Sunday, 1 May 2016

मजदूर दिवस नहीं मजबूर दिवस




8सम्पूर्ण विश्व में आज मजदूर दिवस की धूम है। कल मजदूर दिवस की पूर्व संध्या पर आल इण्डिया टेªड यूनियन काँग्रेस ( इण्टक ) के बैनर तले मुझे उनके आन्दोलनो में योगदान के लिए सम्मानित किया गया है। विश्व के अन्य देशों की जानकारी मुझे नहीं है परन्तु अपने भारत में मजदूरों की दशा नित्य प्रति दयनीय होती जा रही हैं उन्हें यूनियन के रूप से संघटित होने और अपने कमाये वेतन के भुगतान के लिए भी अदालतों का सहारा लेने के लिए मजबूर होना पड़ता है। सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में भी मजदूरों को उनके विधिपूर्ण अधिकारों से वंचित रखने की साजिश रची जाने लगी है जो लो कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के प्रतिकूल है।

अपने कानपुर में सबसे पहली मजदूर यूनियन की नींव कपड़ा मिल के मजदूर पण्डित कामदत्त ने वर्ष 1918 में रखी थी जबकि राष्ट्रीय स्तर पर पहली अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन काँग्रेस की स्थापना सन् 1920 में हुई थी अर्थात कानपुर ने ट्रेड यूनियन के क्षेत्र में सम्पूर्ण भारत को एक दिशा दी थी। वेतन में बढ़ोत्तरी और अपनी यूनियन को मान्यता दिये जाने की माँग को लेकर जुलाई 1937 में कानपुर की एक ब्रिटिश स्वामित्व वाली कपड़ा मिल में मजदूरों की हड़ताल, मजदूर आन्दोलन का शानदार उदाहरण है। इस आन्दोलन को सफल बनाने के लिए उस समय के कम्यूनिष्टों, सोशलिस्टो और स्थानीय काँगे्रस कमेटी ने सक्रिय भूमिका निभाई और उसके परिणाम स्वरूप कानपुर और आस पास के इलाकों में आम हड़ताल का माहौल हो गया। इस हड़ताल के दबाव में तत्कालीन संयुक्त प्रान्त ( उत्तर प्रदेश ) की सरकार को श्री राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में एक जाँच समिति का गठन करना पड़ा और फिर मजदूरों की कई माँगों को स्वीकार भी किया गया। कानपुर की इस हड़ताल ने सम्पूर्ण भारत में मजदूरों के संघर्ष के लिए माॅडल का काम किया और इसने साम्राज्यवादियों की चूलें हिला दी थी और उससे स्वतन्त्रता आन्दोलन को भी ताकत मिली परन्तु आज कानपुर का टेªड यूनियन आन्दोलन जुझारू नेतृत्व के अभाव में दम तोड़ रहा है। 
कपड़ा मिलों की बन्दी के बाद अब कानपुर में ” हर जोर जुल्म के टक्कर मे संघर्ष हमारा नारा है “ ” दम है कितना दमन में तेरे देख लिया और देखेंगे “ का उद्घोष नहीं सुनाई पड़ता। दादा नगर आदि इण्डस्ट्रियल क्षेत्रों में अब मजदूरांे के लिए सभा करना सपना जैसा हो गया है। अभी कुछ ही महीने पहले लोहिया स्टार लिंगर के गेट पर सभा करने का प्रयास कर रहे सीटू कार्यकर्ताओं को स्थानीय पुलिस ने गिरफ्तार करके जेल भेज दिया था और प्रबन्धकों ने टेªड यूनियन कार्यकर्ताओ को नौकरी से हटा दिया परन्तु हम कानपर के लोग इस असंवैधानिक कार्यवाही के विरुद्ध कोई आन्दोलन खड़ा नहीं कर सके। इस सबके कारण असंघटित क्षेत्र के मजदूरों का शोषण तेजी से बढ़ा है और अघोषित रूप से 8 घण्टे की जगह 12 घण्टें का कार्य दिवस हो गया है और अवकाश अधिकार स्वरूप नही सेवायोजक की कृपा पर मिलता है। मजदूरों के अनवरत संघर्ष और बलिदान के बाद मिली सुविधाओ में शर्मनाक कटौती की जा रही है।

औद्योगिक विवाद अधिनियम का उल्लंघन करके किसी को भी नौकरी से हटा देना आम बात हो गयी है। औद्योगिक विवाद उत्पन्न होने पर कन्सिलियेशन के स्तर से उसे सरकार द्वारा श्रम न्यायालय के समक्ष न्याय निर्णयन हेतु संदर्भित करने में महीनो लग जाते है और इस दौरान मजदूर बेरोजगार हो जाता है। श्रम न्यायालयों के पास सेवायोजको के अनुचित आदेशों के विरुद्ध निषेधाज्ञा का अधिकार न होने के कारण मजदूरों को तत्काल कोई राहत नही मिलती और वे आर्थिक संकटों के चक्रव्यूह में फँसकर सेवायोजकों की मनमानी के सामने आत्मसमर्पण को मजदूर हो जाते है और फिर उसके बाद संघर्ष की सभी सम्भावनायंे स्वतः नष्ट हो जाती है। केन्द्र सरकार ने उपभोक्ता अदालतों को निषेधाज्ञा का हथियार थमाकर सेवा प्रदाताओं की मनमानी को रोकने की सराहनीय पहल की है। केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरणों को भी निषेधाज्ञा का अधिकार प्राप्त है परन्तु श्रम न्यायालय इस अधिकार से वंचित है ऐसी दशा में श्रम न्यायालयों को निषेधाज्ञा के अधिकार से वंचित रखने का कोई औचित्य समझ मंे नहीं आता। समय आ गया है कि कानपुर को एक बार फिर जुलाई 1937 जैसे सशक्त आन्दोलन का रूपरेखा बनानी होगी ताकि सरकार को मजबूर किया जा सके कि वह औद्योगिक न्यायालयों को भी निषेधाज्ञा का अधिकार प्रदान करंे।
मजदूरों को कभी कोई सुविधा किसी सेवायोजक या सरकार ने स्वेच्छा से नही दी है। मजदूरो को साधारण सुविधाओं के लिए भी संघर्ष करना पड़ा है और संघर्ष में कई लोगों के बलिदान के बाद सुविधायें प्राप्त हुई है परन्तु टेªड यूनियन आन्दोलन कमजोर हो जाने के कारण कानूनी संरक्षण प्राप्त सुविधाओ में भी कटौती की जाने लगी है। सरकार नियन्त्रित सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में संविदा श्रमिकों की बढ़ती संख्या इसका सबसे सशक्त उदाहरण है। कानून के तहत स्थायी प्रकृति के कार्यो को संविदा श्रमिकांे से नही कराया जा सकता        परन्तु सुरक्षा जैसा स्थायी प्रकृति का काम भी अब संविदा पर लिया जाना आम बात हो गयी है। श्रम विभाग भी इस विषय पर एकदम मौन है। वास्तव में सरकारी प्रतिष्ठानो से आदर्श नियोक्ता होने की अपेक्षा की जाती है परन्तु हुक्मरानों की उदासीनता के कारण सरकारी प्रतिष्ठान निजी क्षेत्र से ज्यादा बड़े शोषक हो गये है। तकनीकी कारणों का सहारा लेकर कर्मचारियों को उनके विधिपूर्ण अधिकारों से वंचित रखने की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ी है। सरकारी  प्रतिष्ठान नेशनल सुगर इन्स्टीट्युूट मंे कई कर्मचारी 28 वर्ष पहले श्रम न्यायालय से मुकदमा जीत गये थे परन्तु उन्हें आज तक नौकरी पर बहाल नहीं किया गया है और तकनीकी कारणों  पर उनका मामला अभी भी श्रम न्यायालय के समक्ष लम्बित है।
भारत सरकार के स्वामित्व वाली कानपुर की लाल इमली के श्रमिकांे को कई महीनों से वेतन नहीं दिया गया है परन्तु राज्य या केन्द्र सरकार ने समुचित कानूनी प्रावधान होने के बावजूद प्रबन्धकांे के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की है। सरकारी प्रबन्धतन्त्र को वेतन न मिलने के कारण मजदूरों की आर्थिक परेशानियो की कोई चिन्ता नहीं है परन्तु उन्होंने अपनी पूरी ताकत वेतन की माँग कर रहे मजदूरों के आन्दोलन को कुचलने में झोंक दी है। प्रबन्धतन्त्र ने सिविल जज सीनियर डिवीजन के न्यायालय में मुकदमा दाखिल करके मिल परिसर के आस पास श्रमिकों को एकत्र होेने से रोकने की माँग की है। सबको पता है सरकार भी जानती है कि सभा सम्मेलन करना मौलिक अधिकार है और इस पर रोक नही लगाई जा सकती परन्तु केन्द्र सरकार ने इस आशय की रोक लगाने की माँग करने का दुस्साहस करने वाले अपने अधिकारियों के विरुद्ध कोेई कार्यवाही नहीं की है।
लाल इमली जैसे संघटित क्षेत्र में मजदूरों की इस दशा को देखकर सुस्पष्ट हो जाता है कि घरों में काम करने वाली घरेलू नौकरानियो, रिक्शाचालकों, भवन निर्माण श्रमिकों और ठेले पर माल ढ़ोकर जीवन यापन करने वाले कामगरों को सरकार की तरफ से कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं दी गयी है। उन्हें उनके भाग्य पर भगवान भरोसे छोड़ दिया गया है। 

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