Sunday, 25 January 2015

मिडियेशन को चाहिये कार्यवाही के अधिकार

पिछले दिनों मिडियेशन सेन्टर केे समक्ष कानपुर निवासी इन्जिनियर दम्पत्ति तलाक  के प्रपत्रों पर हस्ताक्षर करने के पूर्व रोते दिखाई दिये। उस क्षण दोनो अलग हो रहे अपने जीवन साथी के साथ गुजरे पलों की मधुर स्म्रतियों में खो कर भावुक हो गये थे। हलाॅकि उनमें तलाक हो गया है और अब दोनों अपने अपने तरीके से अपना जीवन जीने के लिये स्वतंन्त्र हो गये है। तलाक के समय दोनो की आॅखो में बरबस रोके गये आॅसुओं ने वहां उपस्थित सभी को हतप्रभ किया। लग रहा था कि इन दोनों के बीच गलतफहमियों के कारण उत्पन्न संवादहीनता को यदि शुरूआत में ही किसी निकटतम सम्बन्धी ने सदभावपूर्ण हस्तक्षेप करके रोक दिया होता, बातचीत सामान्य हो जाती तो निश्चित रूप से तलाक बचाया जा सकता था। आज माता पिता खुद अपने किशोर से युवा हो रहे बच्चों के साथ नियमित संवाद के लिये समय नही निकाल पाते। बच्चों के साथ उनकी दोस्ती नही हो पाती इसलिये बच्चे खुलकर अपनी भावनात्मक जरूरते उनसे साझा नही करते। इस माहौल में पले बढे बच्चे अपने दाम्पत्य जीवन की दिन प्रतिदिन की उलझनों को अपने निकटतम सम्बन्धियो से छिपाते है। उलझनो का समाधान स्वंय खोजते है और इसी कारण पति पत्नी के बीच साधारण मन मुटाव की स्थिति में भी माता पिता या अन्य किसी निकटतम सम्बन्धी को वे अपने बीच सामान्जस्य बिठाने की पहल करने का अवसर नही देते और फिर सामन्जस्य बिठाने की चाहत के बावजूद “पहले पहल कौन करे” की कश्मकश के बीच अपने अपने अहं मे चाहते हुये भी दोनो आपस के मनमुटाव या गलतफहमियों को खुद दूर नही कर पाते और तलाक उनके दरवाजे पर दस्तक देने लगता है।

तलाक की बढती घटनाओं के लिये युवा दम्पत्तियों के साथ उनके माता पिता या अन्य निकटतम सम्बन्धियो की निरन्तर संवादहीनता एक बडा कारण है। इस सामाजिक कमी को दूर करने और परस्पर बातचीत के द्वारा आपसी सौहार्द और आत्मीयता बनाने, बढाने के लिये मिडियेशन सेन्टर का गठन किया गया है। वैवाहिक विवादो पर कोई अन्तिम निर्णय लेने के पूर्व दम्पत्तियों को सुलह समझौते के लिये मिडियेशन सेन्टर के समक्ष भेजे जाने का नियम कडाई से लागू है।  आपराधिक धाराओं में मुकदमे पंजीकृत करने के लिये दी गई अर्जियों पर भी अब थाना स्तर पर कोई कार्यवाही किये जाने के पूर्व मामलो को पारस्परिक बातचीत के लिये मिडियेशन सेन्टर भेजा जाने लगा है परन्तु कोई विधिपूर्ण शक्ति न होने के कारण विवादो को सुलझाने मे मिडियेशन सेन्टर की भूमिका निर्णायक नही हो पा रही है। मिडियेशन किसी सकारात्मक परिणाम तक पहॅुचने के लिये नही बल्कि केवल औपचारिकता के लिये किया और कराया जाने लगा है। एक कम्पनी सेकेट्री पत्नी की शिकायत पर उसके चार्टड एकाउन्टेन्ट पति पर आपराधिक धाराओ में मुकदमा पंजीकृत हो जाने के बाद पति के अनुरोध पर मामला मिडियेशन सेन्टर के समक्ष संदर्भित किया गया। पति को आपाधिक धाराओं में अपनी गिरफ्तारी का भय था इसलिये उसने पुलिस स्टेशन पर बातचीत के द्वारा मामला सुलझ जाने की आशा जताई। सुनवाई के दौरान पति ने पत्नी और अपनी तीन वर्षीय बेटी को अपने साथ ले जाने की इच्छा जताई। पत्नी तैयार हो गयी। लेेकिन कभी किराये पर घर न मिल पाने और कभी कोई दूसरा बहाना बताकर पति पत्नी को अपने साथ नही ले गया। पति का आचरण शुरूआत से ही आपत्तिजनक था। पत्नी के लिये अपमानजनक भी। पति के द्वारा जानबूझ कर असहयोग किये जाने के कारण मिडियेशन असफल हुआ परन्तु भविष्य में न्यायालय के समक्ष चलने वाली किसी  कार्यवाही में पति के इस आचरण पर उसके विरूद्ध किसी कार्यवाही का प्रावधान न होने के कारण लोग मिडियेशन सेन्टर को गम्भीरता से नही लेते और उसकी कार्यवाही को भी लम्बित बनाये रखने का प्रयास करते है।

24 वर्षीय बेटी के चिकित्सक पिता ने पुत्र पैदा न होने के कारण अपनी पत्नी से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया है। पत्नी और अपनी बेटियो को भरण पोषण के लिये भगवान भरोसे छोड दिया है। न्यायालय ने खुद विवाद को सुलझाने के लिये मिडियेशन सेन्टर के समक्ष भेज दिया है। मिडियेशन सेन्टर द्वारा कई बार सूचना भेजे जाने के बावजूद पति उपस्थित नही हो रहा है। पत्नी प्रत्येक तिथि पर समझौते की आस में उपस्थित रहती है और निराश होकर वापस चली जाती है। उसके सामने दोनो बेटियो के विवाह और खुद अपने जीवन यापन की चिन्ता है लेकिन इस साझी चिन्ता के प्रति पति एकदम उदासीन है। इस मामले मे चिकित्सक पति का आचरण शुरूआत से ही आपराधिक है और पत्नी के लिये क्रूरता की परिधि में आता है। मिडियेशन सेन्टर में मिडियेटर खुद पति के आचरण से संतुष्ट नही है परन्तु शक्ति विहीन होने के कारण मिडियेटर पति को अपने दाम्पत्य कर्तव्यो का पालन करने के लिये विवश नही कर सकते। केवल रिपोर्ट भेज सकेगें कि मिडियेशन सफल नही हुआ। इसी प्रकार एक इन्जीनियर पत्नी भी आपसी सुलह समझौतेे के लिये मिडियेशन सेन्टर में अपने पति का इन्तजार करती रहती है। डाक्टर पति को मिडियेटर ने स्वंय उसके मोबाइल पर उससे बातचीत की। उसकी सहमति से अगली तिथि नियत की परन्तु अगली तिथि पर भी डाक्टर नही आया। इन दोनो के दाम्पत्य साहचर्य से एक बेटे का जन्म भी हो गया है और पति अपनी पत्नी और बेटे के भरण पोषण की कोई चिन्ता नही करता। पत्नी अकेले बेटे को पाल रही है और अकेले पन का शिकार है। उसे अपने भविष्य को लेकर निराश होने लगी है। डाक्टर पति जानबूझ कर मिडियेशन सेन्टर और अपनी पत्नी की उपेक्षा कर रहा है। मिडियेटर सबकुछ समझते हुये भी डाक्टर पति के विरूद्ध कोई कार्यवाही न कर पाने में अपने आपको असहाय पाते है।

सर्वोच्च न्यायालय के मिडियेशन सेन्टर के समक्ष एम.बी.ए. दम्पत्ति के वैवाहिक विवाद मे कई दिनों की लम्बी बातचीत और मिलने जुलने के समुचित अवसर मिलने के बाद आपसी समझौता हो गया। समझौते के तहत पत्नी पति के साथ दाम्पत्य सम्बन्धो के निर्वहन के लिये कानपुर आ गयी। कई महीने पति के साथ रही परन्तु इस दौरान पति जानबूझकर पत्नी को अपमानित करने के लिये सहवास के अवसरो को नजरन्दाज करता रहा। एक भी दिन पत्नी के प्रति आत्मीय नही हुआ और सदैव उसे उत्पीडित करता रहा। मजबूरन पत्नी मायके लौट गई। पति के माता पिता दोनो की गलतफहमियों को दूर कराने के लिये तैयार नही है। पत्नी के माता पिता का पति सम्मान नही करता इसलिये वे अपने आपको असहाय पाते है। मिडियेशन सेन्टर भी इस प्रकार के विवादो में खुद को असहाय पाता है। उसके पास दोषी व्यक्ति को चिन्हित करके उसके विरूद्ध कार्यवाही करने की अनुशंशा करने का भी अधिकार नही है।

वैवाहिक विवादो को सुलझाने में बुआ, मौसी, चाची की भूमिका महत्वपूर्ण हुआ करती थी। वे एक दूसरे के स्वभाव  और उसकी पारिवारिक पृष्ठिभूमि से सुपरिचित रहती थी इसलिये उन्हे विवाह के बाद दोनो परिवारो के बीच सामन्जस्य बिठाने मे आने वाली कठिनाइयो का ज्ञान होता था और वे एक दूसरे पर नैतिक दबाव बनाकर विवाद सुलझा दिया करती थी। आज युवा दम्पत्तियो पर परिवार या समाज का नैतिक प्रभाव समाप्त हो गया है। किसी को मनाने या किसी की बात मानने का माहौल नही है इसलिये मिडियेशन सेन्टर की भूमिका बढ गयी है और उसे ज्यादा प्रभावी किये जाने की जरूरत है।

मिडियेशन सेन्टर के समक्ष आपसी बातचीत के दौरान दोषी पक्षकार चिन्हित हो जाता है। स्पष्ट हो जाता है कि दोषी कौन है? इसलिये मिडियेटर को अपने समक्ष संदर्भित विवाद पर एक विस्तृत रिपोर्ट भेजने का अधिकार दिया जाना चाहिये। रिपोर्ट मे सुनवाई के लिये नियत तिथियो की संख्या, उन तिथियों पर पक्षकारों की उपस्थिति, आपसी सुलह समझौते मे पक्षकारो की व्यक्तिगत रूचि अरूचि और उनके द्वारा किये गये सहयोग या असहयोग का स्पष्ट उल्लेख किया जाना चाहिये ताकि न्यायालय को वैवाहिक विवाद का न्यायपूर्ण समाधान करने मे सहायता प्राप्त हो सके और कोई पक्षकार मिडियेशन सेन्टर का अनुचित सहारा लेकर दूसरे पक्षकार को प्रताडित करने में सफल न हो सके।


Sunday, 18 January 2015

पश्चिम उत्तर प्रदेश में हाई कोर्ट की बेन्च लोगो की जरूरत है

पिछले कई वर्षो से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हाई कोर्ट की बेन्च स्थापित करने के लिये वहाॅ के अधिवक्ता आन्दोलनरत है। उनकी माॅग को दृष्टिगत रखकर केन्द्रीय मन्त्री श्री रविशंकर प्रसाद ने विधि मन्त्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री डा0 डी.वाई.चन्द्रचूड को पत्र लिखकर बेन्च की स्थापना बाबत उच्च न्यायालय की राय माॅगी थी। इसके पूर्व मनमोहन सरकार के विधि मन्त्री कपिल सिब्बल ने भी इसी आशय का पत्र मुख्य न्यायाधीश को लिखा था परन्तु इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बेन्च की स्थापना के लिये राज्य सरकार की ओर से कोई प्रस्ताव न होने का बहाना बताकर अपनी राय देने से इन्कार कर दिया है जो किसी भी दशा में न्याय संगत नही है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हाई कोर्ट की बेन्च की स्थापना का इलाहाबाद के वकील पुरजोर विरोध कर रहे है। उनका विरोध आम जनता के व्यापक हितो और सस्ता,सहज और त्वरित न्याय पाने के अधिकार के प्रतिकूल है। उनका सम्पूर्ण विरोध निजी कारणो से आर्थिक स्वार्थ पर आधारित है। वे भूल जाते है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आम लोगो को अपने मुकदमो की पैरवी के लिये इलाहाबाद आने में कितनी असुविधाओं का सामना करना पडता है। 
यह सच है कि उत्तरी कर्नाटक के जिलो की बंगलूरू स्थित हाई कोर्ट से दूरी के आधार पर एक अन्य पीठ गठित करने के लिये दाखिल याचिका को सर्वाेच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया है। अपने इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा था कि कोई वादी अपने घर के पास हाई कोर्ट होने के मौलिक अधिकार का दावा नही कर सकता। दूरी एक पहलू हो सकती है लेकिन सिर्फ दूरी के आधार पर फैसला नही किया जा सकता। यह फैसला अपनी जगह है उसके गुणदोष पर टिप्पणी किये बिना कहा जा सकता है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मामले में सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला सुसंगत नही है और न इस आधार पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हाई कोर्ट की बेन्च बनाने से इन्कार किया जा सकता है क्योकि उत्तर प्रदेश में पहले से लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक बेन्च है और इन दोनो बेन्चो के लिये एक ही मुख्य न्यायाधीश और एक ही महाधिवक्ता होने के कारण कामकाज की गुणवक्ता पर किसी प्रकार का कोई दुष्प्रभाव नही पड रहा है। सभी काम सुचारू रूप से जारी है और कहीं कोई विवाद भी नही है।
इलाबाद उच्च न्यायालय द्वारा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खण्ड पीठ की स्थापना के लिये अपनी राय देने से इन्कार किये जाने पर इलाबाद के अधिवक्ताओं ने विजय जलूस निकाला और अपनी कई दिन पुरानी हडताल को भी समाप्त कर दिया है। इलाहाबाद हाई कोर्ट बार एसोसिएशन ने निर्णय लिया है कि “एक प्रदेश एक हाई कोर्ट” का आन्दोलन जारी रहेगा और राजनेताओ और नागरिको से सम्पर्क बनाये रखकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अधिवक्ताओं की माॅग के विरोध में माहौल बनाये रखा जायेगा।
राजीव गाॅधी के कार्यकाल में केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों की संख्या को दृष्टिगत रखकर केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण की बेन्च कानपुर नगर में बनाये जाने का प्रस्ताव किया गया था और नेटिफिकेशन के अतिरिक्त अन्य सभी औपचारिकतायें पूरी कर ली गयी थी परन्तु इलाहाबाद के अधिवक्ताओं के विरोध और वहाॅं के तत्कालीन सांसद श्री अमिताभ बच्चन के प्रभाव-दबाव में तत्कालीन सरकार ने केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकण की बेन्च इलाहाबाद में ही स्थापित कर दी थी जिसका कानपुर के अधिवक्ताओं ने पुरजोर विरोध किया और कई वर्षो तक लगातार विरोध स्वरूप प्रत्येक शनिवार को न्यायिक कार्य का बहिस्कार करते रहे है। सभी जानते है कि केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण के समक्ष सबसे ज्यादा मुकदमें कानपुर नगर में उत्पन्न विवाद से सम्बन्धित मुकदमें दाखिल होते है। कर्मचारियों को न्याय पाने के लिये अधिक धन और समय व्यय करना पडता है। आम कर्मचारियों के हित में न्यायाधिकरण को कानपुर स्थापित किया जाना जरूरी था परन्तु राजनैतिक दवाब ने कानपुर को उसके विधिपूर्ण अवसर से वंचित कर दिया।
सभी जानते है कि इलाबाद के अधिवक्ताओं की जिद के कारण बरेली, आदि जिलों के लोगों को न्याय पाने के लिये लखनऊ होकर इलाहाबाद जाना पडता है। कोई औचित्य इन लोगो को इलाहाबाद बेन्च के क्षेत्राधिकार के साथ सम्बद्ध रखने का कोई औचित्य नही है। इससे आम लोगो को परेशानी होती है और आर्थिक क्षति का शिकार होना पडता ह।
आम लोगो को सस्ता, सहज और त्वरित न्याय उपलब्ध कराना केन्द्र और राज्य दोनों सरकारो का संवैधानिक दायित्व है और इस दायित्व की पूर्ति न्याय क्षेत्र में इलाहाबाद के अधिवक्ताओं के एकाधिकार को सीमित करके ही की जा सकती है। मेरठ, गाजियाबाद, बुलन्दशहर, सहारनपुर, ललितपुर, झांसी, कुशीनगर, देवरिया, के आम वादकारियों को इलाहाबाद आने में किन कठिनाईओं और आर्थिक समस्याओं का सामना करना पडता है के मुद्दे पर कोई सरकार, इलाहाबाद हाई कोर्ट बार एसोशियेशन या उत्तर प्रदेश बार काउन्सिल विचार करने या उस पर पारसपरिक सहमति बनाने के लिये तैयार नही है। सभी इस मुददे पर मौन हैं और उन सब को मालूम है कि अतिशीध्र पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक अतिरिक्त बेन्च की स्थापना को लेकर कोई सकारात्मक निर्णय नही लिया गया तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अधिवक्ताओं और इलाहाबाद के अधिवक्ताओ के बीच वैमनस्यता स्थायी हो जावेगी जो अन्तः सम्पूर्ण राष्ट्र और समाज के लिये हितकर नही है।
इलाहाबाद में उच्च न्यायालय, केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण और आयकर अपीलीय अधिकरण स्थापित होने के कारण जनपद न्यायालयों के कई प्रतिभाशाली युवा अधिवक्ता इन न्यायालयों में वकालत करने के अवसर से वंचित हो जाते है। केन्द्र सरकार ने केन्द्रीय औद्योगिक न्यायाधिकरण की स्थापना कानपुर नगर में की है और यह अदालत आम कर्मचारियों के व्यापक हितों को दृष्टिगत रखकर उनके मुकदमों की सुनवाई कानपुर से बाहर जाकर उनके जिलों में करती है। इस अदालत के लिये कानपुर से बाहर गैर जनपदों में सुनवाई करना आम बात है। सरकार की तरफ से कानपुर के अधिवक्ताओं को आश्वासन दिया गया था कि केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण की सर्किट बेन्च बनायी जायेगी जो इलाहाबाद से बाहर जाकर केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों के सेवा सम्बन्धी विवादो का निर्णय करगी परन्तु आज तक इस दशा में कोई सार्थक पहल नही की गयी है। जिसके कारण कानपुर के लोग अपने को ठगा सा महसूस करते है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उच्च न्यायालय की एक अतिरिक्त बेन्च बनाने में यदि वास्तव में कोई संवैधानिक बाधा है तो उच्च न्यायालय या सरकार की ओर से सर्वजनिक स्पष्टीकरण दिया जाना चाहिये और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अधिवक्ताओ को विश्वास में लेकर इलाहाबाद में बेन्च होने के कारण उनकी न्यायपूर्ण कठिनाईओं के समाधान का विकल्प तलाशा जाना चाहिये। उच्च न्यायालय की अतिरिक्त बेन्च की माॅग को लेकर प्रदेश के अलग अलग क्षेत्रों के अधिवक्ताओं के मध्य बढती वैमनश्यता को खतम कराया जाना केन्द्र और राज्य दोनों सरकारों  की प्राथमिकता होना चाहिये। केन्द्र और राज्य सरकार को इस म ुददे पर एक दूसरे पर दोषारोपण करने के अवसर खोजने के बजाए सर्वसम्मत राय बनाने की दिशा में सकारात्मक पहल करनी चाहिये। केन्द्रीय औद्योगिक न्यायाधिकरण की तर्ज पर यदि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सप्ताह में एक दिन इलाहाबाद के बाहर जाकर सुदूर क्षेत्रों मेें मुकदमों की सुनवाई करे तो आम लोगों को राहत मिलेगी और सस्ता, सहज और त्वरित न्याय पाने का सपना भी साकार हो सकेगा। 

Monday, 12 January 2015

अदालतों में सरकार नही माॅगेगी स्थगन

मोदी सरकार के कैबिनेट सचिव ने अपने अधीनस्थ सभी विभागों को विभिन्न न्यायालयों के समक्ष सरकार की ओर से या सरकार के विरूद्ध दाखिल मुकदमों में सरकार के हितो का प्रभावी तरीके से बचाव करने और विशेष परिस्थितियों में अपवाद स्वरूप ही स्थगन प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करने का निर्देश जारी किया है। इन नये निर्देशों में विभागो के सचिवों को हिदायत दी गयी है कि वे खुद अदालती मामलों की निगरानी करें और एस.एम.एस आदि इलेक्ट्रानिक साधनों के द्वारा शासकीय अधिवक्ताओं के साथ नियमित सम्पर्क बनाये रखें। सरकार का मानना है कि स्थगन प्रार्थना पत्रों के कारण समय पर लिखित कथन या आपत्ति प्रस्तुत करने में सरकार की क्षमता और योग्यता पर बेवजह सवाल खडे होते है जो किसी भी दशा में हितकर नही है। महत्वपूर्ण मामलों में जहाॅ पूर्व सरकार की ओर से शपथ पत्र दिये गये है, उनकी समीक्षा करने और उनमें नई परिस्थितियों और नई सरकार के विचारों के अनुरूप आवश्यक बदलाव किये जाने का भी निर्देश जारी किया गया है। 
पूर्व केन्द्रीय विधि मन्त्री श्री वीरप्पा मोइली ने अपने कार्यकाल के दौरान वर्ष 2010 में नेशनल लिटिगेशन पाॅलिसी जारी की थी और उसमें भी इसी प्रकार के निर्देश जारी किये गये थे परन्तु विभागो के स्तर पर अदालती कार्यवाही की पैरवी में किसी प्रकार का कोई बदलाव नही किया जा सका। परिस्थितियां ज्यों की त्यों बनी हुयी है। साधारण मामलों में भी अदालत के हस्ताक्षेप के बिना किसी नियम को लागू करने में सरकारी अधिकारियों के अनिर्णय के कारण सरकार अनावश्यक मुकदमें बाजी को आमन्त्रित करती है। विधि आयोग ने अपनी 145वीं रिपोर्ट में साधारण विवादों पर सरकार की ओर से की जा रही मुकदमें बाजी को रोकने की अनुसंशा की है। सुखदेव सिंह बनाम भगत राम सरदार सिंह रघुवंशी (1975-1-एस.सी.सी-421) में सर्वेच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने भी साधारण मामलों में भी सरकार द्वारा की जा रही मुकदमें बाजी पर चिन्ता जतायी थी।
न्यायालयों के समक्ष लम्बित मुकदमों के अम्बार को कम करने के लिये विभिन्न स्तरो पर स्पेसिफिक विवादो के त्वरित निस्तारणो ंके लिये न्यायाधिकरणो का गठन किया गया है और अपेक्षा की गयी थी कि सरकार न्यायाधिकरणों के फैसलो के विरूद्ध विशेष परिस्थितियों में अपवाद स्वरूप ही अपील दाखिल करेगी। नई लिटिगेशन पाॅलिसी में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि सेवा सम्बन्धी विवादों में केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण द्वारा पारित आदेशो के विरूद्ध उन्हे अपास्त कराने के लिये सरकार अपील नही करेगी। अपील केवल उसी दशा में की जायेगी जब न्यायाधिकरण का फैसला सेवा शर्तो के प्रतिकूल हो और उससे नीतिगत विषयों पर दुष्प्रभाव की गम्भीर आशंका हो परन्तु अनुभव बताता है कि विभागीय स्तर पर प्रत्येक फैसले के विरूद्ध अपील दाखिल करना अधिकारियों का प्रिय सगल है जबकि सर्वेच्च न्यायालय ने हरियाणा डेयरी डेवलपमेंट कोआॅपरेटिव फेडेरेशन लिमिडेट बनाम जगदीश लाल (2014-1-सुप्रीम कोर्ट केसेज- एल एण्ड एस- 487) में पारित अपने निर्णय के द्वारा रूपया 8724/- के भुगतान के विवाद में सरकार की तरफ से सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल करने पर अप्रसन्नता व्यक्त की और मुकदमें के सम्पर्ण व्यय की कटौती प्रबन्ध निदेशक के वेतन से करने का निर्देश जारी किया है। इस सबके बावजूद सरकारी अधिकारियों के रवैये में कोई परिवर्तन नही आया है।
सरकार आम लोगो को अपने आपसी विवाद सुलह समझौता के द्वारा सुलझाने की सलाह देती है परन्तु अपने मामलों में वह खुद इस नियम का पालन नही करती। सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत 90 दिन के अन्दर लिखित कथन दाखिल करने की अनिवार्यता लागू हो जाने के बावजूद सरकार किसी एक मामले में भी नियत अवधि के अन्दर लिखित कथन दाखिल नही करती और महीनों किसी न किसी बहाने सुनवायी स्थगित कराती रहती है। बताया जाता है कि मुख्यालय या उच्चाधिकारियों का अनुमोदन लिये बिना स्थानीय अधिकारी अदालतो के समक्ष विभागीय पक्ष प्रस्तुत नही कर सकते और अनुमोदन कभी समय से प्राप्त नही होता उसमें अनावश्यक देरी होती है। 
सरकार ने लिखित कथन आदि दाखिल करने में विलम्ब को कम करने और निर्धारित तिथि पर नियत कार्यवाही सुनिश्चित कराने के लिये नेशनल लिटिगेशन पाॅलिसी में नोडल अधिकारियों की नियुक्ति का प्रावधान किया है। नोडल अधिकारी दिन प्रति दिन की अदालती कार्यवाही पर नजर रखेगें और सुनिश्चित करायेगे कि विभागीय स्तर पर मुकदमों की पैरवी में किसी भी प्रकार की सिथिलता न होने पाये। नोडल अधिकारी विभाग और शासकीय अधिवक्ता के मध्य सेतु का काम करेगें। उसका दायित्व है कि वह शासकीय अधिवक्ता की माॅग और अपेक्षा पर सभी सुसंगत कागजात उपलब्ध कराये और अदालत के समक्ष प्रस्तुत की जाने वाली प्लीडिंग्स को नियत तिथि के पूर्व तैयार कराये ताकि नियत तिथि की क्रत कार्यवाही में सरकार को स्थगन प्रार्थना पत्र न प्रस्तुत करना पडें। मुकदमों की सुनवाई के दौरान प्रायः सरकार के विरूद्ध न्यायालय द्वारा कास्ट अधिरोपित की जाती है। इस प्रकार के मुकदमों की नियमित समीक्षा की जाये और कास्ट के लिये जिम्मेेदारी चिन्हित करके दोषी अधिकारी या अधिवक्ता के विरूद्ध कार्यवाही सुनिश्चित करायी जाये।
सरकार ने लिटिगेशन पाॅलिसी के तहत नोडल अधिकारियों को ज्यादा जिम्मेदारी दी है। उनसे अपेक्षा की गयी है कि वे सभी पक्षो के साथ सामन्जस्य बिठा कर मुकदमों की सुनवाई में विभागीय कमियों के कारण किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न नही होने देगें। वे मुकदमोे की प्रगति को माॅनीटर करेगे और उन मुकदमों पर विशेष ध्यान देगें जिनमें प्रायः किसी न किसी पक्षकार द्वारा स्थगन प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया जाता है। नोडल अधिकारी की जिम्मेदारी है कि वह विभागाध्यक्षों को स्थगन प्रार्थना पत्र के कारण से अवगत कराये और यदि कोई शासकीय अधिवक्ता विभागीय कमियों का बहाना बनाकर अपने कारणो से स्थगन प्रार्थना पत्र प्रस्तुत करता है तो उसकी सूचना सम्बन्धित अधिकारियों को दे ताकि दोषी अधिवक्ता के विरूद्ध कार्यवाही सुनिश्चित की जा सके। सरकार ने स्थगन के प्रश्न को गम्भीरता से लिया है और स्पष्ट कर दिया है कि यदि कोई शासकीय अधिवक्ता नियत तिथि पर अपेक्षित कार्यवाही सुनिश्चित नही कराता तो उसे उसके पद से हटा दिया जायेगा।
सरकार ने अपनी तरफ से दाखिल प्लीडिंग्स और काउन्टर्स की ड्राफ्टिंग की भाषा एवम शैली में भी सुधार की जरूरत बतायी है। सरकार ने कहा है कि वाद पत्र या याचिका तैयार करते समय ध्यान रखा जाये कि कोई बिन्दु दोहराया न जाये और सभी सुसंगत तथ्यों को बिन्दु वार प्रस्तुत किया जाये। सभी सुसंगत कागजातों की प्रति वाद पत्र या लिखित कथन के साथ प्रस्तुत की जाये ताकि मुकदमों के निस्तारण में अनावश्यक विलम्ब न हो। प्रायः देखा जाता है कि अन्तिम सुनुवाई के समय अदालत की लताड के बाद किसी सुसंगत कागजात को दाखिल न किये जाने की जानकारी प्राप्त होती है और उसके कारण सरकार को अपमानित होना पडता है।
नई लिटिगेशन पाॅलिसी में बिलम्ब से दाखिल की गयी अपीलो पर भी चिन्ता जताई गयी है। सरकार ने कहा है कि बिलम्ब माॅफ न हो पाने के कारण कई बार एकदम सही मामलों में भी सरकार के विरूद्ध निर्णय पारित हो जाते है। विलम्ब से अपीलें कई बार प्रक्रियागत कमियों के कारण और कई बार जानबूझ कर किसी को अनुचित लाभ पहुंचाने के दुराशय से दाखिल की जाती हैं इसलिये विभागाध्यक्षो को स्वंय सजग रह कर सुनिश्चित कराना होगा कि शासकीय अधिवक्ता को समस्त सुसंगत कागजात नियत अवधि के पूर्व उपलब्ध करा दिये जाये और यदि फिर भी अपील दाखिल करने में बिलम्ब होता है तो उसके लिये जिम्मेदारी चिन्हित करके विधि मन्त्रालय को सूचित किया जाये।
सर्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों के बीच भी लिटिगेशन आम बात हो गयी है। कोई न कोई प्रतिष्ठान अपने किसी उच्चाधिकारी के अहम की संतुष्टि के लिये किसी दूसरे प्रतिष्ठान के साथ मुकदमें बाजी में व्यस्त है। सरकार ने इस प्रकार की मुकदमेंबाजी को तत्काल प्रभाव से रोकने का निर्णय लिया है। इस प्रकार के आन्तरिक विवादों में कोई मुकदमा दाखिल करने के पूर्व प्रबन्घ निदेशक जैसे उच्चाधिकारी की अनुमति लेना अनिवार्य बना दिया गया है। प्रयास किया जायेगा कि उच्चस्तरीय विचार विर्मश करके उत्पन्न विवाद का समाधान निकाला जाये और यदि आपसी बातचीत के द्वारा विवाद निपट नही पाता तब भी कोई प्रतिष्ठान न्यायालय की शरण नही लेगा बल्कि आरबीट्रेशन एण्ड कन्शिलियेशन एक्ट या सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 89 का सहारा लेकर विवाद का निस्तारण करायेगा।
सरकार अपने विरूद्ध या अपनी ओर से दाखिल किये गये मुकदमों की पेन्डेन्सी को कम करके  15 वर्ष से 3 वर्ष की अवधि में लाना चाहती है परन्तु उसके प्रयासो को देखकर लगता है कि उसके द्वारा घोषित नीति अभी तक सदिच्छा से आगे नही बढ सकी है। जमीनी स्तर पर विभागीय अधिकारी कर्मचारियों की कमी का उलाहना देते रहते है और इसी कारण नोडल अधिकारियों की नियुक्ति की दिशा में अभी तक कोई सार्थक प्रयास नही किये जा सके है और न शासकीय अधिवक्ताओं के साथ विचार विमर्श की किसी नियमित प्रक्रिया का कोई तन्त्र विकसित किया गया है। भारतीय वायु सेना ने अपने स्तर पर शुरूआत से ही अपने मुकदमो की पैरवी के लिये लीगल पृष्ठभूमि के कर्मचारियों की नियुक्ति कर रखी है और उसका उन्हे लाभ मिलता है। भारतीय वायु सेना के मुकदमों में विभागीय कारणों से स्थगन की नौबत नही आती।