आदि संहिता मनुस्मृति से लेकर एकदम नये बने कानून कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम निषेध एवं निवारण) अधिनियम 2013 तक में महिलाओं के प्रति अपराध की तमाम सजाये लिखी है। आपराधिक विधि संधोधन अधिनियम 2013 के द्वारा भारतीय दण्ड संहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, लैगिक अपराधों से बालको का संरक्षण अधिनियम 2012 में संशोधन करके सजा के प्रावधानो को और ज्यादा कठोर बना दिया गया है। इस सबके बावजूद महानगरो से लेकर छोटे कस्बो तक महिलाओं के लैगिक उत्पीड़न मे कोई कमी नही आई है बल्कि कहा जा सकता है कि उत्पीड़न तेजी से बढ़ा है। कथित धर्माचार्य आशाराम, तहलका के सम्पादक तरूण तेजपाल और सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति द्वारा कारित यौन उत्पीड़न की घटनाओं से प्रतीत होता है कि हम आज भी महिलाओं को द्वितीय श्रेणी का नागरिक मानते है और उनकी मेघा से ज्यादा उनके शरीर को महत्व देते है। महिलाओ के लिए महानगरो से लेकर ग्रामीण कस्बो तक कहीं भी काम करना खतरे से खाली नही है। कहा नही जा सकता कि कब कहाँ कौन से अंकल आशाराम, तरूण तेजपाल या जज साहब का घिनौना चेहरा लेकर बालात्कारी के रूप में सामने आ जाये और उसकी पूरी अस्मिता को धूलधूसरित कर दें।
कार्यस्थलों पर महिलाओं के लैगिक उत्पीड़न को रोकने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने विशाखा बनाम स्टेट आफ राजस्थान के मामले में आदेशात्मक दिशा निर्देश जारी किये थे, जिन्हें किसी राज्य सरकार ने अपने स्तर पर लागू करने की पहल नही की। इन दिशा निर्देशों के आधार पर कानून बनाने के लिए केन्द्र सरकार ने वर्ष 2007 में पहल की, प्रारूप घोषित किया जिसे वर्ष 2010 में केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल से स्वीकृति प्राप्त हो सकी। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल की अनुमति के बाद इसे लोक सभा में प्रस्तुत किया गया और फिर व्यापक विचार विमर्श के लिए संसदीय स्थायी समिति के समक्ष प्रेषित किया गया। समिति ने अपनी रिपोर्ट 30 नवम्बर 2011 को प्रस्तुत की। उसके बाद दिनांक 3 सितम्बर 2012 को लोक सभा और दिनांक 26 फरवरी 2013 को राज्य सभा ने इसे पास कर दिया। दिनांक 23 अप्रैल 2013 को शासकीय गजट में इसे प्रकाशित भी कर दिया गया है, परन्तु अधिनियम को लागू करने की अधिसूचना अभी जारी नही की गई है। अधिनियम विधि मन्त्रालय और महिला एवं बाल विकाश मन्त्रालय के बीच झूल रहा है जबकि इसे तत्काल लागू करने की जरूरत है। इस अधिनियम के लागू हो जाने के बाद दस या इससे ज्यादा कर्मचारियों वाले सभी प्रतिष्ठानों के लिए यौन उत्पीड़न की शिकायतों से निपटने के लिए आन्तरिक शिकायत निवारण समिति का गठन करना अनिवार्य हो जायेगा।
विशाखा गाइड लाइन और उसके आधार पर बने कानून महिलाओं का यौन उत्पीड़न (रोकथाम निषेध एवं निवारण) अधिनियम 2013 में कार्य स्थल को परिभाषित किया गया है। सार्वजनिक या निजी क्षेत्र के सभी प्रतिष्ठानों, संघटित या असंघटित क्षेत्र, अस्पताल नर्सिग होम, शैक्षिक संस्थान, खेल संस्थान, स्टेडियम, स्पोर्टस काम्प्लेक्स आदि को कार्य स्थल की परिधि में लाया गया है और सभी प्रकार के प्रतिष्ठानों के लिए लैगिक उत्पीड़न से निपटने के लिए आन्तरिक शिकायत निवारण समितियो का गठन आवश्यक बना दिया गया है। समिति को नब्बे दिन के अन्दर जाँच पूरी करके अपनी रिपोर्ट डिस्ट्रिक आफीसर के समक्ष प्रस्तुत करना होगा। डिस्ट्रिक आफिसर रिपोर्ट पाने के साठ दिन के अन्दर कार्यवाही सुनिश्चित करायेंगे। डिस्ट्रिक आफीसर को प्रत्येक जनपद और ब्लाक स्तर पर शिकायत निवारण समिति का गठन करना होगा। शिकायत कमेटी को साक्ष्य संकलित करने के लिए सिविल न्यायालय की शक्तियाँ प्रदान की गयी है। शिकायतकर्ता के अनुरोध पर कन्सिलियेशन का भी सहारा लिया जा सकता है। अधिनियम में व्यवस्था है कि यदि कोई सेवायोजक शिकायत निवारण समिति का गठन नही करेगा या अधिनियम का उल्लंघन करेगा तो उसके विरूद्ध पचास हजार रूपये तक का दण्ड अधिरोपित किया जायेगा और यदि इस आशय का अपराध दोबारा हुआ तो पचास हजार रूपये से ज्यादा का अर्थ दण्ड और व्यापार करने का लायसेन्स भी निरस्त किया जा सकता है। दोषी कर्मचारी को विधि के तहत अन्य सजाओं के अतिरिक्त तीन वर्ष तक की सजा से दण्डित किया जायेगा। लैगिक उत्पीड़न की सूचना सम्बन्धित अधिकारियों को उपलब्ध कराना सेवायोजको का दायित्व है।
पिछले दिनों घटित सभी घटनाये कार्यस्थलो से सम्बन्धित है, परन्तु यौन उत्पीड़न (रोकथाम निषेध एवं निवारण ) अधिनियम लागू न होने के कारण इस अधिनियम के तहत किसी के विरूद्ध कार्यवाही नही हो सकेगी। सेवानिवृत्त न्यायाधीश के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने खुद जाँच समिति गठित कर दी है परन्तु तरूण तेजपाल के मामले में तहलका की प्रबन्ध निदेशक शोभा चैधरी का बयान एवं आचरण घोर आपत्ति जनक है। अभी कुछ दिन पहले वे ज्यादा बोलने के कारण इसी प्रकार के एक मामले में फँसे सी.बी.आई. के डाइरेक्टर को पद से हटा देने की बात कर रही थी परन्तु अपने सम्पादक के मामले में दूसरा मापदण्ड अपनाकर एक महिला के नाते उन्होने स्वयं को अपमानित किया है। अपनी ही बेटी की सहेली के साथ यौन उत्पीड़न की घटना को तहलका का अन्दरूनी मामला बताने का दुस्साहस करके उन्होंने समाज को उस युग की याद दिलाई है जब राजा महाराजाओं और सामन्तो के यहाँ काम करने वाली महिला यौन उत्पीडन और अपने साथ हुये बालात्कार की घटनाओं को किसी से भी न कहने के लिए अभिशप्त थी। उनकी आर्थिक सामाजिक मजबूरियाँ उन्हें शिकायत करने से रोकती थी। अब युग बदला है। आज आमघरो की लड़कियाँ भी समाज के हर क्षेत्र में अपनी शिक्षा, कुशलता, ईमानदारी और परिश्रम के बल पर सफलता के झण्ड़े गाड रही रही है और उनके साथ मनमानी करने की छूट किसी को भी नही है। यह सच है कि सरमायदारों के पास बेईमानी से अर्जित अकूल सम्पत्ति है, रोजगार देने की ताकत है, परन्तु सभी को याद रखना चाहिये कि मीडिया घरानों या व्यवसायिक प्रतिष्ठानों की सफलता उसके कर्मचारियों की ईमानदारी और परिश्रम पर निर्भर है इसलिए उन्हें अपनी सामन्ती प्रवृत्तियो और दाता बनने की श्रेष्ठता को त्यागना होगा। सेवायोजक के नाते उन्हें अधिकार है कि वे सामने खड़ी लड़की को अपनी बहिन या बेटी माने या न माने परन्तु उसे अपनी प्रेमिका या अपनी लैगिक फंतासियो का खिलौना मानने का उन्हें कोई अधिकार प्राप्त नही है।
संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित विधि भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर सभी पर आबद्धकर होती है और उसके अनुसार विशाखा एण्ड अदर्स बनाम स्टेट आफ राजस्थान में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय का अनुपालन सुनिश्चित कराना सभी सरकारो अधिकारियों और प्राधिकारियों की पदीय प्रतिबद्धता है। केन्द्र सरकार के प्रतिष्ठानों में लैगिक उत्पीड़न से निपटने के लिए समितियाँ बनाई गई है, जो निष्प्रभावी है। राज्य सरकारो के किसी कार्यालय, सर्वोच्च न्यायालय उच्च न्यायालय, बार काउन्सिल और मेडिकल काउन्सिल जैसी प्रमुख संस्थानों में लैगिक उत्पीड़न से निपटने के लिए विशाखा गाइड लाइन के आधार पर कोई आन्तरिक व्यवस्था नही की गई है।
कार्यस्थलों पर महिलाओं के प्रति चर्चा का स्तर सदैव घटिया होता है। शिकायत करने की स्थिति में दोषी की तुलना में महिला को ज्यादा अपमान का शिकार होना पड़ता है और उसे उस दण्ड की सजा दी जाती है, जो उसने कभी किया ही नही होता इसलिए महिलायें प्रायः शिकायत नही करती और उसके कारण उनकी खामोसी का गलत अर्थ लगाया जाता है और उसे उनके विरूद्ध उनकी चरित्र हत्या के लिए प्रयोग किया जाता है। समाज की आन्तरिक संरचना में गहरी जड़े जमाये महिला विरोधी संस्कार और सामने वाली महिला को कुत्सित नजरों से देखने की आम प्रवृत्ति के कारण लैगिक उत्पीड़न को कठोर कानूनो से खत्म नही किया जा सकता। इसको खत्म करने के लिए समाज के हर व्यक्ति और संस्था को स्वयं पहल करके आगे आना होगा और अपनी फैक्ट्री कार्यालय या मोहल्ले में इस प्रकार की घटनाओं की रोकथाम सुनिश्चित करानी होगी।