Sunday, 25 September 2016

पुलिस सुधार राजनेताओं की प्राथमिकता नहीं


पुलिस सुधारों पर उत्तर प्रदेश के पूर्व डी.जी.पी. श्री प्रकाश सिंह की याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय में 22 सितम्बर 2006 को निर्णय पारित किया था। इस दौरान दस वर्षो का लम्बा अन्तराल बीत गया परन्तु सभी राज्य सरकारों ने पुलिस सुधार की दिशा में केवल खानापूरी की है, कोई सार्थक बदलाव नहीं किया है जबकि इस दौरान न्यायमूर्ति थामस समिति द्वारा पुलिस सुधारों के प्रति राज्य सरकारों की उदासीनता पर चिन्ता व्यक्त करने और न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा समिति द्वारा सर्वाेच्च न्यायालय के फैसले के अनुपालन को जरूरी बताने का भी राज्य सरकारों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। महानिदेशक स्तर के अधिकारियों से दिहार्ड़ी मजदूरों की तरह काम लेने की प्रवृत्ति आज जारी है। सर्वोच्च अदालत के फैसले के बाद आशा बँधी थी कि पुलिस के कार्य, व्यवहार एवं आचरण मंे बदलाव आयेगा परन्तु ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि पिछले दस वर्षो में पुलिस राजनेताओं और अपराधियों का गठजोड़ पहले की तुलना में ज्यादा मजबूत हुआ है।  
             इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने काफी पहले पुलिस को संगठित अपराधियों का सरकारी गिरोह बताया था। इस टिप्पणी के वर्षो पहले ब्रिटिश शासनकाल के दौरान वर्ष 1902 में गठित आयोग ने भी पुलिस को एक भ्रष्ट और दमनकारी संस्था बताया था। आजाद भारत में भी राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने पुलिसिया व्यवस्था में सुधार के लिए विस्तृत रिपोर्ट केन्द्र सरकार को दी है। राजनेताओं की अनिच्छा के कारण इस आयोग की रिपोर्ट चर्चा परिचर्चा से आगे नहीं बढ़ सकी। 
यह सच है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद पिछले दस वर्षो में 17 राज्य सरकारों ने अपने नये पुलिस अधिनियम बना लिये है। नये अधिनियम किसी सार्थक बदलाव की मंशा से नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को लागू न करने के दुराशय से बनाये गये हैं। किसी राज्य सरकार ने आज तक कानून व्यवस्था एवं विवेचना को अलग अलग इकाई के रूप विभाजित करने की दिशा में कुछ भी नहीं किया है जबकि सभी इसकी आवश्यकता महसूस करते है। पिछले दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने प्रदेश सरकार को विवेचना की अलग इकाई बनाने का निर्देश दिया है। प्रदेश सरकार ने इस निर्देश का अनुपालन नहीं किया बल्कि उसके विरुद्ध उसे अपास्त कराने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष याचिका दाखिल करके एक जरूरी काम को करने में अपनी अरुचि का प्रदर्शन किया है। 
           सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले के अनुपालन के लिए वर्ष 2008 में न्यायमूर्ति थामस की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। इस समिति ने दो वर्षो तक अध्ययन करने के बाद आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा था कि सभी राज्य सरकारें पुलिस सुधारों के प्रति उदासीन है। दिल्ली में निर्भया काण्ड के बाद केन्द्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा की अध्यक्षता में महिलाओं के प्रति अपराधों से सम्बन्धित कानूनों को सख्त बनाने के लिए एक समिति का गठन किया था। न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा समिति की रिपोर्ट के आधार पर केन्द्र सरकार ने दण्ड विधि (संशोधन) अधिनियम 2013 पारित किया जो लागू भी कर दिया गया है। इस अधिनियम में प्रावधान है कि जब जाँच या विचारण भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन किसी अपराध से सम्बन्धित हो, तब जाँच या विचारण यथासंभव आरोप पत्र फाइल किये जाने की तारीख से दो मास की अवधि के भीतर पूरा किया जायेगा। इसी प्रकार के कई अन्य क्रान्तिकारी प्रावधान इस अधिनियम में किये गये है परन्तु थानों में इस संशोधन अधिनियम के आधार पर पुलिस की कार्यशैली में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। पीड़िता का मेडिकल चेकअप कराने और मजिस्ट्रेट के समक्ष दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 164 के तहत उसका बयान दर्ज कराने और फिर आरोप पत्र दाखिल करने की मनमानी प्रक्रिया आज भी जारी है। 
            मोदी, नितीश, लालू, मुलायम सभी ने आपातकाल के दौरान पुलिसिया अत्याचार झेले है। पुलिस का दुरुपयोग उनकी भोगी पीड़ा है इसलिए माना जा रहा था कि ये सभी लोग अपने प्रभाव क्षेत्र में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का अनुपालन सुनिश्चित करायेंगे परन्तु काँग्रेसी नेताओं की तरह ये सभी लोग भी अब पुलिस को स्वायत्ता देने के लिए तैयार नहीं है और पुलिस अपना नियंत्रण बनाये रखना चाहते है इसलिए निकट भविष्य में पुलिस की कार्यशैली में बदलाव की कोई सम्भावना नहीं है।
     

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