प्रशासन में राजनैतिक दखल, नौकरशाह खुद जिम्मेदार


सर्वोच्च न्यायालय के न्यायामूर्ति श्री के0 एस0 राधाकृष्णन एवं श्री पी0 सी0 घोष की खण्डपीठ ने आई0ए0एस0, आई0पी0एस0, आदि प्रशासनिक अधिकारियों के मनमाने तबादलों पर रोक और उन्हें एक पद पर निश्चित कार्यकाल देने का आदेश जारी करके नौकरशाहों को राजनैतिक आकाओं की गुलामी से मुक्त होने का एक अवसर दिया है। पिछले 25-30 वर्षों में नौकरशाहों ने निहित स्वार्थवश अपने स्वाभिमान से समझौता करके खुद राजनेताओं की गुलामी का मार्ग चुना है। राजनेताओं के मौखिक आदेशों, सुझावों और प्रस्तावों को लागू कराने की निजी प्रतिबद्धता के कारण ही प्रदीप शुक्ला और बन्जारा जैसे वरिष्ठ अधिकारी आज जेल की हवा खा रहे हैं और उनके राजनैतिक आकाओं ने उनसे अपनी दूरी बना ली है।
अपने देश में अधिकांश नौकरशाह एरोगेन्ट हैं। उनका आम लोगों और देश की ज़मीनी हकीकत से कोई वास्ता नही है। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे आम लोगों की समस्याओं पर संवेदनशील रवैया अपनाकर सुरक्षा और विकास का माहौल बनायेंगे ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हो सकें। सबसे ज्यादा वेतन और भरपूर सुविधायें पाने के बावजूद किसी पद विशेष पर तैनाती के लिये निहित स्वार्थी तत्वों के साथ सांठ-गांठ करना उनकी आदत में शुमार है। जाति-धर्म और राजनैतिक आधार पर उनके बीच गुटबाजी तेजी से बढ़ी है। नौकरशाहों में राजनैतिक तटस्थता एकदम विलुप्त हो गयी है। हर नौकरशाह किसी न किसी राजनेता का समर्थक, अनुयायी और प्रशंसक है। इसीलिये सत्ता-परिवर्तन के साथ नौकरशाहों का बड़े पैमाने पर तबादला होता है। एक जाति विशेष के लोगों को हटाकर दूसरी जाति विशेष के लोगों को तैनात करना एक सामान्य प्रशासनिक कार्यवाही है।
सेवानिवृत्त अधिकारियों, कैबिनेट सचिव श्री टी0एस0आर0 सुब्रमणियम, पूर्व सी0बी0आई0 निदेशक श्री जोगिन्दर सिंह, पूर्व चुनाव आयुक्त श्री टी0एस0 कृष्णमूर्ति, श्री एन0 गोपालस्वामी, अमेरिका में भारत के राजदूत रहे श्री आबिद हुसैन, पूर्व राज्यपाल श्री वेद प्रकाश मरवाह आदि ने हरियाणा के श्री अशोक खेमका और उत्तर प्रदेश में श्रीमती दुर्गा नागपाल के प्रति राज्य सरकारों के दुर्भावनापूर्ण व्यवहार से व्यथित होकर सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष जनहित याचिका दाखिल की हैं, परन्तु इन सभी अधिकारियों ने अपने सेवाकाल के दौरान अधीनस्थ अधिकारियों को राजनेताओं के चंगुल में फँसने से रोकने का कभी कोई प्रयास नही किया है। उत्तर प्रदेश में आई0ए0एस0 एसोसियेशन ने कुछ वर्ष पूर्व अपने बीच के भ्रष्ट अधिकारियों को चिन्हित करने के लिये मतदान कराया था। अधिकारी चिन्हित भी किये गये परन्तु, मायावती के मुख्यमन्त्रित्व काल में पूरी एसोसियेशन ने मौनव्रत लेकर मायावती को मनमानी करने की पूरी छूट दे रखी थी।
आई0ए0एस0 के लिये साक्षात्कार के दौरान एक अभ्यर्थी से पूँछा गया कि यदि आप मुख्य सचिव होते और मुख्यमन्त्री राज्यनिधि से अपने राजनैतिक ऐजेण्डे की पूर्ति के लिये धनराशि व्यय करना चाहते तो आप क्या करते? अभ्यर्थी ने उत्तर दिया कि मैं उन्हें नियमों का सहारा लेकर रोकता, फिर भी वे न मानते तो ? प्रश्न के उत्तर में अभ्यर्थी द्वारा कहे जाने पर कि वह उन्हें उनके अनुसार कार्य करने देता, की बात सुनकर साक्षात्कार बोर्ड ने उसके नम्बर कम कर दिये। इस अभ्यर्थी का उदाहरण देकर बताना चाहता हूँ कि उच्च पदस्थ अधिकारी अपने अधीनस्थों से हर हालत में ईमानदार रहने और आदर्श स्थापित करने की अपेक्षा करते हैं परन्तु व्यावहारिक स्तर पर खुद राजनेताओं की चाटुकारिता का कोई अवसर गँवाना नही चाहते हैं। वरिष्ठ आई0ए0एस0 अधिकारी श्री अनिल सागर ने कानपुर नगर में जिलाधिकारी रहने के दौरान जिला शासकीय अधिवक्ता (दीवानी) की मृत्यु के तत्काल बाद न्यायालय के कार्यो के लिये तदर्थ व्यवस्था के तहत व्यापक विचार-विमर्श करके अपने स्तर पर एक अधिवक्ता को कार्यभार सौंप दिया परन्तु स्थानीय मन्त्री जी के दबाव में तीसरे ही दिन अपना आदेश निरस्त कर दिया और फिर मन्त्री जी की संतुष्टि के लिये दीवानी विधि से सर्वथा अपरिचित व्यक्ति की नियुक्ति की जिसकी अकुशलता के कारण राज्य सरकार को गम्भीर क्षति का शिकार होना पड़ा।
नौकरशाहों ने खुद अपने-अपने कारणों से दिन प्रतिदिन की प्रशासनिक व्यवस्था में राजनैतिक दखल को आमंत्रित किया है। केन्द्रीय मन्त्री श्री जयराम रमेश ने एकदम सही कहा है कि सेवानिवृत्ति के बाद ही अधिकारियों को ज्ञान प्राप्त होता है। सेवाकाल के दौरान इनकी आत्मा कुम्भकरणीय नींद में सोई रहती है। केन्द्र सरकार ने सन् 2004 में श्री पी0सी0होता की अध्यक्षता में सिविल सर्विस रिफार्मस कमेटी का गठन किया था। इससे पूर्व सुरेन्द्र नाथ कमेटी और श्री बी0एन0 युगन्धर कमेटी का भी गठन किया गया है। सभी कमेटियों ने अपनी-अपनी रिपोर्टे केन्द्र सरकार को दी हैं परन्तु उनपर किसी प्रकार की कार्यवाही का कोई अता-पता नही है। जनहित याचिका दाखिल करने वाले वरिष्ठ नौकरशाहों ने अपने सेवाकाल के दौरान प्रशासनिक सुधार आयोगों की किसी रिपोर्ट को लागू कराने की कभी कोई पहल नही की है जबकि वे सब के सब नीतिनिर्धारक पदों पर तैनात रहे हैं और चाहते तो प्रशासनिक सुधार का मार्ग प्रशस्त कर सकते थे।
अपने देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में मन्त्री और अधिकारी एक सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों पूरी व्यवस्था के कस्टोडियन हैं। संविधान में दोनों की सीमाओं, अधिकारों और दायित्वों का स्पष्ट निर्धारण किया गया है। संविधान अपेक्षा करता है कि दोनो एक-दूसरे के क्षेत्राधिकार का सम्मान करेंगे। अधिकारियों को मानना चाहिये कि नीतिनिर्धारण जनप्रतिनिधियों के अधिकार क्षेत्र का विषय है और नीतियों का समयबद्ध क्रियान्वयन सुनिश्चित कराना उनकी पदीय प्रतिबद्धता है। संसदीय लोकतन्त्र में ईमानदार, निर्भीक, स्वतंत्र और पारदर्शी अधिकारियों की ज़रूरत है। नीतिनिर्धारण की प्रक्रिया के दौरान अधिकारियों के निष्पक्ष विचारों/सुझावों का महत्वपूर्ण योगदान होता है; परन्तु रोज-रोज के मनमाने तबादलों के कारण नीतिनिर्धारण में ईमानदार अधिकारियों के अनुभव का लाभ शासन को नही मिलता और चाटुकार अधिकारियों के प्रभाव में व्यापक विचार विमर्श हुये बिना नीतियाँ बन जाती हैं जो क्रियान्वयन के समय अप्रासंगिक सिद्ध होती हैं और उससे सार्वजनिक हित कुप्रभावित होते हैं और सार्वजनिक व्यवस्थाओं के प्रति आम जनता का विश्वास टूटता है।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने हालिया फैसलों में व्यवस्था दी है कि केन्द्र और राज्य सरकारें नौकरशाहों के लिये निश्चित कार्यकाल की तैनाती सुनिश्चित करायें और उनकी पदोन्नति और तबादलों के लिये एक स्वतन्त्र निकाय का गठन करें। राजनैतिक हलकों में इस फैसले को क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण बताया जा रहा है। केन्द्रीय मन्त्री श्री जयराम रमेश ने सार्वजनिक रूप से आलोचना करते हुये कहा है कि अदालतों को अफसरों एवं सरकार का काम अपने हांथ में नही लेना चाहिये। केन्द्रीय मन्त्री की आलोचना अपनी जगह है पर देश का आम आदमी सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण नही मानता। केन्द्र सरकार ने खुद अपने द्वारा प्रशासनिक सुधारों के लिये गठित आयोगों की अनुशंसाओं को फाइलों में कैद कर रखा है। राजनैतिक नेतृत्व, प्रशासनिक सुधार के लिये आयोगों की संस्तुतियों को लागू करने में असफल रहा है। ऐसी दशा में सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प भी नही है। जनान्दोलन एक सशक्त विकल्प हो सकता है, परन्तु आज की सरकारें अब उनका सम्मान नही करती हैं।
दिनांक 24 मई 1997 को राज्यों के मुख्यमन्त्रियों ने एक सम्मेलन के दौरान स्वीकार किया था कि रोज-रोज के तबादलों से ईमानदार अधिकारियों का मनोबल गिरता है और उसका कुप्रभाव पड़ता है। महाराष्ट्र सरकार ने वर्ष 2003 में अखिल भारतीय सेवा के अपने कैडर के अधिकारियों के लिये एक पद पर तीन वर्ष का कार्यकाल निर्धारित किया था जो आज तक लागू नही हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने हालिया फैसले के पूर्व प्रकाश सिंह बनाम यूनियन आफ इण्डिया के मामले में पुलिस व्यवस्था में सुधार के लिये दिशा-निर्देश जारी किये थे परन्तु सात बिन्दुओं वाले दिशा-निर्देशों को लागू करने के प्रति केन्द्र और राज्य सरकारों की अरूचि एक समान है। जनपद स्तर पर वरिष्ठ अधिकारी खुद भी अपने मातहतों को एक पद पर निश्चित कार्यकाल देने के लिये तैयार नही हैं। थाना प्रभारियों का आये दिन तबादला पुलिस अधीक्षकों का प्रिय शगल है। ऐसी दशा में अब सर्वोच्च न्यायालय को ही सुनिश्चित करना होगा कि उसके द्वारा जारी दिशा-निर्देशों में कोई अड़ंगा न लगा पाये उनके आदेशों के अनुरूप सुशासन का मार्ग प्रशस्त हो।