पिछली 2 सितम्बर को राष्ट्रव्यापी हड़ताल ने श्रमिकों के अपर्याप्त वेतन के प्रति आम लोगों का ध्यान आकृष्ट किया है हलाँकि केन्द्र सरकार अकुशल और गैर कृषि श्रमिकों के न्यूनतम वेतन में 42 प्रतिशत वृद्धि का ढ़िढ़ोंरा पीट रही है। 44वें संविधान संशोधन के द्वारा अनुच्छेद 38 में एक खण्ड जोड़ा गया है और उसमें प्रावधान है कि राज्य, विशिष्टतया, आय की असमानताओं को कम करने और व्यक्तियों के बीच तथा विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुये लोगों के समूहों के बीच प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा। 246 रुपये से 350 रुपये प्रतिदिन की वेतन वृद्धि किसी भी दशा में आम श्रमिकों के बीच आय की असमानता कम करने के लिए पर्याप्त नहीं है और ऊपर से इस बढ़ोत्तरी का लाभ केवल केन्द्र सरकार के अधीन आने वाले उपक्रमों के श्रमिकों को ही प्राप्त होगा। राज्य सरकार या निजी क्षे़त्र के प्रतिष्ठानों में इस बढ़ोत्तरी से श्रमिकों की आर्थिक दशा में कोई परिवर्तन नहीं होगा। उन्हें पहले की तरह केवल 246 रुपये प्रतिदिन की मजदूरी मिलेगी।
आजादी के तत्काल बाद 1948 में आयोेजित इण्डियन लेवर कान्फ्रेन्स में श्रमिकों के न्यूनतम वेतन के निर्धारण के लिए सुस्पष्ट मापदण्ड बनाये गये थे। कान्फ्रेन्स में सभी की राय थी कि एक श्रमिक को प्रतिदिन 2,700 कैलोरी भोजन, तन ढ़कने के लिए 72 यार्ड कपड़ा, कमरे का किराया, तेल, बिजली आदि न्यूनतम सुविधायें मिलनी ही चाहिये और इसकी पूर्ति के लिए तात्कालिक मूल्य सूचकांक के आधार पर वेतन निर्धारित किया जाना चाहिये। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय के तहत बच्चों की शिक्षा और श्रमिक परिवार की चिकित्सकीय जरूरतों के लिए उल्लिखित मापदण्डों के आधार पर निर्धारित वेतन में पच्चीस प्रतिशत अतिरिक्त बढ़ोत्तरी करने का आदेश पारित किया है। इण्डियन लेवर कान्फ्रेन्स और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित मापदण्डों के आधार पर एक श्रमिक को प्रतिमाह 26,000/- रुपया वेतन मिलना चाहिये परन्तु आजादी के बाद से आज तक किसी भी दल की सरकार ने श्रमिकों को जीवन जीने लायक वेतन देने की दिशा में कोई सार्थक पहल नहीं की है बल्कि आये दिन किसी न किसी बहाने श्रमिकों की सुविधाओं और उनके ट्रेड यूनियन अधिकारों की कटौती के लिए प्रयास जारी रखे है। भारत में श्रमिक चीन, कम्बोडिया, वियतनाम, बाँग्लादेश जैसे देशों की तुलना में ज्यादा काम करके कम वेतन पाता है। ग्रामीण और अर्धशहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी के कारण सेवायोजक अपनी शर्ताे पर श्रमिकों का वेतन निर्धारित करते है और खुद में असंघठित रहने के कारण श्रमिक जीवन जीने लायक वेतन दिये जाने के लिए सेवायोजक या सरकार पर समुचित दबाव नहीं बना पा रहे है।
कानून के तहत ठेका प्रथा समाप्त कर दिये जाने के बावजूद केन्द्र सरकार के उद्योगो में भी स्थायी प्रकृति के कार्य संविदा श्रमिकों से लिये जा रहे है और ठेकेदारो द्वारा श्रमिकों का उत्पीड़न आम बात हो गई है। खराब अस्वास्थ्यकर दशाओं में काम करने और कम वेतन के कारण आम श्रमिक और उनका परिवार बीमारी, कुपोषण और अशिक्षा का शिकार है। 350 रुपये प्रतिदिन पाने वाला चार लोगों का परिवार किन परिस्थितियों में अपना जीवन यापन करता है ? इस विषय पर अब संसद या विधान मण्डलों में चर्चा भी नहीं होती है। गरीबी, बेकारी, बीमारी और अशिक्षा जैसे सवाल आज अप्रासंगिक मान लिये गये है, इनकी चर्चा करने वालो को उद्योग विरोधी बताना फैशन हो गया है। भारत सरकार के लाल इमली धारीवाल जैसे प्रतिष्ठानों में अधिकारियों को सभी वेतन आयोगो की सिफारिशो का लाभ दिया गया है परन्तु श्रमिकों के वेतन में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की गई है। लगता है कि सरकारों ने मान लिया है कि सम्मान जनक जीवन जीने लायक सुविधाओं से वंचित रहना श्रमिकों के भाग्य में लिखा ही नहीं है इसीलिये 246 रुपये से 350 रुपये की बढ़ोत्तरी का ढ़िढ़ोरा पीटने में उसे कोई शर्म नहीं आई।
आजादी के तत्काल बाद वर्ष 1948 मे केन्द्र सरकार ने न्यूनतम वेतन अधिनियम पारित किया था परन्तु वेतन निर्धारण का अधिकार राज्य सरकारों में निहित हो जाने के कारण इस अधिनियम को उसकी भावना के अनुरूप लागू करने का कभी किसी ने कोई प्रयास नहीं किया। सभी की रुचि श्रमिकों को झुनझना पकड़ाने में रही है और सभी ने इस काम से बखूफी किया है। समय की माँग है कि न्यूनतम वेतन अधिनियम में संशोधन करके सुनिश्चित किया जाये कि किसी भी प्रतिष्ठान में एक समान कार्य के लिए वेतन आदि सुविधाओं के मामलों में संविदा श्रमिक और नियमित श्रमिक के मध्य का अन्तर समाप्त हो जाये और संविदा श्रमिकों को एक समान कार्य के लिए नियमित कर्मचारियों की भॉति वेतन आदि सभी सुविधायें दिलायी जायें।
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